कल सुबह कॉलेज जाती हुई एक बच्ची नजर आई कुछ लंगड़ाती हुई . शायद चप्पल टूट गयी थी. झेपी मुस्कराहट के साथ चप्पल घिसट कर चलते देख थोडा दुःख हुआ तो थोड़ी हंसी भी आई .
मुस्कुराने के बहाने भी कैसे अजीब होते हैं . बेचारे कि चप्पल टूटी है चलने में परेशानी है . स्टॉप कितनी दूर है . उससे पहले मोची मिलेगा या नहीं , कैसे चल पाएगी इतनी दूर . सब लोंग अजीब नजरों से घूर रहे हैं जो अलग . फिर भी मुस्कुरा रहे हैं जिसका दुःख है वह भी और जो उसके दुःख में शामिल हो दुखी हो रहा है, वह भी . उसकी मुस्कराहट में शामिल तो मै भी हुई मगर उसके दुःख के अलावा भी मुस्कुराने का मेरा अपना कारण था.
मुस्कुराने के बहाने भी कैसे अजीब होते हैं . बेचारे कि चप्पल टूटी है चलने में परेशानी है . स्टॉप कितनी दूर है . उससे पहले मोची मिलेगा या नहीं , कैसे चल पाएगी इतनी दूर . सब लोंग अजीब नजरों से घूर रहे हैं जो अलग . फिर भी मुस्कुरा रहे हैं जिसका दुःख है वह भी और जो उसके दुःख में शामिल हो दुखी हो रहा है, वह भी . उसकी मुस्कराहट में शामिल तो मै भी हुई मगर उसके दुःख के अलावा भी मुस्कुराने का मेरा अपना कारण था.
किसी को भी लंगड़ाते देख मुझे बहुत- बहुत-बहुत साल पहले की स्मृतियाँ सजीव हो उठी है . उम्र यही कोई दस-.ग्यारह वर्ष की रही होगी . पैर के तलवे में हुए फोड़े ने चलना फिरना मुहल कर रखा था . एड़ी टिका कर चलना संभव ही नहीं था तो घर में भी अक्सर सहारा लेकर एक पैर पर चलना पड़ता . घर से बाहर मरहम पट्टी करवाने के अलावा तो जाने का सवाल ही नहीं था . पिता के ऑफिस जाने से पहले सहायक चाबियाँ और उनका ब्रीफकेस लेने आता और लंच में और शाम को छुट्टी होने पर उनके साथ ही यही समान लेकर लौटता भी . ऐसे ही किसी दिन पापा के साथ आते उनके मुंहलगे सहायक रामावतार ने मुझे एक पैर पर कूद कर चलते देख लिया . उसके बाद हाल ये कि सुबह , शाम ,दोपहर जब भी घर पर मैं उसके सामने नजर आ जाऊं मुझे देखते ही लंगड़ा कर चलना शुरू कर देता . हम लोग ऐसे ही माहौल में बड़े हुए हैं जहाँ चपरासी , काम वाली बाई आदि भी घर के सदस्य जैसे ही हो जाते हैं तो कोई उसको डांटता नहीं बल्कि सब उसके साथ ही मुस्कुराने लग जाते.
एक तो अपनी हालत से परेशान और ऐसे में किसी का खिझाना और परिजनों का उसमे सहयोग. मैं उस पर बहुत खीझती चिल्लाती . इतना गुस्सा आता मुझे कि यदि पापा का डर या लिहाज़ नहीं होता उसे गालियाँ भी दे देती या फिर कुछ उठा कर दे मारती . किस्मत अच्छी थी उसकी कि उसका आना उसी समय होता जब पापा घर में होते .
खैर , थोड़े दिन बाद पैर ठीक भी हो गया . आराम से चलना -फिरना भी होने लगा मगर रामावतार का मुझे चिढ़ाना नहीं छूटा. जब भी मैं नजर आ जाऊं ,उसका लंगडाना शुरू .
मैं बागीचे में हूँ या बरामदे में बैठी रहूँ या फिर कॉलोनी में घूमते मिल जाऊं . मुझे देखते ही उसका लंगड़ाना शुरू . लोग हैरान होकर उससे पूछते कि अभी तो ठीकठाक थे अचानक क्या हो गया पैर में . मैं तो जानती थी उसके लंगड़ाने का कारण सो खीझ कर रह जाती. ऐसे ही एक दिन लंच के समय पापा के साथ घर लौटते मुझे डाईनिंग टेबल पर खाना खाते देख जब उसने लंगडाना शुरू किया मैं बस गुस्से से फट पड़ी . पापा -मम्मी पर भी गुस्सा करने लगी कि आप इसे कुछ कहते नहीं इसलिए ये हमेशा मुझे चिढ़ाता है .
पापा थोड़ी देर सुनते रहे . फिर मुस्कुराते हुए बोले , " तू चिढ़ती है इसलिए वह चिढ़ाता है . चिढ़ना छोड़ दे उसका चिढ़ाना छूट जाएगा ."
मेरा गुस्सा एकदम से शांत हो गया . उनकी बात में वजन था . मैं भी उनके साथ मुस्कुराने लगी थी .
उम्र तो अपनी रफ़्तार से बढती है . जीवन में परिवर्तन भी आते हैं . मैं बड़ी भी हुई , विवाह हुआ , बच्चे भी हो गये मगर रामावतार का मुझे चिढ़ाना नहीं छूटा . वह जब भी मुझे देखता पतिदेव या बच्चों के साथ , तब भी उसका लंगड़ाना यथावत रहता . बस मेरा खीझना छूट गया था. मैं भी सबके साथ मुस्कुरा देती और बच्चों को अपने बचपन की कहानी सुनाती. एक अनमोल सबक सिखा मैंने और बच्चों को भी सिखाया कि चिढ़ाने वाली परिस्थितियों से कई बार मुस्कुराकर भी बचा जा सकता है . खीझ से बचने में शत प्रतिशत नहीं तो कुछ प्रतिशत जरुर होता है .
पापा नहीं रहे . हमारा वह गाँव छूटा . रामावतार भी रिटायर हो गया . मगर भाई की पास के शहर में नौकरी के कारण अभी संपर्क पूरी तरह नहीं ख़त्म हुआ . एक दिन अचानक मिल गया बड़े भाई को . पूछने लगा हम सबके बारे में " बबी लोंग कैसन बाड़ी " .
भाई ने झट फोन मिलाकर बात करवा दी .
का बबी , कैसन बाडू, हम अईनी भैया लगे . पूछत रहनी है कि बबी बाबू लोग कैसन बाड़े ...कईसे गोड़वा से लंगडात रहलू ...उहाँ सब ठीक बाटे ना !
पापा-मम्मी और सभी भाई -बहनों की जाने कितनी ब़ाते याद थी .
भाई ने बताया वृद्धावस्था की मार झेलते रामावतार की आँख में आंसू थे .
जब भी चिढ़ने चिढ़ाने की बात होती है मैं इन्ही स्मृतियों से गुजरती हूँ .
अविश्वास के इस दौर में जीने वाले हमलोग ...सोचती हूँ क्या हमारे बाद वाली पीढ़ी की स्मृतियों में भी ऐसा अपनापन संभव हो सकेगा !!!