शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

दिल और दिमाग की रस्साकशी के बीच ज्वलंत मुद्दे ....

हमारे समाज में महिलाओं के लिए शारीरिक संबंधों पर बात करना या लिखना इतना आम नहीं है ...परिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं में घिरे हम लोंग इस विषय पर चुप रहना ही पसंद करते हैं , मगर जिस तरह से इन मुद्दों को उछाल कर बहस का केंद्र बना लिया जाता है , विषयवस्तु यदि बच्चों और महिलाओं पर ही केन्द्रित हो और इसका असर महिलाओं और बच्चों के जीवन पर पड़ने की पूरी सम्भावना हो तो आम महिलाओं के लिए भी इसे बहुत देर तक नजरअंदाज करना संभव नहीं होता ....मन -मस्तिष्क को आंदोलित करता भीतर पल रहा आक्रोश बेचैन करता रहता है ...

पिछले दिनों ऐसे ही दो मुद्दों की आंच पर दिमाग सुलगता रहा ... पहला मुद्दा है महिला एवं बाल विकास आयोग द्वारा १२ वर्ष की उम्र के बच्चों को आपसी सहमति के आधार पर शारीरिक सम्बन्ध बनाने की छूट देने का प्रावधान करते हुए क़ानून के निर्माण की वकालत का मसौदा राज्या सरकारों को भेजा जाना ....जहाँ अभी तक बाल यौन शोषण और बाल श्रम से जुड़े कानून का पालन ही एक मजाक बना हुआ है , वहां इस तरह के प्रस्ताव पर विचार करना भी कुंठित मानसिकता की ओर ही इशारा करता है ....ये हालत तब है जब कि खुद इस मंत्रालय (महिला एवं बाल विकास ) की रिपोर्ट बता रही है कि " देश का हर चौथा बच्चा यौन शोषण का शिकार हो रहा है " ....वही यूनिसेफ की यह रिपोर्ट भी कम नहीं दहलाती कि लगभग 65 प्रतिशत बच्चे शिक्षा केन्द्रों पर यौन शोषण के शिकार हो रहे हैं जिनकी जिम्मेदारी स्वस्थ और अच्छे संस्कार की युवा पीढ़ी के निर्माण की है ...यह रिपोर्ट सिर्फ विद्यालयों में शिकार मासूमों की है , जबकि कच्ची बस्ती और विभिन्न रोजगारों में लगे बच्चों का प्रतिशत और भी अधिक होने की संभावना है .... इस मसौदे को तैयार करने वालों की बुद्धि पर तरस खाने के सिवा और क्या किया जा सकता है ...जहाँ महिलाओं से जुड़े शारीरिक प्रताड़ना के अधिकाँश केस अनसुलझे रह जाते हैं क्योंकि इसे साबित करने के लिए बहुत ही कष्टदायक मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है , वहां ऐसे अत्याचार झेलने वाले अबोध मासूम बच्चे क्या साबित कर पाएंगे कि उनके साथ ज्यादती उनकी आपसी सहमति के बिना हुई है .... बहुत स्पष्ट तौर पर यह कानून बाल पोर्नोग्राफी और उनके व्यापार को आड़ देने का कार्य करेगा ...सयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लगभग १२ लाख बच्चे हर वर्ष खरीद फरोख्त के शिकार होते हैं जिनमे बहुत बड़ी संख्या भारत सहित अन्य एशियन देशों की है ....असीमित जनसँख्या , रोजगार की कमी , शिक्षा और संसाधनों का का अभाव ऐसे देशों में बाल शोषण की बढती संख्या पर लगाम नहीं कस पा रही और इस तरह के वाहियात कानूनों के मसौदे पेश कर उन्हें अंधे कुएं में धकेलने की पूरी तैयारी की जा रही है ....सबसे ज्यादा निराशाजनक स्थिति उस एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा इस तरह के कानूनों की पैरवी करना है जिसकी स्थापना महिलाओं और बच्चों से जुडी समस्याओं का समूल नाश करने के मंतव्य से की गयी हो ....इस तरह होगा हमारे देश में बच्चों का विकास ....इस विभाग को बच्चों की शिक्षा, पालन पोषण और उनके अधिकारों की रक्षा से ज्यादा बड़ी चिंता उनके शारीरिक सम्बन्ध बनाने की उम्र का निर्धारण की है ....बाड़ द्वारा खेत को खाने की कहावत का सार्थक उपयोग यही नजर आ रहा है ....

मीडिया की जब तब आलोचना करने वाले हम लोगों को कम से कम इस कानून को अमली जामा पहनाये जाने के खिलाफ चेताने के लिए शुक्रिया तो अदा कर ही देना चाहिए , उनकी सक्रियता के बिना जाने ऐसे कितने कानून चुपचाप पास हो जाए और हमें भनक भी ना लगे ....

एक और मुद्दा जो ब्लॉगर्स के बीच छाया हुआ है ...सामाजिक समस्याओं पर मिल जुल कर समाधान करने की अपील के साथ भारी भरकम बहस हो रही है इस पर ...वह है ....विवाह की उम्र को 13-15 वर्ष कर देने की वकालत ...और इसके लिए जो तर्क दिए गए हैं , वैज्ञानिक दृष्टि से सही होते हुए भी व्यावहारिक नहीं लगते हैं .... कहा गया है कि शरीर की मांग को अनसुना करते हुए संस्कार पर भाषण देना हकीकत से मुंह मोड़ लेना है ....

मेरा मानना है कि ...वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए युवा पीढ़ी को आत्मनिर्भर होने पर ही विवाह करना चाहिए ...घर -गृहस्थी को बांधे रखने के लिए सिर्फ शारीरिक जरूरतें नहीं , भावनात्मक सम्बन्ध अत्यावश्यक हैं ...सिर्फ शरीर की जरुरत के लिए सम्बन्ध पशु बनाते हैं ...इस तरह की जरूरतों का हवाला देकर बच्चों के खेलने की उम्र में विवाह की जिम्मेदारी डालना मैं उचित नहीं समझती हूँ ...क्योंकि विवाह सिर्फ शारीरिक सम्बन्ध नहीं है , एक जिम्मेदारी है , एक भावनात्मक रिश्ता है जिसके लिए मानसिक रूप से परिपक्व होना भी जरुरी है !

किसी भी उम्र में विवाह के बाद विभिन्न परिस्थितियों जैसे शिक्षा , नौकरी , व्यवसाय , अस्वस्थता आदि के कारण अलगाव के बाद भी पति- पत्नी को जो भावना जोड़े रखती है , वह उनके संस्कार ही होते हैं ... इसलिए युवाओं को संस्कारित करना हकीकत से मुंह मोड़ना नहीं है , बल्कि अभिभावकों के रूप में हमारी जिम्मेदारी है कि हम समाज को संस्कारवान स्वस्थ मानसिकता वाले युवा प्रदान करें ...ना कि व्यभिचार को प्रोत्साहित करते हास्यापद तर्क दें ....!



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बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

बातचीत का लहजा आपकी पोल खोल सकता है ...

कल शाम किसी परिचित के घर जाना हुआ ...उनका अपना ब्यूटी पार्लर है ....मतलब आइना देख कर घबराने वाली महिलाओं की शरणस्थली ...खूबसूरत हो या उम्रदराज़ , किशोरियां हो या युवतियां , सौंदर्य विशेषज्ञ उन्हें अपनी अँगुलियों पर नचाते हैं .... बड़े अफसरों या उद्योगपतियों की पत्नियाँ उनके आगे सर झुकाए बैठी रहती हैं ...अपनी बारी का इंतज़ार कर रही महिलाओं से लगातार बात करती वे किसी को बोर नहीं होने देती इसलिए अच्छा -खासा जमावड़ा रहता है उनके आस- पास ...हिंदी में बात चीत करते हुए वे कई बार अपनी मातृभाषा शेखावाटी में बतियाने लगती ...मेरी कोशिश रहती है कि जो जिस भाषा मे बात कर रहा हो , उसे जवाब उसी भाषा मे दिया जाए ....हमारी बातचीत हिंदी , शेखावटी , नागौरी , ढूँढाडी ,ब्रज भाषा आदि की पटरियां चढ़ती उतरती रही ...क्योंकि वहां उपस्थित महिलाएं अलग -अलग लहजों और बोली मे बात कर रही थी ..
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राजस्थान के शेखावाटी इलाके में बोले जाने वाली मारवाड़ी भाषा शेखावटी है ....जैसे कि हमारे देश मे (विदेश में भी हो सकता है ) हर बीस कोस पर भाषा या बोली अपना रूप परिवर्तन कर लेती है , राजस्थानी भाषा या बोली भी कई तरह से बोली जाती है ....शेखावाटी , नागौरी , ढूँढाडी, मेवाडी, मारवाडी , मालवी आदि ... शेखावटी क्षेत्र मे राजस्थान के झुंझनु , सीकर , फतेहपुर , नवलगढ़ , चुरू आदि शहर आते हैं ...जबकि ढूँढाडी जयपुर और इसके आसपास के क्षेत्रों मे बोली जाती है .... नागौरी हमारी मातृभाषा है इसलिए इसमें तो फ़र्राट बातचीत हो जाती है और पिछले २३ वर्षों से लगातार जयपुर मे रहने के कारण ढूँढाडी भी बोलना समझना हो जाता है ...नागौरी , शेखावटी और मारवाड़ी मे बहुत समानताएं हैं इसलिए इसमें भी बातचीत मे मुश्किल नहीं होती ...ढूँढाडी आम मारवाड़ी से थोड़ी भिन्न है ...इसमें छो ... छूं का प्रयोग होता है ....
जैसे यदि पूछना हो
क्या कर रहे हो तो इसे अलग- अलग मारवाड़ी बोली मे
काईं कर रिया हो ....काई करो हो...के करो हो ....काई कर रया छो आदि बोला जाता है ...
कहाँ जा रहे हो ....
कठ जावो हो , कठिन जा रिया हो , सीध चाल्या , कोड जा रया छो.....आदि

शेखावटी मे बात करते जैसे ही एक महिला ने हिंदी बोलना शुरू किया , मैं चौंक कर उसका मुंह देखने लगी ...उनकी हिंदी राजस्थान मे बोली जाने वाली नहीं थी ...उनका लहजा बिहार या बंगाल मे बोली जाने वाली हिंदी जैसा था ...मैंने उनसे पूछ ही लिया ," आप बिहार या बंगाल मे काफी समय तक रहे ये हो "....वे भी चौंक गयी ....बोली बिहार , बंगाल तो नहीं असाम मे काफी सालों तक रहे हैं हम लोंग ....पर आपने कैसे जाना ....मैंने हँस कर कहा कि बातचीत का लहजा आपकी पोल खोल देता है ....भाषा तो वही रहती है , मगर उसे बोलने का तरीका और हाव भाव जता ही देता है कि आप देश के किस हिस्से मे रह रहे हो या रह चुके हो ....

बिहार के एक छोटे से गाँव मे पढ़े -लिखे मारवाड़ी इंजिनीय र  भैया वर्षों से विदेश मे हैं मगर जब भारत आकर हिंदी बोलते हैं तो उनका लहजा वही बिहारी ....कई बार अमिताभ बच्चन जी को बातचीत करते सुना ....उनकी हिंदी मे भी वही इलाहाबादी या बनारसी झलक ही जाता है ....उत्तरप्रदेश वासियों में लखनऊ , मुरादाबाद , बरेली , बहराईच आदि स्थान मे रहने वालों का "ल" बोलने का अंदाज उनकी पहचान करने के लिए काफी है ...दक्षिण भारतीयों की हिंदी /अंग्रेजी भाषा से तो उनकी पहचान कोई भी कर सकता है ...पंजाबी भाषा बोलने वालों को आधा स बोलने मे परेशानी होती है ...वे स्टेशन या स्कूल को सटेशन या सकूल बोलते हैं (अक्सर )....

ऐसे ही हरियाणा मे बोले जाने वाली हिंदी का ककहरा भी अलग ही है ....सब टी वी पर आने वाले हास्य धारावाहिक (FIR )मे चंद्रमुखी चौटाला के हरियाणवी  लहजे का अनुकरण मुश्किल है ....
हैदराबादी हिंदी भी सबसे अलग है....किधर जाते , कायको आदि
मुम्बैया हिंदी की छटा  हिंदी फिल्मों में जब तब मवाली पात्रों के माध्यम से बिखरती  ही रहती है ...

अपुन ऐसेईच  है भीडू , खाली पीली ...

आप लाख छुपाना चाहे मगर देश के किस हिस्से मे आप ज्यादा समय रहे हैं या आपका मूल स्थान क्या है , आपकी बातचीत का लहजा इसकी पोल खोल ही देता है....!