लगभग एक महिना हुआ इस ब्लॉग पर कुछ भी लिखे हुए . वैसे तो कौन लेखन महारथी है या ब्लॉग अथवा फेसबुक पर दोस्तों की बहुत लम्बी लिस्ट है जो इतना लम्बा समय तक ना लिखने से कुछ फर्क पड़ता . लिखते हैं तो अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए ही या लेखन की दुनिया में जाने जाने के लिए या अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जो कारण आपको सुविधाजनक और आपके अहम को पुष्ट करे , वही मान लिया जाना चाहिए , हालाँकि सामाजिक और कर्मचारी संगठन से जुड़े पतिदेव को कई बार कौंच देती हूँ कि आपके कार्यों से आपको जानने वाले आपके शहर या राज्य में ही हैं ,हमें तो पूरे विश्व में हमारे लेखन से जाना जाता है . किसी भी व्यक्ति को उसके नाम से जाना जाये , कितनी संतुष्टि देता है ना ...पतिदेव भी मुस्कुरा देते हैं , मैडम, आपकी इस लोकप्रियता का बिल हमी को भरना पड़ता है . आखिर इंटरनेट का बिल तो वही चुकाते हैं :)...
खैर बात हो रही थी लम्बी अनुपस्थिति की . चाचा जी के देहावसान के बाद उनके द्वादसे पर हैदराबाद जाना हुआ . पिछले कई वर्षों से परिजन अपने शहर आने का आमंत्रण दे रहे थे , मगर जाना संभव ही नहीं हुआ . एक दो विवाह समारोह भी हुए थे , मगर उसी समय बच्चों की परीक्षाओं के कारण पतिदेव को अकेले ही इन कार्यक्रमों में शामिल होना पड़ा .
मगर सुख में साथ ना दिया जा सके , मगर दुःख में परिवार जनों की उपस्थिति बहुत हिम्मत देती है . ऐसे में बड़े परिवारों का सकारात्मक पक्ष भी नजर आता है . चाचाजी की उम्र अधिक नहीं थी , साठ से कुछ वर्ष ही ऊपर हुई थी , मगर अस्वस्थता के कारण पिछले दो-तीन वर्षों से निष्क्रिय जीवन ही बिता रहे थे. भाइयों ने कम उम्र में ही अपनी जिम्मेदारियां सँभालते हुए घर की अन्य जरूरतों को पूरा करते हुए भी उनके इलाज़ में कोई कोताही नहीं बरती . मगर होनी को जो मंजूर हो , वही होता है . निष्क्रिय ही सही , घर के प्रमुख सदस्य की उपस्थिति भी बहुत मायने रखती है . पिछले कुछ समय से तेजी से गिरते उनके स्वास्थ्य के कारण नियति को स्वीकार लिया गया था इसलिए माहौल इतना गमगीन नहीं था या फिर ये कहें कि विपरीत परिस्थितियां बच्चों को कम उम्र में ही मजबूत बना देती हैं . श्रीवैष्णव परम्परा के अनुसार ही सारी रस्मे निभायी गयी . अन्य संस्कारों के साथ ही प्रतिदिन दिवंगत को रुचने वाली मिठाई या पकवान बनाना , द्वादसे के दिन कम से कम पांच मिठाई और अन्य पकवानों के साथ "न्यात" जिमाना (मृत्यु भोज ), ज्येष्ठ पुत्र को पगड़ी पहनाने के अतिरिक्त परिवार के प्रत्येक विवाहित सदस्य के ससुराल पक्ष से परिजनों को वस्त्रादि भेंट करना आदि ... इन रस्मों के औचित्य पर सोचते हुए मैंने जो निष्कर्ष निकाला वह यह था कि गहन दुःख के क्षणों में सदमे से उबरने के लिए परिजनों का ध्यान दूसरी ओर आकर्षित करने के लिए या फिर इस अवसर पर दिए जाने वाले धन आदि से परिवार को आर्थिक संबल प्रदान करने के लिए इस प्रकार की रस्मों की शुरुआत की गयी होगी जो कालांतर में जबरन थोपे जाने वाले रिवाज या सामाजिक परम्पराएँ बन गयी . जो भी कारण हो , आजकल इन परम्पराओं के औचित्य पर गहन विमर्श किया जाता है , कही -कही तो इन रस्मों से मुक्ति भी पा ली गयी है , आर्थिक रूप से अक्षम लोगों पर परिजन को खोने के बाद इन सभी रस्मों के लिए धन की व्यवस्था उन्हें और दुःख ही पहुंचाती है .
परिवार के सबसे बड़े सदस्य होने की जिम्मेदारी निभाते हुए माँ एक महिना तक चाची के साथ ही रहने वाली थी , हमारे लौटने के दो दिन बाद ही माँ को अचानक सीने में दर्द के कारण हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा , कुछ टेस्ट और एन्जीओग्राफी की रिपोर्ट में मायनर हर्ट अटैक के साथ ही हर्ट में ब्लौकेज होने की पुष्टि हुई और अब वे एन्जीओप्लास्टी के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रही हैं .
तेजी से हुए इन घटनाक्रमों ने इस विश्वास को और बढाया कि हम लाख उठापटक कर लें , प्लानिंग बना ले मगर अपनी अँगुलियों पर नचाता हमें ईश्वर या नियति ही है . वरना कहाँ तो परिवार के एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए माँ के साथ अपने पूर्वजों के ग्राम जाने की योजना बन रही थी और कहाँ अचानक हैदराबाद जाना हुआ , परिवार का एक सदस्य कम हुआ ,साथ ही माँ को भी अस्पताल में भर्ती होना पड़ा .
जन्म के साथ मृत्यु का दौर अटल और अवश्यम्भावी है , हम सभी जानते हैं . दो बुआ और फूफा का देहावसान हो चुका हैं , उनके बच्चों से मिलते हुए कितना कुछ मन में गुजरता है और मन ही मन माँ की छत्रछाया के लिए ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ , क्योंकि अधेड़ावस्था की ओर बढ़ते हम लोंग अभी भी उनके सामने बच्चे ही बने होते हैं . कम उम्र में ही अपने परिवार की जिम्मेदारी सँभालते इन भाई बहनों से मिलते उनकी मजबूत इच्छाशक्ति और जिजीविषा को सलाम करने को मन करता है .
उम्र बढ़ने के साथ परिवार के पुराने सदस्यों का साथ छूटने के अतिरिक्त नए सदस्यों का जन्म अथवा जुड़ना भी होता है मगर फिर भी लगता है जैसे परिवार सिकुड़ता जा रहा है. जिन परिजनों की गोद में खेले , जिनके साथ बड़े हुए वे पीछे छूट जाते हैं और नए जुड़ने वाले सदस्यों से दूरियों के कारण ज्यादा परिचय नहीं हो पाता .
सभी रस्मों के बाद एक दिन शहर के उस हिस्से में भी चक्कर लगा आये जहाँ बचपन और युवावस्था का कुछ समय गुजारा था . अत्यधिक ट्रैफिक के कारण हुए दबाव से चारमिनार को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए बस स्टैंड के हट जाने के अतिरिक्त कोई बड़ा फेरबदल नहीं लगा मुझे . अक्सर शाम को घूमते हुए चारमिनार के पास चक्कर काट आना , खोमचों पर भेलपुरी का स्वाद लेना बहुत याद आया . मक्का मस्जिद , मदीना बाजार , रेडीमेड कपड़ों या ड्रेस मेटेरिअल का होलसेल बाजार पटेल मार्केट , गुलजार हौज़ से ईरानी गली का के बीच पैदल घूमते हुए बहुत कुछ याद आया .
दुःख के क्षण हर व्यक्ति पर अलग -अलग प्रभाव डालते हैं . हमें भीतर से और मजबूत करते जाते हैं , व्यावहारिक बनाते हैं या फिर कभी -कभी संवेदनाहीन भी बनाते हैं, कहा नहीं जा सकता . ईश्वर और प्रकृति हमें हर कदम पर सचेत और सावधान करती है , क्रिया , प्रतिक्रिया और विशिष्ट प्रतिक्रिया के अनुसार लोगों पर इसका असर भिन्न होता है .
पड़ोसन आंटीजी भी शारीरिक व्याधि से जूझती हुई पिछले एक महीने से बेड रेस्ट पर हैं . रोज उनके साथ कुछ समय गुजारना , माँ के साथ रहना , बचे समय में अपना घर संभालना , इन दिनों ब्लॉगिग की बजाय मुझे यही ज्यादा सार्थक लग रहा है . अब इस पर आप मुझे घरेलू जिम्मेदारियों से त्रस्त महिला समझे और बहनजी जैसे संबोधन देना चाहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मैं जानती हूँ कि आभासी दुनिया से जुड़ने के साथ ही वास्तविक दुनिया के रिश्तों को संभालना , उन्हें समय देकर मैं अपने जीवन को सार्थकता ही दे रही हूँ .
इन दिनों परिवार से जुडी और भी वारदातों (!!) के बीच सभी के व्यवहार पर नजर डालते एक निष्कर्ष भी निकाला , परिवार के सबसे बड़े या अपनी जिम्मेदारी समझने वाले सदस्य के हिस्से में सम्मान और जिम्मेदारियां आती हैं , जबकि छोटे अथवा गैरजिम्मेदार के हिस्से में लाड़- दुलार और पैसा ... ईमानदारी से कहूं इन जिम्मेदारों को देखकर कभी -कभी ख़याल भी आता है कि कोरे सम्मान का क्या अचार डलता है ?
क्या कभी आपके मन में भी किसी जिम्मेदार सदस्य को देखते हुए यह खयाल आता है !!
माँ और पड़ोसन आंटी जी के लिए आपकी दुआओं और शुभकामनाओं की दरकार रहेगी , क्योंकि दुआओं से ही दवाओं में असर होता है !