अभी कुछ दिनों पहले स्कूल से लौटी बेटी बड़ी मायूसी से बैग पटकती हुई बोली ," आपको पता है स्कूल की ओर से हमें कहाँ लेकर जाया जा रहा है ...सर्कस में ..."
"अच्छा !" ...मेरे आश्चर्य और ख़ुशी को नजरंदाज़ करते हुए उसकी झल्लाहट जारी रही ..." मुझे नहीं जाना कोई सर्कस -वर्कस , इनको और कोई प्लेस नहीं मिला ...और उसपर मजबूरी ये है कि जाना जरुरी है , नहीं जाना हो तब भी उनकी फीस तो देनी ही होगी ...
बच्चे बहुत छोटे थे तब ही एक बार सर्कस देखा था उन्होंने ...आजकल के आधुनिक बच्चे फिल्मों , गाने , कंप्यूटर , विडियो गेम , मोबाइल, मेकडोनाल्ड्स ----इन के अलावा ना कुछ सुनना चाहते हैं , ना ही देखना ....इनके बीच में अपने बच्चों की रूचि बिरला मंदिर , वाटर पार्क , तारामंडल जैसी जगहों में भी होना मुझे तसल्ली देता है ...एक और नए स्थान "जी टी" के नाम से मशहूर गौरव टावर की बच्चों के मुंह से बड़ी तारीफ़ सुनकर पहुँच गए ...टीन एजर्स की भीड़ से दो- चार होते अन्दर पहुंचे तो वहां सिर्फ दुकानों के अलावा कुछ नहीं था ....टीन एजर्स के लिए जयपुर का मोस्ट वांटेड आउटिंग प्लेस ...कहाँ है आर्थिक मंदी का दौर ..... ऐसे प्लेसेज में तो ढूंढें नहीं मिलता ...!
इस बार बच्चों को सर्कस घूमने जाने का मौका मिलता देखकर मुझे ख़ुशी हुई ....इस बहाने वे मनोरंजन के एक पुराने माध्यम से रूबरू होंगे ...मगर बेटी थी कि जाने को तैयार नहीं ...खाना खिला पिला कर उसके भेजे में बात डालने की कोशिश की ...
" बेटा , तुम्हे वहां जा कर अच्छा लगेगा "...
"कह दिया ना मुझे नहीं जाना , हम छोटे थे तब आप लेकर गए थे ना ! देख तो लिया था , अब क्या नया होगा उसमे !"
वह मां ही क्या जो बच्चों की जिद के आगे हथियार डाल दे ...मेरा समझाना बदस्तूर जारी रहा ...
" बहुत पुरानी बात है , अब तो तुम भूल चुके हो , इस बार जाओगे तो बहुत अच्छा लगेगा ...तुम टी वी के डांस रिअलिटी शो कितने मजे से देखते हो , यही सब तो होता है सर्कस में भी ...इसको तुम दूर से देखते हो , एडिटिंग के बाद और यही सब वहीँ तुम्हारी आँखों के सामने लाइव देखने को मिलेगा! "
इस बार बात कुछ जमती सी नजर आई ....जैसे -तैसे बिटिया रानी सर्कस जाने को राजी हुई और जब देख आई तो महाखुश...घंटों तक बस सर्कस की ही बातें ....
सर्कस कलाकारों की कला से अचंभित बेटी महिला या बाल कलाकारों के वस्त्रों से खासी नाराज़ थी ....और उनके भावनाविहीन चेहरों से आश्चर्यचकित ....!!
इस बहाने मैं भी सर्कस के इतिहास में घूम आई ...
सर्कस चलती-फिरती कलाकारों की कम्पनी होती है जिसमें नट, विदूषक और विभिन्न प्रकार के जानवर तथा अन्य प्रकार के भयानक करतब दिखाने वाले कलाकार होते हैं। सर्कस में कलाकारों द्वारा करतब एक वृत्तिय या अण्डाकार घेरे में एक विशाल तम्बू के नीचे दिखाए जाते हैं जिसके चारो तरफ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था होती है।
एक समय था जब सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था ...लेकिन आज के हाई टेक ज़माने में असीमित साधनों ने इनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है ...टीवी , विडियो गेम आदि ने तो इनके दर्शकों की कमी की ही है और सर्कस में जानवरों के उपयोग पर प्रतिबन्ध ने भी आम दर्शकों को इससे दूर कर दिया ...
शेर , हाथी आदि ही तो इनके मुख्य आकर्षण होते थे ...मुझे तो एक सर्कस में " हिप्पो " को देखना भी याद है ....और आजकल के डांस रिअलिटी शोज भी इनके पेट पर लात मारने में कम भूमिका नहीं निभा रहे हैं ...मुझे ये नृत्य कम और सर्कस ज्यादा लगता है ...बस फर्क ये है कि सर्कस के कलाकार इनकी तरह मशहूर और संभ्रांत परिवारों से नहीं होते हैं ...नृत्य के नाम पर होने वाली इन कलाबाजियों पर क्या कहा जाए !!
जानवरों के प्रयोग से रोक होने के कारण यह अब सिर्फ इसके कलाकारों के जोखिम भरे प्रदर्शनों पर ही टिका हुआ है ...जिसमे इनके लिए कोई रिप्ले नहीं होता है ...एक बार में ही शूट ओके वरन जिंदगी खल्लास ...ऐसे करतबबाजों की जिंदगी भी कम कष्टदायक नहीं है ...इनके एक ग्रुप में करीब डेढ़ से दो सौ लोंग होते हैं , जिनका प्रतिदिन का खर्चा ही हजारों में होता है ....उस पर दर्शकों का ना पहुंचना इनकी बदहाली को बढाता जा रहा है।
सरकार की ओर से भी इन लुप्तप्राय उद्योगों को कोई समर्थन नहीं है। ऐसे में जो लोग इस कला को बरकरार रखे हैं , प्रशंसा के योग्य है ...सरकारों को इन कलाकारों के झोखिम भरे जीवन तथा उनके अस्तित्व पर आते संकटों के मद्देनजर जरुरी कदम उठाये जाने चाहिए ही ,वही आम दर्शकों को भी इन्हें अपना समय देकर सराहना और सहयोग किया जाना चाहिए ..
सर्कस के कलाकारों की समस्या को सर्वप्रथम धारावाहिक " सर्कस "के माध्यम से जोर- शोर से उठाया गया था ...शाहरुख़ खान के अभिनय से सजा यह धारावाहिक खासा लोकप्रिय था ...
और अब एक कविता " सर्कस " पर ...." इब्बार रब्बी "
वह कलाबाज़ी दिखा रही है
झूले में लटक गई
खड़ी हुई
पैरों के बल गुड़ी-मुड़ी और
हवा में उछल गई
हाथ-पैर गोल-गोल
सब ग़ायब
सिर्फ़ पेट दिखता है
झूले पर खड़ी हुई
तो पेट निकल आया
सुन्दर नहीं है
नंगी हैं टांगें और बाहें
गुड़मुड़ी कच्छे और गुलाबी चोली में
भली नहीं दिखती वह
चेहरा सपाट
जैसे ख़ुरदुरा तख़्ता
तख़्ते के सहारे खड़ी है
आँख बांध कर जोकर
मारता है छुरे
एक भी नहीं लगा उसे
हाथ-पैर कुछ नज़र नहीं आता
पसलियाँ गिन लो
पर पेट उभर आता है
पूरा तख़्ता ही पेट है।
उसकी बच्ची
एक पहिए की साइकिल चलाती है
नहीं दिखते हाथ-पाँव
लौंदा जमा है साइकिल पर
पेट धरा है झूले पर
पेट जड़ा है तख़्ते पर
कविता कोश से साभार
सर्कस की बात हो राजकपूर की फिल्म या ना आये ...जीना यहाँ मरना यहाँ ....यह गीत इन कलाकारों की जिंदगी पर कितनी गहरी नजर डालता है ...
"अच्छा !" ...मेरे आश्चर्य और ख़ुशी को नजरंदाज़ करते हुए उसकी झल्लाहट जारी रही ..." मुझे नहीं जाना कोई सर्कस -वर्कस , इनको और कोई प्लेस नहीं मिला ...और उसपर मजबूरी ये है कि जाना जरुरी है , नहीं जाना हो तब भी उनकी फीस तो देनी ही होगी ...
बच्चे बहुत छोटे थे तब ही एक बार सर्कस देखा था उन्होंने ...आजकल के आधुनिक बच्चे फिल्मों , गाने , कंप्यूटर , विडियो गेम , मोबाइल, मेकडोनाल्ड्स ----इन के अलावा ना कुछ सुनना चाहते हैं , ना ही देखना ....इनके बीच में अपने बच्चों की रूचि बिरला मंदिर , वाटर पार्क , तारामंडल जैसी जगहों में भी होना मुझे तसल्ली देता है ...एक और नए स्थान "जी टी" के नाम से मशहूर गौरव टावर की बच्चों के मुंह से बड़ी तारीफ़ सुनकर पहुँच गए ...टीन एजर्स की भीड़ से दो- चार होते अन्दर पहुंचे तो वहां सिर्फ दुकानों के अलावा कुछ नहीं था ....टीन एजर्स के लिए जयपुर का मोस्ट वांटेड आउटिंग प्लेस ...कहाँ है आर्थिक मंदी का दौर ..... ऐसे प्लेसेज में तो ढूंढें नहीं मिलता ...!
इस बार बच्चों को सर्कस घूमने जाने का मौका मिलता देखकर मुझे ख़ुशी हुई ....इस बहाने वे मनोरंजन के एक पुराने माध्यम से रूबरू होंगे ...मगर बेटी थी कि जाने को तैयार नहीं ...खाना खिला पिला कर उसके भेजे में बात डालने की कोशिश की ...
" बेटा , तुम्हे वहां जा कर अच्छा लगेगा "...
"कह दिया ना मुझे नहीं जाना , हम छोटे थे तब आप लेकर गए थे ना ! देख तो लिया था , अब क्या नया होगा उसमे !"
वह मां ही क्या जो बच्चों की जिद के आगे हथियार डाल दे ...मेरा समझाना बदस्तूर जारी रहा ...
" बहुत पुरानी बात है , अब तो तुम भूल चुके हो , इस बार जाओगे तो बहुत अच्छा लगेगा ...तुम टी वी के डांस रिअलिटी शो कितने मजे से देखते हो , यही सब तो होता है सर्कस में भी ...इसको तुम दूर से देखते हो , एडिटिंग के बाद और यही सब वहीँ तुम्हारी आँखों के सामने लाइव देखने को मिलेगा! "
इस बार बात कुछ जमती सी नजर आई ....जैसे -तैसे बिटिया रानी सर्कस जाने को राजी हुई और जब देख आई तो महाखुश...घंटों तक बस सर्कस की ही बातें ....
सर्कस कलाकारों की कला से अचंभित बेटी महिला या बाल कलाकारों के वस्त्रों से खासी नाराज़ थी ....और उनके भावनाविहीन चेहरों से आश्चर्यचकित ....!!
इस बहाने मैं भी सर्कस के इतिहास में घूम आई ...
सर्कस चलती-फिरती कलाकारों की कम्पनी होती है जिसमें नट, विदूषक और विभिन्न प्रकार के जानवर तथा अन्य प्रकार के भयानक करतब दिखाने वाले कलाकार होते हैं। सर्कस में कलाकारों द्वारा करतब एक वृत्तिय या अण्डाकार घेरे में एक विशाल तम्बू के नीचे दिखाए जाते हैं जिसके चारो तरफ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था होती है।
एक समय था जब सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था ...लेकिन आज के हाई टेक ज़माने में असीमित साधनों ने इनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है ...टीवी , विडियो गेम आदि ने तो इनके दर्शकों की कमी की ही है और सर्कस में जानवरों के उपयोग पर प्रतिबन्ध ने भी आम दर्शकों को इससे दूर कर दिया ...
शेर , हाथी आदि ही तो इनके मुख्य आकर्षण होते थे ...मुझे तो एक सर्कस में " हिप्पो " को देखना भी याद है ....और आजकल के डांस रिअलिटी शोज भी इनके पेट पर लात मारने में कम भूमिका नहीं निभा रहे हैं ...मुझे ये नृत्य कम और सर्कस ज्यादा लगता है ...बस फर्क ये है कि सर्कस के कलाकार इनकी तरह मशहूर और संभ्रांत परिवारों से नहीं होते हैं ...नृत्य के नाम पर होने वाली इन कलाबाजियों पर क्या कहा जाए !!
जानवरों के प्रयोग से रोक होने के कारण यह अब सिर्फ इसके कलाकारों के जोखिम भरे प्रदर्शनों पर ही टिका हुआ है ...जिसमे इनके लिए कोई रिप्ले नहीं होता है ...एक बार में ही शूट ओके वरन जिंदगी खल्लास ...ऐसे करतबबाजों की जिंदगी भी कम कष्टदायक नहीं है ...इनके एक ग्रुप में करीब डेढ़ से दो सौ लोंग होते हैं , जिनका प्रतिदिन का खर्चा ही हजारों में होता है ....उस पर दर्शकों का ना पहुंचना इनकी बदहाली को बढाता जा रहा है।
सरकार की ओर से भी इन लुप्तप्राय उद्योगों को कोई समर्थन नहीं है। ऐसे में जो लोग इस कला को बरकरार रखे हैं , प्रशंसा के योग्य है ...सरकारों को इन कलाकारों के झोखिम भरे जीवन तथा उनके अस्तित्व पर आते संकटों के मद्देनजर जरुरी कदम उठाये जाने चाहिए ही ,वही आम दर्शकों को भी इन्हें अपना समय देकर सराहना और सहयोग किया जाना चाहिए ..
सर्कस के कलाकारों की समस्या को सर्वप्रथम धारावाहिक " सर्कस "के माध्यम से जोर- शोर से उठाया गया था ...शाहरुख़ खान के अभिनय से सजा यह धारावाहिक खासा लोकप्रिय था ...
और अब एक कविता " सर्कस " पर ...." इब्बार रब्बी "
वह कलाबाज़ी दिखा रही है
झूले में लटक गई
खड़ी हुई
पैरों के बल गुड़ी-मुड़ी और
हवा में उछल गई
हाथ-पैर गोल-गोल
सब ग़ायब
सिर्फ़ पेट दिखता है
झूले पर खड़ी हुई
तो पेट निकल आया
सुन्दर नहीं है
नंगी हैं टांगें और बाहें
गुड़मुड़ी कच्छे और गुलाबी चोली में
भली नहीं दिखती वह
चेहरा सपाट
जैसे ख़ुरदुरा तख़्ता
तख़्ते के सहारे खड़ी है
आँख बांध कर जोकर
मारता है छुरे
एक भी नहीं लगा उसे
हाथ-पैर कुछ नज़र नहीं आता
पसलियाँ गिन लो
पर पेट उभर आता है
पूरा तख़्ता ही पेट है।
उसकी बच्ची
एक पहिए की साइकिल चलाती है
नहीं दिखते हाथ-पाँव
लौंदा जमा है साइकिल पर
पेट धरा है झूले पर
पेट जड़ा है तख़्ते पर
कविता कोश से साभार
सर्कस की बात हो राजकपूर की फिल्म या ना आये ...जीना यहाँ मरना यहाँ ....यह गीत इन कलाकारों की जिंदगी पर कितनी गहरी नजर डालता है ...