tag:blogger.com,1999:blog-76768894375024551892024-03-16T11:53:00.218-07:00ज्ञानवाणीदिल दिमाग की रस्साकशीवाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.comBlogger246125tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-40866028940403336292023-07-19T04:56:00.005-07:002023-07-19T21:52:37.576-07:00पाँव के पंख- एक दृष्टि<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixmZiJ7f-snhJr0zsJ9FhrSyF_WOeyT8mMeGieWA8WvrxNSiaClkfj5nCR--PnHa3EaPs_rMHtqqzIizGacybYEgOvC-o2VmQyVmdHvfIe82q3rzplwEzTPq5GHBzOAXD92EDFBfD3y002pO5hFQfJARw3-hh0FCWjvGvjndkHtleBNvs_MDJk3KS0DlBp/s2783/IMG_20230719_171758.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2783" data-original-width="1585" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixmZiJ7f-snhJr0zsJ9FhrSyF_WOeyT8mMeGieWA8WvrxNSiaClkfj5nCR--PnHa3EaPs_rMHtqqzIizGacybYEgOvC-o2VmQyVmdHvfIe82q3rzplwEzTPq5GHBzOAXD92EDFBfD3y002pO5hFQfJARw3-hh0FCWjvGvjndkHtleBNvs_MDJk3KS0DlBp/s320/IMG_20230719_171758.jpg" width="182" /></a></div><div><br /></div><div><br /></div><div>पंख होते तो उड़ आती रे... कितनी सुंदर कल्पना है न. पाँव में ही पंख लग जाते तो उड़े चले जाते जागती आँखों से सपनों सी लगती वास्तविक दुनिया में भी. बिना पासपोर्ट बिना वीजा उड़ घूम आते एक देश से दूसरे देश. पर "पाँव के पंख" सचमुच ही लगे हैं इस पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय के जो जमीन पर रहते हुए पासपोर्ट और वीजा के सहारे विभिन्न देशों की यात्रा करती हैं और संजोती हैं सुंदर स्मृतियाँ न सिर्फ अपनी आँखों में बल्कि अपनी कलम के जरिये अपने पाठकों के लिए भी.</div><div><br /></div><div>किसी भी किताब का लिखना जितना कठिन है, उतना ही कुछ उसके लिए उपयुक्त शीर्षक खोजना भी है और इस संदर्भ में पुस्तक को न्याय मिला है. </div><div>शिखा की "पाँव के पंख "जैसा की शीर्षक से ही पता चलता है कि पुस्तक घुमक्कड़ी और उससे जुड़े संस्मरणों पर आधारित है.</div><div>ब्लॉग पढ़ने /लिखने के समय पुस्तक के कुछ हिस्से पढ़े हुए थे . उन्हें फिर से पढ़ना उस समय को लेखिका के साथ जुड़ना और जीना जैसा ही रहा. विभिन्न संस्कृतियों को जानने समझने के अपने शौक ने भी इस पुस्तक के प्रति अपनी रूचि को समृद्ध किया . </div><div>पूरी पुस्तक को एक ट्रै्वलॉग/गाइड या दर्पण माना जा सकता है जो देश/काल/समय की परीधियाँ लाँघ कर उस समय के साथ आपको जोड़ता है . लेखन इतना दिलचस्प जैसे कि आपके सामने ग्लोब को खोलकर फैला दिया गया हो और आप हैरी पॉटर की कहानियों के पात्र के सदृश जादुई कालीन के सहारे उस स्थान पर पहुंच जाते हैं.</div><div>पुस्तक की शुरुआत 2009 से होती है जब शिखा वेनिस जाती है. हम हिंदी फिल्मों के शौकीनों के लिए यह संभव ही नहीं कि वेनिस का नाम आये और अमिताभ-परवीन बाबी-और दो लफ्जों की है दिल की कहानी याद न आये. पढ़ा तो जाना कि कुछ ऐसी ही यादें संजोने का मन लेखिका का भी रहा इस यात्रा के दौरान.</div><div>आगे रोम और फ्रांस के वैभवशाली स्मारकों के साथ ही वहाँ के निवासियों के रहन सहन खानपान,अँग्रेजी भाषा के प्रति उनकी अरूचि को अपने संस्मरण के जरिये समझाती हैं. </div><div>चूँकि लेखिका लंदन में बस जाने वाली भारतीय हैं तो इंगलैंड के प्रसिद्ध शहरों और उनमें निर्मित संग्रहालयों विशेषकर साहित्यकारों की संजो कर रखी जाने वाली स्मृतियों को भी अपने संस्मरणों में संजोती हैं. इतना ही नहीं ब्रिटेन के गाँवों की भी सैर कराती हैं. </div><div>संस्मरणों में मेरा सबसे प्रिय भाग रहा स्पेन की यात्रा. शिखा ने बताया कि स्पेन में लड़कियों के पंदरह वर्ष की आयु होने पर युवावस्था की ओर बढ़ने को बाकायदा उत्सव की तरह मनाया जाता है. पढ़ते हुए ही मुझे अपने दक्षिण भारत में लड़कियों के पहले मासिक के बाद मनाये जाने वाले उल्लासपूर्ण उत्सव का स्मरण हुआ. सात समंदर पार भी एक जैसी परंपराओं का होना चकित करता है और दुनिया के गोल होने की पुष्टि भी. स्पेन में ही हम सबकी ही प्रिय एक और ब्लॉगर साथी पूजा से मिलना भी उल्लिखित रहा. </div><div>अपनी हालिया सेंटोरिनी द्वीप की यात्रा का उसके इतिहास और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हुए उनके खानपान, रहन-सहन का वर्णन भी काफी रोचक है. यात्रा में आने वाली परेशानियाँ और उनका समाधान ही पुस्तक की उपयोगिता साबित करता है.</div><div>कुल मिलाकर यह कहूँगी की घर बैठे विभिन्न देशों की संस्कृतियों को जानना/ समझना हो या फिर उन स्थानों की यात्रा पर जा रहे हों तो यह पुस्तक एक अच्छे गाइड का कार्य करेगी क्योंकि इसमें परिवहन के स्थानीय साधनों ( लोकल ट्रांसपोर्टिंग) से संबंधित भी काफी जानकारी उपलब्ध है.</div><div><br /></div><div>यात्रा के शौकीनों या उनसे जुड़े संस्मरणों के लिए यह रोचक पुस्तक बहुत ही वाजिब मूल्य पर अमेजन पर भी उपलब्ध है. </div><div><br /></div><div>मास्को (रूस)से पत्रकारिता की शिक्षा ग्रहण करने वाली शिखा वार्ष्णेय की "पाँव के पंख" से पहले भी दो यात्रा संस्मरण "स्मृतियों में रूस" और देशी चश्मे से लंदन डायरी" के अलावा काव्य संग्रह "मन के प्रतिबिंब" भी प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा कई पत्र-पत्रिकाओं में साप्ताहिक स्तंभ लिखती रही हैं. </div><div>मध्यप्रदेश सरकार के राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान को प्राप्त करने वाली शिखा विष्णु प्रभाकर सम्मान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी मीडिया सम्मान, जानकी वल्लभ शास्त्रीय सम्मान से भी सम्मानित हैं.</div><div><br /></div>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-22100678836896366172021-07-26T23:10:00.000-07:002021-07-26T23:10:35.926-07:00जीवन-माया <p> जब माँ थीं तब छोटी छोटी पुरानी चीजें सहेज लेने की उनकी आदत पर सब बहुत खीझा करते थे. अनुपयोगी वस्तुओं का अंबार हो जैसे... दादी तो खैर उनसे भी अधिक सहेज लेने वाली थीं.</p><p>पापा का खरीदा पहला बड़ा रेडियो, शटर वाली पुरानी टीवी, पुराने ड्रम ,बारिश के पानी में भीग कर फूली हुई चौकी, जंग खाये लोहे के बक्से , घिसा पिटा कूलर जाने क्या क्या.. </p><p>माँ की ढ़ेरों साड़ियाँ एक छोटा सा ढ़ेर जैसा इधर उधर बिखरी रहती थीं. रसोई में बरतन, कड़ाही आदि भी ज्यादातर पुराने घिसे, जले कटे ही रहते थे. </p><p>अचानक मेहमान के आने पर पुरानी मोच खाई गिलासें, अलग अलग साइज की कटोरियाँ , चिकनाई लगी ट्रे, छोटे चाय के कप ही काम में आते क्योंकि ऐन वक्त पर उनकी उस आलमारी या कमरे की चाबियाँ गुम रहती थीं. सूटकेस, पेटियों और दरवाजे के ताले तोड़े जाने के उदाहरण सैकड़ों में रहे होंगे, ऐसा लगता है मुझे. </p><p>मगर जब उनके आखिरी समय के बाद उनकी अस्थियों के साथ उनके कमरे की चाबी आई तो उनके कमरे का दरवाजा खोलती मैं दंग थी- कमरे में एक भी चीज बेतरतीब नहीं थी. सफर पर रवाना होने के समय बदलने वाली एक साड़ी के अतिरिक्त कुछ भी बिखरा हुआ नहीं था... सभी साड़ियाँ/वस्त्र आदि बहुत करीने से जमाये हुए आलमारी में थे.</p><p>माँ पर उनके बिखरे से साम्राज्य के लिए उन पर झुँझलाती रहने वाली मैं कितनी स्तब्ध हुई! </p><p>कितना अजीब खाली-खाली लगा मुझे , बता नहीं सकती शब्दों में... </p><p>मन करता रहा कि कहूँ माँ से कि यह बेतरतीबी ही तुम्हारा जीवन थी. समेट लेने को हम बेकार ही कहते रहे. </p><p>जिनके लिए थे उनके दुख, उनकी चिंताएं, उनका श्रम - उनका जीवन उनके बिना भी चल रहा और बहुत बेहतरीन चल रहा... </p><p>जैसे सब कुछ माया-सा था. जाने वाला अपने साथ सब समेट ले गया.... अपना जीवन, अपना दुख, अपनी चिंताएं!!</p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-86729996239173139752021-06-24T22:09:00.002-07:002021-06-24T22:09:55.529-07:00लक्ष्मण को आवश्यक है राम जैसा भाई...<p> रामायण /रामचरितमानस में श्रीराम द्वारा स्वयंवर की शर्त पूरी करने के लिए धनुषभंग करने के वृतांत से कौन परीचित न रहा होगा. धनुष तोड़ दिये जाने से क्रोधित ऋषि परशुराम के क्रोधित होने और राम के छोटे भ्राता लक्ष्मण का व्यंग्यपूर्वक उनका सामना करने/ढ़िठाई रखने का प्रसंग भी लोकप्रिय रहा है. बहुत समय तक दोनों के मध्य हुए वाद विवाद का पटाक्षेप होने के बाद ऋषि स्वयं नतमस्तक हुए . अपने से छोटा जानकर भी उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की.</p><p>क्या कारण रहा होगा कि अपने कुल की बड़ों को सम्मान देने की नीति का पालन करते हुए भी ऋषि के आगे वे तने ही रहे. स्पष्ट है कि मिथ्या अभिमान में बड़ों द्वारा अपमान/असम्मान किये जाने का प्रतिकार करने में कोई अपराध न समझा गया. यह अवश्य है कि ऋषि के क्रोध और लघु भ्राता के मध्य एक प्राचीर अथवा सेतु कह लें, राम धैर्यपूर्वक खड़े थे.</p><p>कई बार बुजुर्ग इसी प्रकार अपने मिथ्या अभिमान में अपने से छोटों के प्रति अकारण ही रोष प्रकट कर जाते हैं. और यदि उनसे छोटे अपनी सही बात पर अड़े रहकर प्रतिकार करने पर विवश हों तब उन्हें बड़ों/बुजुर्गों के असम्मान करने का दुष्प्रचार करते पाये जाते हैं. </p><p>देश/समाज/परिवार की वर्तमान परिस्थितियों में विभिन्न वैचारिक मतभेदों के मध्य में राम जैसे एक बड़े भाई का होना आवश्यक लगता है जो विनम्रता पूर्वक अपने बाहुबल का बखान कर लघु भ्राता लक्ष्मण के प्रतिकार को सहज मानकर आश्रय दे सके. वहीं दूसरे पक्ष को भी जता सके कि सिर्फ बड़े होने के कारण ही वे किसी के पूज्य नहीं हो सकते. उनके अपने कर्म ही उन्हें सम्मानित बना सकते हैं.</p><p><br /></p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-57433097583303360772021-06-10T04:01:00.003-07:002021-06-10T04:01:31.007-07:00विकट समय में स्वाभिमानी एवं स्वावलंबी के प्रति जवाबदेही किसकी....<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz2_fc6n4x5qDq9iZBln-D9Mc9pmTX7jKrE6aaIAbb6pnZDvOPq36E9wazq7EE0mYzQPllkQKS0ZaqzQlaSE0a6aojXlNT0ntZtGLdcaVUtMlbv_K5RBF_PbfwfBKOIxBZMLZkl1FUgaPz/s2048/IMG_20210610_162905.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1891" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz2_fc6n4x5qDq9iZBln-D9Mc9pmTX7jKrE6aaIAbb6pnZDvOPq36E9wazq7EE0mYzQPllkQKS0ZaqzQlaSE0a6aojXlNT0ntZtGLdcaVUtMlbv_K5RBF_PbfwfBKOIxBZMLZkl1FUgaPz/s320/IMG_20210610_162905.jpg" /></a></div><br /><p></p><p>लॉकडाउन शुरू होने के एक दो दिन पहले पतिदेव के पास एक अनजान व्यक्ति का फोन आया कि उसे अर्जेंट धन की आवश्यकता है. यह बहुत अप्रत्याशित था क्योंकि सामाजिक कार्यों में लिप्त होने के बावजूद कभी किसी अनजान व्यक्ति ने इस प्रकार की सहायता के लिए कभी आग्रह नहीं किया था . वह व्यक्ति बहुत ही परेशान लग रहा था. अपने बच्चे के इलाज के लिए एक अस्पताल के पास कमरा लेकर रह रहा वह व्यक्ति इस चिंता में दिन भर भटकने जैसी स्थिति में था कि घर पहुँचने पर बच्चे को क्या कहेगा कि आज उसके पास बाजार स कुछ भीे ले आने को पैसे नहीं थे. पतिदेव ने उन्हें हिम्मत बँधाई . उनका मूल पता पूछ कर सहायता करने का आश्वासन दिया. पता चला कि वह अपने गाँव में समृद्ध परिवार से रहे हैं परंतु पिछले एक वर्ष से भी लॉकडाउन/ कोरोना कर्फ्यू की अवधि में कुछ काम धंधा नहीं कर पाये हैं. उपर से बच्चे का इलाज चल रहा है. अगले ही दिन सख्त लॉकडाउन हुआ. उनका फिर से फोन आया . गूगल पे पर मौजूद नहीं होने के कारण उन्हें सहायता कैसे पहुँचाई जाये, यह भी बड़ी समस्या थी.</p><p>पतिदेव ने अपने सामाजिक मंच पर उनके लिए फंडरेज ( ) करने का सुझाव दिया परंतु उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया कि इससे गाँव में उनकी साख को बट्टा लग जायेगा. छल फरेब वाले इस समय में आश्चर्य और शंका होनी स्वाभाविक थी. हैरानी थी कि इस आपदकाल में भी वे साख की सोच रहे थे. हमने आपस में विमर्श किया तब एक स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए इस प्रकार की सोच उचित नहीं तो भी संभावित ही लगी. </p><p>खैर, जिस इलाके में वे रह रहे थे, पतिदेव ने एक दो परीचितों को फोन कर उन तक पहुँचने की अपील की. </p><p>इसी विमर्श के दौरान यह निष्कर्ष भी निकला कि इस कठिन समय में घर,गाड़ी, मोबाइल होने से ही किसी व्यक्ति के सम्पन्न होने का अंंदाजा नहीं लगाया जा सकता. रोज माँगकर ही अपना जीवनयापन करने वालों के सामने अधिक समस्या नहीं थी परंतु छोटे मोटे व्यापारियों, मेहनत कर रोज कमाई करने वालो,सीमित स्तर पर विद्यालय मालिकों, शिक्षकों , दूकानो पर कार्य करने वाले कर्मचारियों , मंदिरों में सेवा पूजा करने वाले सेवकों जैसे अनेकानेक समूहों के सामने बड़ी विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी. ये वे लोग थे जो अपनी मेहनत के दम पर समाज में अपनी ठीकठाक प्रतिष्ठा बनाये हुए थे. वे किसी के सामने हाथ फैला भी नहीं सकते थे. सरकार अथवा सामाजिक संगठनों की सहायता भी अत्यंत गरीब लोगों को ही उपलब्ध होती है. स्वाभिमानी निम्न मध्यवर्गीय इस प्रकार की सहायता नहीं ले सकता. जब सब कुछ ही बंद हो तो घर का कीमती सामान, गाड़ियाँ आदि बेचकर भी धन का इंतजाम नहीं कर सकता था. वैसे भी इस बार वाले विकट कोरोना समय में सहायता करने के लिए सरकार अथवा सामाजिक संगठनों की भूमिकाएं गायब सी ही रहीं . रोग के तेजी से फैलेा संक्रमण ने भी समाज समूहों को चपेट में लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ ही रखा. </p><p>हमारे देश/समाज में दान देने की परंपरा के बारे में हम जानते ही हैं. पक्षियों के एक परींडे, वृक्षारोपण में एक पेड़ उगाने, एक राशन किट के वितरण, एक चेक की मदद करते दर्जनों हाथ और अखबार में बड़ी तस्वीरें छपवा लेने को तत्पर हम लोग.</p><p>उधेड़बुन रही कि अपने सीमित संसाधनों जिसमें से पीएम रीलिफ फंड, मुख्यमंत्री सहायता कौश आदि में धन जमा करने के बाद भी ऐसे स्वाभिमानी लोगों की सहायता किस प्रकार हो कि उनको शर्मिंदा भी न होना पड़े. सबसे पहले अपने स्तर पर ही 20 राशन किट बनवाना तय किया और अपने सामाजिक मंच पर अपील की कि जिसको भी आवश्यकता है, वह फलाने नंबर पर संपर्क करे. उनका नाम पता सार्वजनिक किये बगैर उन तक सहायता पहुँचाई जायेगी . अन्य लोगों से भी अपील की कि वे अपने आसपास जरूरतमंदों के बारे में बतायें जो स्वयं हिचकिचा रहे हों. </p><p>जैसा कि होता रहा है दो चार लोग मजाक उड़ाने वाले होते हैं- ऐसे कौन आयेगा माँगने, पहले इनका तो उनका तो कर लो, आदि आदि</p><p>धीरे - धीरे सहायता माँगने के लिए फोन आने लगे और सहायता करने की चाह रखने वालों के भी. सहायता पहुँचाई जाती रही. पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि किसे सहायता की गई, उनका नाम पता नहीं बताया जायेगा, न कोई तस्वीर. बस एक शर्त थी कि जरूरतमंदों को अपने आधार कार्ड की कॉपी देनी होगी ताकि रिकार्ड रखा जा सके. जितनी जरूरत थी, उतनी ही सहायता ली गई. </p><p>आज के हालात में यह एक बहुत ही छोटा सा प्रयास था जबकि आवश्यकता बहुत अधिक करने की है विशेषकर स्वाभिमानी स्वावलंबी लोगों के लिए जो अचानक ही इन विकट परिस्थितियों से घिर गये हैं.</p><p> यहाँ साझा करने का आशय इतना सा है कि कुछ साझा नहीं करने का मतलब यह भी नहीं की कुछ किया नहीं जा रहा है.</p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-15125118422709626732021-06-05T01:11:00.003-07:002021-06-19T05:21:24.584-07:00खजांची बाबू का पेड़...<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXAxBVEYnhx4zvoIKeRuQIgaaG-B94l7tCbS8PJFb76fQRaa_SUmIQiVl1OrDKaTrTNebHjH6b7-9k3fgiED2hKJOaMhdCkQ1d8kNO98JXqpPSC-TV3bB4QbVUq_UJkmUZnUJ5TunB-aSQ/s1080/IMG-20170530-WA0369.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="809" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXAxBVEYnhx4zvoIKeRuQIgaaG-B94l7tCbS8PJFb76fQRaa_SUmIQiVl1OrDKaTrTNebHjH6b7-9k3fgiED2hKJOaMhdCkQ1d8kNO98JXqpPSC-TV3bB4QbVUq_UJkmUZnUJ5TunB-aSQ/s320/IMG-20170530-WA0369.jpg" /></a></div><br /><p></p><p>बिहार के एक छोटे से गाँव में थी हमारी आधुनिक कॉलोनी परंतु पर्यावरण के मापदंडों पर खरी उतरती. जैसेा सामान्य तौर पर घर होते थे - हर घर (मकान/झोंपड़ी कुछ भी हो) के बाहर बगीचा, बारामदा जहाँ आने वाला प्रत्येक अतिथि आराम पाता था, वहीं पड़ी बेंच पर बैठे सुबह अनूप जालोटा को चिड़ियों की चहचहाहट के बीच सुनते रहे थे. और उसके बाद भीतर बड़ा/छोटा सा आँगन जहाँ भरी सर्दियों में खटिया पर पड़े गुनगुनी धूप का आनंद लेते -दिल ढ़ूंढ़ता है फिर वही रात दिन की पृष्ठभूमि बनती थी.</p><p>गाँव के बाहर की टूटी फूटी सड़कों, कच्चे रास्तों के विपरीत कॉलोनी की अच्छी डामर वाली सड़कों के दोनों ओर आम, शहतूत, फालसा और खुद के घर में इलाहाबादी लाल अमरूद आदि के घने पेड़ होते थे ज गरमियों की भरी दुपहरी में भी हमें घर के भीतर आराम न लेने देते. </p><p>याद है मुझे सावधान करते सायरन की आवाज से कॉलोनी के बीच में बने मंदिर के पास इकट्ठा हुए थरथर काँपते बच्चे और चिंतातुर माताओं के चेहरे जो कॉलोनी के एक किनारे वाली दिवार के बाहर के हिस्से से रोने चिल्लाने की आ रही आवाजों से भयभीत थे. एक दो बार गोली चलने की आवाज भी सुन पड़ी थी. पता चला कि कहीं डाका पड़ रहा था. कॉलोनी के सभी पुरूष बाउंड्री के चारों ओर अलर्ट की मुद्रा में बंदूकें ताने सिक्योरिटी गार्ड के साथ खड़े दिख रहे थे. कुछेक घरों में सुरक्षा कारणों से संकलित छोटी पिस्तौल, लाठी, भाले आदि भी निकाल लिए थे. बात यह थी कि कॉलोनी के बाहर एक बस्ती में डाकूओं ने धावा बोल दिया था. </p><p>जैसे-तैसे शोर कम होने की आवाज सुनाई दी यानि डकैत अपना काम करके लौट गये थे. धीरे-धीरे सब लोग भी अपने घरों में लौट गये. कॉलोनी के बाहर घुप्प अँधेरों में किसी ने बाहर जाकर स्थिति का आकलन करना उचित नहीं समझा था. कई- कई दिनों तक बिजली रानी की और हमेशा के लिए पुलिस व्यवस्था के लापता रहने की बात आम ही थी वहाँ . उस डरावनी रात के गुजर जाने के बाद जब मालिक लोग अपने सिक्यूरिटी प्रबंधक व अन्य अफसरों के साथ कॉलोनी की सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने निकले तब उन्हें बाउंड्री की ऊँची दिवारों से लगे हुए उनसे भी कहीं बहुत ऊँचे वृक्षों को देखकर चिंता हुई. शंका थी कि उन पेड़ों की लंबी शाखाओं का सहारा लेकर चोर / डाकू कॉलोनी में कूद सकते थे. तय किया गया कि बाउंड्री से लगने वाले घने पेड़ों को काट दिया जाये. दुख तो सबको होना ही था पर सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से जरूरी भी था.</p><p>हमारे घर के पीछे वाली पंक्ति के मकानों के मुँह बाउंड्री की दीवार की तरफ थे और वहाँ लगे आम , फालसा आदि के बड़े पेड़ों पर भी उनका अधिकार- सा था. पेड़ काटते हुए मजदूर जब एक घर के सामने पहुँचे , उस घर की हट्टीकट्टी स्वामिनी बाहर निकल आईं और पेड़ के सामने हाथ फैला खड़ी हुईं. </p><p>मैं नहीं काटने दूँगी यह पेड़.</p><p>मजदूरों से होती हुई बात सिक्योरिटी अफसर पहुँच गईं पर माताजी न मानी तो नहीं ही मानी. पेड़ की रक्षा के लिए उसके नीचे खटिया बिछाकर बैठ गईं. सिक्योरिट अफसर के मार्फत मालिकों तक भी बात पहुँची होगी. वहीं से फरमान जारी हुआ किसी भी तरह समझा बुझा कर पेड़ काट देने का.</p><p>मजदूर कुल्हाड़ी उठाकर पहुँचे ही थे वृक्ष पर प्रहार करने की स्वामिनी की दर्द भरी आवाज गूँजी- इस पेड़ को काटोगे मतलब खजांची बाबू (उनके पति इसी नाम /काम से पहचाने जाते थे ) को काटोगे. </p><p> वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सन्न रह गया. मजदूरों के हाथ भी न उठें और उस पूरी पंक्ति में सिर्फ एक पेड़ जीवनदान पाकर वर्षों झूमता रहा, फल देता रहा. बहुत बाद में खजांची बाबू न रहे. उनका परिवार भी अपने पैतृक स्थान पर चला गया मगर वह पेड़ खजांची बाबू के पेड़ के नाम से गर्वोन्मत्त होकर सिर ऊँचा उठाये अपनी भुजाएं फैलायें आश्रय देता रहा.</p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-39856196926425108102021-03-26T04:32:00.002-07:002023-07-19T22:00:05.906-07:00सखियों की चौपाल (होलियाना)<p> पत्नी - आपको वाट्सएप मैसेज किया था सुबह . अभी तक देखा नहीं!</p><p>पति- तुम्हें पता तो है मैं नहीं देख पाता किसी का मैसेज.</p><p>पत्नी - क्या मतलब है तुम्हारा. मैं 'किसी' में हूँ.</p><p>पति - अरे बाबा... 1000 मैसेज बिना पढ़े रखे हैं. उनकी अपडेट में तुम्हारा मैसेज नीचे चला गया होगा.</p><p>पत्नी - सही है वैसे. तुम्हारे फोन में वाट्सएप मैसेज पढ़ने जैसा क्या है. (जोर से)</p><p>कैसे कैसे तो ग्रुप हैं. फलाना समाज, ढ़िकरा कॉलोनी, अनाप वैवाहिक विज्ञापन ग्रुप, शनाप रिटायर्ड ग्रुप, फलाने गुरूजी, आध्यात्मिक संदेश... क्या पढ़ने का मन करेगा. तुम्हें नींद आने के बाद कभी तुम्हारा फोन चेक करती हूँ तो मैं ही बोर हो जाती हूँ... (धीमे से बड़बड़)</p><p>पति- क्या कह रही हो. जोर से बोलो न!</p><p>पत्नी - नहीं. सब्जी क्या बनाऊँ!! 😊</p><p>---- –-------------–----------</p><p>सखियों की चौपाल- </p><p>एक सखी- पति पत्नी दोनों सोशल मीडिया में सक्रिय हो तो आपस में झगड़ा कम होता है. दोनों उसी में लगे रहते हैं. लड़ना झगड़ना भी वहीं चलता रहता है.</p><p>दूसरी सखी- मेरे पति का क्या करूँ. वो तो फेसबूक, वाट्सएप ज्यादा चलाते ही नहीं. सरसरी नजर से देखकर रह जाते हैं. रिटायर होने के बाद घर में ही रहना पड़ता है तो सारा झगड़ा आमने सामने ही होता रहता है.</p><p>पहली सखी- ऐसा करो. उनका वाट्सएप नंबर अपनी सखियों वाले ग्रुप में अपडेट कर दो. फिर देखना . उसी में व्यस्त रहेंगे . तो लड़ना झगड़ना भी नहीं होगा .</p><p>दूसरी सखी - ना रे. . वो तो मेरी सखियों को आँख उठा कर भी नहीं देखते. सामने हो तो आँखें नीची कर साइड से निकल जाते हैं.</p><p>पहली सखी - तो फिर समस्या तुम्हारा पति नहीं, सखियाँ हैं.उन्हें ही बदल डालो 😂</p><div><br /></div>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-25822547906672496742021-01-26T22:17:00.003-08:002021-01-26T22:17:49.341-08:00चलो! चिंता करें...<p> पिछले दिनों पड़ोस में कुछ निर्माण कार्य (कंस्ट्रक्शन वर्क) चल रहा था. बेटी ने ध्यान दिया कि एक मजदूर दिन भर तगारी में भरकर ईंटे, रोड़ी और बजरी तीसरी मंजिल तक पहुँचाता रहा.</p><p>इनके पैर नहीं दुखते क्या मम्मी- सवाल को अनदेखा नहीं किया जा सकता था. </p><p>दुखते तो होंगे ही . कुछ तो आदतन मजबूत हो जाते हैं. और फिर शायद इसलिए ये नशे के गुलाम होते हैं . दर्द से बचने के लिए नशा कर सो जाते हैं.</p><p>मुझे भी यही लगा कि क्रेन की सुविधा से सारा सामान एक साथ उपर पहुँचा देना चाहिए था. पर देखा कि इनका ठेकेदार( कॉंट्रेक्टर ) भी उनके साथ ही काम में लगा हुआ था. उसे देखते हुए मैंने सोचा कि वह क्रेन का खर्च कैसे 'अफोर्ड' (सहन) करेगा. आखिर इसका हल क्या होगा!</p><p>और तभी ध्यान आया कि इन लोगों के अधिकार की बातें करने वाले आरामदायक वातानुकूलित घरों/दफ्तरों में सिर्फ चिंता जताते ही (कभी जीवन में करनी/ फावड़ा न पकड़ते भी ) अपना बैंक बैलेंस कैसे बढ़ाते चलते हैं. </p><p><br /></p><p>वैसा ही तो कुछ किसानों की चिंता करते लोगों के साथ हो रहा. सचमुच का किसान खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करते अन्न उपजाने में लगा है ताकि उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले ट्रैक्टरों सहित लालकिले पर चढ़ लें.</p><p>हमको भी लगता है देश/समाज की चिंता करते हम भी किसी दिन कोई राजनैतिक पद प्राप्त कर लेंगे पर इतना सारा दिखावा कर पायेंगे तब न. जैसे कि चिंता करते करते ही दिल्ली की सत्ता प्राप्त कर ली.</p><p>चलो चिंता करें!</p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-77286465529110985382021-01-22T19:20:00.003-08:002021-01-22T20:00:45.855-08:00ये तेरा घर ये मेरा घर...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6p3NiZb2dvBn8klSzQkcgFQJ0EwbABDs5DF9gCqOw04TMhk0fgBmraA-iMWdmaRduJnpls4GT9M6iGZ9txsMC5-2cYRTcRRuRB38OnS2elVCpksTza8L6HGP8Y1XodShBv7uQpuZfwVNh/s2048/IMG_20200811_202120.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1791" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6p3NiZb2dvBn8klSzQkcgFQJ0EwbABDs5DF9gCqOw04TMhk0fgBmraA-iMWdmaRduJnpls4GT9M6iGZ9txsMC5-2cYRTcRRuRB38OnS2elVCpksTza8L6HGP8Y1XodShBv7uQpuZfwVNh/s320/IMG_20200811_202120.jpg" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p>देखो. इतने समय बाद चल रही हो. कुछ कहें तो चुप रहना.</p><p>उसने घूर कर पति की ओर देखा- यह बात उन्हें क्यों नहीं कहते. तुम जानते तो हो. एक दो बार में तो मैं किसी को कुछ कहती ही नहीं.</p><p>कोई बात नहीं तीन-चार बार भी सुन लेना.</p><p>यह नहीं होगा. पाँचवीं बार तो मैं बोल ही पड़ूँगी. कहो तो चलूँ या रहने दूँ.</p><p>उनको कैसे कह सकता हूँ...</p><p>सच है, सुनने के लिए तो हमें ब्याह लाये थे.पर एक बात बताओ मैं क्यों सुनूँ. क्या तुम मुझसे परिवार की सहमति के बिना प्रेम विवाह कर ले आये थे.</p><p>कैसी बात करती हो. पहले मम्मी, पापा और दीदी ने ही पसंद किया था तुम्हें.</p><p>अच्छा यह बताओ क्या मैं किसी गरीब परिवार से आई हूँ. दहेज के नाम पर कुछ नहीं लाई.</p><p>क्या तुक है इस बात की. मैंने खुद आगे बढ़कर कहा था कि तिलक में कुछ कैश नहीं लेना/देना है .</p><p>वह तो सही है. तभी तो हम साथ हैं. </p><p>प्यारी सी मुस्कुराहट फैल गई अनुभा के चेहरे पर. पर फिर से सतर्क होते हुए अगला सवाल दाग दिया-</p><p>क्या मैं घर को साफ सुथरा नहीं रखती. खाना अच्छा नहीं बनाती. वैसे तुम्हें बता दूँ कि तीस वर्षों की गृहस्थी में 26 वर्ष तक घर का हर काम मैंने बिना मेड की सहायता से किया है. बच्चों को बिना ट्यूटर पढ़ाया है .</p><p>क्या कह रही हो . मैंने कब कहा ऐसा. तुमने मैंने मिल कर ही किया है सब. वह प्यार से बाहों में भरने को हुआ पर अनुभा छिटक कर दूर हो गई.</p><p>क्या मेहमानों की आवभगत या लेनदेन में मैं मायका/ ससुराल में भेद करती हूँ!</p><p>ऐसा कब किसने कहा. मेरे भतीजे तो अकसर कहते थे कि तुम उनकी मम्मी से भी ज्यादा उनका खयाल रखती हो. </p><p>हाँ. कई बार अस्पताल में भीें खाना/चाय आदि पैक कर ले गई हूँ. शादी ब्याह में भी अपना पराया समझे बिना सब काम किया है. यह ठीक है कि उन लोगों ने भी हमारी जरूरत में हमारा साथ दिया. पर एक बात बताओ क्या मैं अनपढ़ गँवार हूँ. क्या मैं नहीं जानती कब किससे कैसे बात करनी है. क्या मुझे बात करने की तमीज नहीं है!</p><p>ऐसा नहीं है पर तुम्हें गुस्सा आ जाता है.</p><p>अच्छा! क्या मुझे तुमसे और उनसे भी ज्यादा गुस्सा आता है और वह भी बिना कारण?</p><p>नाक खुजाते हुए इधर उधर ताकने के बाद हेलमेट उठाते हुए वह बोला - अच्छा मेरी अम्मा. अब चल लो . तुम्हें मुझे जो सुनाना हो, सुना लेना पर वहाँ चुप रहना.</p><p>और मैं इतनी देर से क्या कर रही थी. .. दबे होठों में मुस्कुरा दी अनुभा.</p><p>क्या कहा.. </p><p>कुछ नहीं.चलो जल्दी.आज मेरा किसी को कुछ और सुनाने का मूड नहीं. इससे पहले की मेरा मूड बदल जाये, चल आते हैं .</p><p><br /></p>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-7917734014602631332021-01-08T21:04:00.003-08:002021-01-08T21:06:15.588-08:00सहायता की व्यथा...<p> हमारी कॉलोनी में एक बुजुर्ग महिला प्लास्टिक का कट्टा (थैला) उठाये अक्सर चली आती है घर के बाहर झाड़ू लगाने या सफाई करने की आवाज लगाते. पूरी तरह सीधे भी खड़ी नहीं हो पाती उस स्त्री को देखकर करूणा उपजती है कि क्या कारण होगा जो इस उम्र में वह इस तरह शारीरिक श्रम कर पैसे कमाना चाहती है. पहले सफाईकर्मी नहीं होने के कारण उसे कई घरों में काम मिल जाता था परंतु इधर लगभग डेढ़ दो वर्ष से उन्हें काम नहीं मिलता अधिक. कुछ उनकी शारीरिक अवस्था देखकर भी लोग काम नहीं देते। मेरी एक सखी जब तब उनकी सहायता कर देती है थोड़ा बहुत काम करने पर . ऐसे ही इधर काफी समय से कुछ सफाई का कार्य नहीं होने के कारण उन्हें यूँ ही दस बीस रूपये दे दिया करते. अब होता यह कि वे हर तीसरे दिन चक्कर लगाने लगीं. </p><p>बरसात के समय में हमारी तरफ सड़क का ढ़लान होने के कारण आगे से बहुत सारी मिट्टी बहती हुई यहाँ इकट्ठी हो जाती है जिसे मैं स्वयं ही उठा लेती हूँ . मगर एक दिन उन बुजुर्ग स्त्री के आने पर मैंने उन्हें पूरी मिट्टी उठाकर बाल्टी में भर देने को कहा क्योंकि इसमें अधिक श्रम की आवश्यकता नहीं थी. मैं वहीं खड़ी होकर देख रही थी ताकि बाल्टी भरने पर स्वयं ही उठा लूँ जिससे उन्हें तकलीफ न हो. मैंने ध्यान दिया कि मिट्टी इकट्ठा करती कुछ बड़बड़ा रही थीं. पास जाकर पूछा तो बोली कि उधर किसी ने सफाई की थी इतने पैसे दिये, इतने लूँगी आदि आदि . </p><p>मुझे मन ही मन हँसी आई कि इन्हें इतना भरोसा भी नहीं कि जब मैं कुछ साफ सफाई करे बिना ही महीनों से कुछ न कुछ दे रही हूँ तो क्या अभी कुछ नहीं दूँगी . परंतु इस बार उनकी अपेक्षा बहुत अधिक थी.</p><p>मैंने कहा- माताराम, उनका तो आपने गिना दिया कि इतने दिये, उतने दिये. और मैं जो इतने समय से दे रही हूँ तो क्या अब आपसे काम करा कर भी नहीं दूँगी!</p><p>एकदम से उनके व्यवहार में नरमी आ गई - हाँ बाई, देओ थे तो.</p><p>खैर, काम करके अपनी अपेक्षानुसार पैसे लेकर वे चलीं गईं. बात यहाँ समाप्त नहीं हुई. मुहल्ले के दूसरे सम्पन्न घरों को छोड़कर कुछ समय से उनसे कुछ कम उम्र की स्त्री भी उनके साथ ही आती है. जब उनको दस-बीस रूपये दूँ तो कहती है - बाई मन्ने भी दयो थोड़ा पीसा! जाने उनको कैसे गलतफहमी हो गई है कि बाकी सबकी तुलना में हम ही अधिक धनवान है. </p><p>नतीजा पिछले कुछ समय से उनकी पुकार कई बार अनसुनी करनी पड़ रही है !</p><p>छोटी -मोटी सहायता की यह व्यथा है तो बड़े -बड़े मददगार, समूह किस तरह झेलते होंगे उन लोगों, समूह की अनपेक्षित अपेक्षा को....</p><div><br /></div>वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-49222202737738071282020-06-29T23:44:00.000-07:002020-06-29T23:50:53.396-07:00हिंदी के प्रसार में ब्लॉग का योगदान.... वाया यूके हिंदी समिति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-size: 18px;">निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-size: 18px;">बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।</span><br />
<br style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 18px; list-style-type: none; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-size: 18px;">अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-size: 18px;">पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-size: 18px;"><br /></span>
आधुनिक हिंदी कविता के आदि रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र उपरोक्त दोहे में मातृभाषा हिंदी की कितनी ही प्रशंसा कर उसकी महत्ता साबित कर गये हों परंतु हाल ही में हमारे देश के हिंदीभाषी प्रदेश में हिंदी में आठ लाख विद्यार्थियों का फेल होना बताता है कि हम हिंदी को कितनी गंभीरता से लेते हैं. वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मनाकर हम अपनी मातृभाषा की इतिश्री कर रहे हैं.<br />
पिछले एक स्टेटस में मैंने लिखा भी था कि महत्वपूर्ण विषयों की अनदेखी करने में हम भारतीय अव्वल हैं.उसमें से एक हिंदी भाषा भी है और उपरोक्त समाचार में इस बात की पुष्टि भी होती है.<br />
देश में हिंदी की दुर्दशा के बाद जब हम प्रवासी भारतीयों को हिंदी के प्रचार/प्रसार के लिए कृतसंकल्प देखते हैं तो कहीं मन में एक आश्वस्ति बनी रहती है. जिस तरह हर प्रकार के शोध/ अनुसंधान की सत्यता अथवा प्रमाणिकता के लिए हम पश्चिम जगत पर ही विश्वास करते हैं, अगले कुछ वर्षों में मातृभाषा के लिए भी शायद विदेश में रहने वाले भारतीयों पर ही निर्भर हों. इस सत्यता का भी भान होता है कि जिसको जो वस्तु सरलता से उपलब्ध नहीं, वही उसकी सही कीमत भी जानता है.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3pS2CqT1ehpccqo-O1trsc1LhBa8b_vYvLIBbRxgLcx2FLtinBbCWu8fERgafbIcQD1jR4aAndiwgO6iK15fLRlwhQ2d_qY3_P41ReQUJ-976nW9MJF97M_yWUxId9iDwcRwXCLjqt7pn/s1600/image.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="199" data-original-width="199" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3pS2CqT1ehpccqo-O1trsc1LhBa8b_vYvLIBbRxgLcx2FLtinBbCWu8fERgafbIcQD1jR4aAndiwgO6iK15fLRlwhQ2d_qY3_P41ReQUJ-976nW9MJF97M_yWUxId9iDwcRwXCLjqt7pn/s1600/image.png" /></a></div>
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हिंदी की इस दशा-दिशा के दौर में जब यूके की एक हिंदी समिति आपके ब्लॉग ज्ञानवाणी की एक पोस्ट को अपने पाठ्यक्रम (सिलेबस) के एक कोर्स में सम्मिलित करती है तो खुशी स्वाभाविक ही है.<br />
<a href="https://www.blogger.com/goog_885546691"><br /></a>
<a href="https://vanigyan.blogspot.com/2019/04/blog-post.html">https://vanigyan.blogspot.com/2019/04/blog-post.html</a></div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-48642148320084422542020-03-07T21:26:00.000-08:002020-03-07T21:40:35.388-08:00अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस बनाम शाहीन बाग...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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कल इंंडिया टीवी पर अनायास ही शाहीन बाग दिख गया. अनायास यूँ कि आजकल समाचार चैनल , अखबार आदि विशेष स्थिति में ही देखती हूँ. फेसबूक के पत्रकारों की संगति में उसकी अधिक आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि यहाँ पक्ष / विपक्ष दोनों ही प्रभावी रूप से उपस्थित एवं मुखर भी हैं. अधिकांश वाट्सएप विडियो भी मैं देखे बिना ही डिलीट करती हूँ. स्मार्ट टीवी पर यूट्यूब विडियो देखते हुए जब नेट कनेक्टिविटी बाधित होती है तब अपने आप टीवी चैनल पर सेट होने के कारण ही अनायास दिख पड़ा समाचार चैनल.<br />
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तो आती हूँ मैं शाहीन बाग के समाचारों पर. अनूठा दृश्य था. दो लड़कियां रिपोर्टिँग कर रही थीं छिटपुट सी भीड़ में. रिपोर्टिंग करती लड़कियों ने उपस्थित स्त्रियों से बातचीत करनी चाही. उसने कम भीड़ का कारण पूछा तो एक का जवाब था कि हमारी हेड नहीं आई हैं. उनके आने के बाद हम इकट्ठी होती हैं. दूसरी स्त्री से पूछा कि आपकी हेड कौन है तो जवाब आया हमारी कोई हेड नहीं है.अन्य स्त्रियों से बात करने पर वे जवाब दे ही रही थीं कि एक आदमी आया और उनमें से एक बुजुर्ग स्त्री के मुँह को उसकी चुन्नी से ढ़कने लगा चुप रहो के इशारे करते हुए. तभी हूटर बजने लगा और बहुत से युवक एकत्रित हो गये. चुप रहो सब , कोई कुछ नहीं बोलेगा करते हुए अपने मुँह पर अँगुलियाँ रखते हुए चुप रहने का इशारा करते हुए. वहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ अब चुप थीं. कोई जवाब नहीं दे रही थीं. कुछ दिन पहले ही किसी प्रबुद्ध स्त्री की वाल पर पढ़ा था कि अपने अधिकार के लिए जाग चुकी हैं, स्वतः प्रेरणा आदि आदि....<br />
उन संवाददाता लड़कियों ने युवकों से कहा भी कि आप इन्हें बोलने क्यों नहीं दे रहे हैं. इस पर उपस्थित लड़कों की भीड़ की ताली बजा बजाकर चिढ़ाने जैसी आवाजें आती रहीं और उन आत्मनिर्भर साहसी लड़कियों की आवाजें - बदतमीजी न करें, कैमरे को हाथ न लगायें, कैमरा क्यों बंद करवा रहे हैं आदि आदि....<br />
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वहाँ उपस्थित स्त्रियों के हुजूम में से कोई भी स्त्री उन युवकों को टोकते , उन लड़कियों के वहाँँ से सुरक्षित निकल जाने का कोई प्रयास करती दिखीं नहीं मुझे. हालांकि बैकग्राउंड में एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति की झलक अवश्य दिखी मुझे जो कुछ लड़कों को डाँट रहा था....<br />
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उसी समाचार के बीच में पुलिस फोर्स पर पत्थर बरसाती स्त्रियों का विडियो भी दिखा. उसके अलावा भी यहीं फेसबूक पर भी बहुत तस्वीरें भरी पड़ी थीं हाथों में पत्थर लिये. इनमें से अधिकांश तो वही रही होंगी न जो कुछ समय पहले ट्रिपल तलाक के फैसले पर आजादी का जश्न मना रही थी.<br />
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अंतरराष्ट्रीय दिवस पर अधिकांश प्रबुद्ध स्त्रियों की वाल पर पढ़ने को मिलेगा- स्त्रियों की जात कुछ नहीं होती आदि आदि. और मैं सोच रही हूँ कि क्या वाकई ऐसा ही है....<br />
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फिर भी मैं अपने योगदान का उत्तरदायित्व वहन करते हुए सभी स्त्रियों को अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की ढ़ेरों शुभकामनाएं देती हूँ और प्रार्थना भी करती हूँ कि हम अपनी स्वतंत्रता को सही मायने में समझें और उसका रचनात्मक उपयोग करें....</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-71831006731725561972020-01-08T22:19:00.000-08:002020-01-08T23:07:13.424-08:00चीख पुकार और आँसुओं की पृष्ठभूमि....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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दो तीन दिन पहले अचानक बच्चों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनकर अपनी दुखती कमर को सम्भालते बाहर गई तो अजब नजारा दिखा. पड़ोसी के मेनगेट के अंदर वही लड़का जोर जोर चीखता हुआ रो रहा था जिसे थोड़ी देर पहले ही बची हुई मिठाई का डब्बा पकड़ाया था. दो युवकों ने एक हाथ से गेट और दूसरे हाथ से बच्चे को पकड़ रखा था. बच्चे को भीषण रोते (चीख पुकार) देख ममता जाग उठी और मैं उन दोनों के बीच जा खड़ी हुई.<br />
<br />
क्या हुआ. मारो मत बच्चा है.<br />
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माताराम, अभी तो हाथ भी नहीं लगाया. हम मार नहीं रहे. सिर्फ पूछने में इतना चिल्ला रहा है.<br />
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दीदी, भाभी आदि से आंटीजी, माताराम में हुए प्रमोशन की पीड़ा बच्चों के रोने के आगे गौण थी. माताओं को बीच बचाव करते देख पड़ोसी के लॉन में झुरमुट में छिपी दो लड़कियां भी हाथ जोड़े मेरे सामने आ खड़ी हुईं. वे भी लगातार चीख कर रोती जाती थी.<br />
<br />
मैंने पूछा युवकों से कि आखिर हुआ क्या....<br />
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कुछ दूर पर ही एक मकान में निर्माण कार्य चल रहा है. ये युवक वहीं ठेकेदार/मजदूर थे. बताया उन्होंने कि साइट से कई बार लोहे की छोटी मोटी चीजें गायब हो रही थीं. मगर आज तो गजब ही हो गया. कल ही नया तिरपाल लाये थे. जरा सी नजर चूकते ही उठा लिया. यह पूरा ग्रुप है. दो बड़ी महिलाएं भी इनके साथ है. वे तिरपाल लेकर कहीं छिप गईं. हम बाइक पर इनका पीछा करते आये तो हमें देखकर ये भी छिपने लगे.<br />
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यह सब सुनकर बच्चे और जोर से चीख चीख कर लोट पोट होने लगे.<br />
हम दुविधा में झूल रहे थे सच जानकर भी बच्चों का रोना देखा नहीं जा रहा था.<br />
आप देख लो. हमने हाथ भी नहीं लगाया. सिर्फ पूछ रहे हैं कि तिरपाल कहाँ छिपाया है, बता दे. हम कुछ नहीं कहेंगे... ये लोग ट्रेंड होते हैं. बच्चों और महिलाओं को आगे कर देते हैं. मजमा लगाना जानते हैं कि इस तरह रोने चीखने पर लोग इकट्ठे हो जायेंगे और आप जैसी माताएं बीच बचाव करने आ जायेंगी.<br />
उनकी शिकायती नजरें जाने मुझसे यह कह रही थीं. (छोटी मोटी चोरी से बढ़ती हुई इनकी आदतें महाचोर ही बनायेंगी. सब लोग सुरक्षा, शांति और बदलाव चाहते हैं पर करने की पहल नहीं करते ना ही दूसरों को करने देते हैं )<br />
सीधे तरह नहीं बतायेंगे तो पुलिस को बुलाना पड़ेगा. किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हम किसी तरह युवकों को समझाने में सफल रहे कि आप थोड़ी दूर जाओ . हम इनको समझा बुझाकर पूछते है. वे युवक बाइक से कुछ दूर गये और इधर ये बच्चे उसकी विपरीत दिशा में तेजी से भागे. मैंने यह भी ध्यान दिया कि पूरे समय की चीख पुकार, लोट पोट होने में उसने मिठाई का डब्बा हाथ से नहीं छोड़ा था.<br />
लंबी साँस लेते अपने सफल या असफल अभियान को देखकर भीतर आई तो दूर से फिर चीखने / रोने की आवाजें आ रही थी. शायद उन युवकों ने उन्हें फिर से रोका था....<br />
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मेरे कानों में उससे भी बहुत किलोमीटर दूर के बच्चों की चीख पुकार गूँज रही थी और उन युवकों के सवाल भी.... क्या संयोग था! और मैं यह सोच रही कि आँसुओं और चीख पुकार की भी भिन्न भिन्न पृष्ठभूमि हो सकती है... कौन जाने कितने सच्चे कितने झूठे!<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-10468773270742394392019-11-14T08:14:00.001-08:002019-11-14T08:41:45.209-08:00जहाँ प्यार दिख जाये.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3jzZg4sm9NnKqkAeWsTnDKim-rmpsGJlncV3l7lxn3k2zKKu_Iq9zO1GMUUPDtGbIQfBf8GYQdyQg6qB4hZcjdb20Uvcyyzzg_avH7AsgyM4hR8uMlZhazIHk57AC8GioT9wEdWa8J7dm/s1600/55648129-cartoon-character-of-women-gossiping-women-talking-women-chatting-gossip-girl-gossip-old-woman-peopl.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1300" data-original-width="1300" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3jzZg4sm9NnKqkAeWsTnDKim-rmpsGJlncV3l7lxn3k2zKKu_Iq9zO1GMUUPDtGbIQfBf8GYQdyQg6qB4hZcjdb20Uvcyyzzg_avH7AsgyM4hR8uMlZhazIHk57AC8GioT9wEdWa8J7dm/s320/55648129-cartoon-character-of-women-gossiping-women-talking-women-chatting-gossip-girl-gossip-old-woman-peopl.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चित्र गूगल से साभार....</td></tr>
</tbody></table>
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सत्यनारायण पूजा पर एकत्रित परिवार की सब स्त्रियाँ पूजा के बाद सबको प्रसाद खिला अब स्वयं भी तृप्त होकर आराम करते गप्पे लड़ा रही थीं. जैसा कि अकसर महिला मंडल की बैठकों में होता है, वही यहाँ भी होने लगा. अनुपस्थित छोटी बहू के बारे में बातें करते कोई ताली बजाकर हँस रहा तो किसी के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कान...<br />
<br />
देखो तो. भैया कितना प्यार करते हैं. जब तक रसोई में थी, वही मंडराते रहे....<br />
<br />
अरे हाँ, कोई शरम ही नहीं है बोलो. सबके सामने एक ही पत्तल में परोस कर खा रहे थे.<br />
<br />
उसके मायके जाने की बात से इनकी आँखों से आँसू निकल आते हैं.<br />
कोई कुछ कह रहा कोई कुछ. सबके साथ हँसती मुस्कुराती कविता अचानक गंभीर हो गई....<br />
<br />
" अच्छा है न. आज के समय में दो लोगों के बीच प्रेम नजर कहाँ आता है. माँ बाप और बच्चों के बीच, भाई बहनों के बीच, पति पत्नी के बीच.... प्रेम आजकल दिखता कहाँ है....ऐसे नाशुक्रे समय में यदि दो लोगों के बीच इतना प्रेम है यो यह खुशी की बात हुई न. प्रेम में डूबे हुए दो लोगों को देखकर मुझे तो अच्छा ही लगता है!<br />
सोचो, क्या तुम लोगों को अच्छा नहीं लगेगा यदि तुमसे इतना प्यार किया जाये....."<br />
<br />
बात तो सही है. प्यार पाना किसे अच्छा नहीं लगेगा!<br />
<br />
बातों का रूख सहसा ही परिवर्तित हो गया. सब स्त्रियाँ जैसे एक साथ सपनीली मधुरता में खो गईं एक संतोषजनक मुस्कान चेहरे पर सजाये....<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-29235544570633550252019-07-08T20:02:00.002-07:002021-06-20T23:00:38.061-07:00जीयें तो जीयें ऐसे ही.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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सुबह अखबार पढ़ लो या टीवी पर समाचार देख लो, मन खराब होना ही है. गलती उनकी इतनी नहीं है, चौबीस घंटे समाचार दिखाने वाले दो चार घंटा अपराध की खबरें न दिखायेंगे तो क्या करेंगे!<br />
अपराध की सूचना देना आवश्यक है मगर जिस तरह दिखाये या लिखे जाते हैं, उन लोगों की मानसिकता पर दुख और भय दोनों की ही अनुभूति होती है. मुझे घटनाओं में होने वाली हिंसा से अधिक उनको लिखने वालों के शब्दों और चेहरे पर नजर आती है .सख्त शब्दों में कहूँ तो जुगुप्सा होती है.<br />
<br />
मैं डिग्री होल्डर मनोवैज्ञानिक नहीं हूँ मगर समझती हूँ कि बार -बार दिखने या पढ़ने वाली वीभत्स घटनाएँ आम इंसान की संवेदना पर प्रहार करती है. अपराध के प्रति उसकी प्रतिक्रिया या तो संवेदनहीन हो जाती है या फिर उसमें रूचि जगाती है. धीरे -धीरे पूरे समाज को जकड़ती उदासी अथवा उदासीनता यह विश्वास दिलाने में सफल हो जाती है कि इस समाज या देश में कुछ अच्छा होने वाला नहीं है. निराशाओं के समुद्र में गोते लगाते समाज के लिए तारणहार बनकर आती है प्रार्थना सभाएँ या मोटिवेशनल सम्मेलन , सिर्फ उन्हीं के लिए जो इनके लिए खर्च कर सकते हैं और अगर मुफ्त भी है तो अपना समय उन्हें दे सकते हैं. पैसा खर्च कर सकने वालों के लिए चिकित्सीय सुविधाएं भी हैं.<br />
मगर जिनमें निराशा से उबरने की समझ/हौसला या उपाय नहीं है या वे इसके लिए समय या धन से युक्त नहीं हैं या उन्हें इसका उपाय पता नहीं है, नशे का सहारा लेने लगते हैं.<br />
<br />
सोच कर देखिये तो जिस तरह प्राकृतिक चक्र में जीवन चक्र लार्वा से प्रारंभ होकर बढ़ते हुए नष्ट होकर पुनः निर्माण की ओर बढ़ता है . वही असामान्य स्थिति के दुष्चक्र में फँसकर अपराध, हताशा, निराशा से गुजरकर फिर वहीं पहुँचता है. इसके बीच में ही उपाय के तौर पर एक बड़ा बाजार भी विकसित होता जाता हैं जहाँ प्रत्येक जीवन बस एक प्रयोगशाला है.<br />
<br />
कभी -कभी मुझे यह भी लगता है कि पुराने समय में जो बुरी घटनाएं दबा या छिपा ली जाती थीं, उसके पीछे यही मानसिकता तो नहीं होती थी कि बुराई का जितना प्रचार होगा, उतना ही प्रसार भी.... मैं इस पर बिल्कुल जोर नहीं दे रही कि यही कारण होता होगा बस एक संभावना व्यक्त की है.<br />
<br />
खैर, एक सकारात्मक खबर या पोर्टल के बारे में सोचते हुए जो विचार उपजे, उन्हें लिख दिया.<br />
इस पोर्टल पर जाने कितने सकारात्मक और प्रेरक समाचार कह लें या आविष्कार मौजूद हैं जो बिना किसी भाषण के बताते हैं कि सकारात्मक जीवन जीने के कितने बेहतरीन तरीके और उद्देश्य भी हो सकते हैं.<br />
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https://hindi.thebetterindia.com/</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-46745514232027102202019-07-04T21:25:00.000-07:002019-07-04T22:36:14.566-07:00जिन खोजा तिन पाईंयाँ....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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स्कूल से आते ही बैग पटक दिया काया ने. मोजे कहीं, जूते कहीं . बड़बड़ाती माला ने सब चीजें ठिकाने रखीं और बैग से निकाल कर डायरी देखने लगी.<br />
क्लास टीचर ने पैरेंट्स को मिलने का नोट डाला था. सिहर गई एकबारगी माला.<br />
ओह! अब क्या गलती हुई होगी!<br />
पिछले कुछ समय से स्कूल से आने वाली शिकायतें उसे परेशान कर रही थी. अभी पिछले हफ्ते ही तो कॉपी किताबों के कवर फटे होने की शिकायत करते हुए कक्षा अध्यापिका ने बहुत भला बुरा कहा था उसे. शिकायतें सुनने उसके सामने अपराधी - सा उसे ही खड़ा रहना होता था. शेखर ऐसे समय में पीछा छुड़ा लेते किसी तरह.<br />
तुम ही जाकर सामना करो. पता नहीं आजकल ध्यान कहाँ रहता है तुम्हारा. बच्ची पढ़ने में पिछड़ रही . न उनकी यूनिफॉर्म का ध्यान रहता है , न पढ़ने लिखने का . मैं दिन भर ऑफिस में काम करने के बाद क्या -क्या सँभालूँ?<br />
<br />
माला को शेखर पर गुस्सा भी नहीं आता. वाकई लापरवाही उससे हो ही रही थी.<br />
<br />
अभी पिछले महीने ही काया का रिजल्ट लेने जाने की तारीख भूल गई थी. असावधानीवश उसे एक दिन बाद की तारीख ध्यान में रही. दूसरे दिन स्कूल में भीड़भाड़ कम होने पर उसे शक तो हुआ मगर आ गये थे तो मिलना भी जरूरी है. कक्षा अध्यापिका ने रिजल्ट देने से साफ मना कर दिया था. आखिरकार शेखर ने ही माफी माँगते हुए फिर कभी ऐसी गलती नहीं होने का आश्वासन दिया तब जाकर उन्होंने चेतावनी देते हुए मार्कशीट सौंपी थी. स्वयं की गलती के कारण शेखर को माफी माँगते देख माला ने जाने कितनी बार मन ही मन स्वयं को धिक्कारा होगा. पति पत्नी में आपस में कितनी भी नाराजगी और लड़ाई झगड़े होते हों मगर किसी अन्य का अपने सामने ही पति को बुरा भला कहना माला सहन नहीं कर पाती. यह प्रेम था या संस्कार , माला इस पर पर्याप्त बहस भी मन ही मन कर लेती .<br />
<br />
उस दिन रास्ते भर अपने गुस्से पर काबू रखते शेखर घर आते ही माला पर फट पड़ा.<br />
क्या करती रहती हो दिन भर. अगली बार से मैं स्कूल हरगिज नहीं जाऊँगा. खुद ही संभालो यह सब.<br />
<br />
मैं क्या करूँ. मैंने देखी तो थी डायरी. पता नहीं कैसे गलत तारीख ध्यान में रही. माला की शर्मिंदगी आँखों से गंगा जमना बन बह निकली.<br />
<br />
इन आँसुओं से परेशान हो गया हूँ मैं. कितना समझाऊँ रोना बंद करो. घर में, बच्चे में मन लगाओ पर तुम समझती ही नहीं.<br />
शेखर ने माला का हाथ पकड़ कर उसे करीब बैठा लिया. थोड़ी सी सहानुभूति और ढ़ेर सारे प्यार ने जैसे आँखों के बाँध को तोड़ कर रख दिया हो. हिचकियों सहित तेज हुई उसकी रूलाई से काया सहम कर पिता से लिपट गई.<br />
<br />
मैं क्या करूँ. नहीं भूल पाती पिता को. किस तरह अपने पैरों से चलकर अस्पताल की सीढ़ियां चढ़ कर गये फिर निढ़ाल हो गये. ऐसा कैसे हुआ. आपने कुछ क्यों नहीं किया. मैं कुछ क्यों नहीं कर पाई पापा के लिए...<br />
रोते -रोते बेहाल हुई माला और गोद में काया को थपकियाँ देकर सुलाता शेखर किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठा. मन ही मन खुद पर नाराज भी हुआ पर वह करे तो क्या. दिन भर ऑफिस का प्रतिस्पर्धी माहौल, छोटे बच्चे की जिम्मेदारी और माला की बढ़ती हुई बेख्याली. घरेलू कार्यों में भरसक सहायता करने के अलावा गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य भी. अपनी जिम्मेदारियों की समझ उसे हौसला खोने भी नहीं देती थी. अधलेटा सा शेखर इन सब सोच में डूबा था कि दरवाजे पर खटखट ने उसको सजग किया. बचपन का मित्र कमल अपनी पत्नी विद्या के साथ दरवाजे पर खड़ा था. उनको ड्राइंग रूम में बैठाकर शेखर ने माला को धीमे से जगाया. हाथ मुँह धोकर मुस्कुराहट लिए बैठक में आई माला हालांकि बिखरे बाल और सूजी आँखें उसके उदास मन की हालत बयां कर रहे थे. कुछ देर औपचारिकता में स्वागत अभिवादन के बाद<br />
चाय बना लाती हूँ कहती माला रसोई जाने केे लिए मुड़ी तो विद्या भी उसके साथ हो ली यह कहते हुए कि मैं भाभी की मदद करती हूँ.<br />
आपके पापा के बारे में सुना था तबसे ही आपसे मिलने का मन हो रहा था. कैसे क्या हो गया था!<br />
चाय की पतीली गैस पर रखते माला भीगी पलकों से सब बताती रही.<br />
बहुत बुरा हुआ लेकिन पीछे रह जाने वालों को हिम्मत रखनी पड़ती है. चाय विद्या ने ही कप में छानी. बिस्किट, नमकीन करीने से प्लेट में रखते हुए माला फिर से सुबक पड़ी.<br />
अपना ख्याल रखो भाभी. कितनी कमजोर हो गई हो.<br />
नन्हीं काया भी तुम्हारे पास है. और देखो , हर समय रोते रहने से कुछ हासिल नहीं है. उलटा सामने वाला भी परेशान हो जाता है. स्वयं स्वस्थ न रहो तो कोई एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. शेखर अकेले कितना और कब तक ध्यान रखेगा..<br />
<br />
ठीक कहती हो विद्या. मैं भी सोचती हूँ मगर...<br />
दुख और शर्म की मिली जुली अनुभूति इंसान को कितना दयनीय बना देती है. सोचती हुई विद्या ने माला का हाथ पकड़ कर हौले से दबाया. दर्द को अनकही संवेदना ने चेहरे की स्मित मुस्कुराहट में बदल दिया.<br />
<br />
चाय बन गई या कहीं बाहर से ही आर्डर कर दें .<br />
उधर से हल्के ठहाके के साथ कमल की आवाज आई तो दोनों चाय और नाश्ते के साथ बैठक में आ गईं. दोनों के साथ कुछ हल्की- फुल्की इधर उधर की बातों से माला भी सहज हो आई थी.<br />
<br />
आज फिर से कक्षा अध्यापिका के बुलावे ने उसे चिंता में डाल दिया था. क्या कहेगी शेखर को, कैसे सामना करेगी उसका. जैसे अपने हाथों पैरों पर नियंत्रण न रहा उसका. साँसें जैसे डूबती सी जातीं थीं. दवाईयों के डब्बे से ब्लड प्रेशर की दवा ढ़ूँढ़ कर ले ली मगर घबराहट पर काबू ही न था. अकेली क्या करेगी वह.<br />
काया को गोद में उठाया और दरवाजे की कुंडी लगाकर पड़ोस के वर्मा जी के घर चली आई. मिसेज वर्मा उसकी मानसिक स्थिति समझती थीं. अपने काम निपटाकर माला के पास आ बैठतीं थी कई बार. उसके गोद से कायाको लेकर सुला दिया . माला वहीं सोफे पर पसर गई. अपनी घबराहट पर नियंत्रण न रख पाई और फूट फूट कर रो पड़ी. मिसेज वर्मा ने उसे पानी पिलाया और सिर पर हाथ फेरते बहुत समझाया भी.<br />
दवा से कुछ फायदा नहीं हो रहा तो किसी पीर देवता से झाड़ा लगवा आयें या फिर किसी देवी देवता को पूछ लेते हैं. अगली गली में वह कन्नू रहता है न , उस पर छाया आती है. कहते हैं सब सच बताता है. कुछ टोना टोटका कर दिया हो किसी ने या कोई देवताओं का दोष हो. या फिर छोटा बाजार चल आयें . वहाँ फूली देवी में माता आती है. झाड़ा भी देती हैं और साथ ही देसी दवा भी . बहुत लोगों को फायदा होते देखा है.<br />
<br />
देवी देवता, झाड़ फूँक सुनते माला कुछ चौकन्नी सी हो गई. विज्ञान का ज्ञान उसे इन सब बातों पर विश्वास न करने देता था. मगर काया की तबियत खराब होने पर दवा देते हुए भी राई लूण करना नहीं भूलती थी. या फिर कपड़े की कतरनों से वारते हुए भी नजर उतारने का टोटका कर ही लेती थी. करने को कार्तिक में करवा चौथ पर चंद्रमा के दर्शन कर उसकी पूजा भी करती ही थी जबकि उसे स्कूल में पढ़े गये विज्ञान के सबक अच्छी तरह याद थे कि चंद्रमा एक उपग्रह मात्र ही है . उसकी रोशनी भी उसकी अपनी नहीं. वह सूर्य के प्रकाश से ही चमकता है. मगर कुछेक अवसरों पर दिमाग की खिड़कियों को बंद कर श्रद्धा के वशीभूत हो किये गये शुभ कार्य एक सुकून या प्रसन्नता का भाव उत्पन्न करने में सहायक होते हैं. पारिवारिक और सामाजिक मेलजोल के ये पर्व या व्रत त्योहार रूढ़ि में न बदलने तक एक प्रकार से दैनिक कार्यों जैसे आवश्यक से ही हो जाते हैं और रससिक्त कर सुख और आनंद की अनुभूति देते हैं.<br />
<br />
नहीं. अभी इसकी जरूरत नहीं. कुछ आराम मिला है मुझको. यदि आवश्यक हुआ तो हम जरूर चलेंगे वहाँ.<br />
<br />
अब तक पैर समेट कर आराम की मुद्रा में बैठती माला संयत हो चली थी. मिसेज वर्मा की बेटी शुभी चाय बना लाई थी. किशोरवय की उनकी पुत्री चपल और हँसमुख होने के साथ सुघड़ भी थी. काया के साथ खेलते बतलाते माहौल को सुखद बनाने में अपनी भूमिका में कुशल लगती थी वह.<br />
<br />
अब चलती हूँ मैं. शेखर के आने का समय भी हुआ जा रहा. फिर इसका होमवर्क भी कराना है. काया की अँगुली पकड़ते वह उठ खड़ी हुई . मगर घर की ओर मुड़ते कदम उसे फिर से चिंता में डाले जाते थे. क्या कहेगी शेखर को वह. क्यों बुलावा आया होगा स्कूल से...<br />
<br />
अभी दरवाजे पर लगा ताला खोला भी न था कि पीछे से दौड़ती हाँफती शुभी उसकी साड़ी का पल्ला खींचते उसे जल्दी वापस उसके घर चलने को कहने लगी.<br />
जल्दी चलिये . माँ ने बुलाया है. कहते उसने काया को गोद में उठा लिया.<br />
अरे! घबराइये मत. कोई आया है घर पर. माँ आपसे मिलवाना चाहती है.<br />
कौन होगा जिससे मिलवाना इतना जरूरी है कि उसके लिए शुभी इस तरह दौड़ती भागती चली आई. काया और शुभी को पीछे छोड़ लंबे डग भरती हुई माला अगले ही पल में मिसेज वर्मा के सामने थी.<br />
<br />
आओ माला. कितनी अच्छी बात है न. अभी कुछ ही समय पहले इसकी बात कर रहे थे हम . तुम जैसे ही बाहर निकली इसका आना हुआ. जानती हो न इसको.<br />
<br />
हाँ . आपकी गली में बच्चों के साथ खेलते इसे कई बार देखा है. चेहरे से पहचानती हूँ.<br />
<br />
अरे. यही तो है कन्नू जिसके बारे में मैं बता रही थी. वही जिस पर देवता की छाया है. आगे के शब्द फुसफुसाते से कहे थे उन्होंने.<br />
<br />
जा शुभी. भैया के लिए पानी भर ला लोटे में. एक आसन भी दे जा बिछाने को.<br />
<br />
अनमनी सी हो उठी थी माला. यह क्या कर रही हैं मिसेज वर्मा. उसे विश्वास नहीं इन ढ़कोसलों पर. कैसे कहे उसके सामने ही. मगर तब तक शुभी आसन बिछा चुकी थी. उसके सामने पानी का लोटा भी रख दिया गया था.<br />
<br />
कैसे भागे यहाँ से सोच रही थी माला . शेखर को पता चला तो कितना गुस्सा होगा. तब तक कन्नू जी आसन पर जम चुके थे. हाथ पैरों को बल खाने की मुद्रा में लाते उसकी आँखें हल्की ललाई लिये थीं. आसन पर बैठे मरोड़े खाते देख मिसेज वर्मा उसके सामने जा बैठीं. इशारे से शुभी को काया को वहाँ से ले जाने को कहते हुए माला का हाथ खींचकर अपने पास ही बैठा लिया.<br />
<br />
बोलो महाराज. क्या बात है. क्या कष्ट है!<br />
मिसेज वर्मा की उत्सुकता देखते बनती थी वहीं माला सकुचा रही थी. किस फेर में पड़ गई आज वह.<br />
उधर कन्नू के शरीर के झटके बढ़ते जा रहे थे . नहीं के इशारे में जोर से गरदन हिलाते हुए वह छटपटाता सा दिख रहा था. कुछ कहने के लिए मुँह खोलता कि उढ़के से दरवाजे पर जोर से खट की आवाज आई. वर्मा तेजी से घर में घुसे थे.<br />
<br />
ये क्या हो रहा है यहाँ...<br />
तत्क्षण ही तेजी से पानी का लोटा उठाकर गटकते कन्नू अपनी गरदन ढ़हाते जमीन पर लोट गया. कुछ ही सेकंड में वापस अपनी स्वाभाविक स्थिति में उठ भी बैठा. सब कुछ इतने कम समय के अंतराल में हुआ कि माला समझ नहीं पाई कि आखिर हुआ क्या था.<br />
कन्नू वर्माजी का अभिवादन करते हुए उठकर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर जम चुका था.<br />
<br />
वर्मा जी घर के भीतर चले गये तो मिसेज वर्मा ने धीमे स्वर में माला से कहा... अभी देवता चले गये पर कुछ असर तो रहेगा. पूछती हूँ तुम्हारी समस्या के बारे में.<br />
<br />
इनके पिताजी के देहांत के बाद इसकी तबियत ठीक नहीं रहती. पेट में अजीब सा दर्द बताती है. खाना पचता नहीं . दिन पर दिन कमजोर हुई जा रही. दवा लेते दो तीन महीने हुए. कुछ असर नहीं हो रहा. कहीं पैर तो नहीं पड़ गया इनका कहीं.<br />
<br />
अब तक मिसेज वर्मा और माला भी कुर्सियों पर बैठ चुकी थीं.<br />
<br />
हम्म्म्... पिता जी के जाने के बाद.... एक जोर की साँस ली कन्नू ने और रूआँसी सी हुई माला की ओर देखा.<br />
<br />
क्यों रोती हो इतना. किसके लिए रो रहे. क्या समझते हो . तुम अमर हो. ये जीवन है. इसका क्या भरोसा. सोचो कल ही तुम्हें कुछ हो गया तो.... तुम्हारा इस समय का रोना क्या काम आयेगा.<br />
<br />
कान के पर्दे पर जैसे किसी तीक्ष्ण वस्तु का वार हुआ. भय से सिहर उठी माला. पाँच वर्ष की नन्ही सी काया , अकेले पड़ता शेखर... इतनी सी देर में क्या- क्या नहीं सोच लिया उसने.<br />
<br />
मैं चलती हूँ. शेखर परेशान होंगे. काया को गोद में उठाये माला दौड़ती सी घर आ पहुँची. शेखर घर आ चुका था. स्कूटर भीतर रखने के लिए मेनगेट पूरा खोलता हुआ रूक गया.<br />
<br />
कहाँ गई थीं. अब क्या हो गया. उसके मुरझाये<br />
हतप्रभ चेहरे को देखते कहा उसने.<br />
<br />
कुछ नहीं. काँपते हाथों से दरवाजे का ताला खोला माला ने. काया को गोद में लिए हल्की सिसकियों से शुरू हुई उसकी रूलाई जल्दी ही चीख कर रोने में बदल चुकी थी. शेखर और काया को अंक में समेटे कुछ देर फूट फूट कर रोती रही माला. होठों में ही अस्पष्ट शब्दों में बुदबुदाती. काया के उलझे बालों की लटें, तुड़ी मुड़ी सी यूनिफार्म को अँगुलियों से सही करते हुए . वह इतनी निर्दयी कब और कैसे हुई. पिता का जाना उसे इतना व्यथित कर रहा कि उसने पाँच वर्ष की नन्हीं काया के बारे में भी नहीं सोचा. अपने आपको इतना कमजोर कैसे कर सकती थी वह. उसके और काया के अच्छे भविष्य के लिए खटते शेखर के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती थी वह. अपनी जिम्मेदारियों से कैसे भाग सकती थी. क्या उसका अपना दुख इस दूधमुंही काया के दुख से भी बढ़कर था...<br />
उसके बालों में अँगुलियाँ फेरते शेखर ने उसे जी भर रो लेने दिया.<br />
<br />
तुम बहुत साहसी हो और हम दोनों का संबल भी. शेखर समझा रहा था और माला कल के नये सूर्य के साथ अपने भीतर ऊर्जा भरते हुए जिंदगी की ओर बढ़ रही थी. दर्द वहीं था अभी, अफसोस भी परंतु उसके साथ अपने उत्तरदायित्व को अच्छी तरह निभाने,का हौसला भी...।<br />
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कितनी दवाईयाँ, कितनी किताबें और कितने मनोवैज्ञानिक नहीं समझा सकते थे जिसे , एक अल्पशिक्षित अज्ञानी ने अनजाने में समझा दिया था उसे। देवी देवता के आने जाने का पता नहीं और न कभी वह इस पर विश्वास भी कर पायेगी मगर जीवन मजबूती से चलते रहने का नाम है, दुर्लभ है . यह जरूर समझ चुकी थी माला. कमर कस कर आने वाली चुनौतियों से लड़ने को तैयार.<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-23275522844739413312019-06-16T21:20:00.001-07:002021-07-26T06:52:24.949-07:00मुंबईनामा.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoXag7iw77Brvi2ZWp0YXmFwOwk0QOkfFwSHqeXt5UdI_9YPoAWdpzm5R_5xeQUG1VgRjtM4E6poqCwIadWKJvTAyaRLvQk96sQt6Jk-hOEFYmM0L787reTaxP4fZPKId1FfG4n70G1173/s1600/IMG_20190617_094111.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="781" data-original-width="1280" height="195" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoXag7iw77Brvi2ZWp0YXmFwOwk0QOkfFwSHqeXt5UdI_9YPoAWdpzm5R_5xeQUG1VgRjtM4E6poqCwIadWKJvTAyaRLvQk96sQt6Jk-hOEFYmM0L787reTaxP4fZPKId1FfG4n70G1173/s320/IMG_20190617_094111.jpg" width="320" /></a></div>
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जब हम छोटे थे. हाँ भई! हम भी छोटे मतलब बच्चे थे कभी. आज बड़े हो गये अपने बच्चों से कहो तो पेट पकड़ कर हँस ले यह कहते हुए कि इमेजिन ही नहीं होता कि आप लोग भी बच्चे थे.<br />
मजाक में कही बात मगर गंभीर ही है. हम नहीं सोच पाते अपने बड़े बुजुर्गों के लिए कि उनका भी कभी बचपन , लड़कपन या युवावस्था भी रही होगी. माँ अचानक छोड़ गईं साथ तब सहानुभूति रखने वाले उम्र बताने पर कह देते चलो उम्र तो थी, नाती पोते , पड़पोते भी थे. मन कचोटता है स्वयं को मगर हमें तो कभी लगा ही नहीं.<br />
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हाँ तो जब हम छोटे थे तब मुंबई को मुख्यतः अमीरजादों और फिल्मी कलाकारों के कारण ही जानते थे. छोटे से कस्बे में पत्र पत्रिकाओं द्वारा ही बाहर की दुनिया से जुड़े होते थे.<br />
उन पत्र पत्रिकाओं विशेषकर फिल्मी पत्रिकाओं में इन सितारों के भी फर्श से अर्श तक जाने के किस्से इस अंदाज में बयान होते कि सामान्य वर्ग से आये युवा भी सितारा बनने के लिए झोला उठाये चल देते थे. कुछ ही सफल होते और अधिकांश धोखे की कहानियों के पात्र बन जाते. मुंबई की बारिश और छोकरी, दोनों का भरोसा नहीं करना चाहिए. कब रास्ता बदल लें. यहाँ पेट भरना आसान है मगर घर मिलना नहीं. यही सुनते आये थे हमेशा।<br />
शहरी क्षेत्र का विस्तार होते होते कहावतें किस्से और मान्यताएं भी बदलती ही जाते हैं. हमने जितना पत्र पत्रिकाओं से जाना था उससे इस शहर और उसके बाशिंदों की छवि ह्रदय हीन, मतलबपरस्त ही रही जहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नहीं. आस पड़ोस में कौन रहता, क्या करता कोई जानना नहीं चाहता. दरअसल यहाँ लोगों की स्वयं के जीवन में इतनी भागदौड़ और उलझनें रहती हैं कि वह दूसरों के बारे में सोचे कब...मगर तीन वर्ष पहले जब मुंबई जाना हुआ तो यह भ्रम भी टूटा.<br />
राखी के दिन भरी दोपहर में अन्य विकल्प न होने के कारण लोकल ट्रेन में जाने की जरूरत हुई . यूँ तो दोपहर में लोकल में इतनी अधिक भीड़ नहीं होती मगर राखी का दिन होने के कारण जबरदस्त भीड़ थी. एक ट्रेन मिस भी की मगर दूसरी भी वैसी ही लदी फंदी. भीड़ के धक्के से डब्बे में चढ़ तो गये मगर अंदर आगे बढ़ें कैसे. अपने शहर में तो बस में भी चढ़ने का अभ्यास नहीं और यहाँ ऐसे फँसे कि लगा अंतड़ियां न पिचक जाये. जैसे तैसे धक्के खाकर पाँच छह कदम आगे बढ़ी. इतनी ही देर में दूसरा स्टॉप आ गया. भीड़ में कचूमर बना जा रहा था तभी एक स्त्री की तेज चीखती आवाज आई जो भीड़ को बुरी तरह हाथ और लात दोनों से धक्का दे कर आगे धकेल रही थी.<br />
ट्रेन चलने पर जैसे-तैसे मुड़ कर देखा तो उसने अपनी बाहों से एक दूसरी स्त्री को घेर कर पकड़ा हुआ था जिसकी गोद में छोटी बच्ची भी थी. अधेड़ उम्र की उस स्त्री ने सीट पर बैठी सवारियों को उस बच्चे को गोद में लेने को कहा. कई हाथ आगे बढ़े. किसी ने बुरी तरह रोते बच्चे को गोद में लिया, किसी ने बच्चे की माँ केे पर्स को. अंदर सवारियां उस बच्ची को पुचकार कर चुप करा रही थीं , कोई अपनी बोतल से पानी पकड़ा रहा था, तो कोई टॉफी. थोड़ी -थोड़ी जगह बनाकर उस स्त्री को उसके बच्चे के पास पहुंचाया और एक लड़की ने उसके लिए अपनी सीट छोड़ दी. एक तरह से राहत की साँस लेती वह अधेड़ स्त्री अभी भी गेट के पास ही खड़ी थी कि अगला स्टॉप उसका ही था. जिस महिला पर चीखी थी जोर से, उसी से मुस्कुराते हुए कह रही थी इतने छोटे बच्चे को लेकर चढ़ गई .बिल्कुल किनारे खड़ी थी कि ट्रेन चल पड़ी. मैं धक्का नहीं लगाती तो क्या करती. मन धक सा हो गया. रोज कुछ न कुछ लोग गिरते हैं चढ़ते उतरते...<br />
उस भीड़ में फँसे हुए भी मन एक प्रसन्नता से भर गया. भीड़ में तन्हा है कहीं तो कहीं सुरक्षित भी.<br />
कान से सुने और आँखों से देखे में भी कुछ तो फर्क होता है. वैसे देखने में भी आँखों को बस सीध में जो दिखता है, वही तो दिखता है. एक घटना से ही यह अनुमान भी लगा लेना कि धोखा होता ही नहीं, धोखे की पृष्ठभूमि तैयार करने जैसा ही है.<br />
इंस्टाग्राम पर हँसती मुस्कुराती तस्वीरों के पीछे का प्रत्यक्ष सन्नाटा हो कि लँगड़ी मारकर आगे बढ़ जाने वाले किस्से हों. इस शहर के धोखे की भी लंबी दास्तान दर्ज है दिल- दिमाग को झिंझोड़ती सी.<br />
मगर फिर भी कुछ आकर्षण है इस शहर का. हवाओं में समुद्र के पानी की महक है तो जुबान पर उसके नमक का स्वाद भी. इसलिए लोग खींचे चले आते हैं आज भी सौ शिकायतें करते भी....<br />
तभी तो कहलाती है यह मायानगरी .<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-84860277017425946292019-05-02T19:34:00.002-07:002019-05-11T02:16:19.228-07:00गीत ऐसे लिखे जाते हैं... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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हमारी पीढ़ी का रेडियो से प्यार कुछ अनजाना नहीं है. यदि आजकल बच्चों को पता चले कि रेडियो सिलोन सुनने के लिए रेडियो को घर में सबसे ऊँची जगह रखकर उससे कान सटा कर भी सुना जाता था तो हँस हँस कर दोहरे हो जायें.<br />
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मुझे याद है कि राह चलते सरगम फिल्म का डफलीवाले गाना कान में पड़ा तो हम ऐसी दौड़ लगाकर घर की ओर भागे कि अपने रेडियो पर पूरा गाना सुन सकें. भरी दोपहर में रेडियो पर नामचीन लोगों के साक्षात्कार उनके पसंद के गीतों के साथ सुनना न तो आपके घरेलू कार्यों में, न ही ऑफिस में या अन्य कार्यस्थलों पर बाधक होता है और न ही आपके आराम में.<br />
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ऐसे ही एक जानेमाने गीतकार के साक्षात्कार में उनके एक लोकप्रिय गीत की लेखन प्रक्रिया के बारे में बताया उन्होंने.<br />
जून की भरी गर्मी में वे बस में सफर कर रहे थे. तभी एक कन्या बस में चढ़ी. उसने आँखों में काजल लगा रखा था और गर्मी के कारण चेहरा पसीने में भीगा हुआ था. ( खूबसूरत थी या नहीं, याद नहीं). प्रतिभाशाली गीतकार हर परिस्थिति में गुनगुना सकते हैं. उनके मन से भी कुछ पंक्तियाँ प्रकट हुईं.<br />
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जून का मौसम मस्त महीना , चाँद सी गोरी एक हसीना<br />
आँख में काजल मुँह पे पसीना<br />
याल्ला दिल ले गई....<br />
याल्ला याल्ला दिल ले गई<br />
बाद में कविता को गीत में ढ़ालने के लिए जून का महीना को झूमता मौसम मस्त महीना किया गया क्योंकि जून के मौसम को मस्त कैसे कहा जा सकता था.<br />
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कवि/लेखक के ह्रदय में कविता कभी भी इस प्रकार प्रस्फुटित होती है. मगर इसका अर्थ यह नहींं कि हर कविता बस में मिली उस युवती को ही देखकर रची गई हो. यह भी नहीं कि कवि उसके प्रेम में गिरफ्तार हो गया. उस समय में जो लिख गया वहीं रह गया.<br />
<br />
(साक्षात्कार बहुत पुराना सुना हुआ है. अपनी स्मृति के आधार पर लिखा है तो हो सकता है कि मैं कुछ भूल भी रही हूँ)<br />
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उजाला फिल्म का यह गीत जब भी सुनती हूँ. हसरत जयपुरी की वह बस यात्रा आँखों के सामने वही दृश्य उपस्थित कर देती है<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-86790502253173388142019-04-17T02:01:00.000-07:002019-04-17T18:23:51.026-07:00इक बंगला बना न्यारा.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGHxTfnVS0ceAQn-vgo1Q7OxZZgKjHT6c4he1SLNy4T9hcD9bcmF8oB1lotdVVw8I0ydbw0ahfkodQOedxgpbOWbip_ZuTh-51RE8ApFCkSy5CqOPZydIe_i7SkaPPl3A1rxh1qId7Plq7/s1600/IMG_20190417_142259.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="648" data-original-width="1026" height="202" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGHxTfnVS0ceAQn-vgo1Q7OxZZgKjHT6c4he1SLNy4T9hcD9bcmF8oB1lotdVVw8I0ydbw0ahfkodQOedxgpbOWbip_ZuTh-51RE8ApFCkSy5CqOPZydIe_i7SkaPPl3A1rxh1qId7Plq7/s320/IMG_20190417_142259.jpg" width="320" /></a></div>
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<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;"><br /></span>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">कल सुबह किसी कार्य से घर से बाहर जाना हुआ. शाम तक वापस लौटी तो बाहर बरामदा बड़े तिनकों, नीम की ताजा पत्तियों और फूलों, धागे के छोटे, लंबे टुकड़े आदि से भरा पड़ा था. कल ऐसी कोई आँधी भी नहीं थी कि कचरा उड़ कर इस प्रकार इकट्ठा हो जाये. चीं चीं की आवाज सुनकर उपर देखा तब सब माजरा समझ आया. उपर गणेश जी के आले में तिनके मुँह में दबाये चिड़िया रानी नीड़ के निर्माण में लगीं थीं. पर्याप्त स्थान न होने के कारण बड़ी मेहनत से लाये उसकी निर्माण सामग्री इधर उधर गिर रही थी. मुझे यह भी लगा कि आले में स्थित गणपति को नुकसान न हो. बिटिया को आवाज लगाई . उसने प्लास्टिक और टेप की सहायता से आला पैक कर दिया. परंतु चिड़िया का चोंच में तिनके लिए आना जाना चलता रहा. माता पुत्री का मन विचलित होता रहा . एक अपराध बोध - सा था कि हम नन्हींं चिड़िया को उसके नीड़ को निर्माण करने में बाधा पहुँचा रहे. सोचा कि अमेजन से बर्ड हाउस मँगवा कर लगा दूँ ताकि इनको भटकना नहीं पड़े हालांकि हम जानते हैं कि वे अपनी इच्छानुसार ही स्थान तय करती हैं . ऑनलाइन ऑर्डर करने पर भी एक सप्ताह तो कम से कम लगना ही था. तब तक यह चिड़िया क्या करेगी!</span><br />
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आखिरकार उपाय सूझा. गत्ते का एक पुराना कार्टून मिल गया जिसको सँभालकर रखा था किसी आर्ट वर्क के लिए. उसमें कुछ बड़े दो गोल छिद्र कर दिये. बालकनी की ग्रिल में बाँधने के लिए रस्सी नहीं मिली तो पूजाघर में रखी मोली को काम में लिया. उपलब्ध होता तो रंगीन कागज लपेट इसे सुंदर/ आकर्षक बना लेती . <br />
जैसे तैसे बाँध तो दिया , अब चिड़िया को तुरंत उसमें कैसे बुलाया जाये! नीचे बिखरे हुए तिनके तुरंत फुरंत घोंसले में ऐसे लटकाये कि चिड़िया को बाहर से दिखता रहे. हालांकि चिड़िया के लिए बर्ड फीडर लगा रखा है और दिन भर उनका आवागमन लगा रहता है. फिर भी इस चिड़िया को इस घोंसले तक पहुँचाने के लिए उसके आसपास चावल, बाजरा और ज्वार के थोड़े से दाने बिखेर दिये . एक बरतन में अलग से पानी भी उसके पास रख दिया. सिर्फ दस मिनट में ही चिड़िया को तिनके सहित वहीं मंडराते देखा तब खुशी का ठिकाना नहीं था. कल से उन्हें उड़ उड़ कर तिनके लाते , जमाते देख बड़ा सुकून मिल रहा. ईश्वर करे इस घर में उसके नन्हे मुन्ने सुरक्षित रहें, खेले कूदें और फिर उड़ना सीख फुर्र हो जायें....प्रार्थनाओं में आप भी शामिल हो सकते हैं...</div>
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इस बड़ी सी दुनिया में बसी अपनी छोटी सी दुनिया और उसमें भी उस चिड़िया को अपने नीड़ का निर्माण करते देख अत्यंत प्रसन्नता हो रही जैसे किसी का उजड़ता घर बसा दिया हो. पक्षियों की दुनिया कितनी अलग है मगर कितनी अपनी भी. हम स्वयं घर बसाते हैं मगर हमारी उसी गृहस्थी में किसी और को अपना घर बसाते देख प्रसन्न होना कम ही होता है. वैसे तो पक्षी भी अपने घोंसलों में किसी और को फटकने नहीं देते मगर घोंसले बनाने का उनका उद्देश्य बच्चोँ को जन्म देना और उन्हें उड़ना सिखाना ही होता है. पंख सक्रिय होते ही उड़ जाते हैं बच्चे और फिर चिड़िया भी अपने उस घोंसले में वापस नहीं आती शायद. देखा नहीं कभी मैंने. पाश्चात्य संस्कृति जितनी ही आधुनिक है पक्षियों की जीवनशैली भी....<br />
क्या पश्चिम में भी पक्षियोंं का जीवन इसी प्रकार चलता है. क्या विषम पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण वहाँ उनके घर स्थाई होते हैं या वहाँ भी निश्चिंत और उन्मुक्त उड़ान ही भरते हैं कल की चिंता छोड़ कर ....</div>
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-39111505520586544462019-03-28T11:16:00.000-07:002019-03-28T11:16:26.090-07:00देसी चश्मे से लंदन डायरी.... शिखा वार्ष्णेय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyKbUHjLP4cqAbe0OoODDP9F3fPI4RErjdrlHL5Sxgd6ET_IK9Fd0WjxhnsTWFBMkFo9K73HRTvZUioo9NPHYNfXWMW2ZUxsprZouq6JhPTNcHAKvOx8CSvnQqgZ7Psxy3H2Vb36ItK7OZ/s1600/IMG-20190328-WA0041.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="584" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyKbUHjLP4cqAbe0OoODDP9F3fPI4RErjdrlHL5Sxgd6ET_IK9Fd0WjxhnsTWFBMkFo9K73HRTvZUioo9NPHYNfXWMW2ZUxsprZouq6JhPTNcHAKvOx8CSvnQqgZ7Psxy3H2Vb36ItK7OZ/s320/IMG-20190328-WA0041.jpg" width="179" /></a></div>
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अपने घर /गांव / शहर से बाहर जाने वालों के मामले में हमारे भारतीय परिवारों में दोहरी मान्यताएं चलती हैं। पहला प्रश्न यही होता है - खाने का क्या होगा (यदि लड़का है और वह भी अविवाहित तो ) और यदि लड़की है तो कैसे रहेगी , वहां कोई जानने वाला है या नहीं आदि। इस पहली चिंता से निपट चुकने के बाद होती है शुरुआत रिश्तेदारों और परिचितों में अपने पुत्र पुत्री के फॉरेन स्टे या फॉरेन रिटर्न की खबर फैलाने की. अपने पुत्र पुत्री के विदेश में सेटल होने या घूमने जाने की खबर या ख़ुशी भिन्न -भिन्न तरीकों और बहानों से दी जाती है. भिन्न संस्कृति , संस्कार के साथ आर्थिक , सामाजिक, राजनैतिक और भौगौलिक दृष्टि से भी बिलकुल विपरीत स्थान पर घूम घाम आना तो फिर ठीक है मगरजीवन यापन के लिए वहां बस जाना व्यक्ति को एक अलग ही चुनौतीपूर्ण परिस्थिति और अनुभव से रूबरू कराता है। लाख सुख सुविधाएँ जुटा ली जाएँ मगर मन जैसे बच्चों की तरह अपनी मातृभूमि और परिवेश को ललकता ही है। विकसित देशों की सुख सुविधाओं का लाभ ले रहा प्रफुल्लित मन संतुष्टि को जीता है मगर भीतर कहीं एक कसक अपनी मातृभूमि से दूर होने की भी रखता है। विभिन्न अवसरों पर चाहे अनचाहे खांटी देसी मन जाग जाता है और चाहे अनचाहे तुलनात्मक हो उठता है। कभी ख़ुशी कभी गम की तर्ज़ पर यह तुलनात्मक विवेचना या अध्ययन उसी परिवेश में रह रहे व्यक्ति को तो अपनी मनकही या समभाव होने के कारण आकर्षित करता ही है, वहीँ दूर बैठे व्यक्तियों के मन में उत्सुकता जगाता है। यदि यही अनुभव रोचक शैली में लेखबद्ध हों तो दुनिया के इस छोर से उस छोर के बीच जानकारियों के एक सेतु का निर्माण करता है। ऐसा ही एक लेखन सेतु निर्मित किया है लन्दन में रह रही अप्रवासी भारतीय लोकप्रिय हिंदी ब्लॉगर शिखा वार्ष्णेय ने अपनी पुस्तक " देसी चश्मे से लन्दन डायरी " में।<br />
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लन्दन शहर ही नहीं बल्कि यूनाइटेड किंगडम और यूरोप के भी सामाजिक /आर्थिक / राजनैतिक परिदृश्यों की जानकारी के साथ ही सांस्कृतिक बनावट के बारे में पुस्तक में संकलित आलेखों के माध्यम से दी गई जानकारी आम पाठकों को लुभाती तो है ही वहीं उस देश में बसने की चाह रखने वालों के लिए यह पुस्तक एक गाइड का कार्य भी करती है। दैनिक जीवन से जुड़े क्रिया कलाप , शिक्षा , सुरक्षा व्यवस्था के बारे में विभिन्न घटनाओं के जिक्र से उस स्थान का परिवेश पाठक को बिलकुल भी अनजाना महसूस नहीं होने देगा। लन्दन में रह रहे एशियाई परिवारों के रहन सहन और उसमें आने वाली परेशानियों तथा उन्हें दूर करने के लिये किये जाने वाले प्रयासों के बारे में पर्याप्त सामग्री है। अपने देशी चश्मे से झांकते हुए शिखा ने लन्दन के पूरे आर्थिक , सामजिक ,सांस्कृतिक , शैक्षणिक और राजनैतिक परिवेश पर दृष्टि इस तरह डाली है कि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। उस देश में होने वाले चुनाव प्रचारों की सादगी हो या जनप्रतिनिधियों का सामान्य जीवन के साथ ही आर्थिक मंदी से जूझने के बावजूद रानी के स्वागत अथवा ओलम्पिक खेलों की तैयारियों में किया जाने वाला व्यय पर सटीक प्रतिक्रिया देती शिखा साबित करती हैं की आर्थिक मंदी का भुगतान आम जनता को ही विभिन्न करों के माध्यम से करना होता है शासन चाहे लोकतंत्र का हो या राजशाही का।अपने आलेखों में शिखा देश की शिक्षा प्रणाली , बुजुर्गों के लिए की जाने वाली सरकारी व्यवस्थाएं , बच्चों की सही देखभाल के लिए फ़ॉस्टर केयर जैसी संरचना के लाभ और दोष दोनों को इंगित करती हैं। लिव इन ,समलैंगिक विवाह, और शुक्राणु दान पर भी बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करती शिखा बताती हैं कि पाश्चात्य सभ्यता अपने स्वतंत्र विचारों और समानता के महिमा मंडन के बीच नस्लभेद और जातीय भेदभाव से अछूती नहीं रही है. विदेश में रहकर भी अपनी संस्कृति , भाषा से जुड़ाव और लगाव शिखा के अपने व्यवहार , दैनिक कार्यकलापों के अतिरिक्त उनके आलेखों से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। लन्दनवासियों के गौरव , शिक्षा व्यवस्था की विशेषताएं , सामाजिक ढाँचे के गुण दोषों पर विशेष जानकारी देती यह पुस्तक पठनीय है.<br />
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हालाँकि अब तक बहुत बड़ी संख्या में पाठकों तक यह पुस्तक पहुँच ही चुकी होगी , तब भी कोई रह गया है पढ़ने से तो अमेज़न पर यह उपलब्ध है बहुत ही उचित मूल्य पर।<br />
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शिखा को अपने लेखकीय कार्यों और प्रसिद्धि के लिए ढेरों बधाई और शुभकामनाएं। </div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-85747840314957260692019-01-19T02:12:00.000-08:002019-01-19T02:33:08.013-08:00उल्टा स्वस्तिक भी शुभ की कामना से...अजब गजब मान्यताएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJo11lcZ2XTENXG4st3gIzeNKnD8qMW17nVAcFhpFp9xqHpXZmi9TTMsRCaEHDntrBIszWl5hQ0zz339rurZRk1Yj1eLK10nIGHap50u4C-7QyKGalvwTaRDCvQ2J2I6MWj4j7fLUbRtaI/s1600/IMG-20190119-WA0037.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="780" data-original-width="1040" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJo11lcZ2XTENXG4st3gIzeNKnD8qMW17nVAcFhpFp9xqHpXZmi9TTMsRCaEHDntrBIszWl5hQ0zz339rurZRk1Yj1eLK10nIGHap50u4C-7QyKGalvwTaRDCvQ2J2I6MWj4j7fLUbRtaI/s320/IMG-20190119-WA0037.jpg" width="320" /></a></div>
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नहर के गणेशजी, जयपुर</div>
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हिंदू धार्मिक परंपरा में स्वस्तिक चिंह बहुत महत्व रखता है. गणेश पुराण के अनुसार स्वस्तिक गणेश का ही एक रूप माना जाता है इसलिए किसी भी भी प्रकार की पूजा (दैनिक या विशेष) में शुभ की कामना और प्रार्थना के साथ स्वस्तिक चिंह अंकित किया जाता रहा है. वहीं स्वस्तिक कि सीधा अंकन भी आवश्यक माना जाता है. उल्टा या आड़ा टेढ़ा स्वस्तिक दुर्भाग्य या विपदा आमंत्रण का प्रतीक माना जाता रहा है.<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1cUCi7INq55zjz3hRQeNliDLA6bzmjJW9ro_WN0J8XGLPgfJO8mc1Mjsee-6IlbZ3eIzvt4W3enVcGF2Mq3d1wv-oep3C0b6iGm2AxyPyeQ0uRzczZghOzY2Ne4Z0Zw0KK_KUurFIso3x/s1600/IMG_20190119_153716.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="350" data-original-width="484" height="231" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1cUCi7INq55zjz3hRQeNliDLA6bzmjJW9ro_WN0J8XGLPgfJO8mc1Mjsee-6IlbZ3eIzvt4W3enVcGF2Mq3d1wv-oep3C0b6iGm2AxyPyeQ0uRzczZghOzY2Ne4Z0Zw0KK_KUurFIso3x/s320/IMG_20190119_153716.jpg" width="320" /></a></div>
आम मान्यता से उलट उल्टा स्वस्तिक<br />
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मगर जब जयपुर के ' नहर के गणेश' में दीवार पर बड़ी संख्या में उल्टे स्वस्तिक अंकित देखे तो बहुत अजीब लगा. जिज्ञासा हुई कि आखिर इतने लोग गलती कैसे कर सकते हैं. क्या किसी ने टोका नहीं होगा!!<br />
पड़ताल में सामने आई यह जानकारी कि यहाँ लोग जानबूझ कर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं. किसी कार्य के पूर्ण होने की मान्यता लेकर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं और जब वह कार्य पूर्ण हो जाये तब वही व्यक्ति वापस आकर सीधा स्वस्तिक बनाता है. विशेष रूप से अविवाहित युवक/युवती विवाह की मन्नत कर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं और विवाह के पश्चात जोड़े सहित सीधा स्वस्तिक अंकित कर आभार प्रकट करते हैं.<br />
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बताया जाता है कि तांत्रिक क्रियाओं से प्राप्त भस्म से बनाई गई यह गणेश प्रतिमा लगभग 177 वर्ष पूर्व दक्षिणाभिमुख स्थापित की गई थी. इस गणेश प्रतिमा की सूंड का दाहिनी तरफ होना भी इसकी एक विशेषता है.<br />
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जब गूगल पर उल्टे स्वस्तिक के बारे में खोज खबर ली तो मध्यप्रदेश के महेश्वर में लगभग 900 वर्ष पूर्व स्थापित गोबर के गणेश जी के यहाँ भी मन्नत माँगते समय उल्टा स्वस्तिक बनाने की प्रथा की जानकारी प्राप्त हुई....<br />
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लगभग सभी गणेश मंदिरों अथवा हनुमान मंदिरों में सिंदूर के रंग में पुती विशेष दीवार होती है ताकि स्थान- स्थान पर सिंदूर लगाकर मंदिर का स्वरूप न बिगाड़ा जाये मगर अनुशासन तो हम भारतीयों के संस्कार में ही नहीं है. मंदिर प्रशासन के सतर्क करते आदेशों/प्रार्थनाओं पर भक्तों की विशेष श्रद्धा हमेशा ही भारी पड़ती है.<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-18688974583298755492018-10-23T01:38:00.000-07:002018-10-23T01:41:57.845-07:00रिश्तों की पाठशाला ...(1)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
आपको पता है न. उसने जीवन भर हमारे साथ कितना बुरा व्यवहार किया. कभी हमारी तो क्या बच्चों की शक्ल तक नहीं देखी. कभी होली दिवाली नमस्कार करने जैसा भी नहीं. फिर भी हम सब भुलाकर रिश्ता निभाते रहे.<br />
<br />
हाँ. बात तो आपकी सही है. हमारे साथ भी उसका यही व्यवहार था.<br />
<br />
पर उस दिन उसकी गलती थी. कितना भारी , सुख और दुख दोनों का ही समय था. एक दिन के लिए भी जिस बेटी को स्वयं से अलग नहीं किया, वह हमसे इतनी दूर जाने वाली थी. तब उसने पूरा माहौल खराब किया. आधी रात में सड़क पर हंगामा किया. नये बन रहे रिश्तों के सामने .<br />
<br />
बात तो आपकी सही है. उस समय चुप रहना था उनको...<br />
<br />
मगर फिर भी आप लोगों ने कुछ नहीं कहा उसे. हमें ही टोकते रहे.<br />
<br />
क्या करें. इतनी मुश्किल से वर्षों बाद उसने आना शुरू किया है. कुछ कहें तो फिर से नाराज हो जायेगा, आना जाना छोड़ देगा.<br />
<br />
मतलब ...हम आना - जाना नहीं छोड़ते इसलिए हमें कुछ भी कहा जा सकता है!!<br />
<br />
<br />
<br />
टेढ़ी कीलों को तो हथौड़ा भी नहीं ठोकता, सीधी पर ही चलता है दनादन...सोचते हुए मुस्कुराहट आ ही गई.<br />
#रिश्तोंकीपाठशाला</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-69589765646662022972018-09-25T19:12:00.000-07:002018-09-25T19:14:12.359-07:00पुत्री का पिता के प्रति श्रद्धा का अर्पण ही है मातामह श्राद्ध...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqS5gv4Qosn46sDNVJrKc_vysvb6ZzTJDX8dx8i_19bWXm8BfeiagM0-hZDWOduisVR2vstDfss7KFjLSzzyQ6AXq8AG5k030j-EftecYgWFZ3Xv5lo-w3lNTQcuPCN4bN5twhW1erL8-5/s1600/images+%25286%2529.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="332" data-original-width="443" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqS5gv4Qosn46sDNVJrKc_vysvb6ZzTJDX8dx8i_19bWXm8BfeiagM0-hZDWOduisVR2vstDfss7KFjLSzzyQ6AXq8AG5k030j-EftecYgWFZ3Xv5lo-w3lNTQcuPCN4bN5twhW1erL8-5/s320/images+%25286%2529.jpeg" width="320" /></a></div>
<br />
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">एक भाई था. उसकी एक बहन थी. भाई का नाम जोठो और बहन का नाम धोधां. उसने अपनी पत्नी से कहा कि मैं गया जी जा रहा हूँ श्राद्ध के लिए, मेरी बहन को पन्द्रह दिन तक अच्छी तरह जिमाना. </span><br />
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई गयाजी चला गया. भाभी रोज ननद को बुलाती और दो रोटी देकर भेज देती. एक दिन उसके पिता का श्राद्ध था तो उस दिन भाभी ने अपनी ननद से कहा कि बाईसा, कल आप जल्दी आना, काम करना है. बच्चों से कह देना</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पेड़ हिले तो आ जाना , पत्ते हिलें तो मत आना. बहन अपने बच्चों को कहकर आई कि तुम नाले की मुंडेर पर बैठ जाना. मैं चावल की माँड़ गिराउँगी तो तुम पी लेना. मगर जब वह माँड गिराने लगी तो उसकी भाभी ने रोक दिया . बोली आज बापूजी का श्राद्ध है सो माँड नाले में मत गिराना. शाम को बहन घर जाने लगी तो उसे चार रोटी देकर भेज दिया. जब ब न घर आई तो बहुत रोई. उसके आँसे उसके पिता के खाने में गिरे. उसी रात उसके पिता बेटी के सपने में आकर बोले कि बेटी , तू क्यों रोई. तब वह बोली कि भाभी ने आपको खीर मालपुआ खिलाया और मैं भूखी मरते सो रही हूँ. पिता ने कहा बेटी रो मत. घर के बाहर जो कचरा पड़ा है, उसे घर में रख लो. तेरा सब सही हो जायेगा. बेटी ने ऐसा ही किया। सुबह उठ कर देखे तो नौ खंड महल, हीरे जवाहरात, मोटर कार, सुंदर वस्त्र हो गये. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उधर भाई गयाजी में पिंडदान कर रहा था तो उसके खाने में खून की बूँदें टपक गईं. उसने पूछा पंडित से ये कैसे हुआ तो उसने कहा कि तुम्हारे घर में कोई बहन/बेटी कलपी (व्यथित) है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
जब भाई श्राद्ध कर वापस लौटा तो उसने पत्नी से पूछा कि क्या तुमने रोज जिमाया था बहन को. उसकी पत्नी बोली कि हाँ...खूब अच्छी तरह जिमाया और आज ही दक्षिणा देकर विदा किया है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उधर पिता ने पुत्री को अपना श्राद्ध करने और भाई भाभी को जीमने के लिए बुलाने को भी कहा था. बहन खूब अच्छे रेशमी कपड़ों और हीरे जवाहरात से लदी फँदी मोटर गाड़ी में बैठकर भाई के घर बुलावा देने गई . भाई बहन को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ. भाभी ननद के ठाठबाट देखकर अचंभित हो गई और उसका बहुत आदर सत्कार किया. भाई जब खाना खाने बैठा तो पहले बहन को बैठाया. ननद की इच्छा नहीं थी मगर भाई के प्रेमवश उसके साथ बैठ गई...</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाभी ने ननद को भी सब पकवान परोसे. बहन सभी पकवान अपने कीमती वस्त्रों और गहनों के पास लाकर कहने लगी... जीमो म्हारा छल्ला बिंटी, जिमो म्हारा डोरा कंठी, जीमो म्हारा चमचम बेस ...</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई को समझ नहीं आया. बोला - यह क्या कर रही हो बहन. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई . आज ये पकवान इन सबके कारण ही मिल रहे है. वरना मेरी किस्मत में तो मात्र लूखे फुलके ही थे. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
अब भाई को तर्पण के समय खून के आँसू का मतलब समझ आया और वह खून के आँसू पीकर रह गया. बहन ने अपने घर पिता का श्राद्ध किया सबको मन भर जिमाया. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
कुछ दिन बाद भाई उदास होकर अपनी पत्नी को बोला- तुम्हारे पीहर में आग लग गई . उनका सब जल कर राख हो गया. कुछ सामान बाँध दो तो मैं पहुँचा आऊं. सुनते ही उसकी पत्नी ने घी, तेल, आटा, चीनी, दाल, चावल आदि गाड़ी भरकर तैयार कर दी. भाई ने कहा रास्ते में ब न का घर भी आयेगा. कुछ उसके लिए भी दे देना. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाभी बोली- हाँ. क्यों नहीं. ननद बाई के घर तो पहले भेजूँ. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उसने ताँबे का बहुत बड़ा घड़ा लेकर उसमें साँप, बिच्छू आदि जहरीले जानवर भरकर भेज दिये और यह भी बोली कि रास्ते में इसे खोलना मत और बहन के हाथ में ही देना. भाई अपने बेटे को साथ लेकर रवाना हुआ. वह पहले अपनी बहन के घर गया और गाड़ी का सब सामान वहीं उतार दिया. अब उसने ताँबे का घड़ा सास के हाथ में दिया और कहा कि वह घड़े को अँधेरे में ही खोलकर देखे. सास ने घड़े में हाथ डाला तो साँप बिच्छू लिपट गये. उनको उसी हालत में छोड़ कर बाप बेटे लौट आये. बहू ने अपने बेटे से पूछा कि घड़ा किसको दिया तो उसने सारी बात बता दी. उसकी पत्नी ने सोचा कि अब तो मुझे बदला लेना है. वह कंबल ओढ़ कर सो गई. उसके पति ने पूछा कि क्या हुआ यो बोली की पंडितों ने बताया है कि मेरी तबियत बहुत खराब है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
तो यह ठीक कैसे होगी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पंडित ने कहा कि यदि तुम्हारी ननद ननदोई काले कपड़े पहन कर, सिर मुंड़वा कर हाथ में मूसल लेकर खेम कुसलजग्गी रो घर किस्यो कहते आयें तब ही मेरी तबियत ठीक होगी.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उसका पति सब चाल समझ गया. उसने कहा कि मेरी बहन तो तेरी खातिर दौड़ी आयेगी. मैं अभी बोलकर आता हूँ.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई पत्नी के मायके गया और बोला कि आपकी बेटी बीमार है और पंडितों ने कहा है कि अगर आप लोग काले कपड़े पहनकर सिर मुड़ा कर आयेंगे तभी उसकी तबियत ठीक होगी. सास ने कहा कि मेरी तो एक ही बेटी है. जैसा आप कहो , हम वैसा ही करेंगे.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
बहू के माँ बाप सिर मुड़ाये काले कपड़ों में हाथ में मूसल लिए खेम कुसलझग्गी रो घर किस्यो करते आये. भाभी ने सोचा कि ननद ननदोई आये हैं सो वह छत पर चढ़ गई और कहने लगी. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
इ बनी र कारण</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
ननदल नाचे बारण (इस बहू के कारण ननद घर के बाहर नाच रही है)</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई ने बोला- भाग्यवान देख तो ले ठीक से. ननद नाच रही या तेरे माँ बाप.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
वह यह देखकर वह बहुत जल भुन गई.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
कुछ दिन बाद फिर पति से बोली- आज मेरा साँझ साँझूली का व्रत है.</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पति बोला यह कौन सा व्रत है. भाभी झूठमूठ पूजने लगी - </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मैं तन पूजूँ साँझ साँझूली</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मरजो म्हिरी ननद ननदूली...</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
भाई समझ गया कि यह औरत नहीं सुधरेगी. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उसने दूसरे दिन अपनी पत्नी से कहा- आज मेरा ऊब घोटाले का व्रत है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पत्नी ने पूछा- ये ऊब घोटाले का कौन सा व्रत होता है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उसके पति ने कहा -जैसे साँझ साँझूली का होता है वैसे ही ऊब घोटाले का होता है. </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
फिर झूठमूठ पूजने लगा-</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मैं तन पूजूँ ऊब घोटाला</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मरजो सुसरा दोण्यूँ साला...</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पत्नी समझ गई कि भाई के आगे उसकी चाल नहीं चलने वाली. अब वह अपनी हार मानकर ननद के साथ खुशी- खुशी रहने लगी. नगरी में मुनादी करवा दी कि श्राद्ध पक्ष में कोई भी बहन बेटी दुखी न रहे और अमावस्या के बाद बेटी भी बच्चे के जन्म के बाद पिता का श्राद्ध करे...<br />
<br />
<br />
फेसबूक पर चर्चा के दौरान पता चला कि अधिकांश लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पुत्री भी माता पिता का श्राद्ध कर सकती है. इसे मातामह श्राद्ध के नाम से जाना जाता है. घर में बुजुर्गों से इससे संबंधित कहानी सुनी थी. आभासी दुनिया के परीचित मित्रों ने भी यह कहानी जानने की उत्सुकता जताई तो परिवार के बुजुर्गों से ही इसके बारे में पूछताछ कर लिख दी है. इसमें कुछ त्रुटि हो तो संशोधित करने में सहायता अवश्य करें.<br />
<br />
(चित्र गूगल से साभार. आपत्ति होने पर हटा लिया जायेगा)</div>
</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-44191818230582924802018-09-22T20:18:00.001-07:002021-07-15T05:21:32.531-07:00देख तेरे संसार की हालत .....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
कल एक शोक सभा से लौटते हरियाणा के एक कथित बाबा (जो फिलहाल जेल में हैं) की शिष्या टकरा गईं. अपनी सखी को बाय/विदा/खुदा हाफिज़/राम राम/राधे राधे की बजाये सत् और जाने क्या बुदबुदाई. </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">इसी ने मुझे चौंकाया. मैंने पूछा अभी तुमने अभी क्या कहा . </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">वह फिर बुदबुदाई . मुझे फिर भी समझ नहीं आया तो विस्तार से बताने लगी. </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">हम फलाने गुरू की शिष्या हैं तो यही कहते हैं. हमारे गुरू की बातें सुनो आप. हम किसी भी भगवान को नहीं मानते, पूजा पाठ नहीं करते. अभी वहाँ पंडित जी जब श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी का नाम स्मरण करा रहे थे तब मैं अपनी माला जप रही थी. वो अपने परीचित हैं वरना ऐसे स्थान पर हमको इजाजत ही नहीं है बैठने की.</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> वो कह रहे थे व्रत करने को मगर शास्त्रों में गीता, बाईबिल, कुरान किसी में किसी में भी व्रत करने की, पूजा पाठ के लिए मना किया है. ये सब तो पंडितों का किया धरा है.<br />
<br />
मैंने पूछा- अच्छा!!! चलो हिंदुओं का तो मान लिया तुम्हारे अनुसार पंडितों ने बेड़ा गर्क किया है. मगर बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम समुदाय तक भी थी पंडितों की पहुँच??<br />
<br />
हमारे लिए हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कुछ नहीं. सब एक प्रभु की संतान हैं. (बस पंडित ही उस प्रभु की संतान नहीं है, मैंने सोचा ).<br />
ब्रह्मा/विष्णु/महेश सबका जन्म हुआ है. ईश्वर थो अजन्मा होता है.<br />
<br />
हें... उनका जन्म हुआ था. यह तो मैंने पहली बार सुना किसी से. फिर भी चलो यह बताओ कि फिर तुम्हारी पूजा विधि क्या है, कैसे स्मरण करती हो ईश्वर को.<br />
<br />
हम बस माला फेरते हैं गुरु का नाम लेते हैं. बीच में कबीर का भी नाम लिया .</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
मगर कबीर ने तो जन्म लिया था न...!<br />
<br />
नहीं. वे सशरीर प्रकट हुए थे. आप अपना वाट्स नंबर दो. मैं सब भेजूँगी आपको .<br />
<br />
देखो...मुझे यह सब जानने में रूचि नहीं है. हम लोग ऐसे किसी बाबा को नहींं मानते.<br />
<br />
मैं भी नहींं मानती थी . मैंने सबको सुना . मुरारी बापू, आशाराम, राम रहीम मगर जब इनको सुना तो बस इनकी बातें सच्ची लगी. ये गुरू ही सच्चे हैं. सत् हैं. कोई बात नहीं. सब उस परमात्मा की संतान हैं.<br />
<br />
(कितने रहस्य की परतें खुलनी बाकी हैंअभी , मैं मन में सोच रही थी 😂. हमसे तो जो हमारा ज्ञान है वही सँभल नहीं रहा . अतिरिक्त ज्ञान का क्या करेंगे. हमें माफ करो देवी)<br />
<br />
जब प्रश्नकर्ता के किसी प्रश्न का जवाब तुम्हें नहीं पता तो उसे (कंफ्यूज) भ्रमित कर दो और फिर भी नहीं उलझे तो नंबर माँग लो, जबरदस्त प्रशिक्षण ( ट्रेनिंग ) हैं.<br />
<br />
प्रकट में मैंने कहा - तुम्हारा आध्यात्मिक ज्ञान देखकर लग रहा शायद तुम प्रवचन करने भी जाती हो.<br />
<br />
नहीं, हम क्यों जायेंगे प्रवचन करने. हम गृहस्थ हैं. मैं मैरिड हूँ पर हमको लिपस्टिक , नेलपेंट लगाना अलाउड नहीं है.<br />
<br />
मैंने उसके चेहरे की ओर देखा. अच्छा! बिंदी लगाना भी नहीं होगा!<br />
<br />
नहीं! उसकी मनाही नहीं है. अपनी मर्जी पर है.<br />
<br />
अच्छा! क्यों मना है लिपस्टिक /नेलपेंट आदि.<br />
<br />
छोड़िये. बहुत डिटेल में बताना पड़ेगा. आप अपना वाट्सएप नंबर दीजिए सब बता दूँगी.<br />
<br />
वैसे सुना है उन बाबा के बारे में अभी जेल में हैं.<br />
<br />
वे सब आरोपों से बरी होंगे.<br />
<br />
एक अच्छी खासी पढ़ी लिखी, अपना व्यवसाय करने वाली कन्या की यह भक्ति अचंभित से ज्यादा भयभीत कर रही थी मुझे.<br />
सबसे ज्यादा परेशान करनी वाली बात थी किसी भी प्रश्न<br />
पर जवाब देते समय और उसकी बातों से असहमति जताने पर उसकी बॉडी लैंग्वेज, उसका उत्तेजित होना .<br />
<br />
जाने ये तथाकथित बाबा लोग क्या विद्या जानते हैं!!!</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-43161136236124761302018-07-16T04:46:00.001-07:002018-07-16T05:09:22.585-07:00फेसबूक की दुनिया से...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhap0JDJQInSTk-5Ar6fjiS3IMsHriPMeLBax3xog-BFTMgXyTTHD-hOsI8pse0ki0mEmHrlxJVf_MGaHUJCjFjpN8BG-l1oinBLiyQMPvcBj689MYpnSnxgvYua7q9Vi3x09X8_J8emFQw/s1600/images+%25287%2529.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="365" data-original-width="403" height="289" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhap0JDJQInSTk-5Ar6fjiS3IMsHriPMeLBax3xog-BFTMgXyTTHD-hOsI8pse0ki0mEmHrlxJVf_MGaHUJCjFjpN8BG-l1oinBLiyQMPvcBj689MYpnSnxgvYua7q9Vi3x09X8_J8emFQw/s320/images+%25287%2529.jpeg" width="320" /></a></div>
(चित्र गूगल से साभार)<br />
<br />
क्या आपको याद है कि अपने बचपन में विवाह, सगाई, बच्चे के जन्म, जड़ूला आदि पर होने वाले जीमन में नीचे बैठकर पंक्ति में खाना होता था .अभी भी कई स्थानों पर, अवसरों पर ऐसा जीमन होता है . खाना भी वही एक - सा . पूड़ी- सब्जी , रायता, बूँदिया , नमकीन.... थोड़ा ज्यादा अच्छा जीमन हो तो काजू कतली, दाल की चक्की, गुलाबजामुन,जलेबी और बालूशाही में से कोई एक या दो मिठाई.... पेट भरेगा या भूखा ही उठना पड़ेगा, परोसने वालों की इच्छा और मंशा पर ही निर्भर करता था. आप बैठे रहो खाली पत्तल लिए ,परोसने वाले का सामान बस आपकी पत्तल तक पहुँचने से पहले खत्म हो जाये तब हाल देखने लायक. अगला पलटकर कब आये कोई ठिकाना नहीं. कोई अधिक ही सहृदय पास बैठा हो तो चार -पाँच अँगुलियों में समाने जितनी बुंदिया /नमकीन आपकी पत्तल में सरका दे. चुगतते रहो बैठे चुपचाप जब तक परोसने की दूसरी पारी आये. हमारे जैसे शर्मीले (मतलब बचपन में 😜) तो कई बार जीमन से भूखे या आधेभूखे लौटते क्योंकि परोसना वाला पूछता- पूड़ी, बुंदिया, बालूशाही रखूँ ?<br />
गले को गीला करते जवाब और मुंडी हाँ में हिलने से पहले ही हमारी उदासीनता समझ आगे बढ़ जाता. पड़ोस में बैठी कोई स्त्री (भाभी, मामी, चाची आदि ) कहती भी - अरे. पत्तल खाली पड़ी है, कुछ खाती ही नहीं यह लड़की ..<br />
<br />
मन मसोस कर रह जाते मगर कहते यही- नहीं नहीं , इतना ही चाहिए था मुझे. आज के बफे सिस्टम की तरह थोड़ी कि मनपसंद मिठाई दो चार चक्कर लगाकर भी सारी भोग लगाई जाये.<br />
<br />
जीमने वाली कोई कोई दबंग पड़ोसनें होती तो परोसने वाले को रोककर खुद की पत्तल के साथ आसपास वाले अपने पराये छौनों को भी परोसवा लेती.<br />
<br />
रख इकी पत्तल म भी.<br />
दो चार गुलाबजामुन रख दे एक साथ,<br />
फेर दो चार चक्कर कटेंगे.<br />
और आता पूड़ी और चक्की को धामो भी ले आयो. आदि आदि.<br />
तो ऐसी पड़ोसन के बगल में होते तो सबकुछ परोस जाता था पत्तल में वरना भूखे ही आना होता था.<br />
<br />
कुछ स्त्रियाँ / पुरूष जो खाते वक्त बोलती/बोलते नहीं थी/थे, मौनव्रत रखते थे , सिर्फ हाथों और आँखों के इशारे से समझातीं मुँह चलाते हुए- सब्जी जरा हिलाकर देना, पूड़ी अच्छी नरम देना तब उनकी भावभंगिमा देखना मनोरंजन भी देता था....<br />
<br />
आजकल फेसबूक भ्रमण करते समय मुझे ऐसा जीमन बहुत याद आता है.... जाने क्यों !! 😁😜<br />
<br />
#फेसबूकलाइककमेंट<br />
<br />
!! 😁😜</div>
वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7676889437502455189.post-68079297377939749312018-04-30T21:52:00.001-07:002021-06-05T20:44:38.776-07:00चटनी जितनी लीद.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ समय पूर्व वृंदावन से पधारे कथा वाचक से राम कथा को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . गृह कार्यों से फारिग होकर लगातार सुन पाना संभव भी नहीं इसलिए बीच के कुछ समय का लाभ लेकर ही उत्साहित अथवा कृतज्ञ समझ लिया जाए।पूर्ण समय न दे पाने का सिर्फ यही कारण है ,ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।<br />
<br />
रामचरितमानस का पाठन कई बार किया है और इनसे सम्बंधित कथा कहानियों का वाचन श्रवण एवं मंचन लाभ भी लिया है सो मन में यह भावना भी रहती है कि आखिर इस बार नया क्या सुनने को मिलेगा। सब तो पता है। कथा की श्रोता होते हुए भी यह विचार मन में चल रहा था मंच से स्वामी जी ने शिव शंकर पार्वती का वह प्रसंग सुना दिया जिसमें शिवजी काकभुसुंडि से राम कथा का श्रवण कर रहे मगर पार्वती सोच रही कि मुझे तो सब पता है यह क्या सुनाने वाले हैं। सीता का वेश धर राम की परिक्षा लेने वाले इस वृतांत में अंततः सती को भान होता है कि सब ज्ञात होकर भी बहुत कुछ अज्ञात है।<br />
जीवन के इस सत्य का प्रत्येक व्यक्ति को कई बार भान होता है कि ज्ञात में बहुत कुछ अज्ञात है पर अहम यह मानने नहीं देता ...एक ही जीवन में जाने कितना कुछ जानने को बाकी रह जाता है ...</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> खैर, उनके कथा वाचन में उनके ज्ञान पर टिप्पणी न करते हुए बताते चलूँ कि स्वामी जी और उनके साथी रामकथा तथा अन्य भजन बहुत सुर में सुनाते हैं इसलिए आनंद रस भरपूर प्राप्त हुआ... उनके भजन में फ़िल्मी टोन नहीं बल्कि भरपूर शास्त्रीयता है जो हमारे जैसे श्रोता को बांधे रखती है। कथावाचक रामकथा के बीच-बीच में आज के समयानुसार कई रोचक दृष्टांत , कथाएं भी सुनाते हैं जिससे वाचन की रोचकता बनी रहे।<br />
ऐसी ही एक छोटी सी रोचक कथा साझा करने योग्य है...<br />
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एक अभिमानी राजा मद में भरा हाथी पर नगर भ्रमण को निकला। तभी रास्ते से गुजर रहे एक साधू ने दानी जानकार राजा से दान प्राप्त करने के लिए अपना वस्त्र आगे फैला दिया। अभिमान में भरे उस चिड़चिड़े राजा ने इधर -उधर देखा . तभी उसकी नजर हाथी द्वारा तुरंत की गई लीद पर गई। उसने अपने सैनिक को आदेश दिया कि वह लीद उठा कर साधु की झोली में डाल दे। राजा जब भ्रमण कर महल पहुंचा और भोजन करने बैठा तो जैसे ही ग्रास उठता सुस्वादु व्यंजनों की भरी थाली में उसे लीद ही लीद दिख पड़ी। कई ग्रास छोड़े ,कई थालियां बदलीं मगर प्रत्येक ग्रास में वही लीद नजर आये। भूख से बेचैन राजा की तकलीफ देख कर राज ज्योतिषी को बुलाया गया। उसने राजा द्वारा लीद का दान करने की घटना का प्रभाव बताया।<br />
अब इसका क्या उपाय किया जाए। सोचते हुए ज्योतिषी ने सुझाया कि राजा स्वयं ऐसे कार्य करे जिससे उसकी सर्वत्र निंदा हो ताकि राजा की जितनी अधिक निंदा होगी उसके पाप निंदा करने वाले के हिस्से में स्थानांतरित हो जाएंगे क्योंकि जो व्यक्ति किसी की निंदा करता है वह उसके पाप को स्वयं ढ़ोता है। अपनी करनी से स्वयं अपनी निंदा कौन सुनना चाहता है मगर कोई उपाय न देख राजा ने मुनादी करवाई कि सभी नागरिक राजा की खूब बुराई करें. प्रजा को अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। जिसको देखो जी खोलकर राजा की निंदा करता नजर आता। धीरे -धीरे राजा की थाली से लीद कम होती जाती थी मगर फिर भी भोजन में चटनी जितनी लीद थाली में बनी ही रहती। राजा ने फिर बुलाया ज्योतिषी को...ज्योतिषी ने बताया कि राजन आपके राज्य में सिर्फ एक व्यक्ति है जो किसी की निंदा नहीं करता और आपकी थाली में बची हुई लीद का कारण भी वही है। राजा ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी कि वह व्यक्ति उसकी बुराई करें मगर निंदा करना उसका स्वाभाव ही नहीं था। थक हार कर राजा ने सामान्य नागरिक का वेश बनाया और उस व्यक्ति के पास पहुँच कर अपनी खूब बुराई करता रहा मगर उस व्यक्ति के मुंह से एक भी शब्द निंदा का नहीं कहलवा पाया। राजा के लगातार प्रयास को देख वह व्यक्ति हँस पड़ा क्योंकि वह राजा को पहचान गया था . उसने कहा कि राजन आप कितनी भी प्रयत्न करें मगर मेरी जुबान से आपकी निंदा नहीं निकलेगी . चटनी भर ही सही लीद तो आपको खानी ही पड़ेगी। अब राजा की समझ में आ गया था कि वचन और कर्म में सावधानी प्रारम्भ से ही अपेक्षित है. जब हम किसी की निंदा कर रहे होते हैं तब उसके पाप का भाग अपने ऊपर लाद रहे होते हैं और जब निंदा झूठी हो तब तो उसके भार का कहना ही क्या ....<br />
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कहते हैं न भाव सिर्फ कहानी सुनने तक ही जगते हैं फिर से वही वास्तविकता...मगर सुनने में आनंद मिला तो लिख कर बाँटना अच्छा लगा. हम न सही, किसी एक का भी जीवन बदल जाये तो लाभ ही होगा और नुकसान तो कुछ भी नहीं.<br />
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वाणी गीतhttp://www.blogger.com/profile/01846470925557893834noreply@blogger.com10