सोमवार, 24 जून 2013

महज आर्थिक स्वतन्त्रता ही स्वतंत्र व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है !


गिफ्ट शॉप पर एक शाम पड़ोस की टीवी रिपेयरिंग की दूकान में  नजारा देखने को मिला . बड़ी सी कार खुद चला कर लाई महिला स्वय निर्णय नहीं ली पा रही थी कि टीवी ठीक होने के लिए यहीं छोड़ा जाय या नहीं . अपने पति से फोन पर बात की उन्होंने , फिर निर्णय किया कि टीवी वापस घर जायेगा फिर उनके पति ही उसे ठीक करवाएंगे , खैर , यह मामला  इतना संजीदा नहीं था इसके क्योंकि इसके कई और कारण हो सकते थे .

निम्नतम  आय वर्ग जैसे मजदूर , घरो में या खेती में काम करने वाली स्त्रियाँ , धोबी (प्रेस करने वाले ) इत्यादि  अक्सर कामकाजी या आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर ही माने जा सकते हैं  , मगर अक्सर उनकी तनखाह पर स्वयं उनका हक़ नहीं . घर लौटकर शराबी पति की मारपीट या खर्चा उनके हाथों में सौंप देना आम है .(हालाँकि अपवाद हर वर्ग में हैं !)   

मगर एक पारिवारिक चर्चा   में जब सामने बैठे एक परिचित कह बैठे - हमारा परिवार पुरुष प्रधान है ,घर/बाहर   से सम्बंधित कोई भी निर्णय मेरी स्वीकृति होने पर ही लिए जा  सकते हैं तो मेरा चौंकना स्वाभाविक था  .  भारतीय मध्यमवर्गीय समाज में परिवारों में घर परिवार से सम्बंधित महत्वपूर्ण आखिरी निर्णय पुरुष ही लेता है , यह सर्वविदित है मगर अक्सर परिवारों में महिला सदस्यों की राय लिया जाना भी सहज है इसलिए उनका  दम्भपूर्ण बखान मुझे अच्छा नहीं लगा . आखिर घर/ परिवार की प्रमुख धुरी स्त्री को नजरअंदाज कर  निर्णय कैसे लिए जा सकते हैं !! 
उनकी यह दम्भोक्ति उतनी अखरती नहीं यदि वह  कहते कि सारे निर्णय हम मिलजुल कर लेते हैं .  उक्त सज्जन की पत्नी सरकारी नौकरी में है ,पति के बराबर (बल्कि हो सकता है ज्यादा ही )   तनखाह लाती है , यानि घर चलाने में आर्थिक सहयोग उनका बराबरी का है , मगर घर में हक़ बराबरी का नहीं ??  

माने कि महज आर्थिक स्वतन्त्रता ही आपके स्वतंत्र  व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है .  नौकरी और आमदनी आपको अपनी सुविधानुसार खर्च करने या घर से बाहर रहने में तो मदद कर सकती है , (हालाँकि इसमें भी शक किया जा सकता  है कि  खर्च भी वे अपनी इच्छानुसार कर सकती हों ) मगर आपके व्यक्तित्व को गढ़ नहीं सकती . 

 जो व्यक्ति /स्त्री इस प्रकार अपने अस्तित्व को महसूस करता है और दूसरों को उसके अस्तित्व को स्वीकारे जाने को बाध्य करे , व्यक्तित्व वही पूर्ण है . सिर्फ ऊँची डिग्रियां या कामकाजी होना आपके अस्तित्व और व्यक्तित्व की उपस्थिति  दर्ज नहीं कराता . व्यक्तित्व को पुष्ट करती है आपकी कार्यशैली , बिना डरे  /हिचके अपने विचार व्यक्त करने और महत्वपूर्ण निर्णय लेने में आपकी भागीदारी , वर्ना एक इंसान और रबर स्टाम्प में फर्क क्या रह जाता है !! 

स्त्रियों की अस्मिता , गौरव और आत्मसम्मान के लिए किये अभी कितना कार्य किया जाना शेष है , कभी -कभी बहुत निराशा होती है , लगता है कि एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!


 आपकी राय का स्वागत है !

39 टिप्‍पणियां:

  1. अभी बहुत सुधार शेष है -किन्तु महिलाओं के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता बहुत जरुरी है तभी उनके व्यक्तित्व का सहज मुक्त स्वरुप निखर पाता है -मैं यहीं ब्लागजगत में देखता हूँ आर्थिक रूप से परतंत्र ब्लॉगर अनावश्यक रूप से सकुची सिमटी रहती हैं
    जबकि आर्थिक रूप से स्वावलंबी ब्लॉगर और अच्छी तरह अभिव्यक्त होती हैं !

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    1. .
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      .
      अरविन्द जी,

      ब्लॉगजगत की महिला ब्लॉगरों के बारे में आपका प्रेक्षण व निष्कर्षों के आधार क्या हैं ?... मैं नहीं समझता कि ब्लॉग जैसे अभिव्यक्ति के माध्यम में अर्थ कुछ प्रभाव डालता है... जिन्हें आप अनावश्यक रूप से सकुची सिमटी कह रहे हैं हो सकता है कि यह उनका सायास चयन हो... कम से कम तो मैं ऐसा ही मानता हूँ... मेरी समझ में सबसे जरूरी चीज जो ब्लॉगिंग में होनी चाहिये वह है 'जस का तस अभिव्यक्त होना, बिना मिलावट के'...


      ...

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    2. @ अरविन्द जी,
      अनावश्यक रूप से सिकुड़ी सिमटी का तात्पर्य स्पष्ट हो तो इसपर विस्तार से चर्चा की जा सकती है !

      @प्रवीण जी ,
      सायास चयन का एक पक्ष यह भी है की मित्र बहुत होते हैं , मित्रों के प्रति दयालुता और प्रेमपूर्ण व्यवहार भी समान हो सकता मगर सभी से घनिष्टता नहीं होती , सबके सामने आप एक जैसे ही बने रहें , यह संभव नहीं और उचित भी नहीं .
      आपके लेखन में अवश्य ईमानदारी होनी चहिये , इसपर कोई दो राय नहीं है मगर इसका आर्थिक आत्मनिर्भरता से कोई सीधा सम्बन्ध हो , यह आवश्यक नहीं !

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    3. प्रवीण जी,
      आधार व्यक्तिगत है। आर्थिक स्वतंत्रता स्वछन्द निर्णय को प्रोत्साहित करता है ,व्यक्तित्व को 'इनहिबिशन्स' मुक्त करता है ! इनकी अभिरुचियों, बातचीत की सहजता ,प्रेम और घृणा के उनके झुकाव सभी कुछ में उनका यह बेलाग व्यक्तित्व झलकता है . नाम लेना उचित नहीं होगा मगर मेरे अध्ययन में ब्लागरों का सैम्पल सांख्यकीय लिहाज से महत्वपूर्ण है ! यह मैं 'जस का तस अभिव्यक्त होना, बिना मिलावट के'...के अनुसार ही कह रहा हूँ!
      Those who wish to know details of the study could contact me on phone!

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  2. कई बातें प्रभावित करती हैं। सज्जन पुरूष को कर्कशा स्त्री भी मिल जाती है। पूरा घर वह अपनी मर्जी से चलाती है, चाहे आर्थिक सहयोग शून्य हो। कामकाजी महिलाओं का भी शोषण निखट्टू पुरषों द्वारा किया जाना देखा गया है। आर्थिक पक्ष तो महत्वपूर्ण है ही। भले दुष्ट पति से लड़कर जीत न पाती हों लेकिन हीन भावना की शिकार तो नहीं होती होंगी कामकाजी महिलाएं।

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    1. अभी कुछ दिनों पहले ही एक पारिवारिक मित्र ने अपने भाई के साथ हुए दुखद हादसे को साझा किया . पत्नी द्वारा प्रताड़ित यह पति रोज पूरे परिवार को फंसाने की धमकी तथा अन्य अत्याचारों से परेशान होकर आत्महत्या करने पर विवश हुआ . एक और ऐसे उदहारण भी है :(

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  3. धन का उपयोग घर चलाने में होता है, अब किसके निर्णय से धन व्यय हो. यह समझना बहुत आवश्यक है। अधिकतर महिलायें ही निर्धारित करती हैं।

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  4. शीर्षक से सहमत। सिर्फ़ आर्थिक स्वतंत्रता स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचायक नहीं लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक हो सकती है। होती है।

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  5. सहमत. आर्थिक आत्मनिर्भरता के न होने पर भी अक्सर घरों में निर्णायक मत गृहणी का ही रहता है. अपवाद हो सकते हैं

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  6. स्वतंत्रता हमेशा " कम्फोर्ट जोन " से बाहर होती हैं . जो लोग "सुविधा" को नहीं अपनी " समझ " को महत्व देते हैं वो ही स्वतंत्र हैं . गाँधी जी बड़ा शायद ही कोई ऐसा व्यक्तित्व हो . पैसा नेहरु के पास ज्यादा था पर व्यक्तिव गाँधी जी का ही बड़ा माना जाता हैं .

    आर्थिक स्वंत्रता को इसलिये बारबार स्त्री के सम्बन्ध में लाया जाता हैं क्युकी हमारी व्यवस्था में पैसा कमाने के लिये पुरुष ही बाहर जाता रहा हैं .

    स्लेव मेंटालिटी पुरुष में भी होती हैं स्त्री में भी और पैसा महज एक जरिया हैं स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण का जिस मे "स्त्री और पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं " को एक गलत परिभाषा माना जाता हैं . दोनों स्वतंत्र व्यक्तिव के मालिक हैं , ईश्वर ने दोनों को एक दम समान बनाया हैं अपनी अपनी प्रथक विशेषता के साथ . हर देश का संविधान और धर्म भी इनको स्वतंत्र ही मानता हैं और सामान अधिकार ही देता हैं . जब ये दोनों पति पत्नी के रिश्ते में बंधते हैं तो "पूरक" होते हैं और तब ही इनका हर निर्णय दोनों की मर्ज़ी से होना चाहिये . लेकिन ऐसा होता नहीं हैं , अलग अलग घरो में अलग अलग परिस्थित के चलते केवल एक ही व्यक्ति का निर्णय चलता हैं कहीं पुरुष का तो कहीं स्त्री का

    लिंक भेजने के लिये थैंक्स वर्ना पोस्ट मिस होती

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    1. @ अलग अलग घरो में अलग अलग परिस्थित के चलते केवल एक ही व्यक्ति का निर्णय चलता हैं कहीं पुरुष का तो कहीं स्त्री का...
      हर विषय पर सबका एक मत होना संभव भी नहीं , मगर कम से कम राय प्रकट करने का और समझने का अधिकार सबका एक समान होना चाहिए , सिर्फ पति पत्नी ही नहीं अपितु परिवार के प्रत्येक सदस्य का !

      शुक्रिया :)

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  7. .
    .
    .
    @ स्त्रियों की अस्मिता , गौरव और आत्मसम्मान के लिए किये अभी कितना कार्य किया जाना शेष है , कभी -कभी बहुत निराशा होती है , लगता है कि एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!

    सहमत, पर कौन करेगा यह काम ?


    ...

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  8. पुरुष को सुरक्षा स्तम्भ के रूप में अभिवावक माना गया .... पर इस मान्यता को सख्त बनाकर पति-पत्नी का रिश्ता गुरु-शिष्य का बना दिया गया,.... वह भी ऐसा गुरु कि शिष्य यदि कहीं भी तेज निकले तो छड़ी से उसे खामोश किया जाये .
    एक स्वाभाविक यात्रा में समाज ने बबूल लगा दिए . प्राथमिकता दोनों की है,विचार आपसी हैं - पर मतभेद की स्थिति हर रिश्तों से लेकर पड़ोस तक है . जो परिस्थितिवश सिमट गए हैं,वहाँ स्थिति सरल है अन्यथा सलाहकार इस रिश्ते को कठपुतली बना देते हैं . सख्ती से कुछ अपनी पहचान बना पाए हैं पर उनसे परे आज भी स्थिति पूर्ववत है और आगे भी रहेगी ही . एक सहज अंतर को सबने विषम बना दिया -
    आर्थिक स्वतंत्रता से अपने में शक्ति तो आई ही है कि रोड पर नहीं आयेंगे

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    1. इसलिए ही तो कहा कि महज आर्थिक आत्मनिर्भरता , आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ आपकी दृढ़ता भी मायने रखती है !

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  9. @ स्त्रियों की अस्मिता , गौरव और आत्मसम्मान के लिए किये अभी कितना कार्य किया जाना शेष है , कभी -कभी बहुत निराशा होती है , लगता है कि एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!

    सहमत हूँ लेकिन निराश नहीं... इसके लिए हमे स्वयं प्रयास करने होंगे

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  10. स्त्रियों की अस्मिता , गौरव और आत्मसम्मान के लिए किये अभी कितना कार्य किया जाना शेष है , कभी -कभी बहुत निराशा होती है , लगता है कि एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!

    इतने सालों की व्यवस्था है एक दम से नही ठीक होगी. पर बदलाव तो दिखाई देने लगा है. अपवाद दोनों ही तरफ़ से हो सकते हैं, सार्थक चिंतन.

    रामराम.

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  11. आर्थिक स्वतन्त्रता से स्त्री के मन में आत्मविश्वास आता है .....लेकिन यह भी देखा गया है जो अर्थ कमाती हैं उन पर भी बहुत बन्दिशें लगी होती हैं ..... अपने मन से कहीं खर्च नहीं कर सकतीं । सबसे ज्यादा ज़रूरी है अपने विचारों को विस्तार देना .... किसी भी महत्त्व पूर्ण विषय पर कोई राय तभी दी जा सकती है जब आप स्वयं की समझ रखें ... कई बार ऐसा भी होता है कि आपकी राय में बहुत दम होता है लेकिन पुरुष अहम कैसे उसे स्वीकार कर ले ? वही सलाह कोई और देता है तो उस पर विचार भी किया जाता है और मान भी लिया जाता है । स्त्रियॉं को अपने अस्तित्व कि लाड़ाई स्वयं ही करनी है ..... अपनी बेबाक राय घर के हर फैसले पर ज़रूर रखें भले ही कोई उसे स्वीकार करे या न करे .... हाँ में हाँ मिलाने की आदत से दूरी बनाएँ जो सही लगे उसी को कहें । आज नहीं तो कल आपकी बात सुनी भी जाएगी और मानी भी जाएगी । भले ही फिर आप आर्थिक रूप से आश्रित ही क्यों न हों ।

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  12. अभी हाल में ही बेटी की स्कुल में जब ये बताया गया ही हेड ऑफ़ डी फैमली पिता होते है तो मैंने आपत्ति की पूछा की ये समय बदल गया है आप अब भी यही बच्चो को क्यों पढ़ा रही है , ये गुजरे ज़माने की बाद है अप तो माँ और पिता दोनों मिल कर ही निर्णय लेते है और आप को बच्चो को यही सिखाना चाहिए , स्कुल की डायरेक्टर तो बात समझ गई किन्तु क्लास की टीचर मानाने को तैयार नहीं थी यहाँ तक की कुछ ने लोगो ने भी कहा की हम संयुक्त परिवार में है वहा तो दादा दादी ही घर के प्रधान होते है पिता नहीं ये तो हमारे हिसाब से भी गलत है किन्तु वो ये नहीं मानी । जब हम अपने बच्चो को बचपन से ही ये सिखाते है की पिता घर का प्रधान है तो बच्चिया बड़ी हो कर कितनी भी स्वतंत्र हो जाये वो यही मानेगी की पुरुष की घर का प्रधान है और निर्णय उसे ही लेना है । लड़कियों को अपने पैरो पर खड़ा होने के साथ ही ये भी सिखाना होगा की वो अपने लिए फैसले खुद ले किन्तु हम माता पिता ही ये नहीं करते है लड़की को कितना भी पढ़ा लिखा ले किन्तु वो अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है उसे अपने कब्जे में रखने और उसके लिए निर्णय लेने का काम हम करते है फिर वो बेटी दूसरो के घर में जा कर अपने लिए फैसले लेने की हिम्मत कैसे कर पाएंगी वो आत्मविश्वास ही उनमे नहीं होगा , इसलिए जरुरी है की शुरुआत हम माता पिता करे , बच्चियों को न केवल आर्थिक रूप से अपने पैरो पर खड़ा करे बल्कि सामाजिक रूप से उनकी हैसियत और व्यक्तित्व को भी मजबूत बनाए । एक बार मै दंग रह गई और बाद में हंस हंस कर लोट पॉट हो गई जब अपनी एक सम्प्पन पढ़ी लिखी मित्र को कास्मेटिक की दूकान पर पति को फोन करते सुना , " जान यहाँ ग्रे कलर का आई लाइनर मिल रहा है ले लू क्या :))))

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    1. सही कहा आपने , बच्चों को बचपन से ही सिखाया जाना चाहिए !
      ग्रे कलर के आई लायनर ने खूब हंसाया मुझे भी :) :)

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  13. आर्थिक स्वतंत्रता निश्चय ही , स्वतंत्र व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है पर आर्थिक स्वतंत्रता अपनी बात रखने का संबल जरूर प्रदान करती है. वैसे मैंने कई बार लिखा है कि महिलाओं की सोच में बहुत तेजी से परिवर्तन आ रहा है ,पुरुष उनसे कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे...क्यूंकि उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है...आज भी वे खुद को घर का मुखिया ही मानते हैं.

    पर बहुत कुछ व्यक्ति दर व्यक्ति पर भी निर्भर करता है. अगर कोई पुरुष दम्भी हो,अपनी प्रभुता ही सर्वोच्च समझता हो तो फिर उसकी पत्नी चाहे उसके समकक्ष या उस से ज्यादा ही क्यूँ न अर्जित करती हो, वह अपना निर्णय ही सर्वोपरि रखने की कोशिश करेगा.
    अब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्रियों के अन्दर ये भावना भी रहती है कि कहीं उन्हें ये ताना न दिया जाए कि वे पैसे कमाती हैं इसीलिए अपने मन का चलाने की कोशिश करती हैं.और कई बार उनके पति भी यही सोच अपना निर्णय ही मानने को बाध्य करते हैं कि कोई उन्हें पत्नी के पैसे कमाने का ताना न दे दे या फिर यह भी दिखाना चाहते हैं कि भले ही वो पैसे कमाती हो पर मर्जी तो उनकी ही चलती है. और घर में क्लेश न हो,शान्ति बनी रहे यह सोच स्त्रियाँ भी चुप रह जाती हैं, पर यह उनके व्यक्तित्व की परतंत्रता का द्योतक नहीं है. यह सब बहुत complicated है क्यूंकि स्त्री पुरुष के रोल में बहुत तेजी से परिवर्तन आता जा रहा है पर अगली पीढ़ी के लिए ज्यादा सहज होगा,क्यूंकि लड़की हो या लड़का दोनों अपने विचार बेख़ौफ़ होकर रखते हैं.

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    1. सहमत हूँ रश्मि , कई बार स्त्रियाँ क्लेश से बचने के लिए चुप हो जाती हैं !

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    2. वाणी और रश्मि
      दोनों ही कमाआआल के एनालिसिस करती हैं आप। जय हो।

      :)

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  14. बहुत सार्थक विषय उठाया है, वाणी जी,

    आपका निष्कर्ष सही है… "महज आर्थिक स्वतन्त्रता ही स्वतंत्र व्यक्तित्व की परिचायक नहीं है !"

    आर्थिक आत्मनिर्भरता एक सहायक गुण अवश्य है, जो मात्र सुरक्षा का अहसास को स्थापित करती है। कछुआ चाचा की तर्ज पर कहुं तो आत्मविश्वास जग भी जाता है और कभी कभी नहीं भी जगता। स्वयं को स्थापित करने के लिए मनोबल चाहिए, यदि मनोबल दृढ हो तो आर्थिक आत्मनिर्भरता न होने के उपरान्त भी प्रभुता प्राप्त हो जाती है। कईं जगह देखा है पढे लिखे, और आर्थिक सत्तावान पुरूष भी अनपढ या आश्रित मां अथवा पत्नि के निर्णयों पर निर्भर रहते है।

    वस्तुतः निर्णय क्षमता एक कौशल है, दृढ मनोबल वाले इसे स्वानुभव से स्वतः अर्जित कर लेते है। किसी में प्रकृतिक नैतृत्व का गुण होता है और दृढताओं से स्थापित होता चला जाता है, ऐसे मजबूत लोग चाहे स्त्री हो या पुरूष, आयु में बडे हो या छोटे अन्य लोग उनके निर्णयों पर निर्भर होते चले जाते है। कभी कभी तो छोटी छोटी समस्याओं पर भी निर्णय के लिए उनका मूंह ताकते है, पर स्व निर्णय ले ही नहीं पाते। यह जरूरी भी नहीं कि ऐसे निर्णय सक्षम लोगों के निर्णय सदैव सफल ही होते है, पर उनकी दृढता ही दूसरों को पूरी आस्था से वह निर्णय मानने को विवश कर देती है।

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    1. विषय को बहुत सहजता से विस्तार दिया आपने . निर्णय लेने का गुण होना तो ठीक है , मगर यह दंभ कि मैं पुरुष हूँ इसलिए सिर्फ मैं ही निर्णय ले सकता हूँ , स्वीकार्य नहीं है !

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  15. आर्थिक स्वतन्त्रता व्यक्तित्व के परिमार्जन में एकमात्र कारण नहीं होती । इसके लिए स्वयम में विश्वास का होना अनिवार्य है । कभी - कभी आर्थिक रूप से निर्भर स्त्री भी ऐसे साहसिक और सामयिक निर्णय ले लेती है जो तथाकथित आत्मनिर्भर स्त्रियाँ नहीं ले पाती हैं ।

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  16. किसी भी परिवार में पति पत्नी के बीच, किसी भी मुद्दे पर पति को अहमियत देना, ये कहीं से भी ऐसा नहीं लगता की पति ही सर्वेसर्वा है ...
    मुझे तो ऐसा लगता है, ये स्त्रियोचित गुण होता है, की किसी भी मुद्दे पर वो एक बार पूछ लूँ...
    वैसे बड़े डिसिशन, भी पति पत्नियों से बिना पूछे नहीं लेते .............सामान्यतः !!

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  17. वाणी
    अब मे ये कमेन्ट इस लिये दे रही हूँ क्युकी पोस्ट पर अगर पहले देती तो शायद आप को लगता मुद्दा भटक गया हैं

    सबसे पहले ये बताये आप आर्थिक स्वंत्रता किसे कहती हैं
    क्या आप आर्थिक स्वार्जित आय को आर्थिक स्वतंत्रता मानती हैं या आप आर्थिक रूप से सक्षम होने को आर्थिक स्वतंत्रता मानती हैं
    हमारे समाज में नॉन वर्किंग वुमन भी आर्थिक रूप से सक्षम होती हैं , उनके पास आय ना होते हुए भी पैसा होता हैं . एक लम्बी कार उनके पिता की देहेज में दी हुई गाडी भी हो सकती हैं या पति की गाडी भी हो सकती हैं . अब अपने कमाए हुए पैसे से खरीदी कार और पति , पुत्र या बेटे के पैसे खरीदी हुई कार दोनों में अंतर होता हैं और इस लिये उन के उपयोग के विषय में निर्णय लेने में भी अंतर होता हैं

    आर्थिक आय घर में ला कर क्या अपने हर निर्णय के लिए स्वतंत्र होती हैं या नहीं लेकिन आत्म निर्भर जरुर होती हैं और ये आत्म निर्भरता उनको वक्त जरुरत पति/ पिता / पुत्र से अलग हो कर भी जीवन यापन कर सकने की सुविधा देती हैं . वुमन एम्पावरमेंट के लिए जरुरी हैं की हर स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र ना होकर आर्थिक रूप से आय अर्जित करने में सक्षम हो ताकि वो स्वतंत्र रहने का निर्णय ले सके . जो स्वतंत्र रहने का निर्णय ले सकेगी वो मानसिक रूप से अपने कम्फोर्ट ज़ोन से बाहर आ कर जीवन यापन कर सकेगी .

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  18. Behad sahee kaha....chhoti,chhoti baton me patiki salah lena zaroori samjha jata hai. aur agar nirnya lebhi le to patiki phatar padti hai.

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  19. मैं आपसे सहमत हूँ वाणी जी ! स्वतंत्रता या परतंत्रता किसी भी और रूप से ज्यादा हमारे अपने मस्तिष्क में होती है. मैंने भी एक से एक पढ़ी लिखी और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर औरतों को छोटे छोटे से फैसलों या कामों के लिए पति को फोन कारके इजाजत लेते देखा है.वहीं कई महिलाओं को देखा है जो आर्थिक रूप से कोई सहयोग नहीं करतीं परन्तु कम से कम अपने , अपने घर के और अपने बच्चों के फैसले खुद लेती हैं.

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  20. एक गोल घेरे में ही घूमते चले जा रहे है हम सब , जहाँ से चले , वहीँ पहुँच जाते हैं !!

    तनख्वाह कमा लेना भर महिलाओं की समस्याओं का हल नहीं है .... सच में कितना कुछ किया जाना बाकी है

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  21. आपकी बात सच है की अभी बहुत सुधार आना बाकी है नारी की स्थिति में ... उनकी स्वतन्त्र निर्णय लेने की स्थिति में ...
    अपवाद तो हर जगह मिल जाते हैं ... वैसे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होने पे ये क्षमता बढ़ जाती है मेरा ऐसा मानना है ...

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  22. हाँ अक्सर ऐसा होता है.....सही कहा आपने मध्यम वर्ग व निम्न वर्ग अभी इससे अछूता नहीं है ।

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  23. बिलकुल सही लिखा है ....ये अपने अपने व्यक्तित्व पर निर्भर करता है ...!!सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता किसी किसी में होती है ....किसी में बिलकुल नहीं ....और घर गृहस्थी में तो दोनों की सलाह से ही कार्य किया जाता है।मुझे लगता है पति-पत्नी की आपसी समझ पर निर्णय होते हैं ...

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  24. परिचित की टिप्पणी अहंकार से भरी है। इस बहाने आर्थिक स्वतन्त्रता और स्वतंत्र व्यक्तित्व व्यक्तित्व पर सभी विद्वानों/विदुषियों के विचार पढ़ने का अवसर देने के लिए आपका आभार!

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  25. आर्थिक स्वतंत्रता इंसानियत की हत्या करदे फिर यह संसार कैसे चलेगा.

    विचारोत्तेजक आलेख.

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  26. हालांकि यहाँ मुद्दा कुछ और है फिर भी सामान्यत: घरों में यही देखा गया है पुरुष अपना वर्चस्व बनाये रखता है ..अगर बिना उनकी इजाजत के स्त्री ने कोई निर्णय ले लिया तो खैर नहीं ....!!

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