शनिवार, 21 अगस्त 2010

सर्कस की कलाबाजियां .....

अभी कुछ दिनों पहले स्कूल से लौटी बेटी बड़ी मायूसी से बैग पटकती हुई बोली ," आपको पता है स्कूल की ओर से हमें कहाँ लेकर जाया जा रहा है ...सर्कस में ..."

"अच्छा !" ...मेरे आश्चर्य और ख़ुशी को नजरंदाज़ करते हुए उसकी झल्लाहट जारी रही ..." मुझे नहीं जाना कोई सर्कस -वर्कस , इनको और कोई प्लेस नहीं मिला ...और उसपर मजबूरी ये है कि जाना जरुरी है , नहीं जाना हो तब  भी उनकी फीस तो देनी ही होगी ...

बच्चे बहुत छोटे थे तब ही एक बार सर्कस देखा था उन्होंने ...आजकल के आधुनिक बच्चे फिल्मों , गाने , कंप्यूटर , विडियो गेम , मोबाइल, मेकडोनाल्ड्स ----इन के अलावा ना कुछ सुनना चाहते हैं , ना ही देखना ....इनके बीच में अपने बच्चों की रूचि बिरला मंदिर , वाटर पार्क , तारामंडल जैसी जगहों में भी होना मुझे तसल्ली देता है ...एक और नए स्थान "जी टी" के नाम से मशहूर गौरव टावर की बच्चों के मुंह से बड़ी तारीफ़ सुनकर पहुँच गए ...टीन एजर्स की भीड़ से दो- चार होते अन्दर पहुंचे तो वहां सिर्फ दुकानों के अलावा कुछ नहीं था ....टीन एजर्स के लिए जयपुर का मोस्ट वांटेड आउटिंग प्लेस ...कहाँ है आर्थिक मंदी का दौर ..... ऐसे प्लेसेज में तो ढूंढें नहीं मिलता ...!

इस बार बच्चों को सर्कस घूमने जाने का मौका मिलता देखकर मुझे ख़ुशी हुई ....इस बहाने वे मनोरंजन के एक पुराने माध्यम से रूबरू होंगे ...मगर बेटी थी कि जाने को तैयार नहीं ...खाना खिला पिला कर उसके भेजे में बात डालने की कोशिश की ...
" बेटा , तुम्हे वहां जा कर अच्छा लगेगा "...
"कह दिया ना मुझे नहीं जाना , हम छोटे थे तब आप लेकर गए थे ना ! देख तो लिया था , अब क्या नया होगा उसमे !"
वह मां ही क्या जो बच्चों की जिद के आगे हथियार डाल दे ...मेरा समझाना बदस्तूर जारी रहा ...

" बहुत पुरानी बात है , अब तो तुम भूल चुके हो , इस बार जाओगे तो बहुत अच्छा लगेगा ...तुम टी वी के डांस रिअलिटी शो कितने मजे से देखते हो , यही सब तो होता है सर्कस में भी ...इसको  तुम दूर से देखते हो , एडिटिंग के बाद और यही सब वहीँ तुम्हारी आँखों के सामने लाइव देखने को मिलेगा! "

इस बार बात कुछ जमती सी नजर आई ....जैसे -तैसे बिटिया रानी सर्कस जाने को राजी हुई और जब देख आई तो महाखुश...घंटों तक बस सर्कस की ही बातें ....

सर्कस कलाकारों की कला से अचंभित बेटी महिला या बाल कलाकारों के वस्त्रों से खासी नाराज़ थी ....और उनके भावनाविहीन चेहरों से आश्चर्यचकित ....!!

इस बहाने मैं भी सर्कस के इतिहास में घूम आई ...

सर्कस चलती-फिरती कलाकारों की कम्पनी होती है जिसमें नट, विदूषक और विभिन्न प्रकार के जानवर तथा अन्य प्रकार के भयानक करतब दिखाने वाले कलाकार होते हैं। सर्कस में कलाकारों द्वारा करतब एक वृत्तिय या अण्डाकार घेरे में एक विशाल तम्बू के नीचे दिखाए जाते हैं जिसके चारो तरफ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था होती है।

एक समय था जब सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था ...लेकिन आज के हाई टेक ज़माने में असीमित साधनों ने इनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है ...टीवी , विडियो गेम  आदि ने तो इनके दर्शकों की कमी की ही है  और सर्कस में जानवरों के उपयोग पर प्रतिबन्ध ने भी आम दर्शकों को इससे दूर कर दिया ...
शेर , हाथी आदि ही तो इनके मुख्य आकर्षण होते थे ...मुझे तो एक सर्कस में " हिप्पो " को देखना भी याद है ....और आजकल के डांस रिअलिटी शोज भी इनके पेट पर लात मारने में कम भूमिका नहीं निभा रहे हैं ...मुझे  ये नृत्य कम और सर्कस ज्यादा लगता है ...बस फर्क ये है कि सर्कस के कलाकार इनकी तरह मशहूर और संभ्रांत परिवारों से नहीं होते हैं ...नृत्य के नाम पर होने वाली इन कलाबाजियों पर क्या कहा जाए !!

जानवरों के प्रयोग से रोक होने के कारण यह अब सिर्फ इसके कलाकारों के जोखिम भरे प्रदर्शनों पर ही टिका हुआ है ...जिसमे इनके लिए कोई  रिप्ले नहीं होता है ...एक बार में ही शूट ओके वरन जिंदगी खल्लास ...ऐसे करतबबाजों की जिंदगी भी कम कष्टदायक नहीं है ...इनके एक ग्रुप में करीब डेढ़ से दो सौ लोंग होते हैं , जिनका प्रतिदिन का खर्चा ही हजारों में होता है ....उस पर दर्शकों का ना पहुंचना इनकी बदहाली को बढाता जा रहा है।
  सरकार की ओर से भी इन लुप्तप्राय उद्योगों को कोई समर्थन नहीं है।   ऐसे में जो लोग  इस कला को बरकरार रखे हैं , प्रशंसा के योग्य है ...सरकारों को इन कलाकारों के झोखिम भरे जीवन तथा उनके अस्तित्व पर आते संकटों के मद्देनजर जरुरी कदम उठाये जाने चाहिए ही ,वही आम दर्शकों को भी इन्हें अपना समय देकर सराहना और सहयोग किया जाना चाहिए ..

सर्कस के कलाकारों की समस्या को सर्वप्रथम धारावाहिक " सर्कस "के माध्यम से जोर- शोर से उठाया गया था ...शाहरुख़ खान के अभिनय से सजा यह धारावाहिक खासा लोकप्रिय था ...


और अब एक कविता " सर्कस " पर ...." इब्बार रब्बी "

वह कलाबाज़ी दिखा रही है
झूले में लटक गई
खड़ी हुई
पैरों के बल गुड़ी-मुड़ी और
हवा में उछल गई
हाथ-पैर गोल-गोल
सब ग़ायब
सिर्फ़ पेट दिखता है
झूले पर खड़ी हुई
तो पेट निकल आया

सुन्दर नहीं है
नंगी हैं टांगें और बाहें
गुड़मुड़ी कच्छे और गुलाबी चोली में
भली नहीं दिखती वह
चेहरा सपाट
जैसे ख़ुरदुरा तख़्ता

तख़्ते के सहारे खड़ी है
आँख बांध कर जोकर
मारता है छुरे
एक भी नहीं लगा उसे
हाथ-पैर कुछ नज़र नहीं आता
पसलियाँ गिन लो
पर पेट उभर आता है
पूरा तख़्ता ही पेट है।

उसकी बच्ची
एक पहिए की साइकिल चलाती है
नहीं दिखते हाथ-पाँव
लौंदा जमा है साइकिल पर
पेट धरा है झूले पर
पेट जड़ा है तख़्ते पर

कविता कोश से साभार

सर्कस की बात हो राजकपूर की फिल्म या ना आये ...जीना यहाँ मरना यहाँ ....यह गीत इन कलाकारों की जिंदगी पर कितनी गहरी नजर डालता है ...


28 टिप्‍पणियां:

  1. सर्कस की बात 'मेरा नाम जोकर' के साथ ही पूरी होती है.

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  2. वाह! पहली बार पढा ......बहुत रोचक ढंग से कई गई ज्ञानवर्धक,जानकारीप्रद बातें...

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  3. सच है, टीवी आदि पर हो रहे सर्कस इन कलाओं को लील रहे हैं।
    आपकी चिंता ज़ायज़ है।

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  4. टीवी ने बहुत सारे मनोरंजन के साधनों का अपहरण कर लिया।
    लेकिन अब लोग पुन: स्वस्थ मनोरंजन चाहते हैं,जिससे दिमागी संतुलन बना रहे।
    सर्कस,नाटक,ड्रामा,इत्यादि मनोरंजन के स्वस्थ साधन हैं।
    टीवी के धारावाहिकों में चल रहे पारिवारिक षड़यंत्र से दर्शक मानसिक त्रास ही पाता है। फ़िर इसका प्रयोग घर-घर में होने लग गया है।
    अगर मानसिक शांति चाहनी है तो पुन: पारम्परिक मनोरंजन के साधनों की ओर लौटना होगा।

    आभार

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  5. सर्कस पुराने टाइप का मनोरंजन है तो बच्‍चे वहाँ नहीं जाना चाहते, मतलब की बच्‍चे केवल आधुनिक ही चाहते हैं। आपकी पोस्‍ट अच्‍छी लगी।

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  6. वीडियो गेम तो सर्कसों को लील जायेंगे।

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  7. धडाधड यू ट्यूब ... :)
    बहरहाल सर्कस पर आपका यह ब्लागांक मन की बात कह गया है ..मैं तो बड़ा फैन था ..हूँ मगर अब यह पारम्परिक मनोरंजन एक त्रासदी के दौर से गुजर रहा है -पहले वाली भव्यता नहीं रह गयी -सुनते हैं पहले कोई एक कमला सर्कस हुआ करता था जो समुद्री जहाज में डूब गया और तब से भारतीय सर्कस की डूबते जाने का ही इतिहास देखता रहा हूँ ...
    बेटी न गयी होती तो मुझे अच्छा नहीं लगता ...मेरे बच्चे तो (बड़े हो गए हैं ) सर्कस के दीवाने रहे हैं ..
    मेरा नाम जोकर सर्कस के कैनवास को ही सांसारिकता का मंच बना देता है ........जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ ?

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  8. बेहद रोचकता के साथ आपने गंभीर मुद्दे को स्पर्श किया है!!
    बहुत ही सुन्दर ! प्रभावी रचना !

    माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें:
    http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html

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  9. Read and refer/reccomend-
    http://www.circopedia.org/index.php/The_Indian_Circus

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  10. पारंपरिक मनोरंजन के साधन पर आपने बहुत सुन्दर शैली में लिखा है ...और कविता भी बहुत सुन्दर चुन कर लायी हैं ....आभार

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  11. आप ने बहुत सही बात कही अपने लेख मै,हमारे यहां भी सर्कस अब कम होती जा रही है, लेकिन सर्कस वालो को, ओर जानवरो को लोग बाग ओर सरकार मदद देती है,हम भी बच्चो के संग एक दो बार सर्कस देखने गये, वेसे तो बच्चे स्कुल के संग ही जाते थे, अब बडे हो गये है

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  12. मां ही है जो बच्चों में जागरूकता भर सकती है ।
    समय की भौतिकवादी मांग ने नयी पीढ़ी को अपने अनुकूल बना दिया है । हां यह आवश्यक है कि आधुनिकता के साथ-साथ अपनी सार्थक परंपरा के साथ सामंजस्य की महती आवश्यकता है ।
    अतीत मे ले जाने के लिये आभार ।

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  13. समय बदल रहा है ... पुरानी चीज़ें और मान्यताएँ ख़त्म हो रही हैं .. वैसे विदेशों में सर्कस भी बदल रही है और नया रूप ले रही है ...

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  14. सच दर्शाता आलेख...समय बदला है. कुछ रोज पहले ही एक सर्कस देखी..मगर वो बात न रही अब.

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  15. बहुत ही गहब बात कह दी आपने रोचकता पूर्वक, शायद काल का पहिया घूमफ़िरकर अपनी जगह लौटता ही है और उसी नियम के अनुरूप यह फ़िर से संभव हो पायेगा. इस सशक्त आलेख के लिये बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  16. समय परिवर्तनशील है ... देखिये आगे आगे होता है क्‍या।
    आपके विचारों से सहमत.

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  17. बहुत शुक्रिया आपका इस आलेख के लिए...
    सर्कस के बहाने ..कई गंभीर बातों की समालोचना भी कर दी आपने...
    धन्यवाद...!

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  18. मनोरंजन के अनेक साधनों के कारण प्राचीन कलाओं का आज कोई महत्‍व नहीं .. आज के बच्‍चों की अपनी दुनिया होती है !!

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  19. इन लुप्त होती कलाओं को अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए।

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  20. सर्कस का रखरखाव काफी मंहगा होता है ,सरकार मदद करे तो ठीक वरना लुप्त ही हो जायेगा ।

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  21. आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ...
    एक कम्प्लीट पोस्ट...अलग से कुछ भी कहने जोड़ने की आवश्यकता नहीं इसमें...

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  22. टीवी, कम्प्यूटर, वीडियो गेम्स ने सचमुच बच्चों को मनोरंजन एक बेहतरीन साधन से दूर कर दिया है। दूसरी तरफ सर्कस के खर्चे, जानवरों पर बैन, दर्शकों का अभाव और सरकारों द्वारा प्रोत्साहन ना देना भी इनके सिकुडने का कारण है।
    हम तो खुद दीवाने हैं जी, सर्कस के और आसपास सर्कस आते ही बच्चों को जरुर लेकर जाते हैं।
    अपोलो सर्कस वाले एक हिप्पो रखते थे। बचपन में देखा था।

    प्रणाम स्वीकार करें

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  23. विलुप्त होती हुई कला पर एक बहुत ही सार्थक आलेख....चिंता जायज है...बड़े होने पर बच्चे भले ही , ना देखना चाहें..पर छोटे बच्चे सर्कस देख बहुत खुश होते हैं...

    वैसे एक जमाना ऐसा भी था जब इसी ब्लॉग जगत में विचरने वाले किसी ने अपनी गर्लफ्रेंड के साथ दो शो सर्कस के लगातार देखे थे....तब माल्स नहीं थे ना..बेचारों को कोई और जगह नहीं मिली होगी...मिल-बैठने को :)

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  24. सच्चाई यही है की एनिमेशन और ट्रिक्स से परदे पर इतने आभासी इफेक्ट्स दिखा दिए जाते है की वास्तविकता में अपनी जान पर खेल कर कलाबाजियां दिखने वालों की आजीविका मुश्किल में पद गई है ......बहुत सही सोचा आपने , बहुत अच्छी पोस्ट !

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  25. विलुप्त होती हुई कला पर सार्थक आलेख |टेलीविजन के बनावटी पन बहुत कुछ छीन लिया है |
    यही माध्यम सार्थक हो सकता है अगर वो सर्कस .कठपुतलियो का नाचना ,माल्कम जैसी भारतीय कलाओ के लिए दर्शको को स्टेडियम ,अखाड़े आदि जगह जाने के लिए प्रेरित कर सके ,जिस तरह
    फिल्म का प्रमोशन सिनेमा हाल तक पहुंचा रहा है |

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  26. सर्कस का नाम पढते ही मुस्कान फाइल गई मेरे चेहरे पर.मेरे ढाई साल के पोतों को दिखाया.वे तालियाँ बजा रहे थे.जंगली जानवरों को आमने सामने देखने का एक जरिया थे ये सर्कस.कम से कम ये जानवर सुरक्षित तो थे यहाँ.खेर अच्छा लगा पढ़ कर.बहुत कुछ छीन लिया है नए दौर ने हमारे बच्चों से.

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