बुधवार, 22 जुलाई 2009

ताऊ तेरी रामप्यारी !!

ताऊ तेरी रामप्यारी !!
उस दिन जब ताऊ अपने ब्लॉग पर रचनाएँ आमंत्रित कर रहा था ...रामप्यारी की बहुत सी सखियों की तो बांछें खुल गयी ...ज्यादा क्या कहूं ..आप सब जानते हो इस युग के सखा और सखियों के बारे में...सारी की सारी लग गयी ...अब आयेगा मजा ...जम कर रामप्यारी की पोल खोलेंगे ....पर ये ताऊ कम ना है ...पूरी फीडबैक रखे है ...झट रचनाएँ आमंत्रित करने का आप्शन रद्द कर दिया ...मगर रामप्यारी की सखिओं को जो खडबडी लग गयी ...कहाँ मानती ...बहुत मान मनौवल करने लगीं ...अपने ब्लॉग पर ही लगा दो हमरी पोस्ट ...वोह ताऊ तो रामप्यारी के बारी में कुछ छपने न देगा ... हमने भी सोचा ...के फरक पड़ेगा ...थोडी रामप्यारी की सखिओं की भड़ास निकल जायेगी ...तो फिर सुनो किस्सा ...

एक बार ताऊ के दरबरिओं ने भड़का दिया ताऊ को ...कुछ पता है तमने ...तुम तो बड़े खुश हो रहे हो ...की रामप्यारी को घर घर की निगरानी पर लगा दिया है ...कुछ पता है ...यूँ आँख मूँद कर भरोसा करना ठीक ना है ...किसीने तो रामप्यारी के पीछे भी लगा निगरानी करने को ...बात ताऊ के जच गयी ...
इब क्या था ...ताऊ ने अपने तोते रामखिलावन को लगा दिया रामप्यारी के पीछे ...
जहाँ जहाँ रामप्यारी जाती ...रामखिलावन भी पीछे लगा रहता ....रामप्यारी परेशान ...यह कुन है जो रात दिन पीछे लगा रहता है ...रामखिलावन अपनी मीठी मीठी बातों के जाल में रामप्यारी ने फांसने की कोसिस करने लागा ...
कान खड़े हो गए रामप्यारी के ...वा भी कोई कम ना है ...ट्रेनिंग जो ताऊ ने दी सै ...
तो ...एक दिन रामखिलावन बड़े लाड से बोला ...
रामखिलावन :- रे रामप्यारी ...तू मन्ने भोत अच्छी लागने लागी है ।
रामप्यारी :- तू भी मन्ने भोत अच्छा लागे है ।
रामखिलावन :- तो फिर बणा ले ना अपना ..
रामप्यारी :- ये तो कोई बात ना हुई ...काळ कोई और अच्छा लागने लगेगा ...।
रामखिलावन :- ना...रामप्यारी ...तू आखिरी होगी ।
रामप्यारी :- ओये रामखिलावन ...भीगी लकड़ी की जलावन ...मैं तेरी थोडी ना बोल री हूँ ...
मैं तो अपनी बात करे थी ...!!
बेचारा राम खिलावन जा पड़ा ताऊ के चरणों में ...ताऊ ये तेरी रामप्यारी !!
और ताऊ अपने मुछों पर ताव देता मुस्कुराता रहा ....देखा मेरी ट्रेनिंग का असर ....बेचारे दरबारी अपना मुंह लटका कर रह गए ।

जैसा की रामप्यारी की सखी रामदुलारी ने बताया ...

रविवार, 19 जुलाई 2009

आभार प्रेम का मनाती कैसे .....

जब चेतना किसी परिस्थिति विशेष के केन्द्र में स्वयं को रखकर देखती है तो दुसरे का दारुण दुःख भी स्वयं का ही हो जाता है ...ह्रदय की अनंत गहराइयों से निकले उदगार जब बोलों की शक्ल ले लेते हैं...कविता बन जाती है ...दरअसल कविता लिखी नही , लिखवाई जाती है ...भावनाओं की कलम से ...ह्रदय के द्वारा....
आभार प्रेम का मनाती कैसे .....

आलेख प्रेम का लिखा गया हो जब बारूद की कलम से
किस्मत के हाथों उसे बंचवाती कैसे !
तुम ही कहो ...आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

कंटीली पथरीली राहों पर तो
लहूलुहान कदमों से भी चल पड़ती साथ
लाशों की नींव ...बेजुबान आहों की कंक्रीट ..
भय से निर्मित डगर पर कदम बढाती कैसे !
तुम ही कहो ...आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

मेहनतकश हाथो के छालो से रिश्ते लहू भरी
गुलाबी हथेलिओं को थाम भी लेती.. मगर
बेगुनाह मासूमों के रक्त से सने हाथों में
मेहंदी भरे यह हाथ थमाती कैसे !!
तुम ही कहो ...आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

जब किसी मासूम को कर दिया अनाथ तुमने...
की कभी तुमसे भी छिना था बचपन किसीने
यह कह देने भर से तो गुनाह तुम्हारा कम ना होगा
खुदा के घर जवाब तुम्हे भी तो देना ही होगा

जो भर लाई थी प्रेमाश्रु ...
ह्रदय की अथाह गहराइयों से खींच कर ...
बेगुनाह आहों से श्रापित ह्रदय पर अर्ध्य चढाती कैसे !
तुम ही कहो ...आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

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