शुक्रवार, 29 जून 2012

बात तो दिमाग के खुलेपन की है ....

गत 25 माई को राजस्थान की एक  दिलेर जांबाज सुपुत्री  दीपिका राठौर ने एवरेस्ट पर फ़तेह हासिल कर इस स्थान पर झंडा फहराने वाली पहली राजस्थानी महिला होने का गौरव प्राप्त किया . भ्रूण हत्याओं , दहेज़ हत्याओं की  ख़बरों के बीच यह खबर एक सुखद बयार सी लगी . भ्रूण हत्याओं  के कारण लड़कियों की बीच घटती औसत जन्मदर के बावजूद  राजस्थान की बेटियों ने यूँ भी परचम कम नहीं लहराए हैं . इससे पूर्व राजस्थान की ही स्नेहा शेखावत ने 63वें गणतंत्र दिवस परेड में वायु सेना का नेतृत्व कर इतिहास रचा . गौरतलब हैं कि ये लड़कियां राजस्थान के छोटे कस्बे से निकल कर आये माता- पिता की संतान हैं . गाँवों में पाले बढे ये अभिभावक और इनकी संतान एक बेहतर उदाहरण है कि खुले दिमाग के लिए शहरी आबोहवा ही ज़रूरी नहीं है . इन अभिभावकों ने अपनी पुत्रियों को भी पुत्र की तरह ही आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया और परिणाम आज अपनी ख़ास राजस्थानी कुर्ती- कांचली में पूर्व मुख्यमंत्री के हाथों  मिठाई और बधाई प्राप्त करते उनके गर्वोन्मत्त चेहरे पर साफ़ नजर आता है .  




कुछ समय पूर्व ही एक राजपूत विवाह समारोह में जाना हुआ . जयमाल कार्यक्रम संपन्न हो चुका था. सामने स्टेज पर दूल्हा- दुल्हन को घेरे लम्बे घूंघट सहित राजपूती परिधान में बहुत सी स्त्रियों  को देखते हुए पतिदेव ने मुझे ही वहां जाकर दुल्हन की माँ को लिफाफा दे आने के लिए कहा क्योंकि हमें एक और विवाह समारोह में भी शामिल होना था . चूँकि मैं उन महिला से कभी मिली नहीं थी  तो पतिदेव ने बताया कि तुम   उक्त महिला का नाम लेकर किसी से भी पूछ लेना. घूंघट वाली महिलाओं के झुण्ड के बीच उन महिला तक पहुँच उन्हें बधाई देकर जाने लगी तो वे पतिदेव से मिलने मेरे साथ ही आ गयी यह कहते हुए कि बिना भोजन किये नहीं जाए . 
इस बीच मैंने उन्हें पूछ ही लिया ,लम्बे  घूंघट में इन लोगों को परेशानी नहीं होती . दुल्हन के चेहरे पर भी  लम्बा घूंघट है . तस्वीरों में चेहरा भी नजर नहीं आएगा .वे सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी . बाद में पतिदेव ने बताया कि वे उनके कार्यालय में कार्यकुशल रौबदार  अधिकारी  हैं. 

विवाह के कुछ वर्षों बाद एक परिचित प्रधानाध्यापिका से एक इंटरव्यू के दौरान मिलना हुआ . उलटे पल्ले की साड़ी में उनके सादा सौम्य स्वभाव ने बरबस ही मोह लिया था . मेरी हिचकिचाहट को देखते हुए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि तुम घर में घूंघट में रही हो  सिर्फ इसलिए मत सकुचाओ . तुम्हे पता है, जब मैं विवाह होकर ससुराल आई थी तो बहुत लम्बे घूंघट में रहना होता था . शादी के बाद ही मैंने बी एड किया . तब घर से परदे में निकलती थी और वापस घर लौट कर भी उसी परदे में रहना होता था . मगर इससे मेरी शिक्षा पर कोई असर नहीं हुआ. प्रधानाध्यापिका होने का आत्मगौरव उनके  चेहरे पर इसकी चुगली खा ही रहा था . हालाँकि छोटे बच्चों के कारण होने वाली असुविधा को देखते मैं उनके  प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकी परंतु एक अच्छी सीख तो मुझे उनसे मिल ही गयी कि ढ़के हुए सिर के भीतर भी खुले दिमाग हो सकते हैं . 

हिंदी की एक विदुषी प्रोफ़ेसर जिनका स्टडी रूम  मूल्यवान साहित्यिक  कृतियों से सजा -धजा है . जब भी हमसे मिलने घर आती , अपने सास- श्वसुर  के सामने उन्हें सिर ढ़के हुए ही पाया . 

वाणिज्य की  गोल्ड मेडलिस्ट व्याख्याता , आयुर्वेद की जानी- मानी वैद्य , एल एल बी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण प्रतिभावान वकील , जाने कितनी महिलाओं से मिलना हुआ जो घर में सिर ढ़के हुए या घूंघट में मिली . 


सगाई के लिए ससुराल से आई महिलाओं के एक हाथ लम्बे घूंघट को देखकर मैंने पास बैठी ननद से धीरे से पूछ लिया ." आपके यहाँ इतना लम्बा घूंघट निकलते हैं " . वे मुस्कुराती हुई बड़े गर्व से बोली - हाँ.  
स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले इस दिल और दिमाग के कितने टुकड़े हुए, बता  नहीं सकती थी . मेरा मायका भी कोई आधुनिक बस्ती का जमावड़ा नहीं था . वहां भी महिलाएं  अपेक्षाकृत   कम परदे में मगर रहती तो थी और चूँकि विवाह की स्वीकृति भी उनके घर के रीति -रिवाज़ और संस्कारों को जानते हुए ही दी थी  इसलिए विरोध करने का कोई कारण भी नहीं बनता था . विवाह के बाद घर की बुजर्ग महिलाओं से भी लम्बे घूंघट निकलने की ताकीद मिली तो एक आह निकल कर रह गयी . बुजुर्ग महिलाओं के सामने पति से बात नहीं करना ,  जेठ- ससुर से पर्दा करना और  उनसे कुछ पूछना कहना हो तो एक मध्यस्थ की आवश्यकता . यदि  घर में कोई और नहीं हो तो क्या करें , कुछ समझ नहीं आता था .  
एक रिश्तेदार के साथ जब सिनेमा देखने निकले तो रास्ते में मुझसे बोली ." भाभी , आप ठीक से सिर नहीं ढकती है . किसी ने देख लिया तो घर पर शिकायत कर देगा ".
 मैंने बड़ी उलझन में कहा . अब क्या सिनेमा भी घूंघट निकाल कर देखा जाएगा और यहाँ इस भीड़ में मुझे कौन पहचानता है . 

विवाह के बाद के इन चौबीस वर्षों में बहुत कुछ बदला है . आज पारिवारिक कार्यक्रमों में वही परिचित महिला कहती नजर आती है ," अरे , छोडो ये सब घूंघट , आप लोंग तो जेठ -ससुर जी से बात किया करो , हम कब तक मध्यस्थ बने रहेंगे ". 

इसके विपरीत आजकल परिचित  अथवा  रिश्तेदार अपेक्षाकृत  कम पढ़ी-लिखी , आधुनिक महिलाओं से साक्षात्कार  कम नहीं होता  . सिर ढकना , घूंघट करना , बड़ों के पैर छूना जैसे कार्यों को दकियानूसी मानने वाली इन रूपसी सजी धजी महिलाओं से बात कर देख लो  तो उनकी आधुनिकता की पोल पट्टी दन से उघड़ जाती है . 

इसका मतलब यह हरगिज नहीं है कि पर्देदार महिलाएं सब सुसंस्कृत ही होती है और आधुनिकाएं बिगडै़ल या दिमाग से पैदल . गज भर घूंघट में चपड़ -चपड़ कर लड़ती स्त्रियाँ भी नजर आ जायेंगी तो  वहीं बिना परदे आँखों की शर्म लिए सभ्य महिलाएं भी .   
यह सब लिखते हुए दिमाग में हलचल भी हो रही है , सिर्फ महिलाओं के लिए ही क्यों है यह सब , आँख में लज्जा , जुबान में मिठास ...मैं यह सब क्यों लिख रही हूँ . हम लोग पुरुषों के लिए क्यों नहीं सोचते ...वे क्या पहने , कैसे बोले , उनके संस्कार , आदर्श , लिहाज़ . इन पर इतनी कम बात क्यों होती है !
खैर , फिलहाल इस दिमागी हलचल को एक तरफ रख कर अपने दिल और दिमाग की  सम्मिलित संतुलित पुकार को ही सुन लेती हूँ ....

विगत वर्षों  में यह अच्छी तरह जान लिया है कि  घूंघट या पर्दा तो एक आवरण भर है .   स्त्री -पुरुष के विभेद के बिना यह निष्कर्ष तो निकल ही आया है  कि ढके हुए सिर के भीतर खुले दिमाग भी हो सकते हैं और उघाड़े माथे के भीतर सब कुछ खाली भी हो सकता है . 

इस लिहाज़ से यह  पुरानी पोस्ट भी ताज़ा ही है ..