अभी कल ही आराधनाजी की एक अच्छी कविता पढ़ी जिसमे वह दोस्त को संबोधित करते हुए कह रही हैं कि सही मायने में मुक्ति वही मानी जायेगी जब मुझे अपनी मित्रता के लिए अपराध बोध नहीं होगा , ना ही उसके साथ अपनी पुरानी सी ही मित्रता निभाते हुए कुलटा कहलाने का भय नहीं होगा ..
" या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथाया कि होंठ,
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान
जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,"
कविता निस्संदेह अच्छी है . जिसका सन्देश है कि मित्रता को पुरुष और स्त्री के खांचे में नहीं बांटा जा सकता है . जिस तरह दो पुरुषों या दो स्त्रियों की मित्रता समाज द्वारा मान्य है , एक पुरुष और स्त्री की मित्रता पर सवाल क्यों उठाये जाए . उसे भी सहज मित्रता के रूप में ही क्यों ना लिया जाये , उसे अशालीन या शालीनता से परिभाषित क्यों किया जाए.
यह तो हुए दोनों प्रविष्टियों की बात . अब मेरे दिल और दिमाग की रस्साकशी यह है कि है कि जो लोंग अजित जी कि पोस्ट पर अपनी महिला मित्र का चुम्बन लेने को अनैतिक मानते हुए उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ा आये , उनकी पत्नी द्वारा उठाये गये क़दमों को उसके साहस से जोड़ कर पीठ ठोंक आये , वे इस कविता को कैसे पसंद कर सकते हैं .
आखिर इस कविता में भी तो यही कहा गया है कि सच्चे अर्थों में मित्रता वही है कि एक स्त्री या पुरुष के रिश्तों पर शादी होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए.
उलझ गयी हूँ मै नैतिकता की यह परिभाषा जिसे हम क्या सिर्फ पुरुष के लिए होनी चाहिए , या सिर्फ स्त्रियों के लिए होनी चाहिए या दोनों के लिए समान ही हो ....
शिखा जी ने भी यहाँ एक समसामयिक संतुलित दृष्टिकोण रखा है .
लिव इन रिलेशनशिप में ज्यादा फायदा किसे है , और यदि इन रिश्तों में कानून दखल करता है और वही अधिकार देता है जो एक पत्नी को मिलने चाहिए तो फिर विवाह करने में क्या आपत्ति है , क्या सिर्फ इस भय से लोंग विवाह नहीं करना चाह्ते कि तलाक मिलने में परेशानी होगी तो इसका अर्थ तो यह ही हुआ कि अविश्वास तो इन रिश्तों में पहले से ही है , तो जो लोंग प्रेम के कारण रिश्ते या विवाह करना चाह्ते हैं , वे ऐसे रिश्तों को अपनी सहमति कैसे दे सकते हैं जिनमे प्रेम या विश्वास पहले कदम पर ही नहीं है ...
यह समय गंभीरता से मनन का है स्त्री मुक्ति के नाम पर हम कहीं एक अंधी खाई की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं या फिर पुनः पाषाण युग को आमंत्रित कर रहे हैं , एक सार्थक बहस के लिए आप आमंत्रित हैं !