सोमवार, 26 मार्च 2012

चुन्दड़ी ....राजस्थानी संस्कृति में परिधान (1)


संस्कृति किताबों में लिखी हुए वे इबारतें नहीं हैं जो अलमारी में सहेज कर रख दी जाएँ , यह हमारी दैनिक जीवनचर्या है जो आदतों और परम्पराओं के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती हैं .
राजस्थानी संस्कृति अपनी विशिष्ट जीवन शैली के कारण पूरे विश्व में सराही जाती है. सदियों तक पानी और अच्छी जलवायु से वंचित इस मरुप्रदेश के बासिंदों ने अपनी जीवटता से प्रकृति के पक्षपात को अपनी जीवन शैली से वरदान में बदल दिया . जल की कमी के कारण सूखी धरती और रेत के बड़े धोरों के दूर तक फैले सिर्फ एक मटिया रंग के कारण धुले पुते रंगों को उन्होंने अपने रंगबिरंगे वस्त्रों में उतार लिया . इस प्रदेश में सर्दी और गर्मी दोनों ही भीषण होती है . मौसम की इस प्रतिकूलता से अपने शरीर की रक्षा करने के लिए खान पान भी विशिष्ट ही है . यहाँ पहनावा ,खान- पान, मौसम और उत्सव के साथ ही बदलता जाता है जो तेज गति से भाग रहे जीवन के बीच प्रति पल नवीनता का एहसास भरता है.
संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करने में स्त्रियों का ही विशेष योगदान है. यदि स्त्रियाँ नहीं हों तो जाने कितनी संस्कृतियाँ यूँ ही काल के गर्भ में समा कर दम तोड़ चुकी होती.
राजस्थानी महिलाएं विभिन्न पर्व -उत्सवों या शुभ अवसरों के अनुसार चटकदार लहरिये , चुंदड़ी , फगुनिया , पोमचे , पीले आदि पहनती है ...हालाँकि पुरुषों के लिए भी वस्त्रों का विधान अवश्य होगा , मगर बमुश्किल ही पुरुष वर्ग इनको पहनाता है या पहनना चाहता है ...
ऐसा ही एक परिधान चुंदड़ी (चुनरी ) राजस्थानी महिलाओं का विशेष पहनावा है जो उनके जन्म से मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर उनके शरीर की शोभा बनता है . विवाह में सप्तपदी के दौरान अपने ननिहाल से प्राप्त चुंदरी पहनकर वे सप्तपदी के सात फेरों को पूर्ण करती हैं , कुछ स्थानों पर यह चुंदड़ी ससुराल पक्ष से पहनाई जाती है . विवाह के बाद कम से कम वर्ष भर किसी भी शुभ आयोजन या त्यौहार पर उन्हें वही चुंदड़ी पहनकर विभिन्न रस्मों या पूजा का निर्वाह करना होता है. बच्चों के विवाह के समय "भात" रस्म में भाई अपनी बहन को चुंदड़ी भेंट करते हैं .
    
विवाह के बाद पहली गणगौर पर नववधू को सिंजारे के दिन अपने ससुराल से विशेष चुंदड़ी पहनाई जाती है जिसे पहनकर वे गणगौर पूजन करती हैं .
विवाहित स्त्रियों के लिए ससुराल और मायके से मिली चुंदड़ी विशेष महत्व रखती है . चुंदड़ी हर विवाहिता का श्रृंगार है , जिसे पहनकर वह इठलाती , गुनगुनाती है ...

मैं ना पहनूं थारी चुंदड़ी ...

इस गीत में अपने मायके की चुंदड़ी पहनकर इठलाती युवती अपने पति /होने वाले पति को छेड़ते हुए कहती है कि मैं तुम्हारी चुंदड़ी पहनने वाली नहीं हूँ , और इसके कारण गिनाते हुए वह बताती है कि मैं इतने वर्षों से सिर्फ बेटी बनकर मर्यादा से भरी रही हूँ , जबकि विवाह के बाद यह स्थिति बदल जाने वाली है . मेरे पिता की दी हुई चुंदड़ी लाड़ -प्यार से लाई हुई है , जिसे मैं बड़े गर्व से पहने बाग़- बगीचों में इठलाती फिरती रही , कभी मुझे किसी ने रोका- टोका नहीं मगर तुम्हारी चुंदड़ी पहनते मुझे लाज आती है . यह मेरे सर पर टिकती नहीं , तुम्हे तो कुछ शर्म है नहीं ....

अनगिनत खुले और वाहियात शब्द या चित्र दाम्पत्य के इन सुन्दर पलों को इससे बेहतर प्रस्तुत नहीं कर सकते ..आखिर संस्कृति सिर्फ अच्छा पहनावा, खान- पान ही नहीं है , वह हमारे शब्दों , कार्य -व्यवहारों में भी प्रतिध्वनित होता है ...