सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
जिंदगी का सफ़र .....
जब कभी कभी रेल में सफर करने का मौका मिला ...एक ख़याल हमेशा रूबरू रहा ... जिंदगी का सफर भी तो बिल्कुल रेल के सफर के मानिंद ही है ...मंजिल की और बढ़ते हुए अनजान राही हमसफ़र हो जाते हैं ...तो कभी साथ चलने वाले खो जाते हैं ...कोई कुछ लम्हों का साथी , कोई कुछ दूर तक का तो कोई देर तक का सहयात्री ....
देखा है रेल में कई बार , अच्छी- खासी आरामदायक सीट उपलब्ध होने पर भी खिड़की की तरफ़ नही बैठ पाने का मलाल पालते लोग ...नही जानते की हमेशा ही पेड , झील , नदियाँ , पहाड़ आदि ही नजर नहीं आते , कई बार दूर- दूर तक फैला रेगिस्तान भी दिख जाता है , जिसका कोई ओर- छोर नहीं , धूल- धक्कड़, सूखे तिनके उड़ कर आँखों की किरकिरी बन जाते हैं , आंसू तक ला देते हैं .....
वहीं खिड़की के पास बैठे लोगों को देखा है तरसते हुए ..कि थोडी पसरने की जगह मिल जाए तो जरा पैर पसार लें...जरा सुस्ता लें ....नींद पूरी ले लें ...कोई अपनी मौजूदा स्थिति से संतुष्ट नही ...क्या ऐसा ही नही है जिंदगी का सफर ...कुछ और उम्दा कुछ और बढ़िया की तलाश में भागते लोग...
वहीं सफर में कुछ ऐसे मुसाफिर भी ...खचाखच भरी रेल में पैर रखने तक को ...और उनके पास सीट नहीं...बेचारे धक्का- मुक्की करते हुए इसी ताक में रहते हैं ...कि कब कोई सीट खाली हो ...और वो जरा सा टिक भर लें ...बहुत मुश्किल से जब वो जगह खाली मिलती है...तभी मंजिल आ चुकी होती है ...हसरत भरी निगाहों से खाली स्थान को देखते लोग उतर जाते हैं अपनी मंजिल पर ...क्या ऐसा नहीं है जिंदगी का सफर....सारी उम्र जद्दोजहद में बिता कर खीजते -खिझाते ...जब सामने होती है आपके ख़्वाबों की ताबीर ...तब तक जिंदगी अपना सफ़र पूरा कर चुकी होती है ....
वहीं सफर में कुछ ऐसे होते है मुसाफिर भी ....बिना कोई स्थान प्राप्त किए भी ...कभी खड़े ...कभी किसी सीट के कोने पर कुछ देर अटकते ...पर चेहरे पर कोई शिकन नहीं ...दूसरे मुसाफिरों की मदद करते हुए ...खाली हाथ...अपनी मस्ती में झूमते....गाते- गुनगुनाते ...-हंसाते सफर करते हैं...क्या ऐसा ही नही है जिंदगी का सफर भी ...अपनी जिंदगी से भरपूर संतुष्ट ...क्या लेकर आए ...क्या लेकर जायेंगे...ऐसी भावना से परिपूर्ण ...मुस्कुराकर जिंदगी के आखिरी मुकाम पर उतरने को तैयार ....
आज हम भी सोचें !! जिंदगी के सफर का कौन सा तरीका अख्तियार करेंगे ??
... कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं...
जवाब देंहटाएंमुझे तो कोलकता की लोकल की भीड़ में ब्रिज खेलते हुए यत्रा करने वाले .. बहुत पसंद है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंयोगदान!, सत्येन्द्र झा की लघुकथा, “मनोज” पर, पढिए!
बड़ी सटीक तुलना की है...ज़िन्दगी का सफ़र भी बिलकुल ऐसा ही है.
जवाब देंहटाएंएक शेर याद आ गया..
सफ़र रेल का हो या जिंदगानी का, यही देखा
मिला जो कोई हसीन मंज़र पलक झपकते ही गुजर गया
आज का दिन क्या लायेगा, मुझे तो खिड़की की सीट भाती है।
जवाब देंहटाएंसटीक तुलना ...
जवाब देंहटाएंवाणीजी
जवाब देंहटाएंहम तो यही तरीका अख्तियार करेगे
क्या लेकर तू आया जगत में ,
क्या लेकर तू जायेगा
हाथ पसारे आया जगत में
हाथ पसारे जायेगा
हरी का नाम तू सुमिरन करले क्यों तू भुलाता है
मतलब कि है दुनिया सारी
मतलब ही का नाता है |
वहीं सफर में कुछ ऐसे होते है मुसाफिर भी ....बिना कोई स्थान प्राप्त किए भी ...कभी खड़े ...कभी किसी सीट के कोने पर कुछ देर अटकते ...पर चेहरे पर कोई शिकन नहीं ...दूसरे मुसाफिरों की मदद करते हुए ...खाली हाथ...अपनी मस्ती में झूमते....गाते- गुनगुनाते ...-हंसाते सफर करते हैं...क्या ऐसा ही नही है जिंदगी का सफर भी ...अपनी जिंदगी से भरपूर संतुष्ट ...क्या लेकर आए ...क्या लेकर जायेंगे...ऐसी भावना से परिपूर्ण ...मुस्कुराकर जिंदगी के आखिरी मुकाम पर उतरने को तैयार ....
पर ऐसे लोगो कि संख्या ही कितनी है ?
ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र कोई समझा नही कोई जाना नही
जवाब देंहटाएंबस यही है ज़िन्दगी ……………अब ये तो हम पर निर्भर करता है कि कौन सा रास्ता ज्यादा बेहतर है।
रेल के सफर में जिंदगी दिखा दी ..बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल यही होता है जी...!
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी का सफ़र, रेल गाड़ी का ही सफ़र है...मुसाफिर मिलते हैं, रिश्ते बनते हैं, स्टेशन आता है लोग उतरते हैं...नए मुसाफिर चढ़ते हैं नए रिश्ते बनते...
बहुत अच्छी तुलना देखने को मिली..
आभार...
जिन्दगी का सफ़र लगने को तो बहुत कठिन लगता है लेकिन जब हम मस्त रहे तो यही सफ़र अच्छा भी लगता है, ओर अगर जीवन साथी उचित यानि अच्छा मिले तो यह सफ़र बहुत अच्छा बन जाता है, आप ने बहुत विस्तार से समझाया, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह ! ट्रेन के सफ़र से ज़िंदगी के सफ़र की तुलना कितने दार्शनिक अंदाज़ में की है आपने.
जवाब देंहटाएंक्या लेकर आए ...क्या लेकर जायेंगे...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सवाल ।
ज़वाब देने वाले बहुत कम मिलेंगे ।
Bahut badhiya tulna ke hai aapne jeevan kee aur train ke safar kee...ye duniya ek tufaan mel!Kuchh der ke sab sangi saathi...apna,apna maqaam aate hee sab ban jate hain ajnabi...!
जवाब देंहटाएंकोई अपनी मौजूदा स्थिति से संतुष्ट नही ...क्या ऐसा ही नही है जिंदगी का सफर .\\
जवाब देंहटाएं--बिल्कुल ऐसा ही तो है यह जिन्दगी का सफर...और उस पर से रिजर्वेशन की सुविधा भी नहीं..जैसे हालात बनें...वैसे जिओ!!
उम्दा चिन्तन.
सफर का कोई सा भी तरीका हो सफर कट ही जायेगा.
जवाब देंहटाएंये अलग बात है कि हम सफर को यादगार बनाना चाहते हैं या दु:स्वप्न सरीखा
जिन्दगी के सारे ही मुकाम पर बस हँसते हुए आगे बढ़ों तो रास्ता आसानी से कट जाता है। नहीं तो सफर बहुत लम्बा हो जाता है। बस हम कितना बेहतर परिवर्तन ला सकते हैं इसका भी बराबर ध्यान रहे, ऐसा नहीं कि हर हाल में केवल संतोष को ही थामकर बैठ गए। जनरल डिब्बे से शुरुआत करके सफर को एसी तक ले जाने की मानसिकता भी होनी चाहिए। और यह भी नहीं होना चाहिए कि जेब में एसी की टिकट के पैसे हैं लेकिन जाएंगे जनरल डिब्बे में और फिर कहेंगे कि देखो हम तो खुश हैं।
जवाब देंहटाएंSafar to apne ko sukh dene wala hi prapt karna, aajkal ke hisab se khushi deta hai.........lekin agar kabhi kisi ko apni seat de do, ya kabhi kisi ko bina kisi karan ke help karo, to andar se ek alag si kuchh kshhano ke liye jo khushi ddene wali tarang nikalti hai...........wo tamam sukh se alag hoti hai..........:)
जवाब देंहटाएंlekin fir bhi sach kahun, aaj ke jindagi ke anusaar aisa main kar nahi pata sayad..........sochta hoon, par ho nahi pata!! dil kahta hai mukesh dusre ke liye jee, par dimag kahta hai.........arre yaar, agle baar!!
sayad yahi jndagi hai!!
achchha laga, prernadayak post!!
मूड ... मौका और खुद के हालात ही अक्सर तय करते हैं जीवन की दिशा ....
जवाब देंहटाएंजिंदगी का सफर वाकई ऐसा ही है। बहुत अच्छी व सटीक तुलना की है
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसीलिए मै रेल को लोहे का घर कहता हूँ
जवाब देंहटाएंप्रशंशनीय तुलना...
जवाब देंहटाएंनीरज