गुरुवार, 14 नवंबर 2019

जहाँ प्यार दिख जाये.....


चित्र गूगल से साभार....

सत्यनारायण पूजा पर एकत्रित परिवार की सब स्त्रियाँ पूजा के बाद सबको प्रसाद खिला अब स्वयं भी तृप्त होकर आराम करते गप्पे लड़ा रही थीं. जैसा कि अकसर महिला मंडल की बैठकों में होता है, वही यहाँ भी होने लगा. अनुपस्थित छोटी बहू के बारे में बातें करते कोई ताली बजाकर हँस रहा तो किसी के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कान...

देखो तो. भैया कितना प्यार करते हैं. जब तक रसोई में थी, वही मंडराते रहे....

अरे हाँ, कोई शरम ही नहीं है बोलो. सबके सामने एक ही पत्तल में परोस कर खा रहे थे.

उसके मायके जाने की बात से इनकी आँखों से आँसू निकल आते हैं.
कोई कुछ कह रहा कोई कुछ. सबके साथ हँसती मुस्कुराती कविता अचानक गंभीर हो गई....

" अच्छा है न. आज के समय में दो लोगों के  बीच प्रेम नजर कहाँ आता है.  माँ बाप और बच्चों के बीच, भाई बहनों के बीच, पति पत्नी के बीच.... प्रेम आजकल दिखता कहाँ है....ऐसे नाशुक्रे समय में यदि दो लोगों के बीच इतना प्रेम है यो यह खुशी की बात हुई न. प्रेम में डूबे हुए दो लोगों को देखकर मुझे तो अच्छा ही लगता है!
सोचो, क्या तुम लोगों को अच्छा नहीं लगेगा यदि  तुमसे इतना प्यार किया जाये....."

बात तो सही है. प्यार पाना किसे अच्छा नहीं लगेगा!

बातों का रूख सहसा ही परिवर्तित हो गया. सब स्त्रियाँ जैसे एक साथ सपनीली मधुरता में खो गईं एक संतोषजनक मुस्कान चेहरे  पर सजाये....


सोमवार, 8 जुलाई 2019

जीयें तो जीयें ऐसे ही.....



सुबह अखबार पढ़ लो या टीवी पर समाचार देख लो, मन खराब होना ही है. गलती उनकी इतनी  नहीं है, चौबीस घंटे समाचार दिखाने वाले  दो चार घंटा अपराध की खबरें न दिखायेंगे तो क्या करेंगे!
अपराध की सूचना देना आवश्यक है मगर जिस तरह दिखाये या लिखे जाते हैं, उन लोगों की मानसिकता पर  दुख और भय दोनों की ही अनुभूति होती है. मुझे घटनाओं में होने वाली हिंसा से अधिक उनको लिखने वालों के शब्दों और चेहरे पर नजर आती है .सख्त शब्दों में कहूँ तो जुगुप्सा होती है.

मैं डिग्री होल्डर मनोवैज्ञानिक नहीं हूँ मगर समझती  हूँ कि बार -बार दिखने या पढ़ने वाली वीभत्स घटनाएँ आम इंसान की संवेदना पर प्रहार करती है. अपराध के प्रति उसकी प्रतिक्रिया या तो संवेदनहीन हो जाती है या फिर उसमें रूचि जगाती है. धीरे -धीरे पूरे समाज को जकड़ती उदासी अथवा उदासीनता यह विश्वास दिलाने में सफल हो जाती है कि इस समाज या देश में कुछ अच्छा होने वाला नहीं है. निराशाओं के समुद्र में गोते लगाते समाज के लिए तारणहार बनकर आती है प्रार्थना सभाएँ या मोटिवेशनल सम्मेलन , सिर्फ उन्हीं के लिए जो इनके लिए खर्च कर सकते हैं और अगर मुफ्त भी है तो अपना समय उन्हें दे सकते हैं. पैसा खर्च कर सकने वालों के लिए चिकित्सीय सुविधाएं भी हैं.
मगर जिनमें निराशा से उबरने की समझ/हौसला या उपाय नहीं है  या वे इसके लिए समय या धन से युक्त नहीं हैं या उन्हें इसका उपाय पता नहीं है,  नशे का सहारा लेने लगते हैं.

सोच कर देखिये तो जिस तरह प्राकृतिक चक्र में जीवन चक्र लार्वा से प्रारंभ होकर बढ़ते हुए नष्ट होकर पुनः निर्माण की ओर बढ़ता है . वही असामान्य स्थिति के दुष्चक्र में फँसकर  अपराध, हताशा, निराशा से गुजरकर फिर वहीं पहुँचता है. इसके बीच में ही उपाय के तौर पर एक बड़ा बाजार भी विकसित होता जाता हैं जहाँ प्रत्येक जीवन बस एक प्रयोगशाला है.

कभी -कभी मुझे यह भी लगता है कि पुराने समय में जो बुरी घटनाएं दबा या छिपा ली जाती थीं, उसके पीछे यही मानसिकता तो नहीं होती थी कि बुराई का जितना प्रचार होगा, उतना ही प्रसार भी.... मैं इस पर बिल्कुल जोर नहीं दे रही कि यही कारण होता होगा बस एक संभावना व्यक्त की है.

खैर, एक सकारात्मक खबर या पोर्टल के बारे में सोचते हुए जो विचार उपजे, उन्हें लिख दिया.
इस पोर्टल पर जाने कितने सकारात्मक और प्रेरक समाचार कह लें या आविष्कार मौजूद हैं जो बिना किसी भाषण के बताते हैं कि सकारात्मक जीवन जीने के कितने बेहतरीन तरीके और उद्देश्य भी हो  सकते हैं.

https://hindi.thebetterindia.com/

गुरुवार, 4 जुलाई 2019

जिन खोजा तिन पाईंयाँ....


स्कूल से आते ही बैग पटक दिया काया ने. मोजे कहीं, जूते कहीं . बड़बड़ाती माला ने सब चीजें ठिकाने रखीं और बैग से निकाल कर डायरी देखने लगी.
क्लास टीचर ने पैरेंट्स को मिलने का नोट डाला था. सिहर गई एकबारगी माला.
ओह! अब क्या गलती हुई होगी!
पिछले कुछ समय से स्कूल से आने वाली  शिकायतें उसे परेशान कर रही थी. अभी पिछले हफ्ते ही तो कॉपी किताबों के कवर फटे होने की शिकायत करते हुए कक्षा अध्यापिका ने बहुत भला बुरा कहा था उसे. शिकायतें सुनने उसके सामने अपराधी - सा उसे ही खड़ा रहना होता था. शेखर ऐसे समय में पीछा छुड़ा लेते किसी तरह.
तुम ही जाकर सामना करो. पता नहीं आजकल ध्यान कहाँ रहता है तुम्हारा. बच्ची पढ़ने में पिछड़ रही . न उनकी यूनिफॉर्म का ध्यान रहता है , न पढ़ने लिखने का . मैं दिन भर ऑफिस में काम करने के बाद क्या -क्या सँभालूँ?

माला को शेखर पर गुस्सा भी नहीं आता. वाकई लापरवाही उससे हो ही रही थी.

अभी पिछले महीने ही काया का रिजल्ट लेने जाने की तारीख भूल गई थी. असावधानीवश उसे एक दिन बाद की तारीख ध्यान में रही. दूसरे दिन स्कूल में भीड़भाड़ कम होने पर उसे शक तो हुआ मगर आ गये थे तो मिलना भी जरूरी है.  कक्षा अध्यापिका ने रिजल्ट देने से साफ मना कर दिया था. आखिरकार शेखर ने ही माफी माँगते हुए फिर कभी ऐसी गलती नहीं होने का आश्वासन दिया तब जाकर  उन्होंने चेतावनी देते हुए मार्कशीट सौंपी थी.  स्वयं की गलती के कारण शेखर को माफी माँगते देख माला ने जाने कितनी बार मन ही मन स्वयं को धिक्कारा होगा. पति पत्नी में आपस में कितनी भी नाराजगी और लड़ाई झगड़े होते हों  मगर किसी अन्य का अपने सामने ही पति को बुरा भला कहना माला सहन नहीं कर पाती. यह प्रेम था या संस्कार , माला इस पर पर्याप्त बहस भी मन ही मन कर लेती .

उस दिन रास्ते भर अपने गुस्से पर काबू रखते शेखर घर आते ही माला पर फट पड़ा.
क्या करती रहती हो दिन भर. अगली बार से मैं स्कूल हरगिज नहीं जाऊँगा. खुद ही संभालो यह सब.

मैं क्या करूँ. मैंने देखी तो थी डायरी. पता नहीं कैसे गलत तारीख ध्यान में रही. माला की शर्मिंदगी आँखों से गंगा जमना बन बह निकली.

इन आँसुओं से परेशान हो गया हूँ मैं. कितना समझाऊँ रोना बंद करो. घर में, बच्चे में मन लगाओ पर तुम समझती ही नहीं.
शेखर ने माला का हाथ पकड़ कर उसे करीब बैठा लिया. थोड़ी सी सहानुभूति और ढ़ेर सारे प्यार ने जैसे आँखों के बाँध को तोड़ कर रख दिया हो. हिचकियों सहित तेज हुई उसकी रूलाई से काया सहम कर पिता से लिपट गई.

मैं क्या करूँ. नहीं भूल पाती पिता को. किस तरह अपने पैरों से चलकर अस्पताल की सीढ़ियां चढ़ कर गये फिर  निढ़ाल हो गये. ऐसा कैसे हुआ. आपने कुछ क्यों नहीं किया. मैं कुछ क्यों नहीं कर पाई पापा के लिए...
रोते -रोते बेहाल हुई माला और गोद में काया को थपकियाँ देकर सुलाता शेखर किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठा. मन ही मन खुद पर नाराज भी हुआ पर वह करे तो क्या. दिन भर ऑफिस का प्रतिस्पर्धी माहौल, छोटे बच्चे की जिम्मेदारी और माला की बढ़ती हुई बेख्याली. घरेलू कार्यों में भरसक सहायता करने के अलावा गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य भी. अपनी जिम्मेदारियों की समझ उसे हौसला खोने भी नहीं देती थी. अधलेटा सा शेखर इन सब सोच में डूबा था कि दरवाजे पर खटखट ने उसको सजग किया. बचपन का मित्र कमल अपनी पत्नी विद्या के साथ  दरवाजे पर खड़ा था. उनको ड्राइंग रूम में बैठाकर शेखर ने माला को धीमे से जगाया. हाथ मुँह धोकर मुस्कुराहट लिए बैठक में आई माला हालांकि बिखरे बाल और सूजी आँखें उसके उदास मन की हालत बयां कर रहे थे. कुछ देर औपचारिकता में स्वागत अभिवादन के बाद
चाय बना लाती हूँ कहती माला रसोई  जाने केे लिए मुड़ी तो विद्या भी उसके साथ हो ली यह कहते हुए कि मैं भाभी की मदद करती हूँ.
आपके पापा के बारे में सुना था तबसे ही आपसे मिलने का मन हो रहा था. कैसे क्या हो गया था!
चाय की पतीली गैस पर रखते माला भीगी पलकों से सब बताती रही.
बहुत बुरा हुआ लेकिन पीछे रह जाने वालों को हिम्मत रखनी पड़ती है. चाय विद्या ने ही कप में छानी. बिस्किट, नमकीन करीने से प्लेट में रखते हुए माला फिर से सुबक पड़ी.
अपना ख्याल रखो भाभी. कितनी कमजोर हो गई हो.
नन्हीं काया भी तुम्हारे पास है. और देखो , हर समय रोते रहने से कुछ हासिल नहीं है. उलटा सामने वाला भी परेशान हो जाता है. स्वयं स्वस्थ न रहो तो कोई एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. शेखर अकेले कितना और कब तक  ध्यान रखेगा..

ठीक कहती हो विद्या. मैं भी सोचती हूँ मगर...
दुख और शर्म की मिली जुली अनुभूति इंसान को कितना दयनीय बना देती है. सोचती हुई विद्या ने माला का हाथ पकड़ कर हौले से दबाया. दर्द को अनकही संवेदना ने चेहरे की स्मित मुस्कुराहट में बदल दिया.

चाय बन गई या कहीं बाहर से ही आर्डर कर दें .
उधर से हल्के ठहाके के साथ  कमल की आवाज आई तो दोनों चाय और नाश्ते के साथ बैठक में आ गईं. दोनों के साथ कुछ हल्की- फुल्की इधर उधर की बातों से माला भी सहज हो आई थी.

आज फिर से कक्षा अध्यापिका के बुलावे ने उसे चिंता में डाल दिया था. क्या कहेगी शेखर को, कैसे सामना करेगी उसका. जैसे अपने हाथों पैरों पर नियंत्रण न रहा उसका. साँसें जैसे डूबती सी जातीं थीं. दवाईयों के डब्बे से  ब्लड प्रेशर की दवा ढ़ूँढ़ कर ले ली मगर घबराहट पर काबू ही न था. अकेली क्या करेगी वह.
काया को गोद में उठाया और दरवाजे की कुंडी लगाकर पड़ोस के वर्मा जी के घर चली आई. मिसेज वर्मा उसकी मानसिक स्थिति समझती थीं. अपने काम निपटाकर माला के पास आ बैठतीं थी कई बार. उसके गोद से कायाको लेकर सुला दिया . माला वहीं सोफे पर पसर गई. अपनी घबराहट पर नियंत्रण न रख पाई और फूट फूट कर रो पड़ी. मिसेज वर्मा ने उसे पानी पिलाया और सिर पर हाथ फेरते बहुत समझाया भी.
दवा से कुछ फायदा नहीं हो रहा तो किसी पीर देवता से झाड़ा लगवा आयें या  फिर किसी देवी देवता को पूछ लेते हैं. अगली गली में वह कन्नू रहता है न , उस पर छाया आती है. कहते हैं सब सच बताता है. कुछ टोना टोटका  कर दिया हो किसी ने या कोई देवताओं का दोष हो. या फिर छोटा बाजार चल आयें . वहाँ फूली देवी में माता आती है. झाड़ा भी देती हैं और साथ ही देसी दवा भी . बहुत लोगों को फायदा होते देखा है.

देवी देवता, झाड़ फूँक सुनते माला कुछ चौकन्नी सी हो गई. विज्ञान का ज्ञान उसे इन सब बातों पर विश्वास न करने देता था. मगर काया की तबियत खराब होने पर दवा देते हुए भी राई लूण करना नहीं भूलती थी. या फिर कपड़े की कतरनों से वारते हुए भी नजर उतारने का टोटका कर ही लेती थी. करने को कार्तिक में करवा चौथ पर चंद्रमा के दर्शन कर उसकी पूजा भी करती ही थी जबकि उसे स्कूल में पढ़े गये विज्ञान के सबक अच्छी तरह याद थे कि चंद्रमा एक उपग्रह मात्र ही है . उसकी रोशनी भी उसकी अपनी नहीं. वह सूर्य के प्रकाश से ही चमकता है. मगर कुछेक अवसरों पर दिमाग की खिड़कियों को बंद कर श्रद्धा के वशीभूत हो किये गये शुभ कार्य एक सुकून या प्रसन्नता का भाव उत्पन्न करने में सहायक होते हैं. पारिवारिक और सामाजिक मेलजोल के ये पर्व या व्रत त्योहार रूढ़ि में न बदलने तक एक प्रकार से दैनिक कार्यों जैसे आवश्यक से ही  हो जाते हैं और रससिक्त कर सुख और आनंद की अनुभूति देते हैं.

नहीं. अभी इसकी जरूरत नहीं. कुछ आराम मिला है मुझको.  यदि आवश्यक हुआ तो हम जरूर चलेंगे वहाँ.

अब तक पैर समेट कर आराम की मुद्रा में बैठती माला संयत हो चली थी. मिसेज वर्मा की बेटी शुभी चाय बना लाई थी. किशोरवय की उनकी पुत्री चपल और हँसमुख होने के साथ सुघड़ भी थी. काया के साथ खेलते बतलाते माहौल को सुखद बनाने में अपनी भूमिका में कुशल लगती थी वह.

अब चलती हूँ मैं. शेखर के आने का समय भी हुआ जा रहा. फिर इसका होमवर्क भी कराना है. काया की अँगुली पकड़ते वह  उठ खड़ी हुई . मगर घर की ओर मुड़ते कदम उसे फिर से चिंता में डाले जाते थे. क्या कहेगी शेखर को वह. क्यों बुलावा आया होगा स्कूल से...

अभी दरवाजे पर लगा ताला खोला भी न था कि पीछे से दौड़ती हाँफती शुभी उसकी साड़ी का पल्ला खींचते उसे जल्दी वापस उसके घर चलने को कहने लगी.
जल्दी चलिये . माँ ने बुलाया है. कहते उसने काया को गोद में उठा लिया.
अरे! घबराइये मत. कोई आया है घर पर. माँ आपसे मिलवाना चाहती है.
कौन होगा जिससे मिलवाना इतना जरूरी है कि उसके लिए शुभी इस तरह दौड़ती भागती चली आई. काया और शुभी को पीछे छोड़ लंबे डग भरती हुई माला अगले ही पल में मिसेज वर्मा के सामने थी.

आओ माला. कितनी अच्छी बात है न. अभी कुछ ही समय पहले इसकी बात कर रहे थे हम . तुम जैसे ही बाहर निकली इसका आना हुआ. जानती हो न इसको.

हाँ .  आपकी गली में बच्चों के साथ खेलते इसे कई बार देखा है. चेहरे से पहचानती हूँ.

अरे. यही तो है कन्नू जिसके बारे में मैं बता रही थी. वही जिस पर देवता की छाया है. आगे के शब्द फुसफुसाते से कहे थे उन्होंने.

जा शुभी. भैया के लिए पानी भर ला लोटे में. एक आसन भी दे जा बिछाने को.

अनमनी सी हो उठी थी माला. यह क्या कर रही हैं मिसेज वर्मा. उसे विश्वास नहीं इन ढ़कोसलों पर. कैसे कहे उसके सामने ही. मगर तब तक शुभी आसन बिछा चुकी थी. उसके सामने पानी का लोटा भी रख दिया गया था.

कैसे भागे यहाँ से सोच रही थी माला . शेखर को पता चला तो कितना गुस्सा होगा. तब तक कन्नू जी आसन पर जम चुके थे. हाथ पैरों को बल खाने की मुद्रा में लाते उसकी आँखें हल्की ललाई लिये थीं. आसन पर बैठे मरोड़े खाते देख मिसेज वर्मा उसके सामने जा बैठीं. इशारे से शुभी को काया को वहाँ से ले जाने को कहते हुए माला का हाथ खींचकर अपने पास ही बैठा लिया.

बोलो महाराज. क्या बात है. क्या कष्ट है!
मिसेज वर्मा की  उत्सुकता देखते बनती थी वहीं माला सकुचा रही थी. किस फेर में पड़ गई आज वह.
उधर कन्नू के शरीर के झटके बढ़ते जा रहे थे . नहीं के इशारे में जोर से गरदन हिलाते हुए वह छटपटाता सा दिख रहा था. कुछ कहने के लिए मुँह खोलता कि उढ़के से  दरवाजे पर जोर से खट की आवाज आई. वर्मा तेजी से घर में घुसे थे.

ये क्या हो रहा है यहाँ...
तत्क्षण ही तेजी से पानी का लोटा उठाकर गटकते कन्नू अपनी गरदन ढ़हाते जमीन पर लोट गया.  कुछ ही सेकंड में वापस अपनी स्वाभाविक स्थिति में उठ भी बैठा. सब कुछ इतने कम समय के अंतराल में हुआ कि माला समझ नहीं पाई कि आखिर हुआ क्या था.
कन्नू  वर्माजी  का अभिवादन करते हुए उठकर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर जम चुका था.

वर्मा जी घर के भीतर चले गये  तो मिसेज वर्मा ने धीमे स्वर में माला से कहा... अभी देवता चले गये पर कुछ असर तो रहेगा. पूछती हूँ तुम्हारी समस्या के बारे में.

इनके पिताजी के देहांत के बाद इसकी तबियत ठीक नहीं रहती. पेट में अजीब सा दर्द बताती है. खाना पचता नहीं . दिन पर दिन कमजोर हुई जा रही. दवा लेते दो तीन महीने हुए. कुछ असर नहीं हो रहा. कहीं पैर तो नहीं पड़ गया इनका कहीं.

अब तक मिसेज वर्मा और माला भी कुर्सियों पर बैठ चुकी थीं.

  हम्म्म्... पिता जी के जाने के बाद.... एक जोर की साँस ली कन्नू ने और रूआँसी सी हुई माला की ओर देखा.

क्यों रोती हो इतना. किसके लिए रो रहे. क्या समझते हो . तुम अमर हो. ये जीवन है. इसका क्या भरोसा. सोचो कल ही तुम्हें कुछ हो गया तो.... तुम्हारा इस समय का रोना क्या काम आयेगा.

कान के पर्दे पर जैसे किसी तीक्ष्ण वस्तु का वार हुआ. भय से सिहर उठी माला. पाँच वर्ष की नन्ही सी काया , अकेले पड़ता शेखर... इतनी सी देर में क्या- क्या नहीं सोच लिया उसने.

मैं चलती हूँ. शेखर परेशान होंगे. काया को गोद में उठाये माला दौड़ती सी घर आ पहुँची. शेखर घर आ चुका था. स्कूटर भीतर रखने के लिए मेनगेट पूरा खोलता हुआ रूक गया.

कहाँ गई थीं. अब क्या हो गया. उसके मुरझाये
हतप्रभ चेहरे को देखते कहा उसने.

कुछ नहीं. काँपते हाथों से दरवाजे का ताला खोला माला ने. काया को गोद में लिए हल्की सिसकियों से शुरू हुई उसकी रूलाई जल्दी ही चीख कर रोने में बदल चुकी थी.  शेखर और काया को अंक में समेटे कुछ देर फूट फूट कर रोती रही माला. होठों में ही अस्पष्ट शब्दों में बुदबुदाती.  काया के उलझे बालों की लटें, तुड़ी मुड़ी सी यूनिफार्म को अँगुलियों से सही करते हुए . वह इतनी निर्दयी कब और कैसे हुई. पिता का जाना उसे  इतना व्यथित कर रहा कि उसने पाँच वर्ष की नन्हीं काया के बारे में भी नहीं सोचा. अपने आपको इतना कमजोर कैसे कर सकती थी वह. उसके और काया के अच्छे भविष्य के लिए खटते शेखर के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती थी वह. अपनी जिम्मेदारियों से कैसे भाग सकती थी. क्या उसका अपना दुख इस दूधमुंही काया के दुख से भी बढ़कर था...
उसके बालों में अँगुलियाँ फेरते शेखर ने उसे जी भर रो लेने दिया.

तुम बहुत साहसी हो और हम दोनों का संबल भी. शेखर समझा रहा था और माला कल के नये सूर्य के साथ अपने भीतर ऊर्जा भरते हुए जिंदगी की ओर बढ़ रही थी. दर्द वहीं था अभी, अफसोस भी परंतु उसके साथ अपने उत्तरदायित्व को अच्छी तरह निभाने,का हौसला भी...।

कितनी दवाईयाँ, कितनी किताबें और कितने मनोवैज्ञानिक नहीं समझा सकते थे जिसे , एक अल्पशिक्षित अज्ञानी ने अनजाने में समझा दिया था उसे। देवी देवता के आने जाने  का पता नहीं और न कभी वह इस पर विश्वास भी कर पायेगी मगर जीवन मजबूती से चलते रहने का नाम है, दुर्लभ है . यह जरूर समझ चुकी थी माला. कमर कस कर आने वाली चुनौतियों से लड़ने को तैयार.

रविवार, 16 जून 2019

मुंबईनामा.....





जब हम छोटे थे. हाँ भई! हम भी छोटे मतलब बच्चे थे कभी. आज बड़े हो गये अपने बच्चों से कहो तो पेट पकड़ कर हँस ले यह कहते हुए कि इमेजिन ही नहीं होता कि आप लोग भी बच्चे थे.
मजाक में कही बात मगर गंभीर ही है. हम नहीं सोच पाते अपने बड़े बुजुर्गों के लिए कि उनका भी कभी बचपन , लड़कपन या युवावस्था भी रही होगी. माँ अचानक छोड़ गईं साथ तब सहानुभूति रखने वाले उम्र बताने पर कह देते चलो उम्र तो थी, नाती पोते , पड़पोते भी थे. मन कचोटता है स्वयं को मगर हमें तो कभी लगा ही नहीं.

हाँ तो जब हम छोटे थे तब मुंबई को मुख्यतः अमीरजादों और फिल्मी कलाकारों के कारण ही जानते थे.  छोटे से कस्बे में पत्र पत्रिकाओं द्वारा ही बाहर की दुनिया से जुड़े होते थे.
उन पत्र पत्रिकाओं विशेषकर फिल्मी पत्रिकाओं में इन सितारों   के भी फर्श से अर्श तक जाने के किस्से इस अंदाज में बयान होते कि सामान्य वर्ग से आये युवा भी सितारा बनने के लिए झोला उठाये चल देते थे. कुछ ही सफल होते और अधिकांश धोखे की कहानियों के पात्र बन जाते. मुंबई की बारिश और छोकरी, दोनों का भरोसा नहीं करना चाहिए. कब रास्ता बदल लें. यहाँ पेट भरना आसान है मगर घर मिलना नहीं. यही सुनते आये थे हमेशा।
शहरी क्षेत्र का विस्तार होते होते कहावतें किस्से और मान्यताएं भी बदलती ही जाते हैं. हमने जितना पत्र पत्रिकाओं से जाना था  उससे इस शहर और उसके बाशिंदों  की छवि ह्रदय हीन, मतलबपरस्त ही रही जहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नहीं. आस पड़ोस में कौन रहता, क्या करता कोई जानना नहीं चाहता. दरअसल यहाँ लोगों की स्वयं के जीवन में इतनी भागदौड़ और उलझनें रहती हैं कि वह दूसरों के बारे में सोचे कब...मगर तीन वर्ष पहले जब मुंबई जाना हुआ तो यह भ्रम भी टूटा.
 राखी के दिन भरी दोपहर में अन्य विकल्प न होने के कारण  लोकल ट्रेन में जाने की जरूरत हुई . यूँ तो दोपहर में लोकल में इतनी अधिक भीड़ नहीं होती मगर राखी का दिन होने के कारण जबरदस्त भीड़ थी. एक ट्रेन मिस भी की मगर दूसरी भी वैसी ही लदी फंदी. भीड़ के धक्के से डब्बे में चढ़ तो गये मगर अंदर आगे बढ़ें कैसे.  अपने शहर में तो बस में भी चढ़ने का अभ्यास नहीं और यहाँ ऐसे फँसे कि लगा अंतड़ियां न पिचक जाये. जैसे तैसे धक्के खाकर पाँच छह कदम आगे बढ़ी. इतनी ही देर में दूसरा स्टॉप आ गया. भीड़ में कचूमर बना जा रहा था तभी एक स्त्री की तेज चीखती आवाज आई जो भीड़ को बुरी तरह हाथ और लात दोनों से धक्का दे कर आगे धकेल रही थी.
ट्रेन चलने पर जैसे-तैसे मुड़ कर देखा तो उसने अपनी बाहों से एक दूसरी स्त्री को घेर कर पकड़ा हुआ था जिसकी गोद में छोटी बच्ची भी थी. अधेड़ उम्र की उस स्त्री ने सीट पर बैठी सवारियों को उस बच्चे को गोद में लेने को कहा. कई हाथ आगे बढ़े. किसी ने बुरी तरह रोते बच्चे को गोद में लिया, किसी ने बच्चे की माँ केे पर्स को. अंदर सवारियां उस बच्ची को पुचकार कर चुप करा रही थीं , कोई अपनी बोतल से पानी पकड़ा रहा था, तो कोई टॉफी. थोड़ी -थोड़ी जगह बनाकर उस स्त्री को उसके बच्चे के पास पहुंचाया और एक लड़की ने उसके लिए अपनी सीट छोड़ दी. एक तरह से राहत की साँस लेती वह अधेड़ स्त्री अभी भी गेट के पास ही खड़ी थी कि अगला स्टॉप उसका ही था. जिस महिला पर चीखी थी जोर से, उसी से मुस्कुराते हुए कह रही थी  इतने छोटे बच्चे को लेकर चढ़ गई .बिल्कुल किनारे खड़ी थी कि ट्रेन चल पड़ी. मैं धक्का नहीं लगाती तो क्या करती.  मन धक सा हो गया. रोज कुछ न कुछ लोग गिरते हैं चढ़ते उतरते...
उस भीड़ में फँसे हुए भी मन एक प्रसन्नता से भर गया. भीड़ में तन्हा है कहीं तो कहीं सुरक्षित भी.
कान से सुने और आँखों से देखे में भी  कुछ तो फर्क होता है. वैसे देखने में भी आँखों को बस सीध में जो दिखता है, वही तो दिखता है. एक घटना से ही यह अनुमान भी लगा लेना कि धोखा होता ही नहीं, धोखे की पृष्ठभूमि तैयार करने जैसा ही है.
 इंस्टाग्राम पर हँसती मुस्कुराती तस्वीरों के पीछे का प्रत्यक्ष सन्नाटा हो कि लँगड़ी मारकर आगे बढ़ जाने वाले किस्से हों. इस शहर के धोखे की भी लंबी दास्तान दर्ज है दिल- दिमाग को झिंझोड़ती सी.
मगर फिर भी कुछ आकर्षण है इस शहर का. हवाओं में समुद्र के पानी की महक है तो जुबान पर उसके नमक का स्वाद भी. इसलिए लोग खींचे चले आते हैं आज भी सौ शिकायतें करते भी....
तभी तो  कहलाती है यह मायानगरी .


गुरुवार, 2 मई 2019

गीत ऐसे लिखे जाते हैं...


हमारी पीढ़ी का रेडियो से प्यार कुछ अनजाना नहीं है. यदि आजकल बच्चों को पता चले कि रेडियो सिलोन सुनने के लिए रेडियो को  घर में सबसे ऊँची जगह रखकर उससे कान सटा कर भी सुना जाता था तो हँस हँस कर दोहरे हो जायें.

मुझे याद है कि राह चलते सरगम फिल्म का डफलीवाले गाना कान में पड़ा तो हम ऐसी दौड़ लगाकर घर की ओर भागे कि अपने रेडियो पर पूरा गाना सुन सकें. भरी दोपहर में  रेडियो पर नामचीन लोगों के साक्षात्कार उनके पसंद के गीतों के साथ सुनना न तो आपके घरेलू कार्यों  में,  न ही ऑफिस में या अन्य कार्यस्थलों पर  बाधक होता है  और न ही  आपके आराम में.

ऐसे ही एक जानेमाने गीतकार के साक्षात्कार में उनके एक लोकप्रिय गीत की लेखन प्रक्रिया के बारे में बताया उन्होंने.
जून की भरी गर्मी में वे बस में सफर कर रहे थे. तभी एक कन्या बस में चढ़ी. उसने आँखों में काजल लगा रखा था और गर्मी के कारण चेहरा पसीने में भीगा हुआ था. ( खूबसूरत थी या नहीं, याद नहीं).  प्रतिभाशाली गीतकार हर परिस्थिति में गुनगुना सकते हैं. उनके मन से भी कुछ पंक्तियाँ प्रकट हुईं.

जून का मौसम मस्त महीना , चाँद सी गोरी एक हसीना
आँख में काजल  मुँह पे पसीना
याल्ला दिल ले गई....
याल्ला याल्ला दिल ले गई
 बाद में कविता को गीत में ढ़ालने के लिए जून का महीना को झूमता मौसम मस्त महीना किया गया क्योंकि जून के मौसम को मस्त कैसे कहा जा सकता था.

कवि/लेखक के ह्रदय में कविता कभी भी इस प्रकार  प्रस्फुटित होती है. मगर इसका अर्थ यह नहींं कि हर कविता बस में मिली उस युवती को ही देखकर रची गई हो. यह भी नहीं कि कवि उसके प्रेम में गिरफ्तार हो गया. उस समय में जो लिख गया वहीं रह गया.

(साक्षात्कार बहुत पुराना सुना हुआ है. अपनी स्मृति के आधार पर लिखा है तो हो सकता है कि मैं कुछ भूल भी रही हूँ)

उजाला फिल्म का यह गीत जब भी सुनती हूँ. हसरत जयपुरी की वह बस यात्रा आँखों के सामने वही दृश्य उपस्थित कर देती है

https://vanigyan.blogspot.com/?m=1

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

इक बंगला बना न्यारा.....






कल सुबह किसी कार्य से घर से बाहर जाना हुआ. शाम तक वापस लौटी तो बाहर बरामदा बड़े तिनकों, नीम की ताजा पत्तियों और फूलों, धागे के छोटे, लंबे टुकड़े आदि से भरा पड़ा था. कल ऐसी कोई आँधी भी नहीं थी कि कचरा उड़ कर इस प्रकार इकट्ठा हो जाये. चीं चीं की आवाज सुनकर उपर देखा तब सब माजरा समझ आया. उपर गणेश जी के आले में तिनके मुँह में दबाये चिड़िया रानी नीड़ के निर्माण में लगीं थीं. पर्याप्त स्थान न होने के कारण बड़ी मेहनत से लाये उसकी निर्माण सामग्री इधर उधर गिर रही थी. मुझे यह भी लगा कि आले में स्थित गणपति को नुकसान न हो. बिटिया को आवाज लगाई . उसने प्लास्टिक और टेप की सहायता से आला पैक कर दिया. परंतु चिड़िया का चोंच में तिनके लिए आना जाना चलता रहा. माता पुत्री का मन विचलित होता रहा . एक अपराध बोध - सा था कि हम नन्हींं चिड़िया को उसके नीड़ को निर्माण करने में बाधा पहुँचा रहे. सोचा कि अमेजन से बर्ड हाउस मँगवा कर लगा दूँ ताकि इनको भटकना नहीं पड़े हालांकि हम जानते हैं कि वे अपनी इच्छानुसार ही स्थान तय करती हैं . ऑनलाइन ऑर्डर करने पर भी एक सप्ताह तो कम से कम लगना ही था. तब तक यह चिड़िया क्या करेगी!
आखिरकार उपाय सूझा. गत्ते का एक पुराना कार्टून मिल गया जिसको सँभालकर रखा था किसी आर्ट वर्क के लिए. उसमें कुछ बड़े दो गोल छिद्र कर दिये. बालकनी की ग्रिल में बाँधने के लिए रस्सी नहीं मिली तो पूजाघर में रखी मोली को काम में लिया. उपलब्ध होता तो रंगीन कागज लपेट इसे सुंदर/ आकर्षक बना लेती . 
जैसे तैसे बाँध तो दिया , अब चिड़िया को तुरंत उसमें कैसे बुलाया जाये!  नीचे बिखरे हुए तिनके तुरंत फुरंत घोंसले में ऐसे लटकाये कि चिड़िया को बाहर से दिखता रहे. हालांकि चिड़िया के लिए बर्ड फीडर लगा रखा है और दिन भर उनका आवागमन लगा रहता है. फिर भी इस चिड़िया को इस घोंसले तक पहुँचाने के लिए उसके आसपास चावल, बाजरा और ज्वार  के थोड़े से दाने बिखेर दिये . एक बरतन में अलग से पानी भी उसके पास रख दिया.  सिर्फ दस मिनट में ही चिड़िया को तिनके सहित वहीं मंडराते देखा तब खुशी का ठिकाना नहीं था. कल से उन्हें उड़ उड़ कर तिनके लाते , जमाते देख बड़ा सुकून मिल रहा. ईश्वर करे इस घर में उसके नन्हे मुन्ने सुरक्षित रहें, खेले कूदें और फिर उड़ना सीख फुर्र हो जायें....प्रार्थनाओं में आप भी शामिल हो सकते हैं...

इस बड़ी सी दुनिया में बसी अपनी छोटी सी दुनिया और उसमें भी उस चिड़िया को अपने नीड़ का निर्माण करते देख अत्यंत प्रसन्नता हो रही जैसे किसी का उजड़ता घर बसा दिया हो. पक्षियों  की दुनिया कितनी अलग है मगर कितनी अपनी भी. हम स्वयं घर बसाते हैं मगर हमारी उसी गृहस्थी में किसी और को अपना घर बसाते देख प्रसन्न होना कम ही होता है.  वैसे तो पक्षी भी अपने घोंसलों में किसी और को फटकने नहीं देते मगर घोंसले बनाने का उनका उद्देश्य बच्चोँ को जन्म देना और उन्हें उड़ना सिखाना ही होता है. पंख सक्रिय होते ही उड़ जाते हैं बच्चे और फिर चिड़िया भी अपने उस घोंसले में वापस नहीं आती शायद. देखा नहीं कभी मैंने. पाश्चात्य संस्कृति जितनी ही आधुनिक है पक्षियों की जीवनशैली भी....
क्या पश्चिम में भी पक्षियोंं का जीवन इसी प्रकार चलता है. क्या विषम पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण वहाँ उनके घर स्थाई होते हैं  या वहाँ भी निश्चिंत और उन्मुक्त उड़ान ही भरते हैं कल की चिंता छोड़ कर ....

गुरुवार, 28 मार्च 2019

देसी चश्मे से लंदन डायरी.... शिखा वार्ष्णेय




अपने घर /गांव / शहर से बाहर जाने वालों  के मामले में हमारे भारतीय परिवारों में दोहरी मान्यताएं चलती हैं।  पहला प्रश्न यही होता है - खाने का क्या होगा (यदि लड़का है और वह भी अविवाहित  तो ) और यदि लड़की है तो कैसे रहेगी , वहां कोई जानने वाला है या नहीं  आदि।  इस पहली चिंता से निपट चुकने के बाद होती है शुरुआत  रिश्तेदारों और परिचितों में अपने पुत्र पुत्री के फॉरेन स्टे या फॉरेन रिटर्न की खबर फैलाने की. अपने पुत्र पुत्री के विदेश में सेटल होने या घूमने जाने की खबर या ख़ुशी  भिन्न -भिन्न तरीकों और बहानों से दी जाती है. भिन्न संस्कृति , संस्कार  के साथ आर्थिक , सामाजिक, राजनैतिक और भौगौलिक दृष्टि से भी बिलकुल विपरीत स्थान पर घूम घाम आना तो फिर ठीक है मगरजीवन यापन के लिए  वहां बस जाना व्यक्ति को एक अलग ही चुनौतीपूर्ण परिस्थिति और अनुभव से रूबरू कराता है।  लाख सुख सुविधाएँ जुटा ली जाएँ मगर मन जैसे बच्चों की तरह अपनी मातृभूमि और परिवेश को ललकता ही है।  विकसित देशों की सुख सुविधाओं का लाभ ले रहा प्रफुल्लित मन संतुष्टि को जीता है मगर भीतर कहीं एक कसक अपनी मातृभूमि से दूर होने की भी रखता है।  विभिन्न अवसरों पर चाहे अनचाहे खांटी देसी मन जाग जाता है और चाहे अनचाहे तुलनात्मक  हो उठता है।  कभी ख़ुशी कभी गम की तर्ज़  पर यह तुलनात्मक विवेचना या अध्ययन  उसी परिवेश में रह रहे व्यक्ति को तो अपनी  मनकही या समभाव  होने के कारण आकर्षित करता ही है, वहीँ दूर बैठे व्यक्तियों के मन में उत्सुकता जगाता है।  यदि यही अनुभव रोचक शैली में लेखबद्ध हों तो दुनिया के इस छोर से उस छोर के बीच जानकारियों के एक सेतु का निर्माण करता है।  ऐसा ही एक लेखन सेतु निर्मित किया है लन्दन में रह रही अप्रवासी भारतीय लोकप्रिय हिंदी ब्लॉगर शिखा वार्ष्णेय ने अपनी पुस्तक " देसी चश्मे से लन्दन डायरी " में।

लन्दन शहर ही नहीं बल्कि यूनाइटेड किंगडम और यूरोप के भी सामाजिक /आर्थिक / राजनैतिक परिदृश्यों की जानकारी के साथ ही सांस्कृतिक बनावट के बारे में  पुस्तक में संकलित आलेखों के माध्यम से दी गई जानकारी आम पाठकों को लुभाती तो है ही  वहीं उस देश में  बसने की चाह रखने वालों के लिए यह पुस्तक एक गाइड का कार्य भी करती है।  दैनिक जीवन से जुड़े क्रिया कलाप , शिक्षा , सुरक्षा व्यवस्था के बारे में विभिन्न घटनाओं के जिक्र से उस स्थान का परिवेश पाठक को बिलकुल भी अनजाना महसूस नहीं होने देगा।  लन्दन में रह रहे एशियाई परिवारों के रहन सहन और उसमें आने वाली परेशानियों तथा उन्हें दूर करने के लिये  किये जाने वाले प्रयासों के बारे में पर्याप्त सामग्री है।  अपने देशी चश्मे से झांकते हुए शिखा ने लन्दन के पूरे आर्थिक , सामजिक ,सांस्कृतिक ,  शैक्षणिक और राजनैतिक परिवेश पर दृष्टि इस तरह  डाली है कि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है।  उस देश में होने वाले चुनाव प्रचारों की सादगी हो या जनप्रतिनिधियों का सामान्य जीवन के साथ ही आर्थिक मंदी से जूझने के बावजूद रानी के स्वागत अथवा ओलम्पिक खेलों की तैयारियों में किया जाने वाला व्यय पर सटीक प्रतिक्रिया देती शिखा साबित  करती  हैं की आर्थिक मंदी का भुगतान आम जनता को ही विभिन्न करों के माध्यम से करना होता है शासन  चाहे लोकतंत्र का हो या राजशाही का।अपने आलेखों में शिखा   देश की शिक्षा प्रणाली , बुजुर्गों के लिए की जाने वाली सरकारी व्यवस्थाएं , बच्चों की सही देखभाल के लिए फ़ॉस्टर केयर जैसी संरचना के लाभ और दोष दोनों को इंगित करती हैं।  लिव इन ,समलैंगिक विवाह, और शुक्राणु दान पर भी बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करती शिखा बताती हैं कि पाश्चात्य सभ्यता अपने  स्वतंत्र विचारों और समानता के महिमा मंडन के बीच नस्लभेद और जातीय भेदभाव से अछूती नहीं रही है. विदेश में रहकर भी अपनी संस्कृति , भाषा से जुड़ाव और लगाव शिखा के अपने व्यवहार , दैनिक कार्यकलापों के अतिरिक्त उनके आलेखों से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।  लन्दनवासियों के गौरव , शिक्षा व्यवस्था की विशेषताएं , सामाजिक ढाँचे के गुण दोषों पर विशेष जानकारी देती यह पुस्तक पठनीय है.

हालाँकि अब तक बहुत बड़ी संख्या में पाठकों तक यह पुस्तक पहुँच ही चुकी होगी , तब भी कोई रह गया है पढ़ने से तो अमेज़न पर यह उपलब्ध है बहुत ही उचित मूल्य पर।

शिखा को अपने लेखकीय कार्यों और प्रसिद्धि के लिए ढेरों बधाई  और शुभकामनाएं। 

शनिवार, 19 जनवरी 2019

उल्टा स्वस्तिक भी शुभ की कामना से...अजब गजब मान्यताएं


         
नहर के गणेशजी, जयपुर

हिंदू धार्मिक परंपरा में स्वस्तिक चिंह बहुत महत्व रखता है. गणेश पुराण के अनुसार स्वस्तिक गणेश का ही एक रूप माना जाता है इसलिए किसी भी भी प्रकार की पूजा (दैनिक या विशेष) में शुभ की कामना और प्रार्थना के साथ स्वस्तिक चिंह अंकित किया जाता रहा है. वहीं स्वस्तिक कि सीधा अंकन भी आवश्यक माना जाता है.  उल्टा या आड़ा टेढ़ा स्वस्तिक दुर्भाग्य या विपदा आमंत्रण  का प्रतीक माना जाता रहा है.
 
            आम मान्यता से उलट उल्टा स्वस्तिक

मगर जब जयपुर के  ' नहर के गणेश' में दीवार पर बड़ी संख्या में उल्टे स्वस्तिक अंकित देखे तो बहुत अजीब लगा. जिज्ञासा हुई कि आखिर  इतने लोग गलती कैसे कर सकते हैं. क्या किसी ने टोका नहीं होगा!!
पड़ताल में सामने आई यह जानकारी कि यहाँ लोग जानबूझ कर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं. किसी कार्य के पूर्ण होने की मान्यता लेकर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं और जब वह कार्य पूर्ण हो जाये तब वही व्यक्ति वापस आकर सीधा स्वस्तिक बनाता है. विशेष रूप से अविवाहित युवक/युवती विवाह की मन्नत कर उल्टा स्वस्तिक बनाते हैं और विवाह के पश्चात जोड़े सहित सीधा स्वस्तिक अंकित कर आभार प्रकट करते हैं.

बताया जाता है कि तांत्रिक क्रियाओं से प्राप्त भस्म से बनाई गई यह गणेश प्रतिमा लगभग 177 वर्ष पूर्व दक्षिणाभिमुख स्थापित की गई थी. इस गणेश प्रतिमा की सूंड का दाहिनी तरफ होना भी  इसकी एक विशेषता है.

जब गूगल पर उल्टे स्वस्तिक के बारे में खोज खबर ली तो मध्यप्रदेश के महेश्वर में लगभग 900 वर्ष पूर्व स्थापित गोबर के गणेश जी के यहाँ भी मन्नत माँगते समय उल्टा स्वस्तिक बनाने की प्रथा की जानकारी प्राप्त हुई....

लगभग सभी गणेश मंदिरों अथवा हनुमान मंदिरों में सिंदूर के रंग में  पुती विशेष दीवार होती है ताकि स्थान- स्थान पर सिंदूर लगाकर मंदिर का स्वरूप न बिगाड़ा जाये मगर अनुशासन तो हम भारतीयों के संस्कार में ही नहीं है. मंदिर प्रशासन के सतर्क करते आदेशों/प्रार्थनाओं पर भक्तों की विशेष श्रद्धा हमेशा ही  भारी पड़ती है.