रोज सुबह घर के सामने नीम के पेेेड़ के नीचे पक्षियों के लिए मिट्टी के तसले में पानी भर कर रखती हूँ ...जब चिड़ियों का झुण्ड उसमे पानी पी रहा होता है या फिर उसमे नहा कर अपने पंख झाड़ता किलोल करता है तब पानी के छींटे बहुत सुन्दर दृश्य बनाते हैं . कुछ दिनों से पानी भरते समय देखती हूँ कि पानी बहुत ही गन्दला -सा और पूरा भरा ही रहता है जैसे गन्दा पानी होने के कारण किसी पक्षी ने पिया ही ना हो ...गौर किया तो देखा कि एक कौवा कहीं से रोटी का टुकड़ा लेकर आता है और पानी के पात्र में डुबो देता है ....इस रहस्य को मैं समझ नहीं पाती कि वह कौवा ऐसा क्यों करता है ...रोटी का टुकड़ा आराम से खाने के बाद भी तो पानी पी सकता है मगर शायद उसे पानी पीना ही नहीं होता . बस उस पानी को गन्दा करना होता है ...और उसकी इस हरकत के कारण पानी के पात्र में काई भी जम जाती है , बदबू मारता है सो अलग ...रोज उसे मांजना पड़ता है . ताजा पानी रखते ही अगर छोटी चिड़ियाँ पानी पी ले तो उनकी किस्मत वरना एक बार कौवे के आने के बाद बस वे दूर से उस पानी को देख ही सकती हैं . कौवा चोंच मार कर उन्हें भगा देता है और फिर उस पानी में रोटी डाल कर चला जाता है ...अब मैं भी दिन में कितनी बार उसका पानी बदल सकती हूँ आखिर ... उस कौवे को देखते जाने कितने इंसानी चेहरे आँखों के सामने घूम जाते हैं जो बिना अपने किसी फायदे के दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं ...दुष्ट प्रवृति पक्षियों और मनुष्यों में एक -सी ही होती है , अब इसका विश्लेषण कौन और कैसे करे कि किसने किससे सीखा ...अब ये काम तो किसी बुद्धिजीवी के लिए ही उचित है ...
बुद्धिजीवी से याद आया कि एक दिन यहाँ टिप्पणी में लिख दिया " किसी भी लेखक /लेखिका की रचनाओं को पसंद करने के लिए भाई , बहन , माता , मित्र आदि का संबोधन देना आवश्यक क्यों है . आखिर कैसे बुद्धिजीवी हैं हम लोग !
और मैंने इसमें कुछ गलत नहीं लिखा या कहा .... ब्लॉगजगत में बहुत से ब्लॉगर्स ऐसे हैं जो आपके लेखन प्रयास पर आपकी त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए अपनी संतुलित प्रतिक्रिया देकर उसे बेहतर बनाने में मदद करते हैं मगर मुझे नहीं लगता कि उन्हें किसी रिश्ते का नाम देकर ही उनका आभार प्रकट किया जा सकता है ....कुछ ब्लॉगर्स से असीम स्नेह और प्रोत्साहन मिला है मुझे मगर वे भली भांति जानते /जानती हैं कि अपनी भावनाओं या उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए मुझे उन्हें किसी रिश्ते के संबोधन की जरुरत नहीं है ... हालाँकि इस आभासी दुनिया में मेरे भी कुछ भाई -बहन हैं और वे भली भांति जानते हैं कि मेरे लिए इन शब्दों /रिश्तों के क्या मायने हैं ...इस विषय पर अमरेन्द्र ने बहुत संतुलित और संजीदा टिप्पणी की है ...
मेरी टिप्पणी पर एक विदुषी बहन चिहुंक उठी और विद्वान् ब्लॉगर का तमगा थमा दिया ...वैसे तो हम शत प्रतिशत महिला ही हैं इसलिए विदुषी कहलाया जाना चाहिए था ...अब कोई हमेशा अपने आपको साधारण गृहिणी कहता रहे और अचानक बुद्धिजीवी ब्लॉगर की जमात के में गैर इरादतन ही सही स्वयं को भी शामिल कर ले तो विदुषियों का ऐतराज़ जायज़ है ...
अब आपको वो किस्सा भी बयान कर ही दें जिसने हमें स्वयं को बुद्धिजीवी समझने की धृष्ट अकल प्रदान की ...क्या है कि कुछ बहुत बेहतर लिखने वाले साहित्यकार टाईप ब्लॉगर्स कभी हमारे ब्लॉग पर दर्शन नहीं देते . उनका लिखा हम पढ़ते हैं .वाकई बुद्धिजीवियों टाइप ही लिखते हैं ..तो हम यही सोचे कि इ लोग विशेष लेखन पर ही टिप्पणी देते हैं ...फिर देखा उन्हें उन विषयों पर टिपियाते जिन पर काफी पहले लिखा जा चुका है और ... एक समान विषय पर ही कहीं बड़ी -बड़ी टिप्पणी , तो कहीं उपस्थिति भी दर्ज नहीं तो हमको लगा कि ये महान लेखक लोग बुद्धिजीवी हैं और सिर्फ बुद्धिजीवियों के ब्लॉग पर टिपियाते हैं तो हमरे ब्लॉग पर नहीं आने का कारण हमारा साधारण लेखन ही रहा होगा ..मगर जब ढेरों अशुद्धियाँ वाले लेखन , टिप्पणी लेनदेन विवाद , गाय -कुत्ते के साथ फोटो खिंचाने के किस्से और तो और आशिकी की खीर के खटाई होते किस्से में तड़का देते देखा तो अपने साधारण होने का भ्रम मिटने लगा ...
बुद्धिजीवी से याद आया कि एक दिन यहाँ टिप्पणी में लिख दिया " किसी भी लेखक /लेखिका की रचनाओं को पसंद करने के लिए भाई , बहन , माता , मित्र आदि का संबोधन देना आवश्यक क्यों है . आखिर कैसे बुद्धिजीवी हैं हम लोग !
और मैंने इसमें कुछ गलत नहीं लिखा या कहा .... ब्लॉगजगत में बहुत से ब्लॉगर्स ऐसे हैं जो आपके लेखन प्रयास पर आपकी त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए अपनी संतुलित प्रतिक्रिया देकर उसे बेहतर बनाने में मदद करते हैं मगर मुझे नहीं लगता कि उन्हें किसी रिश्ते का नाम देकर ही उनका आभार प्रकट किया जा सकता है ....कुछ ब्लॉगर्स से असीम स्नेह और प्रोत्साहन मिला है मुझे मगर वे भली भांति जानते /जानती हैं कि अपनी भावनाओं या उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए मुझे उन्हें किसी रिश्ते के संबोधन की जरुरत नहीं है ... हालाँकि इस आभासी दुनिया में मेरे भी कुछ भाई -बहन हैं और वे भली भांति जानते हैं कि मेरे लिए इन शब्दों /रिश्तों के क्या मायने हैं ...इस विषय पर अमरेन्द्र ने बहुत संतुलित और संजीदा टिप्पणी की है ...
मेरी टिप्पणी पर एक विदुषी बहन चिहुंक उठी और विद्वान् ब्लॉगर का तमगा थमा दिया ...वैसे तो हम शत प्रतिशत महिला ही हैं इसलिए विदुषी कहलाया जाना चाहिए था ...अब कोई हमेशा अपने आपको साधारण गृहिणी कहता रहे और अचानक बुद्धिजीवी ब्लॉगर की जमात के में गैर इरादतन ही सही स्वयं को भी शामिल कर ले तो विदुषियों का ऐतराज़ जायज़ है ...
अब आपको वो किस्सा भी बयान कर ही दें जिसने हमें स्वयं को बुद्धिजीवी समझने की धृष्ट अकल प्रदान की ...क्या है कि कुछ बहुत बेहतर लिखने वाले साहित्यकार टाईप ब्लॉगर्स कभी हमारे ब्लॉग पर दर्शन नहीं देते . उनका लिखा हम पढ़ते हैं .वाकई बुद्धिजीवियों टाइप ही लिखते हैं ..तो हम यही सोचे कि इ लोग विशेष लेखन पर ही टिप्पणी देते हैं ...फिर देखा उन्हें उन विषयों पर टिपियाते जिन पर काफी पहले लिखा जा चुका है और ... एक समान विषय पर ही कहीं बड़ी -बड़ी टिप्पणी , तो कहीं उपस्थिति भी दर्ज नहीं तो हमको लगा कि ये महान लेखक लोग बुद्धिजीवी हैं और सिर्फ बुद्धिजीवियों के ब्लॉग पर टिपियाते हैं तो हमरे ब्लॉग पर नहीं आने का कारण हमारा साधारण लेखन ही रहा होगा ..मगर जब ढेरों अशुद्धियाँ वाले लेखन , टिप्पणी लेनदेन विवाद , गाय -कुत्ते के साथ फोटो खिंचाने के किस्से और तो और आशिकी की खीर के खटाई होते किस्से में तड़का देते देखा तो अपने साधारण होने का भ्रम मिटने लगा ...
एक दिन पतिदेव अमिताभ बच्चन जी के ब्लॉग के बारे में बात कर रहे थे - देखो , इतना व्यस्त होने पर भी समय निकालते हैं लिखने के लिए ....सही बात है ... मगर वे आज प्रतिष्ठा के जिस मुकाम पर हैं , सिर्फ ये भी लिख दे कि आज मुझे छींक आई , जुखाम हुआ , यहाँ गए , वहां गए तो भी लोग आराम से पढ़ लेंगे .
उन्हें आम ब्लॉगर्स की तरह विषय ढूँढने नहीं पड़ते ...तो जरुरत अपने लिए एक ऊँचा मचान बनाने की है . बाद में आप चाहे जो लिखे , छापे ...
उन्ही विदुषी ब्लॉगर पर किसी की टिप्पणी पढ़ी कि आभासी दुनिया क्या होती है . जो ब्लॉगर हैं , वे वास्तविक ही हैं तो ये दुनिया आभासी कैसे हुई ...
उन्ही विदुषी ब्लॉगर पर किसी की टिप्पणी पढ़ी कि आभासी दुनिया क्या होती है . जो ब्लॉगर हैं , वे वास्तविक ही हैं तो ये दुनिया आभासी कैसे हुई ...
बात तो जमी हमको भी मगर हमारे लिए तो यही सच है कि हम सिर्फ अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन पर आने वाले नाम से ही परिचित हैं इसलिए हमारे लिए तो ये दुनिया आभासी ही है ...जिस दिन कोई ब्लॉगर सम्मलेन अटेंड कर लेंगे तब शायद हम भी इसे आभासी कहना छोड़ देंगे ...
तो आभासी दुनिया के ही एक विद्वान् /विदुषी ब्लॉगर (पुरुष /महिला सस्पेंस बने रहने दीजिये ) से बात हुई चैट पर कि फलाने ब्लॉग पर फलाना ब्लॉगर सबसे पहले टिपियाता/टिपियाती है ...मुझे तो इसमें कोई भेद नजर नहीं आया क्योंकि ये हर इंसान कि व्यक्तिगत इच्छा है कि वह क्या पढना चाहता/चाहती है . कोई भी पाठक अपनी पसंद का विषय सबसे पहले पढ़ना चाहता है तो संभवतः वही व्यक्ति उसका पहला पाठक भी होगा ...इसमें इश्किया जैसा कोई समीकरण मुझे तो समझ नहीं आया . मैं उनकी सोच को संकुचित मान भी लेती मगर चूँकि बहुत से ब्लॉगर व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे के संपर्क में हैं तो शायद वे ज्यादा जानते होंगे . यह सोचकर मन को समझा लिया ...इसी तरह महान बुद्धिवादीयों के ब्लॉग पर ही नहीं उनकी आपसी फेसबुकिया बातचीत में भी धर्म और जाति- विशेष को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी पढ़ने के साथ ही अपने साधारण होने का भ्रम भी मिटता गया ...देखती हूँ अपने आस- पास भी ऐसे /ऐसी ही आधुनिक /आधुनिकाओं को जो , दिखने/दिखाने में पूरी तरह प्रगतिवादी , नए फैशन की हेयर स्टाईल /परिधानों में , मगर कभी उनसे बात कर लो तो सारी असलियत सामने आ जाती है हालाँकि सभी आधुनिक /आधुनिकाएं इस तरह के दोहरे मापदंड वाले नहीं होते हैं ...जब दिमाग पर पर्दा हो तो सिर्फ बेबाकी और बेपर्दगी से ही आधुनिक नहीं बना जा सकता ...इनसे तो हम पर्देदार ही अच्छे , जिनका दिमाग तो खुला है ...क्योंकि परदे हमारे चेहरों पर हैं , दिमागों पर नहीं !
नोट...कुछ कहानियाँ हैं जो दिमाग से कागज पर उतरना चाह रही है मगर उससे पहले दिमाग की काट -छांट ज़रूरी थी !
तो आभासी दुनिया के ही एक विद्वान् /विदुषी ब्लॉगर (पुरुष /महिला सस्पेंस बने रहने दीजिये ) से बात हुई चैट पर कि फलाने ब्लॉग पर फलाना ब्लॉगर सबसे पहले टिपियाता/टिपियाती है ...मुझे तो इसमें कोई भेद नजर नहीं आया क्योंकि ये हर इंसान कि व्यक्तिगत इच्छा है कि वह क्या पढना चाहता/चाहती है . कोई भी पाठक अपनी पसंद का विषय सबसे पहले पढ़ना चाहता है तो संभवतः वही व्यक्ति उसका पहला पाठक भी होगा ...इसमें इश्किया जैसा कोई समीकरण मुझे तो समझ नहीं आया . मैं उनकी सोच को संकुचित मान भी लेती मगर चूँकि बहुत से ब्लॉगर व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे के संपर्क में हैं तो शायद वे ज्यादा जानते होंगे . यह सोचकर मन को समझा लिया ...इसी तरह महान बुद्धिवादीयों के ब्लॉग पर ही नहीं उनकी आपसी फेसबुकिया बातचीत में भी धर्म और जाति- विशेष को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी पढ़ने के साथ ही अपने साधारण होने का भ्रम भी मिटता गया ...देखती हूँ अपने आस- पास भी ऐसे /ऐसी ही आधुनिक /आधुनिकाओं को जो , दिखने/दिखाने में पूरी तरह प्रगतिवादी , नए फैशन की हेयर स्टाईल /परिधानों में , मगर कभी उनसे बात कर लो तो सारी असलियत सामने आ जाती है हालाँकि सभी आधुनिक /आधुनिकाएं इस तरह के दोहरे मापदंड वाले नहीं होते हैं ...जब दिमाग पर पर्दा हो तो सिर्फ बेबाकी और बेपर्दगी से ही आधुनिक नहीं बना जा सकता ...इनसे तो हम पर्देदार ही अच्छे , जिनका दिमाग तो खुला है ...क्योंकि परदे हमारे चेहरों पर हैं , दिमागों पर नहीं !
नोट...कुछ कहानियाँ हैं जो दिमाग से कागज पर उतरना चाह रही है मगर उससे पहले दिमाग की काट -छांट ज़रूरी थी !