बुधवार, 19 जुलाई 2023

पाँव के पंख- एक दृष्टि



पंख होते तो उड़ आती रे... कितनी सुंदर कल्पना है न. पाँव में ही पंख लग जाते तो उड़े चले जाते जागती आँखों से सपनों सी लगती वास्तविक दुनिया में भी. बिना पासपोर्ट बिना वीजा उड़ घूम आते एक देश से दूसरे देश. पर "पाँव के पंख" सचमुच ही लगे हैं इस पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय के जो जमीन पर रहते हुए पासपोर्ट और वीजा के सहारे विभिन्न देशों की यात्रा करती हैं और संजोती हैं सुंदर स्मृतियाँ न सिर्फ अपनी आँखों में बल्कि अपनी कलम के जरिये अपने पाठकों के लिए भी.

किसी भी किताब का लिखना जितना कठिन है, उतना ही कुछ उसके लिए उपयुक्त शीर्षक खोजना भी है और इस संदर्भ में पुस्तक को न्याय मिला है. 
शिखा की "पाँव के पंख "जैसा की शीर्षक से ही पता चलता है कि पुस्तक घुमक्कड़ी और उससे जुड़े संस्मरणों पर आधारित है.
ब्लॉग पढ़ने /लिखने के समय  पुस्तक के कुछ हिस्से पढ़े हुए थे . उन्हें फिर से पढ़ना उस समय को लेखिका के साथ जुड़ना और जीना जैसा ही रहा. विभिन्न संस्कृतियों को जानने समझने के अपने शौक ने भी इस पुस्तक के प्रति अपनी रूचि को समृद्ध किया . 
पूरी पुस्तक को एक ट्रै्वलॉग/गाइड या दर्पण माना जा सकता है जो देश/काल/समय की परीधियाँ लाँघ कर उस समय के साथ आपको जोड़ता है . लेखन इतना दिलचस्प जैसे कि आपके सामने ग्लोब को खोलकर फैला दिया गया हो और आप हैरी पॉटर की कहानियों के पात्र के सदृश जादुई कालीन के सहारे उस स्थान पर पहुंच जाते हैं.
पुस्तक की शुरुआत 2009  से होती है जब शिखा वेनिस जाती है. हम हिंदी फिल्मों के शौकीनों के लिए यह संभव ही नहीं कि वेनिस का नाम आये और अमिताभ-परवीन बाबी-और दो लफ्जों की है दिल की कहानी याद न आये. पढ़ा तो जाना कि कुछ ऐसी ही यादें संजोने का मन लेखिका का भी रहा इस यात्रा के दौरान.
आगे रोम और फ्रांस के वैभवशाली स्मारकों के साथ ही वहाँ के निवासियों के रहन सहन खानपान,अँग्रेजी भाषा के प्रति उनकी अरूचि को अपने संस्मरण के जरिये समझाती हैं. 
चूँकि लेखिका लंदन में बस जाने वाली भारतीय हैं तो इंगलैंड के प्रसिद्ध शहरों और उनमें निर्मित संग्रहालयों विशेषकर साहित्यकारों की संजो कर रखी जाने वाली स्मृतियों को भी अपने संस्मरणों में संजोती हैं. इतना ही नहीं ब्रिटेन के गाँवों की भी सैर कराती हैं. 
संस्मरणों में मेरा सबसे प्रिय भाग रहा स्पेन की यात्रा.  शिखा ने बताया कि स्पेन में लड़कियों के पंदरह वर्ष की आयु होने पर युवावस्था की ओर बढ़ने को बाकायदा उत्सव की तरह मनाया जाता है.  पढ़ते हुए ही मुझे अपने दक्षिण भारत में लड़कियों के पहले मासिक के बाद मनाये जाने वाले उल्लासपूर्ण  उत्सव का स्मरण हुआ. सात समंदर पार भी एक जैसी परंपराओं का होना चकित करता है और दुनिया के गोल होने की पुष्टि भी.  स्पेन में ही हम सबकी ही प्रिय एक और ब्लॉगर साथी पूजा से मिलना भी उल्लिखित रहा. 
अपनी हालिया सेंटोरिनी द्वीप की यात्रा का उसके इतिहास और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हुए उनके खानपान, रहन-सहन का वर्णन भी काफी रोचक है. यात्रा में आने वाली परेशानियाँ और उनका समाधान ही पुस्तक की उपयोगिता साबित करता है.
कुल मिलाकर यह कहूँगी की घर बैठे विभिन्न देशों की संस्कृतियों को जानना/ समझना हो या फिर उन स्थानों की यात्रा पर जा रहे हों तो यह पुस्तक एक अच्छे गाइड का  कार्य करेगी क्योंकि इसमें   परिवहन के स्थानीय साधनों ( लोकल ट्रांसपोर्टिंग) से संबंधित भी काफी जानकारी उपलब्ध है.

यात्रा के शौकीनों  या उनसे जुड़े संस्मरणों के लिए यह रोचक  पुस्तक बहुत ही वाजिब मूल्य पर अमेजन पर भी उपलब्ध है. 

मास्को (रूस)से पत्रकारिता की शिक्षा ग्रहण करने वाली शिखा वार्ष्णेय की  "पाँव के पंख" से पहले भी दो यात्रा संस्मरण "स्मृतियों में रूस" और देशी चश्मे से लंदन डायरी" के अलावा काव्य संग्रह "मन के प्रतिबिंब" भी प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा कई पत्र-पत्रिकाओं में साप्ताहिक स्तंभ लिखती रही हैं. 
मध्यप्रदेश सरकार के राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान को प्राप्त करने वाली शिखा विष्णु प्रभाकर सम्मान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी मीडिया सम्मान, जानकी वल्लभ शास्त्रीय सम्मान से भी सम्मानित हैं.

सोमवार, 26 जुलाई 2021

जीवन-माया

 जब माँ थीं तब छोटी छोटी पुरानी चीजें सहेज लेने की उनकी आदत पर सब बहुत खीझा करते थे. अनुपयोगी वस्तुओं का अंबार हो जैसे... दादी तो खैर उनसे भी अधिक सहेज लेने वाली थीं.

पापा का खरीदा पहला बड़ा रेडियो, शटर वाली पुरानी टीवी, पुराने ड्रम ,बारिश के पानी में भीग कर फूली हुई चौकी, जंग खाये लोहे के बक्से , घिसा पिटा कूलर जाने क्या क्या.. 

माँ की ढ़ेरों साड़ियाँ एक छोटा सा ढ़ेर जैसा इधर उधर बिखरी रहती थीं. रसोई में बरतन, कड़ाही आदि भी ज्यादातर पुराने घिसे, जले कटे ही रहते थे. 

अचानक मेहमान के आने पर पुरानी मोच खाई गिलासें, अलग अलग साइज की कटोरियाँ , चिकनाई लगी ट्रे,  छोटे चाय के कप ही काम में आते क्योंकि ऐन वक्त पर उनकी उस आलमारी या कमरे की चाबियाँ गुम रहती थीं. सूटकेस, पेटियों और दरवाजे के ताले तोड़े जाने के उदाहरण सैकड़ों में रहे होंगे, ऐसा लगता है मुझे.  

मगर जब उनके आखिरी समय के बाद उनकी अस्थियों के साथ उनके कमरे की चाबी आई तो उनके कमरे का दरवाजा खोलती मैं दंग थी-  कमरे में एक भी चीज बेतरतीब नहीं थी. सफर पर रवाना होने के समय बदलने वाली एक साड़ी के अतिरिक्त कुछ भी बिखरा हुआ नहीं था... सभी साड़ियाँ/वस्त्र आदि बहुत करीने से जमाये हुए आलमारी में थे.

माँ पर उनके बिखरे से साम्राज्य के लिए उन पर झुँझलाती रहने वाली मैं कितनी स्तब्ध हुई!  

कितना अजीब खाली-खाली लगा मुझे , बता नहीं सकती शब्दों में... 

मन करता रहा कि कहूँ माँ से कि यह बेतरतीबी ही तुम्हारा जीवन थी. समेट लेने को हम बेकार ही कहते रहे. 

जिनके लिए थे उनके दुख, उनकी चिंताएं, उनका श्रम - उनका जीवन उनके बिना भी चल रहा और बहुत बेहतरीन चल रहा... 

जैसे सब कुछ माया-सा था. जाने वाला अपने साथ सब समेट ले गया.... अपना जीवन, अपना दुख, अपनी चिंताएं!!

गुरुवार, 24 जून 2021

लक्ष्मण को आवश्यक है राम जैसा भाई...

  रामायण /रामचरितमानस में श्रीराम द्वारा स्वयंवर की शर्त पूरी करने के लिए धनुषभंग करने के वृतांत से कौन परीचित न रहा होगा.  धनुष तोड़ दिये जाने से क्रोधित ऋषि परशुराम के क्रोधित होने और राम के छोटे भ्राता लक्ष्मण का व्यंग्यपूर्वक उनका सामना करने/ढ़िठाई रखने का प्रसंग भी लोकप्रिय रहा है.  बहुत समय तक दोनों के मध्य हुए वाद विवाद का पटाक्षेप होने के बाद ऋषि स्वयं नतमस्तक हुए . अपने से छोटा जानकर भी उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की.

क्या कारण रहा होगा कि अपने कुल की बड़ों को सम्मान देने की नीति का पालन करते हुए भी ऋषि के आगे वे तने ही रहे. स्पष्ट है कि मिथ्या अभिमान में बड़ों द्वारा  अपमान/असम्मान किये जाने का प्रतिकार करने में कोई अपराध न समझा गया. यह अवश्य है कि ऋषि के क्रोध  और लघु भ्राता के मध्य एक प्राचीर अथवा सेतु कह लें, राम धैर्यपूर्वक खड़े थे.

कई बार बुजुर्ग इसी प्रकार अपने मिथ्या अभिमान में अपने से छोटों के प्रति अकारण ही रोष प्रकट कर जाते हैं. और यदि उनसे छोटे अपनी सही बात पर अड़े रहकर प्रतिकार करने पर विवश हों तब उन्हें बड़ों/बुजुर्गों के असम्मान करने का दुष्प्रचार करते पाये जाते हैं. 

देश/समाज/परिवार की वर्तमान परिस्थितियों में विभिन्न वैचारिक मतभेदों के मध्य में  राम जैसे एक बड़े भाई का होना आवश्यक लगता है जो विनम्रता पूर्वक अपने बाहुबल का बखान कर लघु भ्राता लक्ष्मण के प्रतिकार को सहज मानकर आश्रय दे सके. वहीं दूसरे पक्ष को भी जता सके कि सिर्फ बड़े होने के कारण ही वे किसी के पूज्य नहीं हो सकते. उनके अपने कर्म ही उन्हें सम्मानित बना सकते हैं.