लगभग एक महिना हुआ इस ब्लॉग पर कुछ भी लिखे हुए . वैसे तो कौन लेखन महारथी है या ब्लॉग अथवा फेसबुक पर दोस्तों की बहुत लम्बी लिस्ट है जो इतना लम्बा समय तक ना लिखने से कुछ फर्क पड़ता . लिखते हैं तो अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए ही या लेखन की दुनिया में जाने जाने के लिए या अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जो कारण आपको सुविधाजनक और आपके अहम को पुष्ट करे , वही मान लिया जाना चाहिए , हालाँकि सामाजिक और कर्मचारी संगठन से जुड़े पतिदेव को कई बार कौंच देती हूँ कि आपके कार्यों से आपको जानने वाले आपके शहर या राज्य में ही हैं ,हमें तो पूरे विश्व में हमारे लेखन से जाना जाता है . किसी भी व्यक्ति को उसके नाम से जाना जाये , कितनी संतुष्टि देता है ना ...पतिदेव भी मुस्कुरा देते हैं , मैडम, आपकी इस लोकप्रियता का बिल हमी को भरना पड़ता है . आखिर इंटरनेट का बिल तो वही चुकाते हैं :)...
खैर बात हो रही थी लम्बी अनुपस्थिति की . चाचा जी के देहावसान के बाद उनके द्वादसे पर हैदराबाद जाना हुआ . पिछले कई वर्षों से परिजन अपने शहर आने का आमंत्रण दे रहे थे , मगर जाना संभव ही नहीं हुआ . एक दो विवाह समारोह भी हुए थे , मगर उसी समय बच्चों की परीक्षाओं के कारण पतिदेव को अकेले ही इन कार्यक्रमों में शामिल होना पड़ा .
मगर सुख में साथ ना दिया जा सके , मगर दुःख में परिवार जनों की उपस्थिति बहुत हिम्मत देती है . ऐसे में बड़े परिवारों का सकारात्मक पक्ष भी नजर आता है . चाचाजी की उम्र अधिक नहीं थी , साठ से कुछ वर्ष ही ऊपर हुई थी , मगर अस्वस्थता के कारण पिछले दो-तीन वर्षों से निष्क्रिय जीवन ही बिता रहे थे. भाइयों ने कम उम्र में ही अपनी जिम्मेदारियां सँभालते हुए घर की अन्य जरूरतों को पूरा करते हुए भी उनके इलाज़ में कोई कोताही नहीं बरती . मगर होनी को जो मंजूर हो , वही होता है . निष्क्रिय ही सही , घर के प्रमुख सदस्य की उपस्थिति भी बहुत मायने रखती है . पिछले कुछ समय से तेजी से गिरते उनके स्वास्थ्य के कारण नियति को स्वीकार लिया गया था इसलिए माहौल इतना गमगीन नहीं था या फिर ये कहें कि विपरीत परिस्थितियां बच्चों को कम उम्र में ही मजबूत बना देती हैं . श्रीवैष्णव परम्परा के अनुसार ही सारी रस्मे निभायी गयी . अन्य संस्कारों के साथ ही प्रतिदिन दिवंगत को रुचने वाली मिठाई या पकवान बनाना , द्वादसे के दिन कम से कम पांच मिठाई और अन्य पकवानों के साथ "न्यात" जिमाना (मृत्यु भोज ), ज्येष्ठ पुत्र को पगड़ी पहनाने के अतिरिक्त परिवार के प्रत्येक विवाहित सदस्य के ससुराल पक्ष से परिजनों को वस्त्रादि भेंट करना आदि ... इन रस्मों के औचित्य पर सोचते हुए मैंने जो निष्कर्ष निकाला वह यह था कि गहन दुःख के क्षणों में सदमे से उबरने के लिए परिजनों का ध्यान दूसरी ओर आकर्षित करने के लिए या फिर इस अवसर पर दिए जाने वाले धन आदि से परिवार को आर्थिक संबल प्रदान करने के लिए इस प्रकार की रस्मों की शुरुआत की गयी होगी जो कालांतर में जबरन थोपे जाने वाले रिवाज या सामाजिक परम्पराएँ बन गयी . जो भी कारण हो , आजकल इन परम्पराओं के औचित्य पर गहन विमर्श किया जाता है , कही -कही तो इन रस्मों से मुक्ति भी पा ली गयी है , आर्थिक रूप से अक्षम लोगों पर परिजन को खोने के बाद इन सभी रस्मों के लिए धन की व्यवस्था उन्हें और दुःख ही पहुंचाती है .
परिवार के सबसे बड़े सदस्य होने की जिम्मेदारी निभाते हुए माँ एक महिना तक चाची के साथ ही रहने वाली थी , हमारे लौटने के दो दिन बाद ही माँ को अचानक सीने में दर्द के कारण हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा , कुछ टेस्ट और एन्जीओग्राफी की रिपोर्ट में मायनर हर्ट अटैक के साथ ही हर्ट में ब्लौकेज होने की पुष्टि हुई और अब वे एन्जीओप्लास्टी के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रही हैं .
तेजी से हुए इन घटनाक्रमों ने इस विश्वास को और बढाया कि हम लाख उठापटक कर लें , प्लानिंग बना ले मगर अपनी अँगुलियों पर नचाता हमें ईश्वर या नियति ही है . वरना कहाँ तो परिवार के एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए माँ के साथ अपने पूर्वजों के ग्राम जाने की योजना बन रही थी और कहाँ अचानक हैदराबाद जाना हुआ , परिवार का एक सदस्य कम हुआ ,साथ ही माँ को भी अस्पताल में भर्ती होना पड़ा .
जन्म के साथ मृत्यु का दौर अटल और अवश्यम्भावी है , हम सभी जानते हैं . दो बुआ और फूफा का देहावसान हो चुका हैं , उनके बच्चों से मिलते हुए कितना कुछ मन में गुजरता है और मन ही मन माँ की छत्रछाया के लिए ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ , क्योंकि अधेड़ावस्था की ओर बढ़ते हम लोंग अभी भी उनके सामने बच्चे ही बने होते हैं . कम उम्र में ही अपने परिवार की जिम्मेदारी सँभालते इन भाई बहनों से मिलते उनकी मजबूत इच्छाशक्ति और जिजीविषा को सलाम करने को मन करता है .
उम्र बढ़ने के साथ परिवार के पुराने सदस्यों का साथ छूटने के अतिरिक्त नए सदस्यों का जन्म अथवा जुड़ना भी होता है मगर फिर भी लगता है जैसे परिवार सिकुड़ता जा रहा है. जिन परिजनों की गोद में खेले , जिनके साथ बड़े हुए वे पीछे छूट जाते हैं और नए जुड़ने वाले सदस्यों से दूरियों के कारण ज्यादा परिचय नहीं हो पाता .
सभी रस्मों के बाद एक दिन शहर के उस हिस्से में भी चक्कर लगा आये जहाँ बचपन और युवावस्था का कुछ समय गुजारा था . अत्यधिक ट्रैफिक के कारण हुए दबाव से चारमिनार को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए बस स्टैंड के हट जाने के अतिरिक्त कोई बड़ा फेरबदल नहीं लगा मुझे . अक्सर शाम को घूमते हुए चारमिनार के पास चक्कर काट आना , खोमचों पर भेलपुरी का स्वाद लेना बहुत याद आया . मक्का मस्जिद , मदीना बाजार , रेडीमेड कपड़ों या ड्रेस मेटेरिअल का होलसेल बाजार पटेल मार्केट , गुलजार हौज़ से ईरानी गली का के बीच पैदल घूमते हुए बहुत कुछ याद आया .
दुःख के क्षण हर व्यक्ति पर अलग -अलग प्रभाव डालते हैं . हमें भीतर से और मजबूत करते जाते हैं , व्यावहारिक बनाते हैं या फिर कभी -कभी संवेदनाहीन भी बनाते हैं, कहा नहीं जा सकता . ईश्वर और प्रकृति हमें हर कदम पर सचेत और सावधान करती है , क्रिया , प्रतिक्रिया और विशिष्ट प्रतिक्रिया के अनुसार लोगों पर इसका असर भिन्न होता है .
पड़ोसन आंटीजी भी शारीरिक व्याधि से जूझती हुई पिछले एक महीने से बेड रेस्ट पर हैं . रोज उनके साथ कुछ समय गुजारना , माँ के साथ रहना , बचे समय में अपना घर संभालना , इन दिनों ब्लॉगिग की बजाय मुझे यही ज्यादा सार्थक लग रहा है . अब इस पर आप मुझे घरेलू जिम्मेदारियों से त्रस्त महिला समझे और बहनजी जैसे संबोधन देना चाहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मैं जानती हूँ कि आभासी दुनिया से जुड़ने के साथ ही वास्तविक दुनिया के रिश्तों को संभालना , उन्हें समय देकर मैं अपने जीवन को सार्थकता ही दे रही हूँ .
इन दिनों परिवार से जुडी और भी वारदातों (!!) के बीच सभी के व्यवहार पर नजर डालते एक निष्कर्ष भी निकाला , परिवार के सबसे बड़े या अपनी जिम्मेदारी समझने वाले सदस्य के हिस्से में सम्मान और जिम्मेदारियां आती हैं , जबकि छोटे अथवा गैरजिम्मेदार के हिस्से में लाड़- दुलार और पैसा ... ईमानदारी से कहूं इन जिम्मेदारों को देखकर कभी -कभी ख़याल भी आता है कि कोरे सम्मान का क्या अचार डलता है ?
क्या कभी आपके मन में भी किसी जिम्मेदार सदस्य को देखते हुए यह खयाल आता है !!
माँ और पड़ोसन आंटी जी के लिए आपकी दुआओं और शुभकामनाओं की दरकार रहेगी , क्योंकि दुआओं से ही दवाओं में असर होता है !
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
शुक्रवार, 18 नवंबर 2011
बिना बात की बात ...
कल हमारे केस की हीअरिंग है , मुझे वकील साहब के पास जाना है , मेरे बैग में ज़रूरी समान रख देना ...पापा माँ से कह रहे थे . अपने कमरे से सुनकर दौड़ी आई रेवती ..
पापा .कल मैं भी आपके साथ चलू, मुझे भी अपने कॉलेज में कुछ काम है , आप जबतक अपना काम निपटायेंगे मैं अपनी हॉस्टेल की फ्रेंड्स से मिल लूंगी , आप लौटते समय मुझे साथ ले आना .
ठीक है , लेकिन सुबह जल्दी तैयार रहना.
सुबह जल्दी करते हुए भी रेवती कुछ देर से तैयार हो पाई . पापा के ऑफिस की गाडी घर के गेट पर लग चुकी थी .
जल्दी करो , रेवती को आवाज़ लगाते हुए पापा कमरे से बाहर निकले . रेवती दुपट्टा सँभालते हुए एक हाथ में कंघी लिए दौड़ती भागी पहुंची . पीछे माँ आवाज़ लगाती ही रह गयी , रेवती , बेटा कुछ तो खा लो !
तब तक गाडी का होर्न बज चुका था. जानती है पापा को लेटलतीफी बिलकुल पसंद नहीं , उसे घर पर ही छोड़कर रवाना हो जायेंगे.
क्या पापा , जीप मंगवाई है आपने , कोई कार फ्री नहीं थी .
पापा ने पीछे की सीट पर मुड कर देखा , गैरेज में कोई कार नहीं थी , और मुझे इंतज़ार नहीं करना था , फिर यहाँ की सड़कों के लिए तो जीप ही ठीक है.
बुरा सा मुंह बनाया रेवती ने . सही कहा था पापा ने .कम्पनी के कम्पाउंड से बाहर निकलते ही टूटी सड़कों के कारण हिचकोलों के झूले प्रारम्भ हो गये थे .
आम और लीची के बागों से गुजरते इन पगडंडियों की टूटी सड़कें हिचकोलों के दर्द को थोडा कम कर देती है . दोनों ओर बड़े- बड़े पेड़ों की शाखाएं ऊपर जाकर इस तरह मिल जाती हैं कि पता ही नहीं चलता कि इनकी जड़ें सड़क के दो विपरीत छोरों पर हैं . इनके झुरमुटों के बीच से अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सूरज को कितनी तिकड़में लगानी पड़ती होंगी .
दूसरे छोर पर वृक्षों की हरी पत्तियों के बीच आसमान की लाली के बीच एक क्षीण सी किरण पत्तों से टकराकर इन्द्रधनुषी दृश्य उपस्थित कर रही थी . इन सबके बीच मुंह पर अंगोछा ढके लोटा लिए जाते हुए , तो कही मोटरसाकिल पर दूध के बड़े ड्रम लटकाए हुए लोंग भी नजर आ रहे थे .
लौरिया के अशोक स्तम्भ से गुजरते हुए सोचा रेवती ने , इतिहास की किताबों में खूब पढ़ा है इनके बारे में , मगर यहाँ किस कदर असरंक्षित है यह स्मारक. घर का जोगी जोगना बाहर का सिद्ध . मानव स्वभाव भी अजीब है , सबसे करीब या आसानी से उपलब्ध वस्तुएं हमारा ध्यान आकर्षित नहीं करती . यही विचित्रता रिश्तों में भी तो होती है . अपने सबसे करीबी रिश्तों के प्रति हम कितने लापरवाह होते हैं .
चाय तो पीनी है, मगर रुकेंगे तो देर हो जायेगी , वकील साहब हमारा इंतज़ार कर रहे होंगे , बहुत तैयारी करनी है . पहले इसके कॉलेज की ओर मोड़ लो , अच्छा है वकील साहब का घर भी पास ही है , वे शहर की सीमा में प्रवेश कर चुके थे .
कॉलेज के बाहर पसरे सन्नाटे से आशंकित रेवती ने पता किया ऑफिस में , आज कॉलेज की छुट्टी है .
ओह , फोन करके घर से निकलना था . अब क्या करे , यहाँ किसी परिवार से भी परिचित नहीं है . अब दिन भर पिता के साथ उनकी कानूनी कार्यवाही का साक्षी बनते घूमना होगा .
आजका तो दिन ही खराब है , कोई बुक , नोवेल भी साथ नहीं लाई , कैसे दिन गुजरेगा. वह सोच रही थी कि उनकी गाडी शहर के प्रसिद्ध वकील शिवशंकर श्रीवास्तव के घर के बाहर जा रुकी . ऊँची बाउंड्री से घिरे मकान का कोई हिस्सा बाहर से नजर नहीं आ रहा था . बड़ी कोफ़्त होती है रेवती को , लोंग ऐसे घरों में क्यों रहते हैं कि ना बाहर से कुछ नजर आये ना भीतर से बाहर के लोंग नजर आये .
मैं वकील साहब से बात करके आता हूँ , फिर साथ ही कोर्ट में चलना पड़ेगा ...तुम जीप में ही रहना , हम आते हैं.
आधा घंटा हो गया था पिता को अन्दर गये हुए , और उस बड़े बंगलों वाली सुनसान सड़क पर जीप की अगली सीट पर उबासियाँ लेती हुई दोनों हाथों में सिर छिपाकर स्टीयरिंग के सहारे बैठी रेवती मन ही मन खुद से बात कर रही थी . कहीं भी नींद ना आने की भयंकर बीमारी थी रेवती को वरना इस शांत स्थान पर नींद का एक दौर तो आसानी से पूरा हो सकता था . बहुत गुस्सा और झुंझलाहट हो रही थी उसे अपने आप पर , पापा के साथ आने का लोभ क्यों किया उसने , बस से ही आ जाती तो इतनी बोरियत तो नहीं होती .
" दीदी जी , आपको साहब अन्दर बुला रहे हैं ", जीप के पास से किसी की आवाज़ सुनकर उसने सिर उठाकर देखा, शायद उस बंगले का नौकर था .
जी पापा , आपने बुलाया ...
ये मेरी बेटी रेवती है , यहीं कॉलेज के हॉस्टल में रहती है , आज कॉलेज की छुट्टी है , नाहक ही मैं अपने साथ ले आया . रेवती से मुखातिब होते हुए उसके पिता ने कहा ...हमें बहुत समय लगेगा , तुम यही आराम करो.
नमस्ते अंकल , कहते हुए रेवती ने हाथ जोड़ दिए .
कोई बात नहीं ,यह भी अपना ही घर है . किशोर , इन्हें दीदी के पास ले जाओ .
कानून की मोटी किताबों और फाइलों के अम्बार से सजे उनके ऑफिस में पिता के साथ कम्पनी के केस की हीअरिंग की तैयारियां चल रही थी.
बड़ी सी कोठी की आलिशान बैठक को क्रॉस कर नौकर उसे गेस्ट रूम में ले गया .
आप बैठिये , मैं दीदी को बुलाता हूँ .
बैड , ड्रेसिंग टेबल , स्टडी टेबल पर लैम्प , बड़ी आलमारियां , मन ही मन सोच रही थी रेवती , ये इंतजाम तो मेहमानों के लिए है , तो खुद के लिए क्या होगा.
पूरे घर में जैसे सन्नाटा सा था . बंगला उपन्यासों की गंभीर पाठिका रेवती ने सोचा ,बड़ी कोठियां निर्जन होने के लिए अभिशप्त ही होती हैं शायद.
थोड़ी देर में एक युवती एक युवक का सहारा लेकर धीरे -धीरे चल कर कमरे में आई . गर्भावस्था के कारण चलने में उसे थोड़ी परेशानी थी .
दोनों के बीच परिचय का आदान प्रदान हुआ . इस घर की बेटी शर्मीला अपनी पहली जचगी के लिए मायके आई हुई थी . उनके विवाह को अभी डेढ़ साल ही हुआ था . अपने और अपने भाई वीर के परिचय के साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि माँ को आवश्यक काम से लिए शहर के बाहर जाना पड़ा , डिलीवरी में अभी एक महीने से भी ज्यादा का समय है .
तब तक किशोर चाय ले आया .
सचमुच उसे चाय की बहुत तलब हो रही थी , जीप से उतर कर एक चक्कर भी लगाया था उसने आस पास कि कही कोई चाय की दूकान नजर आये , मगर वहा तो दूर- दूर तक सन्नाटा पसरा था , कुछ ऐसा ही सन्नाटा कोठी के भीतर भी महसूस हुआ उसे . इतने बड़े बंगले में घर में कुल तीन प्राणी थे , दो नौकर जो घर के पिछले हिस्से में बनी रसोई में नाश्ते और खाने के प्रबंध में जुटे थे . वह अपनी कॉलोनी के छोटे से बंगले में भरे -पूरे परिवार के शोरगुल के बीच रहने की आदी थी .
चाय ले लो , नाश्ता भी तैयार है ...दीदी किशोर को आदेश दे रही थी , थोड़ी देर में ले आना ...
नहीं , आप लोंग करें नाश्ता , मैं घर से करके आई हूँ , संकोचवश साफ़ झूठ बोल गयी रेवती , नाश्ता कहा किया था उसने.
शर्मीला दी ने उससे उसकी कॉलेज के बारे में पूछा ...वे आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से बोली , अच्छा , इसी कॉलेज में पढ़ती हो , ये तो हमारे घर के पास ही है , मैंने भी अपनी बी एस सी यही से की है . शर्मीला की ख़ुशी ने जताया कि उन एकसार लम्हों या स्थानों से गुजरे लोंग अचानक ही अपने सहयात्री लगने लगते है. और रेवती को महसूस हुआ जैसे विदेश में एक ही कस्बे के रहने वाले दो अजनबी मिले हों .
फिर वे सभी लेक्चरर्स के बारे में पूछने लगी , फिजिक्स की नयी मैंम आई हैं, कैमिष्ट्री के सर पुराने हैं , वे अपने ग्रुप की पुरानी शरारतों को याद कर रही थी, जब रेवती ने बताया कि हम भी उन लम्बे और दुबले पतले सर को पेंडुलम सर(उनके सामने नहीं ) कह कर ही बुलाते हैं , तो वे खूब हंसी .
इस हंसी में वीर भी शामिल था और उसने टोक दिया कि मेरा अक्सर आना होता है कॉलेज में . एक बार सहमी रेवती मगर फिर से उसी उत्साह से बोली , तो क्या , मैं थोड़े ना बुलाती हूँ उन्हें पेंडुलम , मेरी अच्छी इमेज है क्लास में , सबसे ज्यादा सवालों के सही जवाब मैं ही देती हूँ .
तीनों की बातों का दौर कई घंटो तक चलता रहा, खेल , राजनीति , कॉलेज लाईफ , प्रतियोगी परीक्षाएं , फ़िल्में ,साहित्य ,शरतचंद्र , प्रेमचंद्र कौन सा ऐसा विषय नहीं होगा जो उनकी बहस में शामिल नहीं हुआ होगा . इस बीच वीर खुद चाय भी बना लाया . दीदी हँसते हुए उसे छेड़ रही थी, कुछ खा रही नहीं हो , चाय तो पी लो .
बीच में वह घडी भी देख लेती . दोपहर हो आई थी . उसे बुरा लग रहा था शर्मीला दीदी के लिए , उन्हें आराम की जरुरत थी , और उन्हें उसके कारण इतनी देर वहां बैठा रहना पड़ रहा था . बाहर कुछ क़दमों की आहट सुनकर बोला वीर , अंकल आ गये हैं शायद .
रेवती ख़ुशी से एकदम बाहर लपकने को हुई तो शर्मीला और वीर हँस पड़े .
क्या हम तुम्हे इतना बोर कर रहे थे .
अरे नहीं , झेंप गयी रेवती . बल्कि मैंने आप लोगों को इतना परेशान किया , इतना समय लिया . अच्छा लगा आप लोगो से ढेर सारी गप शप कर के .
रेवती , आ जाओ ... पापा आवाज़ लगा रहे थे . रेवती उन लोगों से इज़ाज़त लेकर बाहर आ गयी .
हॉस्टल में सन्डे यानि छुट्टी का दिन बहुत ख़ास होता है . बाथरूम के बाहर अपना टॉवेल ,ब्रश , बाल्टी ,मग और कपड़ों सी लदी फंदी लड़कियां लाईन लगाकर खड़ी थी. . आम दिनों से अलग आज देर से सोकर उठना, बालों में शैम्पू करना , कपड़े धोकर सुखाना, अपनी टेबिल , ब्रीफकेस में समान को करीने से रखना . और सबसे बड़ी तैयारी आउटिंग के लिए . रेवती का कोई लोकल गार्जियन नहीं था इस शहर में , इस लिया बहुत सी लड़कियों की तरह उसे किसी के आने का इंतज़ार नहीं था , ना ही आज कही बाहर जाने का मन था , इसलिए वह अपने बिस्तर में धंसी किताबों में डूबी थी .
तभी अचानक लड़कियों के झुण्ड में हलचल मची . बाथरूम में अपनी लाईन का झगडा भूल सब एक साथ बाहर की ओर लपक ली . उसकी रूममेट माया उसका हाथ खींचते हुए से बोली ," चल बाहर , वीर आये हैं "
कौन वीर , किसके भैया और तुम इतना उत्साहित क्यों हो रही हो ,तुम्हारे भी रिश्तेदार हैं ??
अरे नहीं पागल , वो तो उषा के चचेरे भैया , जो उसके लोकल गार्जियन है, उनके दोस्त हैं. हमारी ऐसी किस्मत कहाँ ! आह भरने का नाटक करते हुए माया ने कहा .
नौटंकी , अभी पूछ लो कि अकबर किसका पुत्र था तो याद नहीं आएगा , और लड़कों की दूर-दूर की रिश्तेदारी तक मालूम है .
रेवती बहुत खीजती है लड़कियों की इस आदत पर. किसी का भी कोई रिश्तेदार आ जाये , इनकी खिंचाई या ताकाझांकी से नहीं बच सकता . कौन कहता है ,लड़के ही छेड़ते हैं लड़कियों को , कोई इन गर्ल्स हॉस्टल के नज़ारे देखे , किसी भी स्टुडेंट का रिश्तेदार कोई हैंडसम लड़का अगर उससे मिलने आ गया तो उसकी खैर नहीं , सवाल कर के परेशान कर देती हैं , यहाँ आकर उनकी सारी हीरोगिरी हवा हो जाती है .
सुनो , तुम ही करो यह ताका झांकी.
रेवती अलग है इन लड़कियों से . इस उम्र में जहाँ लड़कियों के आदर्श सिनेमा के स्टार होते हैं , उनके चित्र टेबल और दीवारों पर सजाते हैं , उसकी टेबिल पर सजती हैं लतामंगेशकर की वह तस्वीर जो उसने धर्मयुग के बीच के पेज से निकाली थी .
अरे , चल ना एक बार देख तो कितने हैंडसम है वीर जी , उसके दुगुने कद और शरीर की माया उसका हाथ खींचते हुए बाहर ले आई . गेस्ट रूम के बाहर के लौंज में कुर्सी पर बैठे वे लोंग अपनी बहनों से बात कर रहे थे ,सामने खुले लॉन में बहुत सी लड़कियां अचानक ही पढ़ाकू बनी किताबों से जूझ रही थी . माया ने टोहका मारा , देख उस वनश्री की किताबें , उलटी पकड़ी हैं . दोनों ठहाका मारकर खूब हंसी, हँसते हुए ही अचानक उसकी नजर लाउंज में बैठे वीर की ओर देखा.
ओह ,ये वही वीर श्रीवास्तव है , जिनसे पिछले हफ्ते इतनी लम्बी बातचीत हुई थी. परिचय की एक झलक आँखों में देख कर कुछ कदम आगे बढती रेवती वही रुक गयी . यदि इन लड़कियों को पता चल गया कि उनके हीरो से, जिसकी एक झलक देखने के लिए वे लाईन लगा कर खड़ी रहती हैं , उसकी बहनों की खुशामद करती है कि वो आये तो उनको हमारा परिचय भी देना , उससे रेवती मिल चुकी है , इतनी देर तक गपबाजी कर चुकी है तो खोद -खोद कर सवालों की झड़ी लगा देंगी , और बिन बात की बात मशहूर हो जाएगी.
तुम ही मिलो इन लोगों से , मैं तो चली , माया से हाथ छुड़ा कर रेवती अपने कमरे की ओर बढ़ गयी .
बहुत लोगों के लिए ख़ास हो जाने वाली घटनाएँ किसी के लिए कितनी आम हो जाती है . या जीवन में जो साधारण घट जाता है , वह कितना असाधारण भी हो सकता है ! लौरिया के निकट स्थित अशोक स्तम्भ फिर से याद आया रेवती को !
रविवार, 6 नवंबर 2011
साहित्य से सिनेमा तक ......
कल ही चेतन भगत की रिवोल्यूशन २०२० पढ़ कर समाप्त की . चेतन भगत के लेखन को लेकर साहित्यिक हलकों में अक्सर बहस छिड़ जाती है कि उनका लेखन गंभीर नहीं है , साहित्य नहीं है, मगर फिर भी उनके उपन्यासों की रिकोर्ड़तोड़ बिक्री बताती है कि आजके समय के लोकप्रिय लेखकों में से हैं .
साहित्य देश या समाज की तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक और मानसिक परिस्थितियों को प्रदर्शित करते हैं, और चेतन के उपन्यासों में भी वर्तमान पीढ़ी का जीवन पूरी ईमानदारी से झलकता है. युवाओं की सोच , प्रतिस्पर्धा में आगे बने रहने के लिए तथा अपने तयशुदा मुकाम को पाने के लिए किसी भी स्तर तक जाना , उससे असंतुष्ट होकर फिर से अपनी जड़ों को तलाशना , समाज में क्रांति की अलख जगाने जैसे उतार- चढ़ाव वाले जीवन को चेतन अपने उपन्यासों में बखूबी उतारते हैं . चेतन अपने उपन्यासों में पात्रों को सिर्फ प्रस्तुत करते हैं , कोई फैसला नहीं सुनाते . आपाधापी के इस युग में आम इंसान के लिए अपने भीतर के जुझारू इंसान को जगाये रखना बहुत मुश्किल होता है और ऐसे में नायक और खलनायक दोनों की छवि एक-सी ही हो जाती है . अब ये पाठक पर निर्भर करता है कि वह पात्र की किस छवि को देखता है और निर्णय लेता है कि कौन नायक है , कौन खलनायक , किसे अच्छा समझा या किसे बुरा ...
जैसा कि अक्सर कोई उपन्यास पढने के बाद होता है , इस उपन्यास के पात्र गोपाल , आरती और राघव दिमाग बहुत देर तक दिमाग में घूमते रहे . तीनों का बचपन , गोपाल के भीतर पलती ईर्ष्या , आरती का भोलापन , राघव की निष्ठा , गोपाल की खलनायकी और फिर प्रतिस्पर्धा में राघव से पिछड़े गोपाल का संघर्षपूर्ण स्थितियों में हीन भावना से ग्रस्त होकर अपने जीवन को शुक्लाजी जैसे राजनीति के माहिर खिलाडी के हाथ में सौंप देना , फिर ख़ामोशी से अपने प्यार के लिए त्याग करना ...
किसी भी उपन्यास को पढने के बाद देर तक वे पात्र साथ चलते हैं , उस समय उस परिस्थिति से गुजरते उन्होंने कैसा महसूस किया होगा, उनकी खुशियाँ , दुःख , दर्द सब अपने से ही हो जाते हैं . पता नहीं आप लोगों के साथ ऐसा होता है या नहीं.
ऐसा ही कुछ अनुभव गंभीर किस्म की मूवी देखने के बाद भी होता है, जब उनके पात्र हमारे साथ चलते रहते हैं , हम वास्तविक जीवन के चरित्रों से उन पात्रों को रिलेट करने लगते हैं , जबकि हम यह वास्तविकता जानते हैं कि किसी भी उपन्यास या मूवी का पात्र सिर्फ किसी एक चरित्र को नहीं जीता है , कई चरित्रों के समावेश से वह एक पात्र बुना जाता है . मूवी की बात करूं तो हालाँकि आजकल बहुत कम सिनेमा देखना होता है , टीवी पर चौबीसों घंटे फिल्मों के दोहराव ने इनके प्रति उत्सुकता कम कर दी है , मगर फिर भी लीक से हटकर गंभीर फिल्मे आकर्षित करती हैं .
बात हो रही है साहित्य और सिनेमा के हमारे जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की . किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को इनके पात्र प्रभावित करते हैं, हम देखते हैं अक्सर संवेदना से भरे दृश्यों में दर्शकों या पाठकों की आँखों से भी आंसू बह निकलते हैं , जबकि प्रबुद्ध पाठक या दर्शक वर्ग सिर्फ कहानी होने के सच को अच्छी तरह जानता है , फिर भी ....
सोचती हूँ जब दर्शकों या पाठकों पर इसका इतना असर होता है तो जो लोंग इसे जीते हैं यानि वे पात्र जो इन चरित्रों का अभिनय करते हैं , उनपर इनका कितना असर होता होगा . अभिनय को गंभीरता से लेने वाले व्यक्ति इससे अवश्य प्रभावित होते हैं . एक बार कहीं अमिताभ बच्चन जी का वक्तव्य पढ़ा कि फिल्मों में माँ-पिता के मरने पर अपनी संवेदनाओं को इतनी बार अभिनीत किया है कि मुझे लगता है ऐसी वास्तविक परिस्थितियों में शायद मैं कुछ महसूस ही ना कर पाऊं .
ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार को भी लगातार दुखी भावुक नायक का अभिनय करते हुए डिप्रेशन से अस्वस्थ होने पर चिकित्सकों ने कुछ दिन तक दुखी एवं उदास चरित्रों के अभिनय से दूर रहने की सलाह दे दी थी .
जब अभिनय करना या उन्हें पढना , सुनना या देखना ही इतना दुःख पहुंचाता है , तो वे लोंग कैसे बर्दाश्त करते हैं, यह दर्द जिनका अपना ही होता है !!!!
ऐसी ही मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर बनी दो फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया था. वहीदा रहमान के मुख्य चरित्र वाली " ख़ामोशी " और कमल हसन और श्रीदेवी की "सदमा " .
ख़ामोशी ,हेमंत दा के सुमधुर संगीत और गुलज़ार के नायाब गीतों के संकलन (हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू , तुम पुकार लो , वो शाम कुछ अजीब थी )से सजी यह फिल्म अपने आप में एक अनूठी फिल्म थी . मानसिक रोगी देव कुमार (धर्मेन्द्र ) और अरुण चौधरी (राजेश खन्ना ) का अपने प्रेम से इलाज़ करने वाली नर्स राधा (वहीदा रहमान ) अपने अभिनय में इतना खो जाती है कि अपने मरीज से प्रेम कर बैठती है , जबकि स्वस्थ होने के बाद वे अपनी नर्स को भूल जाते हैं, ये यादें एक दिन राधा को गहरी खामोशियों में ले जाती है और वह स्वयं एक मरीज बन कर रह जाती है .
इसी प्रकार की दूसरी क्लासिक फिल्म " सदमा " भी थी . यह तमिल फिल्म मुन्दरम पिराई की हिंदी रीमेक थी. इल्याराजा के संगीत और गुलजार के गीत (सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा ) . एक स्कूल में शिक्षक सोमू (कमल हसन ) को एक दिन अपने घर परिवार से बिछड़ी एक युवती लक्ष्मी (श्रीदेवी ) मिलती है , जिसका दिमाग एक बच्चे जैसा ही है . किसी दुर्घटना के कारण उसके दिमाग पर बहुत असर होता है और वह छः वर्ष की बच्ची की तरह ही व्यवहार करने लगती है . उसके इलाज़ की व्यवस्था के साथ ही उसके माता पिता को ढूँढने की जिम्मेदारी निभाता सोमू जब अपने उद्देश्य में सफल होता है तो लक्ष्मी उसे भूल चुकी होती है . फिल्म के आखिरी दृश्य में स्टेशन पर लक्ष्मी को सब भूल कर माता- पिता के साथ जाते हुए देखकर सोमू द्वारा उसे अपनी याद दिलाने की कोशिश वाला दृश्य भुलाये नहीं भूलता ....
शनिवार, 29 अक्तूबर 2011
जो आपके लिए अनमोल हो , हो सकता है कि दूसरों के लिए उसका मोल कौड़ी भर भी ना हो !
श्री राधा दामोदर , जयपुर
राधा -दामोदर को समर्पित इस पवित्र कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में विभिन्न तिथियों ( कार्तिक षष्ठी , गोपाष्टमी , आमला नवमी ,वैकुण्ठ चतुर्दशी , भीष्म पंचक ) के अनुसार पर्व विशेष उत्साह पूर्वक मनाये जाते हैं . सुबह -सवेरे महिलाओं और पुरुषों द्वारा तारों की छाँव में किये जाने वाली स्नान -पूजा और भजन , गीतों से पूरा वातावरण पवित्र हो उठता है . कार्तिक मास में दामोदर भगवान् को रिझाने के लिए ग्रामीण आंचलिक बोलियों में गये जाने वाले गीतों की बात ही अनूठी है . इन ( पाँवड़ियाँ , रसोई , बुहारी , आरती आदि ) गीतों के मध्यम से वे श्रीकृष्ण को विभिन्न वस्त्रादि , भोजन , खडाऊ आदि भेट करती हैं . ऐसा ही एक लोक भजन/गीत " श्रीकृष्ण की पाँवड़ियाँ" मुझे बहुत प्रिय है . इन गीतों के मध्यम से ये स्त्रियाँ श्रीकृष्ण को अपने मध्य एक आम इंसान ही बना लेती हैं . योगेश्वर कृष्ण अपनी आम इंसानी लीलाओं के माध्यम से ही तो जन -जन से जुड़े हुए थे . वही बालसुलभ मिट्टी खाने , माखन मिश्री चुराने , माता को विभिन्न उलाहने देने , मित्रों के साथ चुहलबाजी जैसी कारस्तानियाँ ही उन्हें आम इंसान से इतना जोड़े रखती हैं कि वह उनके बीच का तू ही हो जाता है .
इस गीत में प्रेम और ईर्ष्या के कारण होने वाली तकरार तो है ही और सबसे बड़ी सीख यह है कि ईर्ष्या से ग्रस्त होकर जानबूझकर किसी से झगडा मोल लेने वाले का अपना मान- सम्मान तो कम होता ही है , बल्कि इसी कारण से वह अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को भी अपमानित होने पर विवश करता है .
" श्रीकृष्ण की पाँवड़ियाँ"
म्हे थाने पूछा म्हारा श्री भगवान्
रंगी चंगी पाँवड़ियाँ कुण घाली थांके पाँव
म्हे तो गया था राधा खातन के द्वार
वे ही पहराई म्हाने पवरियाँ जी राज़
इतनी तो सुन राधा खातन के जाए
खातन बैठी खाट बिछाए
म्हे तो ए खातन थां स लड़बा ना आया
थे मोहा जी म्हारा श्री भगवान्
थार सरीखी म्हारी पाणी री पणिहार
कान्हा सरीखा म्हारा गायाँ रा गवाल
राधा खातान में हुई छे जो रार
उभा -उभा मुलक श्री भगवान्
सामी पगां थे लड़बा ना जाए
आछो ए राधा मांड्यो छे रार
आप कुवाया पाणी री पणिहार
म्हाने कुवाया थे गायां रा गवाल ...
इस गीत में वर्णित कथा इस प्रकार है कि एक दिन श्री भगवान् के चरणों में रंग -बिरंगी खडाऊ देख कर श्री राधा उनसे पूछती है कि आपके पैरों में इतनी सुन्दर खडाऊ कहाँ से आई . श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि मैं खातन ( बढई की पत्नी ) के घर गया था , उसने ही मुझे इतनी सुन्दर खडाऊ भेंट की . इस पर जलती- भुनती राधा उस खातन से लड़ने पहुँच गयी कि वह इतनी सुन्दर खडाऊ भेंट कर श्रीकृष्ण को रिझाना /मोहना चाहती हैं . इस पर खातन उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कहती है कि राधा ,तू अपने आपको क्या समझती है. तेरे जैसी तो मेरे पानी भरने वाली पनिहारनियाँ हैं , और तेरे कृष्ण जैसे मेरे गायों को चराने वाले गवाल , मैं क्यों उन्हें रिझाउँगी . राधा का गर्व चूर -चूर हो गया .
श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं ... " राधा , सामने होकर लड़ने गयी इसलिए ही खुद को साधारण पनिहारन और मुझे साधारण ग्वाला कहलाया ".
इस गीत के बहाने ही उस साधारण स्त्री ने उन आत्ममुग्ध , अपने और अपने परिवार , अपन रुतबे से गर्वोन्मत्त सभी स्त्री- पुरुषों को सन्देश दे दिया जो बेवजह ईर्ष्या से ग्रस्त होकर उन पर अधिकार ज़माने की चेष्टा में अपने सबसे प्रिय व्यक्तियों की जगहंसाई करवाते हैं . यह कत्तई आवशयक नहीं कि जो व्यक्ति आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण है , दूसरे के लिए भी उसका उतना ही महत्व हो .
जो आपके लिए अनमोल हो , हो सकता है कि दूसरों के लिए उसका मोल कौड़ी भर भी ना हो !
शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011
हम बड़े क्यों हो जाते हैं !!!
इधर बहुत दिनों बाद भतीजा घर आया तो देखा कुछ नाराज , कुछ उदास सा लगा . थोडा कुरेदने पर पता चला कि महाशय इसलिए नाराज़ थी कि दोनों भाई -बहनों की लडाई में मैंने अपनी बेटी का पक्ष ले लिया था . मैंने समझाया कि उस समय वह सही थी , सिर्फ इसलिए , मैं पक्षपात नहीं करती हूँ , जो गलत होता है , उसे ही डांटती हूँ , मगर बेटा सुनने को तैयार नहीं ...
नहीं बुआ , आप दीदी का पक्ष ले रहे थे , जबकि वो गलत थी . इतनी देर में बिटिया रानी उठाकर आ गयी कमरे से बाहर और दोनों में वाद विवाद शुरू हो गया , तब समझ आया कि पिछले कुछ दिनों से दोनों में अबोला चल रहा था . दोनों को ही ये शिकायत , तुमने ऐसा कहा , तुमने वैसा कहा , और बात भी कुछ गंभीर नहीं थी , बस नोट्स के आदान प्रदान को लेकर कुछ ग़लतफ़हमी थी .
मैं बहुत देर तक समझाती रही , मगर उस पर कुछ असर नहीं . वो बस यही कहता रहा कि आप दीदी की मम्मी हैं , इसलिए उसका पक्ष ले रही है . मैंने बहुत समझाने की कोशिश की ,मगर वह सुनने को तैयार नहीं ..आखिर मैंने कह दिया ," अगर तुझे ऐसा लग रहा है कि दीदी ही गलत है , तो छोड़ ना , जाने दे , कौन तेरे सगी बहन है , कौन सी दीदी , किसकी दीदी , चल जाने दे , तू सोच ही मत "...
क्या जादू हुआ इन शब्दों का , भतीजा एक दम से शांत हो गया ...
अरे वाह , ऐसे कैसे , दीदी तो दीदी ही रहेगी , झगडा होने का ये मतलब थोड़े हैं कि दीदी ही नहीं है ...
अब मुझे हंसी आ गयी , फिर क्या परेशानी है !!
दोनों भाई- बहन देर तक आपस में बहस करते रहे , तूने उस दिन ऐसे कहा , वैसे कहा , ऐसा क्यों कहा , वैसा क्यों कहा , मैं घर के काम निपटाते सब सुन रही थी , जब नाश्ता बना कर लेकर आई तो देखा दोनों की आँखों से गंगा- जमना बह रही थी , मन का कलुष भी शायद इनके साथ बह कर निकल गया था ...
दोनों के सिर पर हाथ फेर कर मैंने कहा ," इतना सबकुछ इतने दिनों तक मन में क्यों छिपाए रखा था , पहले ही कह सुन लेते "...दोनों फिर से हंसी मजाक करते हुए नाश्ता करने लगे .
बच्चों के लडाई झगडे इतने से ही तो होते हैं , कुछ दिन कुछ महीने फिर सब कुछ वैसा ही , मगर वही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं , तो सबकुछ बदल जाता है , कभी कभी लगता है , हम बड़े ही क्यों हो जाते हैं , वैसे ही बच्चे क्यों नहीं बने रहते ...सुनती हूँ माता -पिता की प्रोपर्टी और विरासत के लिए भाई- बहन एक दूसरे के खून के प्यासे , तो मन उदास हो जाता है .
ये लोंग बड़े क्यों हो जाते हैं !!!! शायद इसलिए ही कहा गया है मेरे भीतर का बच्चा बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!
कुछ शब्द कैसे जादू करते हैं , जब कोई लगातार नकारात्मक बातें कर रहा हो , एक बार उसकी हाँ में हाँ मिला दीजिये , देखिये उसका असर , बेशक इसके लिए ज़रूरी है दिल का सच्चा होना , और भावनाओं की ईमानदारी ...
" तू जो अच्छा समझे ये तुझपे छोड़ा है " ...वाद विवाद के बाद अक्सर अपने पति और बच्चों को कह देती हूँ , मुझे भी कहा किसी ने, आप भी कभी किसी खास अपने को कह कर तो देखिये!
गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011
नैतिकता की यह परिभाषा किसके लिए है !!!
अभी कल ही आराधनाजी की एक अच्छी कविता पढ़ी जिसमे वह दोस्त को संबोधित करते हुए कह रही हैं कि सही मायने में मुक्ति वही मानी जायेगी जब मुझे अपनी मित्रता के लिए अपराध बोध नहीं होगा , ना ही उसके साथ अपनी पुरानी सी ही मित्रता निभाते हुए कुलटा कहलाने का भय नहीं होगा ..
" या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथाया कि होंठ,
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान
जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,"
कविता निस्संदेह अच्छी है . जिसका सन्देश है कि मित्रता को पुरुष और स्त्री के खांचे में नहीं बांटा जा सकता है . जिस तरह दो पुरुषों या दो स्त्रियों की मित्रता समाज द्वारा मान्य है , एक पुरुष और स्त्री की मित्रता पर सवाल क्यों उठाये जाए . उसे भी सहज मित्रता के रूप में ही क्यों ना लिया जाये , उसे अशालीन या शालीनता से परिभाषित क्यों किया जाए.
यह तो हुए दोनों प्रविष्टियों की बात . अब मेरे दिल और दिमाग की रस्साकशी यह है कि है कि जो लोंग अजित जी कि पोस्ट पर अपनी महिला मित्र का चुम्बन लेने को अनैतिक मानते हुए उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ा आये , उनकी पत्नी द्वारा उठाये गये क़दमों को उसके साहस से जोड़ कर पीठ ठोंक आये , वे इस कविता को कैसे पसंद कर सकते हैं .
आखिर इस कविता में भी तो यही कहा गया है कि सच्चे अर्थों में मित्रता वही है कि एक स्त्री या पुरुष के रिश्तों पर शादी होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए.
उलझ गयी हूँ मै नैतिकता की यह परिभाषा जिसे हम क्या सिर्फ पुरुष के लिए होनी चाहिए , या सिर्फ स्त्रियों के लिए होनी चाहिए या दोनों के लिए समान ही हो ....
शिखा जी ने भी यहाँ एक समसामयिक संतुलित दृष्टिकोण रखा है .
लिव इन रिलेशनशिप में ज्यादा फायदा किसे है , और यदि इन रिश्तों में कानून दखल करता है और वही अधिकार देता है जो एक पत्नी को मिलने चाहिए तो फिर विवाह करने में क्या आपत्ति है , क्या सिर्फ इस भय से लोंग विवाह नहीं करना चाह्ते कि तलाक मिलने में परेशानी होगी तो इसका अर्थ तो यह ही हुआ कि अविश्वास तो इन रिश्तों में पहले से ही है , तो जो लोंग प्रेम के कारण रिश्ते या विवाह करना चाह्ते हैं , वे ऐसे रिश्तों को अपनी सहमति कैसे दे सकते हैं जिनमे प्रेम या विश्वास पहले कदम पर ही नहीं है ...
यह समय गंभीरता से मनन का है स्त्री मुक्ति के नाम पर हम कहीं एक अंधी खाई की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं या फिर पुनः पाषाण युग को आमंत्रित कर रहे हैं , एक सार्थक बहस के लिए आप आमंत्रित हैं !
मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011
दशहरे की तैयारी रावण मंडी में ....
बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक विजयदशमी पर्व की तैयारी पूरे देश में जोर शोर से चल रही है . रामलीलाओं के मंचन के साथ ही रावण के पुतलों को बनाने और जलाने की तैयारियां अपनी चरम पर है . पहले जहाँ चंदे इकठ्ठा कर कोलोनियों के बड़े और बच्चे बुजुर्गों के निर्देशन में सुखी लकड़ियाँ और रंगीन कागजों से लपेट कर दहन स्थल पर ही रावण का निर्माण करते थे , आजकल कारीगरों ने उनकी इस मेहनत को कम कर दिया है . जेब में पैसे लेकर जाओ और अपनी पसंद का रावण छांट लाओ .
जयपुर के गोपालपूरा बाई पास पर गुजर की थड़ी से लेकर किसान धर्म काँटा तक रावण की मंडी सज गयी है . राजस्थान के जालौर जिले के अतिरिक्त अन्य जिलों से भी कारीगर यहाँ रात दिन रावणों के निर्माण में परिवार सहित जुटे हुए हैं . बांस की खपच्चियों पर लेई की मदद से रंगीन कागज लपेट कर विभिन्न चित्ताकर्षक रावण के साथ ही मेघनाद और कुम्भकरण आदि की छवियाँ तैयार की जाती हैं .
रावण की यह मंडी राह चलते राहगीरों को इतना आकर्षित करती है कि इस मार्ग से गुजारने वाले एक बार रुक कर इसे देखते जरुर हैं , साथ ही अपनी कोलोनियों के सार्वजानिक स्थलों पर रावण दहन की तैयारियों के लिए इनका मोलभाव भी करते हैं . कहा जाता है कि यह एशिया की सबसे बड़ी रावण मंडी है . यहाँ दो से तीन फीट के रावण के साथ ही तेईस फीट तक के रेडीमेड रावण उपलब्ध हैं जिनकी कीमत 150 -200 के साथ 7000 तक है .
सिर तानकर खड़े इन रावणों को देखकर लोंग चुटकी लेने से नहीं चूकते कि दो दिन की और बात है फिर तो तुम्हे खाक में मिलना है , तन ले जितना तनना है अभी ...यही तो मानव जीवन पर भी लागू होता है , लालच , लोभ ,अहंकार में आकंठ डूबे लोंग हर वर्ष रावण की ऐसी दुर्गति देखकर भी अपने जीवन पर दृष्टि नहीं डाल पाते .
बड़े से बड़े जहाज को डुबोने के लिए एक छिद्र ही काफी है , रावण के पतन के लिए यह उक्ति बिलकुल उपयुक्त साबित होती है . सभी गुणों से संपन्न होने के बावजूद परायी स्त्री के हरण अर्थात उसकी चरित्रहीनता के कारण ही उसका पतन हुआ .
रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति काम भाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा का ही आचरण करता है।
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं। (http://bharatdiscovery.org से साभार ).
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं। (http://bharatdiscovery.org से साभार ).
अहंकार को भयंकर दुर्गुण मानते हुए यह भी प्रचलित है कि अहंकार तो रावण का भी नहीं टिका . कहा भी जाता है कि एक अज्ञानी यदि चरित्रवान है तो उसके अज्ञान को क्षमा किया जा सकता है , क्योंकि वह अच्छे और बुरे का फर्क समझता है , मगर यदि एक विद्वान् इस अंतर को नहीं समझता तो वह स्वयं अपना और अपने कुल का भी नाश करता है . अपने शौर्य और विद्वता के अहंकार और मद में डूबा रावण प्रकृति के संतुलन को समझ नहीं सका और उसके सोने की लंका का सर्वनाश हुआ .
बुधवार, 28 सितंबर 2011
श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवालय , शिवाड (राजस्थान)
श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग
शिवालय , शिवाड (राजस्थान)
पिछले दिनों जयपुर लगभग 98 किलोमीटर दूर द्वादशवे ज्योतिर्लिंग श्री घुश्मेश्वर जाना हुआ . भव्य साज सज्जा से युक्त यह मंदिर भक्ति भाव युक्त दर्शनार्थियों के अलावा पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो रहा है .
दरअसल महाराष्ट्र के मनमाड के वेरुल स्थित ग्राम में विराजित ज्योतिर्लिंग को भी द्वादशवे ज्योतिर्लिंग ही माना जाता रहा है , मगर शिवाड स्थित मंदिर के शिलालेखों और प्राप्त ऐतिहासिक और धार्मिक दस्तावेजों से इस स्थान की द्वादाश्वे ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्यता स्थापित होती है .
द्वादशवे ज्योतिर्लिंग श्री घुश्मेश्वर राजस्थान के शिवालय (शिवाड ) ग्राम में विराजमान है . यह ज्योतिर्लिंग स्वयम्भू है अर्थात यह किसी के द्वारा निर्मित नहीं किया गया , अपितु स्वयं उत्पन्न है . पुरातनकाल में इस स्थान का नाम शिवालय था जो अपभ्रंश होता हुआ , शिवाल से शिवाड नाम से जाना जाने लगाशिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग मंदिर के दक्षिण में भी तीन श्रृंगों वाला धवल पाषणों का प्राचीन पर्वत है, जिसे देवगिरी के नाम से जाना जाता है . यह महाशिवरात्रि पर एक पल के लिए सुवर्णमय हो जाता है जिसकी पुष्टि बंजारे की कथा में होती है कि जिसने देवगिरी से मिले स्वर्ण प्रसास से ज्योतिर्लिंग की प्राचीरें एवं ऋण मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में करवाया . १८३७ में ग्राम शिवाड स्थित सरोवर की खुदाई करवाने पर दो हजार शिवलिंग मिले जो इसके शिवलिंगों के आलय होने की पुष्टि करता है . मंदिर के परंपरागत पराशर ब्राह्मण पुजारियों का गोत्र भी शिवालय है .
कई विद्वान् , धर्माचार्य , पुरातत्वविद, शोधार्थी आदि इस स्थान की यात्रा कर इसे वास्तविक घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग होने की पुष्टि कर चुके हैं .
शिव पुराण कोटि रूद्र संहिता के अनुसार भक्तिमयी घुश्मा के पुत्र को उसकी बहन ने सौतिया डाह के कारण टुकड़े -टुकड़े करके उसी सरोवर में फेंक दिया था ,जिसमे घुश्मा प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा कर विसर्जित करती थी . घुश्मा की अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर आशुतोष शिव ने उसके मृत पुत्र को जीवित कर दिया तथा घुश्मेश्वर नाम से इस स्थान पर अवतरित हुए .
ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद किशना एवं जानकी के पाषाण स्तंभों की परिक्रमा आवश्यक मानी जाती है . कहा जाता है कि शिवाल ग्राम के किशन खाती की गाय जंगल में ज्योतिर्लिंग पर खड़ी होती तो उसके दूध की धरा स्वतः बह ज़ाती थी. किशना ने गाय का पीछा कर यह प्रत्यक्ष देखा तो अज्ञानतावश शिवलिंग पर कुठार प्रहार किया , जिससे खून का फव्वारा फूट पड़ा . किशना भय के मारे कुछ दूर भागा तो पाषाण का हो गया . गाय किशना की पत्नी जानको को घटनास्थल पर लेकर आई . जानकी ने प्रभु से प्रार्थना की तो भगवान् ने किशना को पुनः शरीर देकर जानकी को आशीर्वाद दिया कि उसकी पूजा करने के बाद किशना जानकी की परिक्रमा अवश्य होगी .
११२१ में मंडावर के राजा शिववीर चौहान ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा अखंड ज्योति एवं शिवरात्रि जागरण एवं मेला आरंभ किया जो आज तक निर्बाध रूप से जारी है .
किसी विशेष परिस्थिति में इसके जल स्तर के गिरने को किसी संकट के आगमन की पूर्व सूचना माना जाता है .
शिवाडस्थ ज्योतिर्लिंग के दक्षिण में स्थित देवगिरी पर्वत में ऊँचाई पर एक शक्तिपीठ स्थापित है , जो इस स्थान के प्राचीन होने का पुख्ता प्रमाण है . प्राचीन ग्रन्थ श्री घुश्मेश्वर महात्म्य के अनुसार प्राचीनकाल में ज्योतिर्लिंग क्षेत्र शिवालय में एक योजन विस्तार में चारों दिशाओं में चार द्वार थे जिनका नाम पूर्व में सर्प द्वार , पश्चिम में नाट्यशाला द्वार तथा उत्तर में वृषभ द्वार व दक्षिण में ईश्वरद्वार था तथा पश्चिमोत्तर में सुरसरि सरोवर था .
वर्तमान में ग्राम शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग क्षेत्र के चारों ओर पुरोक्त चारों द्वारों के प्रतिक चार गाँव हैं जो सारसोप (सर्व सर्प्द्वर ), नत्वादा (नाट्यशाला द्वार ), बहड़ (वृषम द्वार ), ईसरदा (ईश्वर द्वार ) के नाम से जाने जाते हैं . पश्चिमोत्तर में सिरस गाँव सुरसरि सरोवर के स्थान पर बसा हुआ है .
वाशिष्ठी नदी के किनारे बिल्व पत्रों एवं मंदार के वन ...
घुश्मेश्वर महात्म्य ग्रन्थ के अनुसार ज्योतिर्लिंग के शिवालय क्षेत्र में वाशिष्ठी नदी बहती थी , जिसके किनारे मंदारवन(आकड़ों का वन ) तथा बिल्वपत्रों के वन थे जिनसे घुश्मेश्वर की नित्य पूजा की जाती थी .
ग्राम शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग क्षेत्र के पास बनास नदी बहती है जो पूर्वकाल की वाशिष्ठी नदी ही है तथा इसके किनारे बिल्वपत्रों का वन आज भी विरल रूप में स्थित है . मंदार वन के स्थान पर मंडावर ग्राम है जहाँ आकडे (मंदार ) बहुतायत में उत्पन्न होते हैं .
मुहूर्त मार्तंड ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार ग्रन्थ में प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ के रचनाकार पंडित नारायण ने ग्रन्थ के संक्रांति प्रकरण के अंत में निम्न प्रकार अपने वंश , जनक , जन्मस्थान का उल्लेख किया है ---
" जिन्होंने विष्णु के चरणों में अपनी आत्मा को अर्पित किया है , ऐसे विष्णु चरणों से पवित्र कौशिक वंश में द्विजश्रेष्ठ श्री हरि, जिनसे शम , दम , तप , अध्ययन , जितेन्द्रियता , उदारता आदि गुणों से अलंकृत ब्राहमणों से पूजित अनंत नाम द्विज श्रेष्ट उत्पन्न हुए , उनके पुत्र नारायण ने मुहूर्तों के भण्डार इस मुहूर्तमार्तंड ग्रन्थ की रचना की जो पुराण प्रसिद्ध देवगिरी पर्वत के पास उत्तर में स्थित शिवालय सरोवर के उत्तर की ओर स्थित टापर ग्राम में रहता है .
ग्राम तापर , शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग के उत्तर में यथास्थान स्थित है तथा अनेक महान विभूतियों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है .
विक्रम संवत १०८१ (वर्ष 1023) में महमूद गजनवी के सिपहसालार मसूद द्वारा इस स्थान का विध्वंस किया गया . इस मंदिर के प्रांगन में मिले प्रस्तर खंड , मूर्तियाँ आदि अवशेष सातवीं शताब्दी के आसपास निर्मित मंदिरों की शैली के हैं , हरा -नीलापन लिए इन बलुआ पत्थरों पर भी युगल देव मूर्तियाँ उत्कीर्ण है .
मंदिर का वास्तुशिल्प पाणिनी के अष्टांगिक योग पर आधारित है . इस शिल्पकला में समाधि प्रिय शिव का सानिध्य योग बल से ही संभव मान कर निर्माण किया जाता है . इस मंदिर में यम एवं नियम की पांच- पांच सोपान (सीढियाँ ), नंदी (आसन ), पवनपुत्र (प्राणायाम ), कछुआ (प्रत्याहार ), गणेश (धारणा ), माता पार्वती (ध्यान ), भगवान् शंकर (समाधिस्थ ) विराजमान है जो कि अष्टांगिक योग पर आधारित वास्तुकला की पुष्टि करते हैं . १९९८ में खुदाई पर मिली कश्यपावतार की समुद्र मंथन मूर्ति अष्टांगिक योग में प्रत्याहार का प्रतिनिधित्व करती है .
रविवार, 11 सितंबर 2011
आप क्यों जुड़े हैं इन नेट्वर्किंग साईट्स से !!!
एक दिन एक ब्लॉगर का सवाल था - भारतीय संस्कृति को मानने वाले लोग फेसबुक पर क्या कर रहे हैं...
सोचा , मगर इस पर आपत्ति का कोई कारण मुझे समझ नहीं आया.
फेसबुक या ऐसी और सोशल नेट्वर्किंग साईट्स देश- विदेश से लोगों को एक मंच पर जुड़ने की सुविधा देती हैं .इसका किसी संस्कृति से क्या लेना- देना हो सकता है !
बड़े लोगों की वे जाने ,मैं अपनी बात रख दूं ...
मैं एक सामान्य मध्यम वर्गीय गृहिणी हूँ जो ज्यादा समय घर में ही बिताती है . स्वाभाविक तौर पर हमारा मेल मिलाप भी ऐसे ही परिवारों में अधिक रहा है या हो सकता है, जहाँ स्त्रियाँ इकट्ठी होती है तो उनकी बहस और बातचीत का केंद्र धार्मिक परम्परायें ,कर्मकांड , व्रत- त्यौहार , कपड़े , गहने , परिवार ही होता है . परंतु जो स्त्रियाँ कर्म क्षेत्र घर ही होने के बावजूद कुएं का मेंढक नहीं बने रहना चाहती हैं और देश- विदेश की संस्कृतियों की जानकारी में रुचि रखती हैं , आस- पास या दूर देश की दुनिया में क्या घट रहा है की जिज्ञासा रख जागरूक रहना चाहती हैं , उनके लिए इन्टरनेट कम कीमत पर अधिक जानकारी देने वाला एक साधन है .
यहाँ कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि यदि सिर्फ जानकारी के लिए इन्टरनेट से जुड़े हैं तो सोशल नेट्वर्किंग की जरुरत क्या है. यह सही है कि प्रचुर मात्रा में सामग्री है इन्टरनेट पर परंतु हर कोई इतना जानकार नहीं हो सकता है . भाषा के अल्पज्ञान के कारण, वायरस आदि की जानकारी हो या जो लिखा है उसको उसी तरह समझ पाना , सबके लिए इतना आसान नहीं होता . यह भी सही है कि यहाँ किसी की पहचान और इरादों को समझना मुश्किल है . आप जिसे अपना समझकर अपने विचार या समस्या बाँट रहे हैं वह कब आपको दूसरों की नजरों में उपहास का पात्र बना दें , कहना मुश्किल है परंतु यह समस्या तो सामान्य जीवन में भी कम नहीं है .
सोचें, वास्तविक जीवन में भी रिश्तेदारों या आपके आस- पास रहने वाले लोगों में भी अवांछित तत्त्व होते ही हैं . आखिर उनका सामना भी करना ही होता है . कम से कम इन्टरनेट यह सुविधा तो देता है कि जिसको आप नापसंद करते हैं , उससे दूर रह सकें या उनको उचित जवाब दे सकें . ब्लॉक या इग्नोर करने की सुविधा/असुविधा वास्तविक जीवन में कहाँ है !!!
ये सोशल नेट्वर्किंग साईट्स ना सिर्फ विभिन्न परिवेश के लोगों को जानने और समझने का एक जरिया बनते हैं, बल्कि दूर प्रदेश या विदेश में रहने वाले आपके परिचितों /रिश्तेदारों या अनजान लोगों से भी जुड़े रहने का भी एक सहज और सस्ता माध्यम बनते है . इन साईट्स के माध्यम से मैं स्वयं अपने सहपाठी , मित्र ,ब्लॉगर्स आदि के अलावा परिवार /खानदान के उन लोगों से भी जुडी हुई हूँ ,दूरियों के कारण जिन्हें मैंने कभी देखा भी नहीं. किसकी जिंदगी में क्या चल रहा है से परिचित होने के के अतिरिक्त एक दूसरे के सुख- दुःख से भी जुड़ना होता है !
किसी भी संस्कृति या अपसंस्कृति से इसका सम्बन्ध मैं नहीं जोड़ पा रही हूँ .
आप क्यों जुड़े हैं इन नेट्वर्किंग साईट्स से !!!व्यर्थ वाद- विवाद में उलझने जितना समय ,सामर्थ्य या शक्ति मुझमे नहीं है . यह समझते हुए सार्थक , विवादरहित , मुद्दों से जुडी टिप्पणी करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है !
रविवार, 4 सितंबर 2011
प्रथम गुरु को प्रणाम !
किसी भी मनुष्य की पहली पाठशाला उसका घर है . परिवार के विभिन्न सदस्यों के आपसी व्यवहार का असर उसके पूरे जीवन पर होता है . लेकिन जब थोडा बड़ा होने पर घर से बाहर की दुनिया में जहाँ वह प्रवेश लेता है ,जहाँ व्यक्तित्व निर्माण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया प्रारंभ होती है , वह है उसका विद्यालय ... जो सबक विद्यालय और घर में सीखे जाते हैं , व्यस्क होने पर बाहरी दुनिया में पैर रखने पर वही आजीवन काम आते हैं ...वास्तव में सीखने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती , हम जीवन भर कुछ न कुछ सीख लेते रहते हैं और दिन प्रतिदिन परिपक्व होते हैं , लेकिन हमारे सबसे पहले गुरु को हम कभी नहीं भूला सकते हैं , यदि उन्होंने हमारे जीवन को सही दिशा दी हो .
आज शिक्षक दिवस पर मैं भी अपने प्रथम गुरु श्री राजकुमार भाटिया जी को याद कर रही हूँ . गुरु या शिक्षक शब्द सुनते ही सबसे पहले मुझे उनका ही स्मरण होता है . श्री राजकुमार भाटिया सर का जन्म लाहौर में 7 जुलाई 1935 को हुआ था .वे निहायत सादी वेश भूषा में उच्चतम संस्कारों की प्रतिमूर्ति थे. हिंदी , अंग्रेजी और संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान श्री भाटिया सर अपनी उच्च शिक्षा की बदौलत किसी बड़े शहर या महानगर में रहने और अपनी प्रतिभा का दोहन कर बहुत नाम और यश हासिल कर सकते थे , मगर उन्होंने बिहार के बहुत ही छोटे से गाँव को अपनी कर्मभूमि बनाया और अपनी छोटी बहन सरोज भाटिया के साथ अपने छोटे से विद्यालय से बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया .
वे अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी थे. मुझे आज भी याद है कि जब वे कक्षा में पढ़ाने आते तो उनके स्वयं के हाथ में किताब कम ही होती थी . बिना किताब आँखे बंद कर वे हमें बताते कि अमुक किताब का अमुक चैप्टर अमुक पेज पर है , और उसके इस पैराग्राफ की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं .
उनकी सिखाई ही प्रार्थना की कुछ पंक्तियाँ ही याद है अब , मगर हमारे जीवन जीने का मूल मंत्र आज भी वही हैं ...
" जी रहे जहान में तो खान- पान चाहिए ,
नित्य निवास के लिए हमें मकान चाहिए
चाहिए हज़ार सुख मगर ना दान चाहिए "
आजीवन अविवाहित सर को जब हम बच्चों के जन्मदिन पर निमंत्रित किया जाता तो वे सहर्ष उपस्थित होते थे . सर के माता -पिता पूरे कस्बे में चाचाजी और चाचीजी के नाम से ही जाने जाते थे . हर विद्यार्थी की घरेलू समस्या उनकी अपनी होती थी . कोई बच्चा कुछ दिन विद्यालय नहीं आ पाया हो तो उसका हालचाल पूछने उसके घर पहुँच जाते थे और यथासंभव उसकी मदद भी करते थे . आज उनके पढाये हुए छात्रा /छात्राएं देश -विदेश में विभिन्न कम्पनियों में उच्चतम पदों पर कार्यरत हैं .
जीवन भर किसी के सामने सर नहीं झुकाने वाले आर्यसमाजी श्री भाटिया सर को अंतिम समय में काल के वशीभूत हो अपनी बीमारी से परास्त होना पड़ा और एक सप्ताह पहले 31 अगस्त को उनका देहावसान हो गया .
शांति निकेतन , पंडित जवाहर लाल नेहरु , जानकी वल्लभ शास्त्री , रामधारी सिंह दिनकर ,आदि के साथ बिताये अविस्मर्णीय पलों को लिपिबद्ध कर पुस्तक का रूप देने की इच्छा अधूरी ही रह गयी !वे जहाँ भी हो , उनके विद्यार्थियों की स्मृतियों में हमेशा जिन्दा रहेंगे ..
" गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवैनमः॥"
शुक्रवार, 2 सितंबर 2011
क्या किया जाए ....
अभी कुछ दिन पहले एक ब्लॉगर जिनके ब्लॉग की मैं नियमित पाठिका हूँ , ने मेल कर एक समस्या के समाधान में मदद मांगी . दरअसल उनकी एक महिला ब्लॉगर पाठिका मानसिक रूप से काफी परेशान लग रही थे , उनके ब्लॉग की नैतिक शिक्षा की अच्छी पोस्ट को पढ़ कर उन्हें एक अच्छा मददगार इंसान मानते हुए मदद की गुहार कर रही थी .
"आपने मेरे लिए अपना कीमती समय दिया और अब भी मेरी हेल्प करना चाह्ते हैं , आपकी हर सलाह मेरी समस्या का समधन है . मैं बहुत सरी समस्याओं की वजह से ऐसा लगता है कि मेरा आत्मविश्वास कम हो गया है . हाँ मुझे लिखना अच्छा लगता है लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि मेरा आत्मविश्वास कम है . लेकिन मुझे क्यों लगता है कि मुझे किसी के साथ की जरुरत है , मैं अकेले कुछ नहीं कर सकती ..
हमारे समज में लिहाज़ की वजह से ही हम बहुत सरी समस्याओं से घिरे हैं . इसलिए मैं एक ग्रुप चाहती हूँ जिसमे हम अपनी समस्याओं पर खुल कर पूछ सके और उसका निःसंकोच उत्तर पा सकें . मेरी समझ में महिला वर्ग को इससे बहुत फायदा होगा . आपके पास समय का अभाव है और मेरे पास समय ही समय है . क्या मैं इसमें आपकी कुछ मदद कर सकती हूँ . इतनी सारी बातें आपसे भी कहने कि हिम्मत आपके ब्लॉग को पढ़कर हुई . उसमे बहुत कुछ आपने अपने बारे में भी लिखा है जिससे मुझे उत्साह मिला .
धन्यवाद मेरे सन्देश का उत्तर देने के लिए , जिससे मेरी एक समस्या का समाधान मिला , मैं बेहद खुश हूँ . जो मैं किसी से पूछ नहीं सकती थी , रास्ते नजर नहीं आ रहे थे , अपने उम्मीद की एक किरण मुझे दी , मेरा आत्मविश्वास केवल दो जगह कम पड़ता है , एक तो मुझे लगता है मेरी शिक्षा और दूसरी मेरी बीमारी , इन दोनों पर ही विजय पाने की कोशिश कर रही हूँ , तक विजय पाई भी है , कोशिश करुँगी कि इस समस्या से छुटकारा मिले , और यही कारण है मेरी हताशा का .हाँ , मैं अपना ब्लॉग जरुर बनाना चाहूंगी लेकिन उसके पहले मैं आपको अपनी लिखी सामग्री भेजूंगी . शायद इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ जाये क्योंकि एक राह बताने वाला मुझे अभी चाहिए ...
मैं बहुत परेशान रहती हूँ , हो सके तो आप किसी महिला मित्र से मेरी बात करा दीजिये , या फिर अगर आपके पास कोई उपाय हो तो मैं अपनी समस्या आपको बता सकूं . अगर मेरी थोड़ी सी हेल्प होती है इसके लिए धन्यवाद !"
ये है उन महिला की विनती ...
जिनको रोमन पढने में परेशानी है , उनके लिए इसे लिख दिया है हिंदी में भी :)"apne mere liye apan kimati samya diyaour ab bhi meri help karna chahte hain..aapki har salah meri samsya ka samadhaan hai..mai bahut sari samsyaon ki vajah se aisa lagata ai mera atmvishvas kam ho gaya hai.. han mujhe likhana achchha lagata hai lekin pata nahi kyon lagata hai mera atmvishvaas kam hai..mai khud ka elk blog jaroor banana chahoongi... lekinmujhe kyon lagata ha kimuhe kisi ke sath ki jaroorat hai..mai akele kuchh nhi kar sakti...
hamre smaaj me lihaj ki vajah se hi ham bahut saree samsyaon se ghire hain..isiliye mai ek group chahti hu jisme ham apni samsyaon ko khul kar poochh sake our uska nisankoch uttar paa sake..meri samajh se mahila varg ko isase bahut fayada hoga...apke paas amay ka abhav hai..our mere paas samy hi samay...kya mai isme apki kuchh madada kar sakti hu....iatni saree baten aapse bhi kahne ki himmat aaoke blog ko hipadh kar aai...usme bahur kuchh aapne apne batre me bhi likha hai....jisase mujhe utsaah mila...
dhnyvaad mere mess ka uttar dene ke liye..aapke pahle hi mess se mujhe meri ek samasya ka hal mila our mai beahd khush hui...jo mai kisi se poochh nahi sakti thi raste najar nahi a rahe the apne ummed ki ek kiran di mujhe...mera atmvishvaas keval do jagah kam padta hai....ek to mujhe lagata hai meri education...our doosri meri beemari...in dono per hi vijay pane ki koshish kar rahi hu...25% tak vijay pai bhi...koshish karrongi ki is samasya se chhutkara mile....our yahi karan hai mer hatasha ka..han mai apana blog jaroor banan chahoongi...lekin uske pahle mai apko apni likhi samgri bhejoongi..shayad isase mera atm vishvas badh jaye..kyonki ek raah batane wala mujhe abhi chahiye...
MAI BAHUT PARSHAAN RAHTI HU .. HO SAKE TO AAP KISI MAHILA MITR SE MERI BAAT KARA DIJIYE.. ya fir agar aapke paas koi upaay ho to mai apni prob aapko bata sakoo...agar meri thidi se help bhi hoti hai iske liye धन्यवाद"
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हमारे समज में लिहाज़ की वजह से ही हम बहुत सरी समस्याओं से घिरे हैं . इसलिए मैं एक ग्रुप चाहती हूँ जिसमे हम अपनी समस्याओं पर खुल कर पूछ सके और उसका निःसंकोच उत्तर पा सकें . मेरी समझ में महिला वर्ग को इससे बहुत फायदा होगा . आपके पास समय का अभाव है और मेरे पास समय ही समय है . क्या मैं इसमें आपकी कुछ मदद कर सकती हूँ . इतनी सारी बातें आपसे भी कहने कि हिम्मत आपके ब्लॉग को पढ़कर हुई . उसमे बहुत कुछ आपने अपने बारे में भी लिखा है जिससे मुझे उत्साह मिला .
धन्यवाद मेरे सन्देश का उत्तर देने के लिए , जिससे मेरी एक समस्या का समाधान मिला , मैं बेहद खुश हूँ . जो मैं किसी से पूछ नहीं सकती थी , रास्ते नजर नहीं आ रहे थे , अपने उम्मीद की एक किरण मुझे दी , मेरा आत्मविश्वास केवल दो जगह कम पड़ता है , एक तो मुझे लगता है मेरी शिक्षा और दूसरी मेरी बीमारी , इन दोनों पर ही विजय पाने की कोशिश कर रही हूँ , तक विजय पाई भी है , कोशिश करुँगी कि इस समस्या से छुटकारा मिले , और यही कारण है मेरी हताशा का .हाँ , मैं अपना ब्लॉग जरुर बनाना चाहूंगी लेकिन उसके पहले मैं आपको अपनी लिखी सामग्री भेजूंगी . शायद इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ जाये क्योंकि एक राह बताने वाला मुझे अभी चाहिए ...
मैं बहुत परेशान रहती हूँ , हो सके तो आप किसी महिला मित्र से मेरी बात करा दीजिये , या फिर अगर आपके पास कोई उपाय हो तो मैं अपनी समस्या आपको बता सकूं . अगर मेरी थोड़ी सी हेल्प होती है इसके लिए धन्यवाद !"
चूँकि वे खुद एक सुलझे हुए ब्लॉगर हैं , इस समस्या को अपने तरीके से मुझसे बेहतर ढंग से सुलझा सकते हैं , उन्होंने मुझसे क्यों कहा यही सोचती रही ...फिर मैंने कयास लगाया कि शायद यह एक आम गृहिणी की समस्या है , जो कुछ नया करने या सीखने की ललक रखती हैं , इसलिए ही मुझसे पूछा गया ... खैर अपनी समझ में जो मुझे आया मैंने उन्हें तुरन्त जवाब दे दिया कि उन महिला को अपनी प्राथमिकतायें तय करते हुए अपने पति और बच्चों से बात करनी चाहिए , और यदि उनसे नहीं कर सके तो किसी विश्वस्त मित्र या रिश्तेदार से ...
कह तो दिया मैंने , मगर मैं उक्त महिला की परेशानी समझ सकती हूँ क्योंकि जो महिला हमेशा घर से जुडी रही है , उसके अलावा उसने कुछ सोचा या जाना नहीं है , उसके लिए नई शुरुआत इतनी आसान नहीं होती...शुरू में परिवार से इतना सहयोग भी नहीं मिल पाता, उसके लिए कई बार अपमान या उपेक्षा को सहते हुए दृढ़ता से जमे रहना ज़रूरी है...नए प्रयास को समझने में समय लगता है , तब तक धीरज और दृढ़ता आवश्यक है , और सिर्फ घर में ही क्यों , घर से बाहर कुछ करना हो तब भी यही दृढ़ता अपनानी आवश्यक होती ही है ...बस फर्क ये हैं कि कुछ वे लोंग घर के भीतर कुछ सुनना पसंद नहीं करते, बाहर की दुनिया में अपना अस्तित्व बनाये रखने लिए जाने क्या-क्या सहन कर जाते हैं , माने ना माने , ये कडवी हकीकत है ....
मैंने पति और बच्चों से उक्त महिला के बारे में बात की , वे लोंग कोई ठोस सुझाव नहीं दे पाए . फिर ब्लॉग जगत में नारी विकास के लिए जागरूक एक सशक्त महिला ब्लॉगर से बात की मगर उनके जवाब ने मुझे बहुत निराश किया . उनका जवाब था कि हर विवाहित महिला एक कम्फर्ट जोन चाहती है इसलिए वास्तव में यह उस महिला की समस्या नहीं ,आदत है ...मैं इसमें कुछ नहीं करना चाहती !
जो महिलाएं अपने कम्फर्ट जोन में रहते हुए कार्य करना चाहती हैं , क्या उन्हें सहायता नहीं मिलनी चाहिए ?? क्या उनकी सहायता करना समय की बर्बादी है ??..
क्या मदद सिर्फ उन महिलाओं की ही होनी चाहिए जो घर छोड़ कर बाहर निकल आयें , या नारी सम्मान , नारी विकास , सशक्तिकरण पर बड़ी बातें करना और बात है , मगर जब किसी को वास्तव में मदद की आवश्यकता है तो यह कहकर कन्नी काट लेना कि यह उनकी समस्या नहीं , आदत है , कहना ज्यादा आसान है .
तब मैंने उन महिला महिला ब्लॉगर से बात की , जो नारी की समस्याओं पर कभी बहुत मुखर नहीं रही हैं , मगर मैंने देखा है कि कई नवोदित महिला ब्लॉगर्स की वे स्वयं आगे होकर सहायता करती हैं , उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि यदि वे अपनी रचनाएँ भेजें तो मैं सोच सकती हूँ कि इसपर क्या किया जा सकता है ...
उक्त महिला की व्यक्तिगत तौर पर मैं भी बहुत सहायता नहीं कर सकती , यह पोस्ट एक छोटा सा प्रयास भर है ....
उस महिला को क्या करना चाहिए या उनकी सहायता और किस प्रकार की जा सकती है ??
आप सुझायेगे ??
रविवार, 28 अगस्त 2011
अन्ना के साथ चलना , नहीं चलने से बेहतर है ....
अन्ना की आंधी ने स्वतंत्रता संग्राम के बाद पहली बार अनगिनत रिकोर्ड बनाते हुए युवाओं के जोशोखरोश को एक निश्चित दिशा दी है . जैसे पूरा देश एक नींद से जाग उठा है , मुर्दा जिस्मों में हरकतें होने लगी हैं . आजादी के बाद देश में पहली बार सत्ता पक्ष के अलावा पूरा देश एक मुद्दे पर एकजुट नजर आ रहा है . युवा , बाल , वृद्ध , सरकारी संस्थाओं से जुड़े लोंग या व्यापारी , अन्ना की मुहीम में सभी एक साथ कंधे से कन्धा मिला कर खड़े हैं .
स्वतन्त्रता की लडाई एक- दो वर्षों नहीं सदियों के लम्बे संघर्ष की दास्तान है. लडाई जीत कर स्वतन्त्रता का जश्न मनाते लोगों ने तब सोचा नहीं होगा कि यह आंतरिक गुलामी की ओर बढ़ता एक कदम है . माटी के ऊपर सफ़ेद झक वस्त्रों में मंच पर सलामी ले रहे नेताओं और आह्लादित जनसमूह ने धीरे-धीरे उन लोगों को भूलना शुरू कर दिया जिनके शरीर लोकतंत्र की नींव में दबे पड़े थे और जिनकी आत्माएं वही उसी मिट्टी के नीचे दबी पड़ी कराह रही थी . 65 वर्षों में हम अपनी पीढ़ियों को एक ऐसा नेता या अगुवाई करने वाला शख्स नहीं दे सके , जो हमारे युवाओं को देश निर्माण की राह पर चलने को प्रेरित कर सके , फलतः यह युवा शक्ति विभिन्न रक्तरंजित आंदोलनों का हिस्सा बन जाने में जाया होती रही है l सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली नीतियाँ और उपरी स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के जाल ने आम आदमी को सोचने पर मजबूर कर ही दिया कि क्या यही वास्तविक आज़ादी थी , जिसके लिए हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने लाल यूँ ही गँवा दिए . लोकतंत्र में जनता ही चुनती है सरकार , मगर जिसे भी चुनो , सत्ता की मलाई का स्वाद चखते ही उनकी भाषा बदल जाती है या वे बदलने पर मजबूर होते हैं . ईमानदारी से काम करने या सेवा करने का संकल्प लिए युवा जब राजनीति , लोक सेवा अथवा पुलिस सेवा का दामन थामते हैं तब उनमे अतुल्य साहस और जोश होता है मगर कुछ कदम चलते ही उन्हें लडखडाना पड़ जाता है और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए वे इस व्यवस्था के कुचक्र का हिस्सा बन जाते हैं .
व्यवस्था के महाजाल में फैले भ्रष्टाचार से सत्य और न्याय का गला घुटता रहा है और आखिर अंतिम साँसें लेते दिखाई पड़ने लगा है . हमारी सरकारी नीतियाँ अमीर को और अमीर तथा गरीब को और गरीब बनाने में ही कामयाब रही हैं . विकिलीक्स के आंकड़े बताते हैं कि किस तरह देश की पूरी पूंजी कुछ लोगों के हाथ में सीमित होती जा रही है जिसके दुष्परिणाम आम मध्यम वर्ग /निम्न वर्ग को भुगतना पड़ रहा है . सुरसा की तरह बढती महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है . वर्षों तक दबा पड़ा यह गुस्सा आज अन्ना के साथ फूट निकल पड़ने को तैयार है . वर्तमान सरकार इस ज्वालामुखी में दबे लावे को समझ नहीं पाई बल्कि हास्यास्पद तर्क देती रही है कि प्रस्तावित जनलोकपाल बिल सिर्फ एक सिविल सोसाईटी की मांग है . उमड़े जन सैलाब और अन्ना के प्रति श्रद्धा और दीवानगी देखकर भी कोई ना समझना चाहे तो उसे क्या कहा जाए .
वास्तव में इस तरह का कोई बिल भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी की मांग है . यह मध्यमवर्गीय जन की पीड़ा है क्योंकि सबसे ज्यादा भुगतना उसे ही पड़ रहा है. भीतर दबे उनके गुस्से की चिंगारी को अन्ना नाम की आंधी ने दावानल बनाने में मदद की . कहीं न कही बाबा रामदेव के साथ दुर्व्यवहार , अन्ना की गिरफ़्तारी और सत्ता पक्ष के अनर्गल बयानों ने भी आमजन की निर्लिप्तता को दूर किया और उन्हें सड़क पर आ खड़े होने को विवश किया . अब जनता इतनी भोली भी नहीं रही कि वह खुली आँखों से भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले को ही भ्रष्टाचारी साबित करने की कोशिशों को समझ नहीं सके और अब तो वह कह भी चुकी है की बस , अब और नहीं !
लोग कहते हैं जनता चुनती है सरकार ,मगर ये नहीं देखते की जिसे भी चुना जाता है , वह इरादतन या मजबूरन इस व्यवस्था का अंग बन जाने को मजबूर हो जाता है इसलिए इस लोकपाल बिल के साथ ही अपने भावी कार्यक्रमों में भ्रष्ट चरित्रों के लिए नापसंदगी का प्रावधान रखने अथवा चुने जाने के बाद भी वापस बुला लेने जैसे सुझावों ने आम जनता को सिविल सोसाईटी के उद्देश्यों से खुद को जोड़ने और उनमे आस्था रखने में मदद की है .
मैग्सेसे पुर्सस्कार से सम्मानित अन्ना की टीम के डॉ महत्वपूर्ण साथी अरविन्द केजरीवाल आयकर विभाग से तो किरण बेदी पुलिस के उच्च अधिकारी रहे हैं और कही न कही प्रताड़ित भी रहे हैं, जबकि शांति भूषन और प्रशांत भूषन नामी गिरामी वकील हैं इसलिए यह टीम व्यवस्था की खामियों और दुष्प्रभाव से अच्छी तरह वाकिफ है .
जन लोकपाल बिल पर छेड़ा गया आन्दोलन हालाँकि उस तरह नहीं पास हुआ , जैसी इसकी कल्पना की गयी थी , मगर फिर भी भ्रष्टाचार मुक्त देश की सकारत्मक दिशा की ओर बढ़ते एक कदम के रूप में यह समय यादगार बन गया है । वास्तव में सही यही है कि सिर्फ कोई भी कानून इस देश को सुन्दर भविष्य नहीं दे सकता , जब तक देश के नागरिक इसे सुन्दर बनाने की ठोस पहल ना करें । कानून सिर्फ एक माध्यम है , जबकि कार्य नागरिकों द्वारा किया जाना है ,वह है -संकल्प लेना और निभाना कि हम रिश्वत नहीं लेंगे , नहीं देंगे । हममे से अधिकांश यही मानते हैं कि रिश्वत नहीं लेना कहना जितना आसान नहीं , नहीं देना उतना आसान नहीं है । कानून कब बनेगा , किस तरह बनेगा , अभी इसके भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है , क्योंकि जिस स्टैंडिंग कमेटी में इस पर विचार किया जाना है , उसके सदस्य खुले तौर पर टीम अन्ना की सलाह पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं । लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से आम आदमी का जुड़ जाना इस टीम या कैम्पेन के लिए के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि है । कम से कम अपने जीवन में आज तक मैंने देशभक्ति के गानों पर झूमते लहराते युवाओं के ये दल स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी नहीं देखे ।
अन्ना ने साबित कर दिया कि यदि स्वच्छ छवि वाले लोंग अपने सुख वैभव का त्याग कर अगुवाई करे तो दिग्भ्रमित युवाओं की विध्वंसकारी गतिविधियों को सही दिशा दी जा सकती है . जो बात सरकार या उनके समर्थक समझाना चाहते हैं कि यह बिल एक दम से भ्रष्टाचार को दूर तो नहीं कर सकेगा , आम जनता भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है , मगर हाथ बांधे खड़े मूक दर्शक बने रहने की दौड़ में शामिल होने की तुलना में सकारत्मक दिशा में कुछ कदम चलना कही ज्यादा बेहतर है!
इसलिए लोग अन्ना के साथ चल रहे हैं , दौड़ रहे हैं !
कल जयपुर में भी इस जश्न को मनाने लोंग इकठ्ठा हुए । वाकई यह पहला अवसर था जब ईद , होली या दीवाली के बिना भी पूरा शहर एक साथ जश्न मना रहा था ...
शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
अधिकार और कर्तव्य या स्नेह और प्रेम ...सवालों का चक्रव्यूह !
व्यक्ति परिवार की तो परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई है । इनमे से एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । वही किसी भी परिवार की मुख्य धुरी माता -पिता या पति -पत्नी हैं । जैसा कि हमारे समाज में पित्रसत्तात्मक व्यवस्था रही है , परिवार बसाने के लिए विवाह के बाद लड़कियों को अपने -माता पिता का घर छोड़ना पड़ता है , और वे अपने पति के घर को अपना घर बनाती हैं ।पुराने समय में पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में घर की आर्थिक स्थितियों पर नियंत्रण पुरुषों के हाथ में होने के कारण धन की व्यवस्था करने से लेकर खर्च करने तक के अधिकार पुरुषों के हाथ में ही रहते थे । समाज के विकास के साथ परिवारों की सोच में परिवर्तन के साथ महिलाओं में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई जिसने उनकी आर्थिक स्थितियों पर विचार करने को विवश किया ।
चूँकि महिलाओं में शिक्षा और आत्मनिर्भरता नहीं थी इसलिए विवाह के समय दिए लड़कियों को मायके से दिए जाने वाले धन , जिसका उपयोग महिला स्वयं अपनी इच्छा से कर सकती थी, को स्त्रीधन की संज्ञा दी गयी । समय के साथ महिलाओं में साक्षरता दर बढ़ी , उच्च शिक्षा के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वे आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ी , हालाँकि आत्मनिर्भर महिलाओं का प्रतिशत कम ही रहा । जो महिलाएं स्वयं आत्मनिर्भर नहीं है , वे अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तीज त्यौहार पर मायके से मिलने वाले नेग और पति द्वारा दी जाने वाली मासिक आय अथवा जेबखर्च पर निर्भर हैं । वही यदि महिलाओं को इस तरह के कोई अधिकार नहीं दिए जाए तो उनके प्रताड़ित होने या दोयम दर्ज़ा हासिल होने की भी पूरी सम्भावना होती है , क्योंकि जिस परिवार में वह प्रेम के कारण आती है ,उससे उनका रक्त सम्बन्ध नहीं है . तो क्या रक्त सम्बन्धियों में प्रेम प्राकृतिक रूप से मौजूद है , ऐसा है तो क्यों अक्सर महिलाओं के लिए उनका रक्त सम्बन्ध प्रेम सम्बन्ध के आगे छोटा ही पड़ जाता है . पति के घर आने के बाद उनकी सारी जवाबदेही उस परिवार से ही क्यों हो जाती है , क्या यह सिर्फ कंडिशनिंग की बात है ? क्या यह सिर्फ इसलिए है कि उन्हें बचपन से सिखाया जाता है कि यह तुम्हारा घर नहीं है , तुम्हारे पति का घर तुम्हारा है . इसलिए जो सपने पिता के घर पूरे नहीं किये जा सके , पति के घर, जो अब उनका भी घर होगा , अधिकार स्वरुप हासिल करने की जिद सी हो जाती है .
प्रेम के कारण और महिलाओं की जरुरत को समझते हुए दी जाने वाली राशि महिलाओं में आत्मविश्वास को बढाती है . सिर्फ अधिकार स्वरुप पति की रकम का एक बड़ा हिस्सा पत्नी को दिया जाए , क्या तब भी ??
अब महिलाओं को पति द्वारा दिए जाने वाली राशि की बात करते हैं । तर्क दिया जाता रहा है क्योंकि महिलाएं घर में पति से ज्यादा श्रम करती हैं , इसलिए उन्हें इस हक़ के रूप में यह रकम जेबखर्च की तरह मिलनी चाहिए । दिमागी तर्क के रूप में यह सही लगता है लेकिन क्या कोई भी महिला अपने बच्चों का या परिवार का पालन पोषण महज उस रकम के हिसाब से करती है , जो उसे अपने श्रम के बदले मिलने वाली है । क्या पत्नी के प्रेम , माँ की भावनाओं और देखभाल, बहन के स्नेह का कोई मोल लगाया जा सकता है , इसके लिए कोई कीमत निर्धारित की जा सकती है , माँ या पिता भी अपने बच्चों और परिवार के लिए जो करते हैं , अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए या प्रेम के लिए , इसकी भी क्या कीमत लगाई जा सकती है । क्या घर गृहस्थी अथवा अन्य रिश्तों का आधार प्रेम की बजाय लिया- दिया जाने वाला धन होना चाहिए । सिर्फ अधिकार की भावनाओं से ही क्या घर अथवा रिश्ते बनते हैं, या निभते हैं। वे रिश्ते जो सिर्फ कानून के डर से निभाए जाए , उनकी उम्र और वास्तविकता क्या हो सकती है !!!
जो रिश्ते प्रेम और विश्वास की डोर से बांधे हों , उनकी कीमत क्या हो सकती है ... महिलाओं के कर्तव्य और अधिकार की बात पर कई बार सवालों के इस चक्रव्यूह में घिर जाती हूँ ...
चूँकि महिलाओं में शिक्षा और आत्मनिर्भरता नहीं थी इसलिए विवाह के समय दिए लड़कियों को मायके से दिए जाने वाले धन , जिसका उपयोग महिला स्वयं अपनी इच्छा से कर सकती थी, को स्त्रीधन की संज्ञा दी गयी । समय के साथ महिलाओं में साक्षरता दर बढ़ी , उच्च शिक्षा के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वे आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ी , हालाँकि आत्मनिर्भर महिलाओं का प्रतिशत कम ही रहा । जो महिलाएं स्वयं आत्मनिर्भर नहीं है , वे अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तीज त्यौहार पर मायके से मिलने वाले नेग और पति द्वारा दी जाने वाली मासिक आय अथवा जेबखर्च पर निर्भर हैं । वही यदि महिलाओं को इस तरह के कोई अधिकार नहीं दिए जाए तो उनके प्रताड़ित होने या दोयम दर्ज़ा हासिल होने की भी पूरी सम्भावना होती है , क्योंकि जिस परिवार में वह प्रेम के कारण आती है ,उससे उनका रक्त सम्बन्ध नहीं है . तो क्या रक्त सम्बन्धियों में प्रेम प्राकृतिक रूप से मौजूद है , ऐसा है तो क्यों अक्सर महिलाओं के लिए उनका रक्त सम्बन्ध प्रेम सम्बन्ध के आगे छोटा ही पड़ जाता है . पति के घर आने के बाद उनकी सारी जवाबदेही उस परिवार से ही क्यों हो जाती है , क्या यह सिर्फ कंडिशनिंग की बात है ? क्या यह सिर्फ इसलिए है कि उन्हें बचपन से सिखाया जाता है कि यह तुम्हारा घर नहीं है , तुम्हारे पति का घर तुम्हारा है . इसलिए जो सपने पिता के घर पूरे नहीं किये जा सके , पति के घर, जो अब उनका भी घर होगा , अधिकार स्वरुप हासिल करने की जिद सी हो जाती है .
प्रेम के कारण और महिलाओं की जरुरत को समझते हुए दी जाने वाली राशि महिलाओं में आत्मविश्वास को बढाती है . सिर्फ अधिकार स्वरुप पति की रकम का एक बड़ा हिस्सा पत्नी को दिया जाए , क्या तब भी ??
अब महिलाओं को पति द्वारा दिए जाने वाली राशि की बात करते हैं । तर्क दिया जाता रहा है क्योंकि महिलाएं घर में पति से ज्यादा श्रम करती हैं , इसलिए उन्हें इस हक़ के रूप में यह रकम जेबखर्च की तरह मिलनी चाहिए । दिमागी तर्क के रूप में यह सही लगता है लेकिन क्या कोई भी महिला अपने बच्चों का या परिवार का पालन पोषण महज उस रकम के हिसाब से करती है , जो उसे अपने श्रम के बदले मिलने वाली है । क्या पत्नी के प्रेम , माँ की भावनाओं और देखभाल, बहन के स्नेह का कोई मोल लगाया जा सकता है , इसके लिए कोई कीमत निर्धारित की जा सकती है , माँ या पिता भी अपने बच्चों और परिवार के लिए जो करते हैं , अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए या प्रेम के लिए , इसकी भी क्या कीमत लगाई जा सकती है । क्या घर गृहस्थी अथवा अन्य रिश्तों का आधार प्रेम की बजाय लिया- दिया जाने वाला धन होना चाहिए । सिर्फ अधिकार की भावनाओं से ही क्या घर अथवा रिश्ते बनते हैं, या निभते हैं। वे रिश्ते जो सिर्फ कानून के डर से निभाए जाए , उनकी उम्र और वास्तविकता क्या हो सकती है !!!
जो रिश्ते प्रेम और विश्वास की डोर से बांधे हों , उनकी कीमत क्या हो सकती है ... महिलाओं के कर्तव्य और अधिकार की बात पर कई बार सवालों के इस चक्रव्यूह में घिर जाती हूँ ...
शुक्रवार, 19 अगस्त 2011
कोई सुलझा दे ये पहली ...
मेरे इमेल पते साथ विशाखा पंडित कैसे...
from | LinkedIn Email Confirmation emailconfirm@linkedin.com | ||
to | vishakha pandit <vani.sharma65@gmail.com>
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date | Sat, Aug 20, 2011 at 3:17 AM | ||
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ब्लॉग पर टायपिंग करने में भी कुछ परेशानी है, कोई भी शब्द टाईप करने पर कर्सर आगे जाने की बजाय पीछे चल रहा है...