खेतों में
सरसों का रंग और चटक हुआ
लहराया मेरा
आँचल चुनरी का कसूमल
गालों के भंवर मुस्कुराते रहे
गुलाबीरंगत चेहरे की हुई और सुर्ख
रतनारीकदम नापते रहे दूरियां
आसमानीरंग
सुनहरा बिखेरती रही चांदनी
सिलबट्टे पर चढ़ी रही मेहंदी
हरियाईचक्की में पिसता रहा मक्का
पीतवर्णीसाबुनी- झाग भरे हाथ
झिलमिलाते रहे
इन्द्रधनुषी सिंक में बर्तनों की खडखडाहट
बन गयी गीत
फागुनीखड़े रहे ....
हाथ बान्धे ....
सर झुकाए ....
कतारबद्धरंग सारे आबनूसी ...दुआओं में उसकी
असर तो है ....!!**********************************************************************************
नोट ....कविता में लय , तुकांत , बहर, कुछ मत ढूंढें ...नहीं मिलेगा .....
गौतम राजरिशी जी के ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए आये कुछ खयाल ...बस ऐसे ही लिख दिए ....