शनिवार, 12 सितंबर 2009

हृदयपरिवर्तन

रामप्रसादजी की भव्य कोठी के शानदार विलायती दूब से सजे लॉन में गोलाकार छतरियां लगी हुई हैं , जहाँ बरसात के मौसम में हलकी फुहार के बीच अपने मित्रों अथवा पारिवारिक सदस्यों के साथ प्रकृति की खूबसूरती निहारते नजर आ जाते हैं। इन छतरियों के बीच बने गोलाकार एंगल के बीच तिनका तिनका जोड़ कर अपने आशियाने की जुगत में लगी चिडिया के शोर के बीच बिखरे तिनकों को देखकर बागवान पर चिल्ला उठे ...
" हटाओ इन घोंसलों को यहाँ से और प्लास्टिक कवर से इन एंगल को ढक दो ताकि फिर से ये घोंसला ना बना सके..."
मालिक की रौबदार आवाज पर गुलाबों की क्यारी में गुडाई करता बागवान दौड़ा चला आ रहा था कि मुख्य दरवाजे पर डाकिये की साइकिल की घंटी की आवाज से वापस पलट पड़ा। डाकिये के हाथ में कोई सरकारी रजिस्ट्री थी जिसे मालिक को सौंपते हुए वह चिडिया के घोंसले को हटाने का उपक्रम करने लगा। घोंसले में बैठे चिडिया के नन्हे मुन्ने चूजो की चुनचुनाहट से झल्लाते रामप्रसादजी ने लिफाफा खोला । पत्र का मजमून पढ़ते हुए माथे पर पसीने की बूंदे चमक उठीं। गहरी साँस लेते हुए वे अन्दर कमरे की और बढ़ते हुए बागवान को हिदायत देते गए ..." रामू जरा सावधानी से उतारना इस घोंसले को और उस बड़े पेड़ की ऊँची डाल पर सावधानी से रख देना ....या फिर ऐसा कर ... अभी रहने दे ... चिडिया के बच्चे कुछ बड़े हो जाए ..उड़ना सीख जाए ..फ़िर हटा देना ..."। सेठजी के बदलते स्वर से बागवान अचंभित हो सोचने लगा ...आख़िर इतनी सी देर में सेठजी का हृदयपरिवर्तन कैसे हो गया । तभी छतरी के पास रखी टेबल पर रखा मोबाइल फ़ोन घनघना उठा। रामू तेजी से मोबाइल उठाकर सेठजी को थामने अन्दर चला गया । कानो से मोबाइल को लगते सेठजी के माथे पर बल पड़े हुए थे ..." हाँ...बोलिए मेनेजर साहब ..अब कुछ नही किया जा सकता ...होटल की नवनिर्मित तीन मंजिलों को गिराने का लीगल नोटिस प्राप्त हो गया हैनगर निगम वाले आकर तोड़ फोड़ करे ...उससे अच्छा है कि हम ख़ुद उन मंजिलों का समान निकाल कर नीचे की मंजिलों पर स्थानांतरित कर दे ...नुकसान कम होगा "
चिडिया के घोंसले और उसके नन्हे चूजो के प्रति अचानक जागी सेठजी की करुणा और उनके हृदयपरिवर्तन का राज रामू को अब समझ आ गया था।




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बुधवार, 9 सितंबर 2009

मारकेश योग और व्रत कथा


उफ्फ्फ...ये सरनाम(शर्मा ) अक्सर लोगों को इस भ्रम में डाल देता है...थोड़ा बहुत ज्योतिष और शास्त्रों का ज्ञान तो होगा ही...वे बहुत ज्यादा ग़लत भी नही होते ...हम तो वैसे भी ऐसी घोर कर्मकांडी दादी के सानिद्य में पले बढे ...जो कि महज पैर फिसल कर गिरने को भी देवताओं का प्रकोप समझकर प्रसाद चढा देती थी ...प्रसाद मिलने के लालच में हम भी चुप रह जाते ...और इसीलिए श्राद्ध पक्ष में तो चेहरा और सरनाम छुपाते रहना पड़ता है ...हर दूसरे दिन कोई न कोई न्योता लेकर आ जाता है ...बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाना पड़ता है कि हम वैसे पंडित नही है ...जीमने वाले ...पूजा कराने वाले ...मगर मानते कहाँ है ...पूरा- पूरा मजा लेते हुए कह ही देते हैं ..." आप तो हमारे घर के सदस्यों के जैसे ही हो ...हमारे यहाँ जीमने में क्या शर्म ..." मन तो होता है चिल्ला कर कह दूँ ..." अच्छा..!! जब अपने बेटे की शादी के बाजे बजवाये तब याद नही आए ये घर के सदस्य...अभी पिछले महीने ही तो अपने सेवानिवृत होने पर इतनी बड़ी पार्टी दे थी ...तब भी नही ..." मगर कह नही सकते...व्यवहारिकता का तकाजा जो होता है ....खैर ...

हाँ तो मैं बता रही थी अपनी सखी के मारकेश योग के बारे में ...उस समय तो मैंने उसे कह दिया ...." चूल्हे में डाल इस मारकेश योग को ..." मगर गाय, कुत्ते, कौवे के लिये चपाती सेकती ख़ुद इसे चूल्हे में नही डाल पाई ...किताबी ज्ञान का दंभ ओढे ...प्रोग्रेसिव होने का मुलम्मा चढाये हुए भी जीवन में यदा कदा इस प्रकार के योग का भय सताता ही है ...मौत के भय के आगे अच्छे अच्छे नास्तिकों को आस्तिक बनते हुए देखा है ...ब्राह्मणों पंडितों को जी भर कर कोसने गरियाने वालों को भी घर में अशांति और बीमारी की स्थिति में महामृत्युंजय और गृह शान्ति पाठ करने की प्रार्थना करते उनके आगे पीछे घूमते हुए भी खूब देखा है .......घरों में विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर हमे व्रत पूजा के साथ कहानिया भी सुननी होती हैं (कहानी सुनने के लिए कोई विशेष पर्व की आवश्यकता नही है...प्रत्येक वार के अनुसार भी अलग अलग कथाएँ है ) ...अब इनमे कितना विश्वास करते हैं ...ये अलग बात है ...सफ़ेद घोडे पर आने वाले राजकुमार ...राक्षस की कैद से राजकुमारी को छुडा कर ले जाने वाली ...दुखी अनाथों की मदद करनेवाली परियों की कथाओं पर ही कौन विश्वास होता है... मगर सुनते तो बड़े चाव से रहे है ...ये कहानियाँ भी हमारे लिए कुछ ऐसी ही होती है ...कर्मकांडी धर्मभीरु महिलाएं ख़ुद अपनी कहानियों में कैसे कर्मकांडों को धता बताती है ...इन्हे सुनकर ही तो जाना जा सकता है ...ऐसी ही एक रोचक कहानी है -----
एक बार एक गाँव में एक सास बहू होती है ...सास बहू को बहुत कष्ट देती ...सुबह सुबह ही बिना कुछ खिलाये पिलाये ही उसे खेत में काम करने भेज देती ...खेतों की और जाने वाला रास्ता शमशान की और से होकर गुजरता था जिसके पास में ही एक मन्दिर भी था ...मन्दिर में रोज पूजा होती ...भक्त जी भर कर आटा और घी चढा कर ईश्वर से अपनी सुख समृधि की प्रार्थना करते...भूखी प्यासी बहू यह सब देख कर बहुत दुखी होती ...उसके तो ख़ुद खाने पीने का पता नही था ...क्या तो भेंट चढाती ...क्या आशीष मांगती ...एक दिन घर में उसकी सासू माँ ने उसकी पिटाई कर दी ...वह बड़े दुखी मन से रोती हुई चली जा रही थी ...रास्ते में उस मन्दिर को देखकर कुछ देर वहीं विश्राम करने को रुक पंडी .....भगवान् की मूर्ति के पास सूखे आटे और बहते घी को देख कर वह सोचने लगी ...मैं तो यहाँ हाड़ तोड़ मेहनत कर भूखी प्यासी हूँ और यहाँ इतना घी व्यर्थ बहा जा रह है ...गुस्से से भरी हुई तो वह पहले से ही थी ...उसने इधर उधर देखा ...कोई दूर तक नजर नही आया ...पंचपात्र में रखे जल का उपयोग कर उसने सूखे आटे को गुंधा और पास में ही जलती चिता की राख में बाटिया सेक ली और चक कर खाई ...अब भगवान् की मूर्ति यह सब देखकर बहुत परेशान ...और तो क्या करते ...नाक पर अंगुली रखकर मुंह फेर कर खड़े हो गए....दूसरे दिन तो नगरी में हाहाकार मच गया ...भगवान् की मूर्ति की नाक पर अंगुली ...जरुर किसी ने बड़ी भारी भूल की है ...पुजारी पूजा करते मना मना कर थक गये ..नाक की अंगुली टस से मस ना हुई...मन्दिर के बाहर भारी बड़ी भीड़ जमा हो गयी ...बड़े बड़े विद्वान पंडित आए मगर बात नही बनी ...राजा ने मुनादी करवा दी ...जो भी भगवान् की इस मूर्ति की नाक से अंगुली हटा देगा ...उसे पुरस्कार में अन्न वस्त्रादि के अलावा राज्य का कुछ हिस्सा भी मिलेगा ...बात उड़ते उड़ते उस बहु तक भी पहंची ...एक बार तो वह बहुत भयभीत हो गयी ....घबराती हुए सास के पीछे उस भीड़ में जा खड़ी हुई ...सारे प्रयास विफल होते देख वह अपनी सास से अर्ज करने लगी ...''आप इजाजत दो तो मैं इसे ठीक कर सकती हूँ "..." इतने विद्वान पुजारी सब विफल हो गये ...तू करेगी ठीक ..." सास उसका मजाक उडाते हुए जोर से बोल पड़ी ... पास ही खड़े किसी बुजुर्ग ने यह सब सुना तो कह उठा ..." जब कोई भी सफल नही हो पाया तो एक बार इसे भी मौका देने में क्या हर्ज है ..." अब तो बहू मन्दिर में गयी...". साथ ही सबसे कहती भी गयी ...जब तक मैं भगवान् का परदा नही हटाती कोई मन्दिर में प्रवेश नही करे ..." जाते जाते काँटों से भरी बेर की टहनी भी साथ ले गयी ...जाकर भगवान् के सामने खड़ी हो गयी और क्षमा याचना करते हुए बोली..." मुझसे बड़ी भूल हो गयी ...मुझे क्षमा करें और अपनी नाक से अंगुली हटा दे ..." अपनी क्षमा प्रार्थना का कोई असर ना होते देख उसे बहुत क्रोध आया ...गुस्से में भर कर बोली ..." तेरे दरवाजे पर इतना घी बह कर जा रहा था ...अगर मुझ भूखी ने थोड़ा सा पेट भरने का साधन कर लिया तो वो भी तेरे से बर्दाश्त नही हुआ ...बोल नाक से अंगुली हटाता है या दूँ इस छड़ी की ...अगर मूर्ति खंडित हो गयी तो कौन पूजेगा ...खड़े रहना फिर इसी तरह भूखे प्यासे ..." अब तो भक्त वत्सल भगवान घबराए ..." इसका क्या भरोसा ...यह तो भोली भाली स्त्री, जब चिता की आग में बाटी सेक कर खा गयी तो मेरी मूर्ति का क्या हश्र करेगी ...अगर इसमे समझ होती तो क्या यह ऐसा कार्य करती ..." भगवान् ने मुस्कुराते हुए नाक से अंगुली हटा दी ....जब बहू मन्दिर का परदा हटा कर बाहर आयी तो सब तरफ़ उसके जयकारे होने लगे ...सास ने भी उसकी भक्ति के आगे झुक कर माफ़ी मांग ली ...बहुत सारा धन और पुरस्कार लेकर सब राजी खुशी रहने लगे ...भगवान् जैसी बहू पर टूटी सब पर टूटना ..."
कथा समाप्त हुई
घर की बड़ी बूढी स्त्रियों से उनकी विभिन्न भाव भंगिमाओं मुद्राओं के साथ इन कहानियो को सुनना बहुत मनोरंजक होता है...अगली बार बहुत सारी स्त्रियों को इकट्ठा किसी कहानी को कहते सुनते देख कर उनकी निरीहता ,धर्मभीरुता , कर्मकांडी व्यक्तित्व पर व्यग्य बाण छोड़ने या सहानुभूति प्रकट करने से पहले उस छड़ी को याद जरुर कर ले...

इस कहानी को सुनते हुए कई बार मुझे रामचरितमानस में रची तुलसीदासजी की पंक्ति " समरथ को नही दोष गुसाईं " का स्मरण हो आता है ...जिसे आम बोलचाल की भाषा में ..." नागा आग तो भगवान भी डर जाव " कहा जाता है...


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