इन्ही छुट्टियों (ब्लॉग छुट्टी ) में एक दिन शाम कों पतिदेव घर लौटे तो हाथ में हेलमेट के साथ भूरे रंग का लेडिज पर्स साथ लिए ...
मेरे दिमाग का पारा चढ़ता ...उससे पहले ही बोल उठे ..." रास्ते में गिरा पड़ा था ...पता नहीं किस जरूरतमंद का होगा ...अभी इसमें से एड्रेस देख कर फ़ोन कर दूंगा ..जिसका हो आकर ले जाए ..."
उनकी आशा के विपरीत मेरा पारा चढ़ ही गया ...
" क्या जरुरत थी आपको इसे उठा लाने की ...पड़े रहने देते वहीँ ....पता नहीं किसका हो ...इसमें क्या हो ...कही उलटे गले पड़ जाए कोई ...." मेरा बड़बड़ाना चालू हो गया ...
कुछ देर तो बेटियां भी मेरे साथ ही रही मगर पापा कों उदास देख झट पाला बदल लिया ...." बस ...मम्मी का रेडियो शुरू हो गया ...पूरी बात पूछेंगी नहीं ...पहले ही गुस्सा कर लेंगी ..." स्त्रियोचित गुण ही है यह प्रकृति प्रदत्त ...पिता की निरीहता बर्दाश्त नहीं कर सकती ...क्या करते हम भी ...आखिर सरेंडर कर ही बैठे ...
पर्स कों उलट पुलट कर देखा ...कुछ रुपये थे और एक मोबाइल भी ....मोबाइल स्विच ऑफ था ...जैसे ही उसे ऑन किया ...उसकी घंटी बज गयी ..." आप कहाँ से बोल रहे है , ये फ़ोन आपको कहाँ मिला ...."
" पहले आप बताएं कि आपने इस नंबर पर फ़ोन किया ...आपको यह नंबर कहाँ से मिला ...." पति देव पूरी तरह आस्वस्त होना चाह रहे थे ..कोई नकली उम्मीदवार ना टपक पड़े ....
" दरअसल ये मेरी पत्नी का नंबर है , अभी स्कूल से लौटे समय रास्ते में कही गिर गया ..." उक्त महाशय का जवाब था ...
" हाँ ...मुझे ये फोन रास्ते में पड़ा मिला मय पर्स ...कुछ रूपये भी है इसमें ...आप आकर ले जाए ..." पति ने उन्हें पूरा पता समझाते हुए आने के लिए कहा ...
अब इधर हमारी धुक धुक शुरू ...पता नहीं कौन हो ....कोई गुंडा मवाली टाइप हुआ तो...कही उलटे हमें ही चोर साबित कर पर्स में पैसे कम होने का शोर मचा दे ...आज कल आये दिन ऐसे किस्से होते हैं ...मेरा मूड एक बार फिर से बिगड़ने लगा था ....
मैंने पहले ही कहा था इसे फेंक आओ रास्ते में ...मगर अब क्या किया जा सकता था ...आगंतुक का इन्तजार करने के अलावा ...थोड़ी देर बाद फिर से वही फ़ोन बजा ...उक्त महाशय घर से थोड़ी दूर तक पहुँच गए थे मगर यहाँ तक आने का रास्ता नहीं मिल रहा था ...आखिर उन्हें वही रुक कर इन्तजार करने कों कह पतिदेव पर्स लिए रवाना होने लगे तो किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत मैं भी बाईक की पिछली सीट पर जा बैठी ...उन महाशय के बताये पते पर पहुंचे तो कोई दो सज्जन सुनसान विद्यालय की बाहरी दीवार के सहारे बेंच पर बैठे दिख गए ...अब एक बार फिर से मन में बुरे ख्याल उपजने लगे ...इस अँधेरी रात में सुनसान सड़क पर कुछ दुर्घटना हो गयी तो ...
कड़क आवाज़ में पति उनसे पूछ बैठे ..." क्या बात है ....यहाँ क्यों बैठे हो ..." हम लोग जांचना चाह रहे थे कि क्या यही वो लोग तो नहीं जिनका पर्स ग़ुम गया है ....
वे दोनों एकदम से हडबडा उठे ..." अजी महाराज , म्हे तो अयांयी बैठ गा अठे ...."
उनसे और कुछ पूछते इससे पहले ही आगे से एक मोटरसायकील आ रुकी ...एक सज्जन अपने दो छोटे बच्चों के साथ मौजूद थे ..." आप शायद मुझे ही ढूंढ रहे थे ...." ..पति ने और उन महाशय ने एक दूसरे से हाथ मिलाया ..." सर , आजकल आप जैसे लोग कहाँ होते हैं , आप समझ सकते है एक मध्यमवर्गीय इंसान की हालत ...आपका बहुत धन्यवाद ..."
दोनों ने जब अपने परिचय का आदान प्रदान किया तो पता चला कि वे महाशय पतिदेव के दफ्तर की बिल्डिंग के दूसरे ऑफिस में ही कार्यरत हैं ...घर पास ही था इसलिए उन्होंने कृतज्ञता जताते हुए पतिदेव के चाय पीकर जाने के अनुरोध कों तुरंत स्वीकार कर लिया...इस तरह एक रोचक तरीके से एक और परिवार और सहकर्मी से जान पहचान हुई ...मगर मैं कहे बिना नहीं रह सकी...." हम तो इन पर नाराज हो रहे थे "...
उनको विदा कर रहत की साँस लेते हुए मैं कुछ देर सोचती रही...क्या मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल थी ....दिल से सोचने वाली महिलाएं ऐसे मौकों पर अपनी व्यावहारिकता का परिचय देते हुए क्या दिमाग कों ज्यादा महत्व नहीं देती ...अक्सर पड़ जाती हूँ मैं इस दिल और दिमाग के चक्रव्यूह में ...
आज सुबह ही एक सन्देश था मोबाइल पर ....
To handle yourself , use your head....
To handle others , use your heart.....
इस सन्देश के साथ उपर्युक्त घटना कों जोड़े और अपने होठो पर आने वाली मुस्कराहट कों खिलखिलाहट में बदलने दे .......और महिलाओं द्वारा दिमाग पर दिल कों तरजीह देने की शिकायत कों खारिज करें ...हाल फिलहाल तो ......