महिलाओं की दान प्रवृति और अपाहिजों तथा गरीब ,लाचारों की मदद कर अपना यह लोक और परलोक एक साथ सुधारने की मानसिक संतुष्टि धार्मिक स्थलों पर अपाहिजों , लाचारों और भिखारियों के संख्या में दिनोदिन बढोतरीकरने का एक मुख्य कारक है, हालाँकि इन्ही महिलाओं को अक्सर पसीने से भीगे हांफते रिक्शाचालकों व मेहनत से रोजी -रोटी कमाने वाले सब्जी के ठेले वालों से एक -दो रुपये के लिए सर फुट्टवल करते देख वह आश्चर्य में पड़ जाती है ।
वृंदा भी बहुत पसीजती थी और घर के दरवाजे पर अपने भूखे बच्चों के लिए खाना मांगने वाली की आर्त्र पुकार को अनसुना नही कर पाती। उसकी करुणा देखकर खाने की गुहार वस्त्रों और चप्पलों तक जा पहुँचती।
"देख बाई ..बच्चा कैसे सियां मरे है ..कोई टाबरों का फटा पुराना गरम कपड़ा ही दे दे।"
वृंदा की आँखों के सामने बच्चों की पुराने कपडों की पोटली घूम जाती और उसे रुकने का इशारा कर अन्दर भागी चली जाती ,तब तक उस मांगने वाली को पुरानी चादर और चप्पलों की जरुरत महसूस हो जाती। उसकी इस आदत पर पति और बच्चे बहुत हँसते ..
"देखना किसी दिन हमारे नए कपड़े भी यूँ ही गायब मत कर देना ।"
इधर एक मांगने वाली हर दो या तीन दिन बाद आ धमकती। वृंदा भी उसे कभी खाली हाथ नही लौटाती और अपने परिवार के फलने फूलने की आशीष लेती फूली ना समाती । खाने से होते हुए चादर, चप्पलें , पुरानी साड़ी , खाली डब्बे कब उसकी भेंट चढ़ जाते , ख़ुद वृंदा को भी पता नही चलता...
मगर जब अगले ही दिन बच्चों को बिना चप्पल देख वृंदा इस बाबत कोई प्रश्न करती तो जवाब मिलता ...
" ऐ बाई ... इसका भाई सियां मरे था ..इसको तो गोद में भी टांग लूंगी " और वृंदा घर में और पुराने चप्पल जुटे ढूँढने में लग जाती। मगर जब एक दिन कस्बे में मंगलवार को लगने वाले विशेष हाट बाजार में उसी औरत को बोली लगाकर मांगे हुए वस्त्र आदि बेचते हुए देखा तो उसे बहुत गुस्सा आया । अब किसी मांगने वाली को कुछ भी नहीं देने का फैसला कर बैठी पर जब अगले ही दिन वह महिला अपने भूखे नंगे बच्चे के साथ उसकी चौखट पर आ खड़ी हुई तो उसका फैसला धरा का धरा रह गया ।
वह सोचने लगी आखिरकार भूख और लाचारी ही तो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करती है।
कुछ अनमने मन से लॉन में बिखरी हुए सूखे पत्तों की ओर इशारा करते हुए उसने कहा.
मैं अभी खाना लेकर आती हूँ , तब तक तू यह कचरा समेट ले "।
जब खाना लेकर वृंदा बाहर आयी तो वह मांगने वाली जस की तस वहीं खड़ी मिली। अब तो वृंदा भी अड़ गयी ।
" तुझे खाना तभी मिलेगा , जब कुछ काम करेगी।"
इतने में तो उसका बडबडाना शुरू हो गया ...
" ऐ बाई ...मेरे से तो ना होवे सफाई ...रोटियों पर इतना गुमान ... और घणी मिल जावेगी ।"
और पडोसन के दरवाजे की घंटी बजाकर अलापना शुरू कर दिया । जब पडोसन खाना लेकर आयी तो उसे ढेरों आशीष देती हुए वृंदा को मुंह चिढाती -सी सर्र से निकल गयी। वृंदा खड़ी मुंह ताकती रही .
"आख़िर लाचार कौन था ...??"