रविवार, 16 दिसंबर 2012

रूठना कोई खेल नहीं !


तुम  ही  हो माता ,पिता तुम  ही हो !
तुम ही हो बन्धु ,सखा तुम ही हो !
प्रार्थना के बीच अधमुंदी आँखों से सुनीता ने अपनी पीछे  की लाईन में देखा , कुसुम अब तक नहीं आयी थी . कद के आधार पर बनाई जाने  वाली पंक्तियों में सबसे पीछे लम्बी -सी कुसुम अलग ही दिखती थी . लम्बी कुसुम और छोटी सुनीता दोनों की दांत कटी  दोस्ती पूरे विद्यालय में  लम्बू- छोटू के नाम से जानी जाती थी . विद्यालय में प्रवेश करने के बाद से दोनों हर समय साथ दिखती .टीचर जी द्वारा दिए गए कक्षा कार्य से  लेकर स्पोर्ट्स और खाने तक उनका साथ हमेशा कायम होता .

क्या हो रहा है सुनीता, सीधे खड़ी रहो ...भटनागर मैंम  की कडकती आवाज़ के बीच सुनीता ने जल्दी से दोनों आँखें मीच प्रार्थना में सुर मिलाया , कहाँ रह गयी कुसुम !
आज का अनमोल विचार कुसुम को  ही पढना था . 
प्रार्थना के बाद जैसे ही आँखें खोली , डायस के पास कुसुम को देख कर राहत  की सांस ली उसने .
प्रार्थना के बाद क्लास में लौटते दोनों की खुसुर पुसुर शुरू थी , देर कैसे हो गयी ,आज टिफिन में क्या लाई हो !
केर का अचार , मूली का पराठा ! 
ला दिखा ,  कुसुम  ने लगभग छीनते हुए उसके हाथ से टिफिन ले लिया और खोलने लगी .
हद है , बहुत सारे हैं , मम्मी ने तेरे लिए भी एक्स्ट्रा रखे हैं , अभी ही शुरू मत हो जा .
लंच तक कौन रुकेगा , कुसुम ने टिफिन खोल लिया था . क्लासरूम में अपनी सीट पर पहुँचते एक बड़ा ग्रास उदरस्थ कर चुकी थी . दूसरा ग्रास तोडा ही था कि   रजिस्टर लिए क्लासटीचर   क्लास में पहुँच गयी . हडबडाहट में टिफिन कुल ही डेस्क की खुली दराज में सरका तो दिया मगर अचार की खुशबू को मैम की नाक से बचाना संभव नहीं हुआ . 

अचार की खुशबू कहाँ से आ रही है , तुम लोग घर से नाश्ता नहीं करके आते और यहाँ क्लास में घुसते ही , बंद करो यह सब ...
मैम के खुद के मुंह में पानी आ रहा है ,मगर कहे कैसे , बंद कर तो दिया , कुसुम को कोहनी मारती हुए सुनीता ने टिफिन बन कर रख दिया .

सुनीता और कुसुम , क्या खुसुर पुसुर करती रहती हो दोनों , चलो , कुसुम तुम वहां से उठो , और इधर बाईं बेंच पर बैठो ...
नहीं मैम , हमें यही बैठने दीजिये , हम अब बात नहीं करेंगे .
नहीं तुम उठो वहां से ! कितनी बार समझा दिया तुम्हे !
प्लीज़ मैम ...पक्का अब नहीं  करेंगें बातें, प्लीज़ -प्लीज़ !
ये मेरी आखिरी वार्निंग है , अब अगर कानाफूसी करती नजर आयी तो क्लास से बाहर निकाल दूँगी ...भटनागर मैम शब्दों को भरसक कोमल बनाते हुए बोली .

नहीं मैम ,  अब नहीं करेंगे , चल बैठ जा , कॉपी  निकाल फुर्ती  से , सुनीता ने कुसुम का हाथ पकड़कर सीट पर बैठा दिया . 
लंच टाइम में क्लास मॉनिटर सहित सभी लड़कियां बरस रही थी , क्या है तुम लोगों का , तुम्हारे कारण पूरी क्लास डिस्टर्ब होती है .
क्या किया मैंने , टिफिन खोल कर दो ग्रास खा लिए , थोडा बतिया लिया तो कौन सा अनुशासन भंग हो गया ...
तुम्हारी ढिठाई के कारण  पूरी क्लास का तमाशा बन जाता है  , मगर तुम्हे क्या फर्क पड़ता है .नाराजगी प्रकट करते हुए वीणा क्लासरूम से बाहर निकल गई  .  

उस दिन जाने सर जोड़े जाने किस बात पर खीखी में लगी थी दोनों , मैम का क्लासरूम  में आना उन्हें नहीं दिखा , न ही पूरी क्लास का उनके सम्मान में खड़ा होना . थोड़ी देर तक चुपचाप उन दोनों का भरपूर अवलोकन करने के बाद मैम की आवाज़ से ध्यान भंग हुआ।  दोनों  हडबड़ाती गुड मोर्निंग कहती उठ खड़ी  हुई  जरुर , मगर बंद होठों में खिलखिलाना रुक नहीं .
पढ़ाते  हुए कई बार ध्यान भंग होने पर शालिनी मैम ने उन्हें बेंच पर खड़ा होने की सजा सुना दी . दोनों साथ खड़े हुए भी अपनी खिलखिलाहट से बाज नहीं आयी , साथ ही हंसी के संक्रमण का असर पूरी क्लास पर होते देख , दोनों को क्लासरूम के बाहर खड़ा कर दिया गया था  .

सब लोग परेशान है हमारे कारण , चल, दोनों आज से अलग सीट पर बैठेंगे , बात भी नहीं करेंगे ! खीझती हुए कुसुम  ने कहा .
सॉरी , मैं ऐसा नहीं करूंगी .
अरे ,सचमुच बात करना बंद थोड़ी न कर देंगे , बस क्लास में नहीं बोलेंगे , सबको यही लगेगा कि  हमारा झगडा हो गया .
नहीं , मुझसे नहीं होगा , मैं पूरे एक पीरियड तुझसे बात नहीं करू , ऐसा नहीं हो सकता .
रोज क्लास का माहौल खराब होता है , सबसे डांट  पड़ती है , सिर्फ एक दिन के लिए यह नाटक कर देखते हैं .

दुसरे दिन सुबह पूरी क्लास हैरान थी . सुनीता और कुसुम अलग -अलग आयी क्लास में और एक दूसरे  से दूर दूसरी कतार में बैठी . बस एक दुसरे को मुस्कुराते देखती रही मगर बात नहीं की .
पूरी क्लास दम साधे  लंच का इन्तजार कर रही थी . यह सातवाँ आश्चर्य संपन्न कैसे हुआ . कुछ बच्चे सुनीता के पास , तो  कुछ कुसुम के पास घेरा बना कर खड़े हो गए .
क्या हुआ , आज दोनों बात नहीं कर रही . अपना टिफिन लेकर कुसुम के पास जाती सुनीता के पाँव वहीं  थम गए .
कुछ नहीं , बस अब बात नहीं करेंगे , रोज डांट पड़ती है हमें ...
अच्छा है , क्लास में शांति बनी रहेगी , देखती है कितनी देर तक ...वीणा  मटकते हुए वहां  से चली गयी . कुसुम सोचती रही सुनीता आएगी अपना टिफिन लेकर , उधर सुनीता उसके आने का  इतंजार करती रही . आखिर  लंच समय समाप्त हुआ , दोनों के टिफिन बिना खुले बैग में रख गए .
आखिरी पीरियड के बाद उसी तरह गोलों में घिरी दोनों अपनी -अपनी बस में चढ़ गयी . पेट में दौड़ते चूहों ने जोर मारा बस में टिफिन खोलकर खाती सुनीता और कुसुम की आँखें नम  थी . यह पहला अवसर था जब कैर का अचार अनखाया रह गया था .
दूसरा दिन , तीसरा दिन , और कई दिन इसी तरह गुजरते गए . 
सुनीता और कुसुम दोनों ही सोचती रही , उनका सचमुच झगडा थोड़ी ना हुआ है , मगर फिर से बात कौन पहले शुरू करे। दोनों एक दूसरे को देखती दूर से, मुस्कुराती मगर शब्द जुबान पर ही अटके रहते .  
सहपाठी सोचते ,पूछते , बाते करतें , क्या हुआ है इन  दोनों के बीच , किस बात पर झगडा हुआ . 
दोनों चुप रहती।  क्या कहती , झगडा तो हुआ ही नहीं था , रूठने का खेल हकीकत- सा हो गया था . फाइनल एक्जाम के लिए प्रिपरेशन लीव शुरू होने वाली थी . दोनों रोज़ सोचती आज  बात की  शुरुआत कर ही लेंगे , मगर स्कूल पहुँचते समझ नहीं आता की क्या बात करें , कैसे बात करें . एक गुमसुम सन्नाटा सा पसरा रहता उन दोनों के बीच . 
एक दिन सुनीता ने तय किया कि   आज  वह बात करे के ही रहेगी , बात ही क्यों , सीधे अपना बैग अपनी पहले वाली सीट पर ही रखेगी . प्रार्थना में उसकी नजरे ढूंढती रही कुसुम को , मगर वह कही नजर नहीं आयी और ना ही क्लास में . किससे पूछे वह कि  कुसुम क्यों नहीं आयी , हमेशा  उन दोनों से ही सब पूछते थे दोनों के बारे में . एक दिन , दो दिन , कई दिन बीत गए . आखिर  एक दिन सुनीता पहुँच ही गयी कुसुम के उन रिश्तेदार के घर जहाँ वह पेईंग गेस्ट बन कर  रह रही थी .कुसुम के चिकित्सक पिता की पोस्टिंग एक कस्बे  में थी, जहाँ शिक्षा की समुचित व्यव्यस्था नहीं हो पाने के कारण कुसुम को इस शहर में अपने रिश्तेदार के घर रहना पड़ा था .   मालूम हुआ  कि उसके पिता की तबियत अचानक बहुत ख़राब हो गयी , उसे जाना पड़ा था . उसके पिता का स्थानांतरण बड़े शहर में हो गया है .  वह सिर्फ परीक्षा देने ही आएगी .और इसके बाद  अपने परिवार के साथ उस शहर में ही रहेगी .

सुनीता लौट आयी थके क़दमों से . खेल -खेल में रूठने ने उसकी एक मित्र को उससे हमेशा के लिए दूर कर दिया था . दिन , महीने , साल बीतते गए , सुनीता और कुसुम का आमना -सामना कभी नहीं हुआ मगर अब सुनीता को भूल कर भी किसी से रूठने में डर लगता है , कही वह इस रिश्ते को हमेशा के लिए खो ना दे .


अपना लिखा अर्चनाजी की आवाज़ में सुन लेना सुखद है !
साभार !
http://archanachaoji.blogspot.in/2012/12/blog-post_5597.html

सोमवार, 19 नवंबर 2012

अमीर- गरीब , बड़े -छोटे, ऊँच - नीच का भेद मिटाता है छठ पर्व !

    
 छठ राजस्थानियों का पर्व  नहीं है , मगर वर्षों बिहार में रहने के कारण माँ और भाभी भी इस पर्व को पूरी श्रद्धा और विधि विधान से करती हैं , जयपुर के गलता  तीर्थ सहित अन्य कुछ और स्थानों पर इस पर्व के दिन धूमधाम होती है . तीन दिन तक कठोर नियम कायदे के बीच यह व्रत बहुत मुश्किल होता है , हम  सिर्फ जल में खड़े होकर कुछ देर सूप पकड़ना ,  दूध और जल से अर्ध्य देने जितना ही कर पाते है . पिछले कुछ वर्षों में बढती भीड़ के कारण यह भी सोचा गया कि क्यों न यह पर्व घर पर ही मन लिया जाए , मगर  माँ को मनाना इतना आसान नहीं होता , कोई साथ जाए ना जाए , वे तीर्थ स्थान पर ही पूजा करती है . डूबते सूरज को अर्ध्य वाले दिन दोपहर में ही गंतव्य पर पहुँच कर ठहरने का इंतजाम , दरी , रजाई , कम्बल आदि , पूरे  परिवार के शाम के खाने का प्रबंध ,भारी  भरकम पूजन सामग्री के साथ जाना परेद्श भ्रमण जैसा ही हो जाता है . रात भर माईक पर चलने वाली  भजन -कीर्तन की सांस्कृतिक संध्या के अतिरिक्त  पटाखों की आवाज़ , छठ  व्रतियों के परिवार की महिलाओं  द्वारा झुण्ड गाये जाने वाले भजन , चाय नाश्ते के साथ अन्य  साजो सामान की छोटी दुकाने , मेले या हाट का आभास देती हैं .


 छठ पर्व के नियम के अनुसार पूजन/अर्ध्य के   के लिए जुटाई गयी सभी सामग्रियों में शुचिता का पूरा ध्यान रखा जाता है . गेंहू धोकर सुखाने से लेकर खरने के लिए खीर , पूड़ी बनाने , ठेकुआ बनाते समय बहुत सावधानी रखी जाती है . छठ पर्व का मुख्य प्रसाद ठेकुआ व्रतियों द्वारा देर रात बनाया जाता है , कहा जाता है इस समय बिल्ली या किसी भी पशु पक्षी की आवाज़ भी सुनायी नहीं देनी चाहिए . मगर अर्ध्य के समय घाट  पर उपस्थित भारी भीड़ में संतुलन बिगड़ता प्रतीत होता है . गलता  तीर्थ छठ व्रतियों के हिसाब से बहुत छोटा पड़ता है , व्यवस्था बनाये रखने में प्रशासन और विभिन्न स्वयं सेवक संगठनों  को भी बहुत समस्या होती है  . इस भीडभाड से बचने के लिए बहुत से लोग घरों में तसले अथवा टब के  पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य देने का इतंजाम भी करने लगे हैं .

पंडितों के व्यवधान के बिना भक्त और आदित्य   के सीधे संपर्क का यह  अनूठा पर्व इस मायने में अनोखा है कि इस के नियम पालन के लिए सिर्फ श्रद्धा ही काफी है .  प्रदेश  में बिहारियों की बड़ी संख्या श्रमिक वर्ग की है ,  जिनके लिए रोज की रोटी का इंतजाम ही मुश्किल होता है। अपने परिवार से दूर पर्व के लिए ज्यादा तैयारी नहीं कर पाने के कारण  कई बार इन परिवार के पुरुषों को सिर्फ नारियल या केले का डंठल लेकर ठण्ड में कांपते जल के बीच खड़े सूर्य के उगने या अस्त होने का इन्तजार करते भी देखा जा सकता है  .सूर्योदय के अर्ध्य के बाद अपनी झोली फैलाकर कम से कम दो से सात व्रतियों से प्रसाद माँगना , सुहागन स्त्रियों द्वारा अन्य स्त्रियों की मांग में सिन्दूर भरना भी इस पर्व की एक विशेषता है .   ऊँच - नीच, बड़े- छोटे , अमीर -गरीब का भेद इस समय मिट जाता है .इस पर्व पर भगवान् आदित्य के दर्शन और प्रसाद वितरण का लाभ लेते हिन्दूओं के साथ मुस्लिम और ईसाईयों  को भी आसानी से देखा जा सकता है .

माँ इस बार छठ पर बिहार में हैं . कल शाम  किसी भी शहर के छठ पर्व के विहंगम दृश्यों और तस्वीरों  के लिए समाचार चैनल पर  ट्यून किया तो सामने ह्रदय विदारक दृश्य नजर आये . राज्य की राजधानी जहाँ छठ पर्व का मुख्य  आयोजन होता है , वहां ऐसी बदइन्तजामी देखकर बहुत ही निराशा और दुःख हुआ . भूखे प्यासे व्रतियों और उनके परिजनों के साथ हुए हादसे ने दिल दहला दिया . बांस के कच्चे अस्थायी पुल के कारण  होने वाली इस घटना  के लिए यकीनन  प्रशासन के इंतजामों की खामियां गिनाई जा सकती है , मगर यह भी कहना होगा कि इस प्रकार की अन्य दर्दनाक  घटनाओं में आम नागरिकों का   दोष भी कम नहीं है . हममे  से कितने लोग प्रशासन द्वारा किये गए इंतजामों में उनका ईमानदारी  से सहयोग कर पाते हैं .सबसे पहले , सबसे आगे होने की दौड़ ऐसी बहुत सी घटनाओं का कारण बनती है . लोग कैसे भूल जाते हैं कि भीड़भाड़  वाले स्थानों पर आम जन का संतुलित और सहयोगी होना ही  सुरक्षित होता है  अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी !

जयपुर के गलता तीर्थ पर भी किये गए अनगिनत इंतजामों के बावजूद हालत बहुत खस्ता होती है . भीड़ में कई शराबी भी घुस आते हैं जो व्रतियों के परिवारजन या मित्र  ही होते हैं . इस व्रत के पालन में शुचिता का अत्यंत ध्यान रखे जाने के बाद यह व्यवहार अजीब ही लगता है .इनके द्वारा  कई बार वमन करते हुए चीखने चिल्लाने के अतिरिक्त  मार पीट के दृश्य भी उपस्थित होते हैं , जहाँ पुलिस को बीच बचाव करना पड़ता है . एक शराबी के वमन न का शिकार हमारी नयी कम्बल भी हो चुकी जिसे वही  छोड़ कर आना पड़ा .
सुरक्षा इंतजामों में पुलिस , प्रशासन और स्वयंसेवकों के साथ ही आम जनता की जागरूकता, अनुशासन , सजगता और सहयोग भी  आवश्यक है,  तभी हमारी गंगा जमुनी संस्कृति के आडम्बर रहित पर्व भी प्रसन्नता के साथ मनाये जा सकेंगे .

शनिवार, 3 नवंबर 2012

जिनके मुख कछु और है , उनके हिय कछु और ....

कॉलेज के दिनों की बात है। परीक्षा समाप्त होने के बाद सभी सहेलियों ने किसी एक के घर मिलने  का कार्यक्रम तय किया  . हम लोग रीना के घर पहुंचे तो वहां  तनाव का माहौल नजर आया . रो रोकर आँखें सूजा रखी  रीना आवभगत करते हुए सामान्य दिखने का प्रयास करती रही  . बहुत पूछने पर आंसू बहाते  बताया उसने ...उसके पड़ोस में ही  कॉलेज का एक सहपाठी कमरा किराये पर लेकर रह रहा था . पास ही घर होने के कारण  परीक्षा के दौरान अक्सर प्रश्नों के जवाब उत्तर तलाशते दोनों साथ पढ़ लिया करते . रीना ने बताया कि  उसके चाचा को उनपर पता नहीं क्या शक हुआ है की उन्होंने  घर में क्लेश कर रखा है कि वह या तो उस लड़के को राखी बांधे या उससे बातचीत बंद कर दे . रीना के लिए उहापोह की स्थिति थी . रीना का कहना था की वह दोनों सिर्फ  मित्र हैं , प्रेमी नहीं ,यह साबित करने के लिए मैं उसे राखी क्यों बांधू , जबकि उसके चाचा का कहना था की यदि सिर्फ मित्रता है तो राखी क्यों नहीं बाँधी जा सकती . इस  वादविवाद का कोई हल नजर नहीं आ रहा था . हमें रीना का तर्क भी उचित ही लग रहा था .  कुछ समय बाद जब रीना से दुबारा मिलना हुआ तो उसने बताया कि  आशीष ने वह स्थान छोड़ देना ही उचित समझा . 


कॉलोनी में ही एक पडोसी के घर बेटे के विवाह की रस्मों की शुरुआत के समय अजीब दृश्य उत्पन्न हुआ . एक रस्म में बेटे के पिता की आरती की जानी थी . लम्बी दूरियों और नए समय में बदलते रिश्तों के कारण  करीबी रिश्तेदार  भी विवाह के समय से एक दो दिन पूर्व ही पहुँचते हैं , इसलिए उनकी कोई बहन वहां उपस्थित नहीं थी , ऐसे में वहा उपस्थित महिलाओं में से ही किसी एक को उक्त सज्जन की आरती करने के लिए कहा गया . जिस स्त्री को आरती करने के लिए कहा गया उसका तर्क यह था की यह रस्म तो घर की ही किसी लड़की से की जानी चाहिए , नहीं तो अपनी बेटी भी कर सकती है , और कोई उपस्थित ना हो तो पंडित भी यह रस्म कर सकता है। 
आखिर उनकी बेटी ने ही आरती की रस्म निभाई . आस पास उपस्थित महिलाओं ने कुछ नाराजगी जताई की आखिर उसे क्या आपत्ति थी . यदि किसी व्यक्ति की बहन नहीं होती है , तब भी तो उसे राखी बाँध दी जाती है ताकि वह इस रिश्ते की कमी ना महसूस करे , यहाँ तो सिर्फ आरती ही करनी थी .
 बाद में  उस महिला ने कहा की सिर्फ आरती करना ही नहीं होता , रस्म के तौर पर वे मुझे कुछ भेंट भी देते और इस प्रकार एक जबरदस्ती का रिश्ता कायम होता।  उसने बताया कि  उक्त व्यक्ति के चरित्र के बारे में बहुत कुछ सुना देखा हुआ है , पडोसी होने के कारण रस्मों में उपस्थित होना , सुख दुःख में काम आना और बात है , मगर आरती कर बहन का रिश्ता कायम करते हुए उन्हें अपने घर में निर्बाध  प्रवेश की इजाजत नहीं दे सकती .जिस व्यक्ति के चरित्र के बारे में मुझे जानकारी है , उसे भाई के पवित्र रिश्ते में क्यों बांधू .

किसी रिश्ते के बिना भी सगे भाई- बहनों से बढ़ कर रिश्ते निभाने वाले भी कम नहीं तो वहीं  धर्म भाई या बहन होने की आड़ में अवैध रिश्ते , ब्लैकमेलिंग के किस्से भी सरेआम ही हैं . आये दिन समाचारपत्र ऐसी ही घटनाओं से रंगे  होते हैं . धोखे की लम्बी कहानियों के बीच स्नेह बंधन से बंधे निस्वार्थ रिश्ते कलंकित होते हैं और सहज भाव से  रिश्ते निभाने वाले भी शक के घेरे में आ जाते हैं . रिश्तों को  संशय की तराजू पर तुलने से बचाने के लिए यही बेहतर होगा कि बहुत सोच समझ कर इन रिश्तो को नाम दिया जाए . आभासी दुनिया में तो इसकी और भी अधिक आवश्यकता है . सिर्फ हो -हल्ला करने से नहीं , बल्कि आपके कृत्यों या कर्मों से प्रमाणित होता है कि आपके मन में  किसके लिए क्या भावना है . 

पुरानी  फिल्मों में अक्सर ऐसे दृश्य नजर आ जाते थे ,  उम्र भर नायिका को परेशान करने वाले खलनायक आखिरी समय बहन बुलाकर राखी बंधवा ले और अपने सारे पाप धो ले  . नायक नायिका बिछड़ने के वर्षों बाद मिले हो , भावुक होकर कहेंगे दोनों , अब तुम मेरे लिए भाई या बहन जैसे हो .
हमलोग अक्सर इस पर हँसते थे ,  जिसके लिए  मन में इतना प्रेम रहा  ,साथ घर बसाने के सपने देखे , वह भाई या बहन कैसे हो सकता है  . ठीक है , अब आप लोगों के बीच कोई प्रेम नहीं रहा ,मगर कम से कम भाई या बहन तो मत कहो . खलनायकों की तो और भी बुरी स्थिति है , आजीवन कुदृष्टि रखने वाले  पीटने या दुर्दशा होने पर कह   दिया की आज से ये मेरी बहन है , मतलब क्या आप तक अपनी बहन के प्रति मन में इतने बुरे विचार रखते थे .  माना की आप सुधर गए , अच्छा है , आपके लिए भी और औरों के लिए भी .  मन की निर्मलता या भावनाओं का बदलाव  आपके कृत्यों में  नजर आ ही जायेगा , उसके लिए अवलंबन की आवश्यकता क्या है !!

इसी प्रकार पुरुष वर्ग के बीच स्त्रियों का नाम लेकर " बहन होगी तेरी " जैसे स्तरहीन मजाक भी प्रचलित रहे हैं , माना कि आपकी बौद्धिकता किसी अन्य रिश्ते के मुकाबले  मित्र होना अधिक उचित समझती है मगर  इसका यह अर्थ कत्तई नहीं होना चाहिए कि  किसी का भाई या बहन होना भी  कोई गाली या बुरी बात  है  , जिसका इन हलके या घटिया लहजे /शब्दों में उपहास किया जाए .  
वहीँ इन रिश्तों के नाम के पीछे बुरी मंशा रखने वालो के लिए भी  यह कहना है कि किसी के साथ छल  करना है , दुश्मनी निभानी है तो यूँ ही निभा ली जाए , कम से कम रिश्तों के नाम  तो इनसे बचे रहे . रिश्तों पर से लोगों का विश्वास ही उठ जाए ,इससे बेहतर है कि कोई नाम ही ना दिया जाए .

वर्तमान समय में नयी पीढ़ी के  उद्दंड अथवा दिशाहीन होने के अनेकानेक उदाहरणों के बीच भी कभी -कभी मुझे उनकी  साफगोई अच्छी ही लगती है कि  दो इंसानों के बीच स्नेह, प्रेम ,मित्रता / शत्रुता दर्शाने  अथवा निभाने के लिए  लिए वे किसी रिश्ते की ढाल  की आवश्यकता महसूस नहीं करते . 



नोट --- रीना और आशीष काल्पनिक  नाम है !

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है!!!

मायानगरी  मुंबई का आकर्षण ही कुछ ऐसा है की लोग अपने आप खींचते  चलते आते हैं . इतिहास की तह में जाए तो यह एक द्वीपसमूह था . अंग्रेजों ने  व्यापार की दृष्टि से इसके महत्व को समझा और अपना व्यापारिक केंद्र बनाया . अंग्रेजों ने मुंबई को वृहत पैमाने पर सड़कों तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था से व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त आम नागरिकों के लिए भी सुविधाजनक बनाया . प्रथम रेल लाईन की स्थापना से ठाणे से जुड़कर व्यापारिक संभावनाओं को असीमित आकाश दिया .  यह शहर  कार्य की प्रचुर उपलब्धता तथा फिल्म इंडस्ट्री का प्रमुख स्थान होने के कारण ग्लैमरस जीवन शैली से सम्मोहित करता आम जनों को सम्मोहित करता रहा . छोटे शहरों अथवा गांवों से पलायन करती  जनता को यह शहर बहुत लुभाता रहा है .
आज आलम यह है की  समन्दर के किनारे बसे इस शहर में पानी की लहरों की मानिंद ही आदमजात का समंदर भी लहराता है . जनता के  इस समंदर को एक स्थान से दुसरे स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं यहाँ की  लोकल ट्रेनें जो प्रकारांतर से मुंबई की लाईफ लाईन ही मानी जाती है .मिनटों की समय सारणी और अंतर से चलने वाली इन ट्रेनों का सफ़र भी रोमांच से भरा होता है . इन ट्रेनों में घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी में ताश खेलते लोगों के साथ अपने घर अथवा दफ्तर के छोटे- मोटे काम निपटाते यात्री दिख जाना भी आम ही है . सुबह घर से निकलने वाले और शाम को घर लौटने को व्याकुल  यात्रियों के रोमांच भरे सफ़र में खचाखच भरे रेल के इन डब्बोंमें अपनी जगह बना पाना शारीरिक और मानसिक श्रम की मांग रखता है . इतनी मुश्किलों में सफ़र करने वाले दैनिक यात्रियों का क्या हाल होता होगा , उत्सुकता ने ने ऐसे ही कुछ दैनिक  यात्रियों से यह प्रश्न दाग दिए . जवाब खासे रोचक थे .
ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन  एक ही ट्रेन से लम्बी दूरी का सफ़र करने वाले यात्री बीच के दूसरे  स्टेशनों पर अपने परिचितों के लिए सीट रोक कर रखते हैं . दो चार मुस्टंडे बॉडी बिल्डर टाईप लोग ट्रेन के दोनों ओर  दरवाजों पर द्वाररक्षक की मुद्रा में अड़े होते हैं , उनकी कृपा दृष्टि के बिना अन्य किसी का उस डब्बे में चढ़ पाना संभव नहीं . इस तरह   दुबले- पतले  निरीह लोगों का गुजारा इनकी बदौलत हो जाता है , वर्ना सुबह ऑफिस टाईम में बेचारे आती -जाती ट्रेनों को नजरे भर देखते ही रह जाए , ट्रेन में सीट मिलना तो दूर ,चढ़ने की हिम्मत भी ना जुटा पाए। और खुदा ना खास्ता किसी दिन कोई ऐसा ही तगड़ा अनजान मुसाफिर उनकी बोगी में जबरन चढ़ भी जाए तो उसकी इतनी लानत -मलानत की जाती है शब्दों के द्वारा कि बेचारा सर झुकाए जैसे -तैसे इस सफर के पूरे होने का इन्तजार करते हुए मन ही मन प्रण  ले लेता है की आईंदा इन सहयात्रियों साथ हरगिज सफ़र नहीं करेगा .
दरअसल एक लोकल ट्रेन महज एक रेल नहीं , दर्पण है हमारी आम और ख़ास जनता की मानसिकता का . आम में से ही कुछ  लोग जो ख़ास बन जाते हैं , आम को अमचूर बना देना उनका प्रिय शगल हो जाता है . खासमखास भी सब एक दुसरे के ख़ास तो हो नहीं सकते , इसलिए इनमे से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक  चक्रव्यूह- सा  रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा  राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
कभी -कभी मुझे हिंदी ब्लोगिंग में भी यही नजर आने लगता है , असमंजस में होती हूँ की यह  मेरा दृष्टिदोष है या वास्तविकता . शायद टिप्पणियों में कुछ खुलासा हो जाए .
अपना स्थान  बनाये रखने के लिए आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है , आम आदमी ने गाँठ बाँध ली है , आपने बाँधी की नहीं !!

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

मुस्कराहट एक बड़ा हथियार है !!

कल सुबह कॉलेज जाती हुई एक बच्ची नजर आई कुछ लंगड़ाती हुई . शायद चप्पल टूट गयी थी. झेपी मुस्कराहट के साथ चप्पल घिसट कर चलते देख थोडा दुःख हुआ तो थोड़ी हंसी भी आई . 
मुस्कुराने के बहाने भी कैसे अजीब होते हैं . बेचारे कि चप्पल टूटी है चलने में परेशानी है .  स्टॉप कितनी दूर है . उससे पहले मोची मिलेगा या नहीं , कैसे चल पाएगी इतनी दूर . सब लोंग अजीब नजरों से घूर रहे हैं जो अलग . फिर भी मुस्कुरा रहे हैं  जिसका दुःख है वह भी और जो उसके दुःख में शामिल हो दुखी हो रहा है, वह भी . उसकी मुस्कराहट में शामिल तो मै भी हुई मगर उसके दुःख के अलावा भी मुस्कुराने का मेरा अपना कारण था.

किसी को भी लंगड़ाते देख मुझे बहुत- बहुत-बहुत  साल पहले की स्मृतियाँ सजीव हो उठी है  .  उम्र यही कोई  दस-.ग्यारह वर्ष की रही होगी .  पैर के तलवे में हुए फोड़े ने चलना फिरना मुहल कर रखा था . एड़ी टिका कर चलना संभव ही नहीं था तो  घर में  भी अक्सर सहारा लेकर एक पैर पर चलना पड़ता . घर से बाहर मरहम पट्टी करवाने के अलावा तो जाने का सवाल ही नहीं था . पिता के ऑफिस जाने से पहले सहायक चाबियाँ और उनका ब्रीफकेस लेने आता और  लंच में और शाम को छुट्टी होने पर उनके साथ ही यही समान लेकर लौटता भी . ऐसे ही किसी दिन पापा के साथ आते उनके मुंहलगे  सहायक रामावतार ने मुझे एक पैर पर कूद कर चलते देख लिया .  उसके बाद  हाल ये कि सुबह , शाम ,दोपहर जब भी घर पर मैं उसके सामने नजर आ जाऊं  मुझे देखते ही लंगड़ा कर चलना शुरू कर देता . हम लोग ऐसे ही माहौल में बड़े हुए हैं जहाँ चपरासी , काम वाली बाई आदि भी घर के सदस्य जैसे ही हो जाते हैं  तो कोई उसको डांटता नहीं बल्कि सब उसके साथ ही मुस्कुराने लग जाते.  
 एक तो अपनी हालत से परेशान और ऐसे में किसी का खिझाना और परिजनों का उसमे सहयोग. मैं उस पर बहुत खीझती  चिल्लाती . इतना गुस्सा आता मुझे कि यदि पापा का डर या लिहाज़  नहीं होता उसे गालियाँ भी दे देती या फिर कुछ उठा कर दे मारती .  किस्मत अच्छी थी उसकी कि उसका आना उसी समय होता जब पापा घर में होते .   
खैर , थोड़े दिन बाद पैर ठीक भी हो गया . आराम से चलना -फिरना भी होने लगा  मगर रामावतार का मुझे चिढ़ाना नहीं छूटा. जब भी मैं नजर आ जाऊं ,उसका लंगडाना शुरू . 
मैं बागीचे में हूँ या बरामदे में बैठी रहूँ या फिर कॉलोनी में घूमते मिल जाऊं . मुझे देखते ही उसका लंगड़ाना शुरू .  लोग हैरान होकर उससे पूछते कि अभी तो ठीकठाक थे अचानक क्या हो गया पैर में . मैं तो जानती थी उसके लंगड़ाने का कारण सो खीझ कर रह जाती. ऐसे ही एक दिन लंच के समय पापा के साथ घर लौटते मुझे डाईनिंग टेबल पर खाना खाते देख जब उसने लंगडाना शुरू किया  मैं बस गुस्से से फट पड़ी .  पापा -मम्मी पर भी गुस्सा करने लगी कि आप इसे कुछ कहते नहीं  इसलिए ये हमेशा मुझे चिढ़ाता  है . 
पापा थोड़ी देर सुनते रहे . फिर मुस्कुराते हुए बोले   , " तू चिढ़ती है  इसलिए वह चिढ़ाता है . चिढ़ना छोड़ दे  उसका चिढ़ाना छूट जाएगा ." 
मेरा गुस्सा एकदम से शांत हो गया .  उनकी बात में वजन था . मैं भी उनके साथ मुस्कुराने लगी थी . 
उम्र तो अपनी रफ़्तार से बढती है . जीवन में परिवर्तन भी आते हैं . मैं बड़ी भी हुई ,  विवाह हुआ , बच्चे भी हो गये मगर रामावतार का मुझे चिढ़ाना नहीं छूटा . वह जब भी मुझे देखता पतिदेव या बच्चों के साथ , तब भी उसका लंगड़ाना यथावत रहता .  बस मेरा  खीझना छूट गया था. मैं भी सबके साथ मुस्कुरा देती और  बच्चों को अपने बचपन की कहानी सुनाती. एक अनमोल सबक सिखा मैंने और बच्चों को भी सिखाया  कि  चिढ़ाने वाली परिस्थितियों से कई बार मुस्कुराकर भी बचा जा सकता है . खीझ से बचने में शत प्रतिशत नहीं तो कुछ प्रतिशत जरुर होता है .
पापा नहीं रहे . हमारा वह गाँव छूटा . रामावतार भी रिटायर हो गया . मगर भाई की पास के शहर में नौकरी के कारण अभी संपर्क पूरी तरह नहीं ख़त्म हुआ . एक दिन अचानक मिल गया बड़े भाई को . पूछने लगा हम सबके बारे में   " बबी लोंग कैसन बाड़ी " .
भाई ने झट फोन मिलाकर बात करवा दी  .
का बबी , कैसन बाडू, हम अईनी भैया लगे . पूछत रहनी है कि बबी बाबू लोग कैसन बाड़े ...कईसे   गोड़वा से लंगडात  रहलू ...उहाँ सब ठीक बाटे ना !
पापा-मम्मी और सभी भाई -बहनों की  जाने कितनी ब़ाते याद थी .
भाई ने बताया  वृद्धावस्था  की मार झेलते रामावतार की आँख में आंसू थे .  
 जब भी चिढ़ने चिढ़ाने की बात होती है  मैं इन्ही स्मृतियों से गुजरती हूँ . 
अविश्वास के इस दौर में जीने वाले हमलोग ...सोचती हूँ क्या हमारे बाद वाली पीढ़ी की स्मृतियों में भी ऐसा  अपनापन संभव हो सकेगा !!!

बुधवार, 26 सितंबर 2012

अपने पैसे से उत्कृष्ट साहित्य संग्रहों में अपनी रचनाएँ छपवाने में असहजता का क्या कारण हो सकता है !!

सबसे पहले तो स्वयं को बधाई दे दूं कि बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं . अब लिखा नहीं तो इसमें बधाई देने की क्या बात है !  अकारण व्यर्थ प्रलाप करने का हमें कोई शौक नहीं है , वजन होता है हमारी बात में , इसलिए इस बधाई का भी उचित कारण ही  है . लिख नहीं पा रहे ,  मतलब  साफ़ है कि हम भी राईटर ब्लाक से गुजर रहे हैं , जिससे बड़े -बड़े रचनाकार गुजरा करते हैं . यानि कि  यह तो साबित हो गया ही हम भी लेखक /लेखिका कहलाने योग्य हो चुके हैं , वरना राईटर ब्लाक जैसे साहित्यिक बीमारी से कैसे प्रभावित हो सकते थे !!


अब बात मुद्दे की , लम्बे अरसे से नया कुछ लिखना हो नहीं रहा . कई बार इस स्थिति से हम सब गुजरते हैं . परिस्थितिवश कई बार भावनाओं या विचारों का तीव्र अव्यवस्थित प्रवाह अभिव्यक्ति को अवरुद्ध करता है , वह लेखन की हो या मौखिक !  जो लिखने की इच्छा है लिखना नहीं चाहती हूँ , ऐन वक्त पर दिल और दिमाग में रस्साकसी आरम्भ हो जाती है कि आखिर हमारा ब्लोगिंग में होने का उद्देश्य क्या है . एक कशमकश सी रहती है कि व्यर्थ वाग्जाल में फंसकर अपनी साहित्यिक अभिरुचि को बाधित करना क्या उचित है , वही वाद विवाद में पड़ने  से बचने के लिए कुछ   प्रश्नों /आरोपों का प्रत्युत्तर नहीं देकर बच निकलने जैसी अनुभूति कही स्वयं एवं दूसरों को भी दिग्भ्रमित नहीं करे . जब कुछ कहानी /लेख /संस्मरण नहीं लिखा जा रहा है तो क्यों ना कुछ विचार ही बाँट लिए जाएँ . गृहिणियां रसोई में दाल- सब्जी की छौंक के साथ विचारों का तड़का भी बखूबी लगा सकती है . 

पिछले वर्ष अखबार में लिखे/ छपे   एक आर्टिकल पर सम्बंधित पक्ष की प्रतिक्रिया यूँ मिली " आपने इतनी जल्दी इस विषय पर कैसे लिख दिया , लोंग हमसे पूछ रहे थे कि ख़बरें पैसे देकर लिखवाई जाती हैं " . उस व्यक्ति के लिए यह विश्वास करना जरा मुश्किल था कि मुझे लिखने के लिए पैसे खर्च नहीं करने पड़े थे , बल्कि मुझे पारिश्रमिक दिया गया था . सच कहूं तो उस व्यक्ति द्वारा दी गयी खबर से ही मैंने जाना कि ख़बरें या आर्टिकल पैसे खर्च करके भी लिखवाए/छपवाए  जा सकते हैं . 
 इन दिनों विभिन्न पत्रिकाओं , पुस्तकों या काव्य संग्रहों में पैसे लेकर या देकर कवितायेँ या अन्य रचनाएँ छपवाने के बारे में कई ब्लॉग्स और फेसबुक स्टेटस  में पढ़ा. 
हिंदी ब्लोगिंग के अपने तीन वर्षीय अनुभव में मैंने अनुभव किया कि यहाँ साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले वाले प्रतिभाशाली ब्लॉग लेखक /लेखिकाओं या पाठकों की कमी नहीं है . अपनी रचनाओं को ब्लॉग पर लिखने के अलावा पत्र -पत्रिकाओं /पुस्तक रूप में देखने की इच्छा  भी स्वाभाविक ही है . ब्लॉगर्स की  दिन दूनी रात चौगुनी बढती संख्या में से कम ही सौभाग्यशाली रचनाकार होते हैं जिन्हें पत्र- पत्रिकाओं में छपने का मौका मिल पाता है . अक्सर प्रकाशन समूह अपने प्रतिष्ठित रचनाकारों को ही छपने के अधिक अवसर प्रदान करते हैं . कई प्रकाशन समूहों की अपनी तयशुदा नीतियाँ  या मजबूरियां होती है जिसके तहत विशेष विषय की  उत्तम रचनाओं को भी अपनी पत्र- पत्रिकाओं में छापने में असमर्थ होते हैं . रचनाकारों की प्रकाशन - समूहों और संपादकों की मेहरबानी पर  निर्भरता ब्लॉग लेखकों /लेखिकाओं की  निष्पक्ष बेलाग अभिव्यक्ति पर एक बंधन -सी होती है . क्योंकि ब्लॉग पर लिखते समय प्रत्येक रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र होता है , चाहे जो लिखे . इसके अलावा यदि कहीं रचना भेजी भी तो छपने में , अस्वीकृत होने की अवस्था में जवाब पाने में बहुत समय लगता है .

प्रकाशन समूहों की अपनी मजबूरी है . बढती महंगाई के इस दौर में जब आम आदमी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण जरूरते रोटी , कपडा , मकान जुटाना मुश्किल हो रहा हो तो अपनी मानसिक खुराक के लिए किताबें / पत्रिकाएं आदि खरीदने की हिम्मत कहाँ से जुटा पायेगा . ईमानदारी से बताये कि पढने के शौक़ीन मध्यमवर्गीय  समाज   में से कितने प्रतिशत लोंग अपने पैसे खर्च कर किताबें खरीद पाते हैं!! 

इन परिस्थितियों के मद्देनजर यदि  कोई प्रकाशन समूह उन ब्लॉग लेखकों /लेखिकाओं की  रुचियों और सुविधा को ध्यान में रखकर कुछ सहयोग राशि  पर उनकी रचनाओं को पत्रिकाओं अथवा पुस्तक के रूप में  सहजने का जिम्मा लेता है तो इसमें परेशानी क्या है . अपराध तब माना जा सकता है जब किसी से धोखे से पैसे ऐंठे गये हो , या उन पर दबाव बनाया गया हो  . यदि कोई रचनाकार असहज मसूस करता भी है तो पुनः इस प्रकार के प्रकाशन में रूचि नहीं लेगा . ब्लॉग रचनाकारों से स्वविवेक की अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे अपनी रचनाएँ  किस प्रकार और किस कीमत पर सहेजना चाह्ते हैं . मुझे इसमें कुछ बुराई नहीं लगती , कम से कम अपने पैसे देकर आत्मसंतुष्टि के साथ अपना स्वाभिमान तो बना ही रहता  है . जब लोंग अपने पैसे को मन मुताबिक कपड़ों , किताबों , मनोरंजन , कुत्ते- बिल्लियों के रखरखाव,  दारूबाजी  आदि पर खर्च करने में सहज है तो अपने पैसे से उत्कृष्ट साहित्य संग्रहों में अपनी रचनाएँ छपवाने में असहजता का क्या कारण हो सकता है !!   

कुछ कहना है आपको भी ???

सोमवार, 3 सितंबर 2012

द्रव्यवती नदी का अमानीशाह नाला हो जाना ...

भर सावन मेघ ना बरसे और जो बरसे तो ऐसे बरसे ...कहाँ तो नागरिकों की नींद सूखे और अकाल के अंदेशे से उड़ी हुई थी और कहाँ झमाझम बरखा ने बाढ़ सी स्थिति बना दी . 
तभी तो कहते है कि प्रकृति और भाग्य की माया कोई ना जाने . 
कब राजा को रंक बना दे तो सूखे को ताल तलैया .

बरखा का यह दौर इस बार ऐसा आया है कि " देखत बने न देखते जिन्ह बिन देखे अकुलाही " जैसा हाल हो गया है .


सुबह पतिदेव घर से निकले ऑफिस के लिए तो  उमस के बीच आसमान के एक ओर बादलों के जमघट को देखते हुए सलाह दे दी कि आज उन्हें बाईक  की बजाय कार से जानी चाहिए . वह भारतीय पति ही क्या जो पत्नी की सलाह एक बार में ही मान ले  सो महाशय अनसुनी करते हुए फ़र्राट निकल गये और हम भी अपने घर के कामकाज और कम्प्यूटर को बारी- बारी सँभालते रहे . सामने नजर आये एक ब्लॉगर महोदय पूछ बैठे शहर का हालचाल . सब कुशल होने की खबर देकर कंप्यूटर के सामने से हटे ही थे कि अचानक ही शोर घनघोर उठा . देखा तो मेघ महोदय अति प्रसन्नता से दमकती दामिनी के बीच लरजते-  गरजते- बरसते लास्य मुद्रा में नजर आ गये . लगातार  झमाझम बारिश के कारण घर के सामने जैसे छोटा दरिया- सा बहने लगा . सड़क पर बने मेनहोल से ओवरफ्लो फव्वारे की शक्ल में नजर आ रहा था तो पीछे की गली में छोटा तालाब . पतिदेव को फोन लगाया तो महाशय अजमेर रोड पर ठाठे मारते समंदर की लहरों से घबराये सुरक्षित स्थान पर अटके हुए थे  . भारी वर्षा के भार को अदना सा  रेनकोट नहीं संभाल पाया था.  स्वयं तरबतर अपने दुपहिया और दूसरों के  चौपहिया के पानी में  डूबे होने के मंजर का आँखों देखा हाल सुनाने लगे . सम्भावना यह थी कि बारिश रुकने पर घर लौट कर गीले कपड़े बदलते कुछ भजन सत्संग हो जाता कि घर से निकलते तुमने क्यों टोका या तुमने मेरी सलाह  क्यों नहीं सुनी ,अब आया ना मजा ...
मगर सुहाने मौसम ने चाय के प्याले के साथ गीले बैग से ज़रूरी कागजात सुखाते इन सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया :). 

पुनः  चौपहिया से निकले , मगर घूम फिर कर लौट आना पड़ा . कई स्थान पर घुटनों तक भरे पानी के आगे सारे रास्ते बंद थे . तीन मकानों के एक समूह के आगे पानी ऐसा भरा हुआ था कि उन मकानों में रहने वालों की स्थिति बाढ़ से घिरे होने जैसी ही हो गयी .  उचित व्यवस्था के लिए पुलिस बुलानी पड़ी .  गनीमत रही कि छः वर्ष पहले नए मकान की तलाश में बिल्डर द्वारा हमें भी ये मकान दिखाए गये थे परंतु सड़क की उँचाई की तुलना में  नीचे होने के कारण  हमने इन्हें अनदेखा किया . लगभग एक घंटे में सारी स्थिति सामान्य हो पाई .

बरखा का मौसम भी क्या जो बरसे नहीं परंतु हम राजस्थान वासियों को इतनी अधिक तो क्या ,अधिक वर्षा की ही आदत नहीं है . पिछले वर्ष भी अच्छी बरसात हुई मगर इस बार सिर्फ पंद्रह दिनों की बरसात ने कई वर्षों के आंकड़ों को छोटा कर दिया . छत और दीवारों पर जमी  काई और  मकानों में भीतर की दीवारों पर सीलन के काले निशान अजूबा है हमारे बच्चों के लिए क्योंकि उनके जन्म से अब तक बारिश का ऐसा मंजर उन्होंने नहीं देखा .  इससे पूर्व वर्ष 1981 में वर्षा का भारी दौर रहा था इस शहर में जहाँ बाढ़ ने भारी नुकसान किया था . राजस्थान  यूनिवर्सिटी   तक के ढहने जैसी नौबत आई .बाढ़ के कारण उबड़ -खाबड़ हुई जमीन पर आज खूबसूरत कर्पूरचंद कुलिश स्मृति वन गुलज़ार  है .

दरअसल राजस्थान में भारी बारिश इतनी बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि वर्षों तक सूखी रहने वाली बालू रेत वाली यहाँ की धरती में वर्षा जल को ज़ज्ब करने की अतुलनीय क्षमता है . समस्या जल के संग्रह और  निकास की सही व्यवस्था नहीं होना ही है  .    
 जयपुर सुनियोजित तरीके से बसाया गया  खूबसूरत शहर के रूप में जाना जाता रहा है  मगर यहाँ सीवरेज और जलनिकासी की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण थोड़ी सी बारिश में ही जलप्लावन की स्थिति बन जाती है .   खूबसूरत शहर जयपुर के पास कभी अपनी एक नदी भी थी , अब यह सत्य यहाँ के निवासियों को चौंकाता है . हैरान कर देने वाली कड़वी हकीकत है कि द्रव्यवती नदी के नाम से विख्यात रहा यह  जलप्रवाह अब अमानीशाह का नाला कहलाने लगा है . नाला सुनकर हम तो अब तक यही मानते रहे कि जलनिकासी के लिए बनायीं गयी सीवरेज लाईन जैसा ही कुछ होगा . हैरिटेज से करोड़ों कमाने वाली हमारी सरकारें स्वयं इस अमूल्य थाती के प्रति  इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है ! सरकारों की अदूरदर्शिता , नागरिकों में  पर्याप्त चेतना का अभाव और अतिक्रमण ने शहर की अन्य व्यवस्थाओं के साथ ही जल भराव और निकास को भी भारी नुकसान पहुँचाया है . हैरानी होती है कि जिस सड़क पर जाते हुए हम सभी नागरिकों को जलभराव के क्षेत्र में आये दिन अतिक्रमण कर बनाई जाने वाली मल्टीस्टोरी बिल्डिंग्स नजर आती रहती है  उसी सड़क पर जाते हुए शहर प्रबंध के विभिन्न विभागों के अफसरों , मंत्रियों अथवा अन्य नेताओं को यह नजर नहीं आता . भारी बारिश के समय कुछ दिन सुगबुगाहट होती है और फिर वही ढ़ाक के तीन पात. 
प्रकृति की मेहरबानी रही कि  अब तक  वर्षा का यह दौर बहुत लम्बा नहीं खिंचा वरना लास्य तांडव में बदलते देर नहीं लगती . 
ये लो ...लिखते हुए फिर से दौर शुरू हो गया है वर्षा का ...अब तो बस ईश्वर और बरखा रानी से ही गुहार की जा सकती है कि बरखा बरसो चाहे जितना  , मगर जरा थम- थम के .. .. 




रविवार, 12 अगस्त 2012

ऐसा भी कोई मित्र होता है भला ?

इन्टरनेट पर एक अलग फेसबुक समाज की स्थापना हो चुकी है . आभासी दुनिया की सीमा को लांघ कर यहाँ भी वास्तविक जीवन के सारे गुण दोष , अफवाहें , आरोप , प्रेम , तकरार , नफरत अपनी पूरी भावप्रवणता के साथ मौजूद हैं . हों भी क्यों नहीं . आभासी दुनिया कह देने से यह सिर्फ आभास नहीं हो सकता , कंप्यूटर के कीबोर्ड से जुड़े हुए लोग तो वास्तविक ही हैं . उनकी उम्र , जाति , लिंग , धर्म और प्रोफाइल फर्जी होने के बावजूद भी  .कुछ दिनों पहले फेसबुक पर मैसेज बॉक्स में आये विशेष सन्देश को लेकर काफी हलचल मची रही . इस सन्देश में एक कन्या विशेष को फ्रेंड लिस्ट में ना जोड़ने की प्रार्थना के साथ लेकर फेसबुक धारियों को आगाह किया जा रहा था कि उक्त कन्या बहुत खतरनाक है .. अफवाहों में विशेष रूचि नहीं होने के कारण इस पर तवज्जो नहीं दी मगर यह खयाल आया कि क्यों इस तरह किसी ख़ास कन्या को फेसबुक पर सामाजिक होने से बाधित किया जा रहा है . यदि खतरनाक भी होगी तो फेसबुक पर क्या कर तमंचा ,गोला बारूद चला लेगी ? अगले ही पल खयाल आया कि शायद यह चेतावनी उसके हैकर होने की सम्भावना को लेकर हो ..
किसने उड़ाई होगी यह अफवाह . इससे उसे क्या लाभ होगा ! यह अलग मसला था मगर मेरे ज़ेहन में एक विचार आया ही कि यह कहीं  दो  मित्रों के बीच किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी के कारण रिश्ता टूटने या बिगाड़ने का परिणाम रहा हो . मित्र यदि दुश्मन बन जाए तो उससे खतरनाक कौन हो सकता है . विचार मंथन के दौरान एक हास्यव्यंग्य से भरपूर लोककथा स्मरण में रही जिसमे मित्रों के बीच स्नेह्बंधन टूटने का कारण   व्यंग्य की दृष्टि   से अत्यंत रोचक था . 

किसानों के लिए बुआई  का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है . सुबह जल्दी उठना , खेतों पर जाना , हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जमीन को बुआई के लायक बनाते परिवार और मित् के साथ किसान अपने छकड़ों पर घर से खेतों के मार्ग का रास्ता बतियाते तय करते हैं . ऐसे ही एक विशेष जाति का किसान अपनी  
धुन   में अपने ऊंट छकड़े पर दौड़ता जा रहा था कि उसके गाँव के ही एक दूसरे व्यक्ति ने आवाज़ देकर उसे भी साथ ले चलने को कहा . किसान ने उस व्यक्ति से उसकी जाति पूछी और हमजात होने पर उसे अपने साथ ले चलने को राजी हुआ . 

हां तो तुम भी ....हो , इसलिए ही मैंने तुम्हे अपने छकड़े पर बैठा लिया .  फलाना जाति के होते तो मैं कभी अपने छकड़े पर तुम्हे जगह नहीं देता . वे लोग तो बिलकुल मित्रता के योग्य नहीं होते हैं .

कहते तो तुम ठीक हो . मेरा भी अनुभव कुछ ऐसा ही रहा है . इन लोगों को तो कभी मित्र बनाना ही नहीं चाहिए . बुरे समय में कभी साथ नहीं निभाते .  बोलो ऐसे भी कोई मित्र होते हैं !

अच्छा तुम्हारे साथ भी यही हुआ , क्या किस्सा है ,बताना तो !

अरे होना क्या है . मेरा भी एक ....मित्र था . दांत कटी दोस्ती थी हमारे बीच . साथ उठना- बैठना , खाना -पीना , खेतों पर काम करना  , सब कार्य  साथ ही करते थे . सब  अच्छा चल  रहा था मगर एक दिन  मेरे सर  पर आफत  आ  गयी  . मैंने जब  अपने उस मित्र को मदद  करने  को कहा तो साफ़  मुकर  गाया  ...

ऐसी   क्या मुसीबत  आ  गयी   थी  !

पिछली फसल के समय हम ऐसे ही अपने  छकड़े पर अपने परिवार के साथ खेतों पर जा रहे थे . रास्ते में प्यास लगी तो देखा कि  पानी भरा देवरा तो घर ही भूल आये थे . राह में ही मीठे पानी का कुआं दिख गया तो सोचा यही से पानी भर ले चले  . मैंने मित्र से कहा तो तुरन्त मान गया वह भी . हालाँकि उसके पास भी थोड़ा पानी तो भरा हुआ था .  रास्ता कंकड़ पत्थरों के साथ बेर की झाड़ियों के काँटों से भी भरा था . हम दोनों मित्र अपनी पत्नियों  के साथ  कुएं की ओर बढे . मेरी पत्नी की चप्पल टूट गयी थी मैंने अपने मित्र से कहा कि अपनी पत्नी की चप्पल दे दे मेरी पत्नी को . बेचारी कैसे चल पाएगी . मित्र की पत्नी ने अपनी एक चप्पल उतार कर दे दी!
 बोलो !ये क्या बात हुई . दोनों चप्पल दे देती तो क्या बिगड़ता ?
बेचारी मेरी पत्नी सिर्फ एक चप्पल से कैसे चल पाती . गुस्से का घूँट पीकर मैं उस समय चुप ही रहा . कुँए की पाल  पर   पहुंचे   तो देखा कि बाल्टी में रस्सी छोटी पड़ रही थी . बाल्टी कुएं में डूबती नहीं थी . कैसे पानी भर पाते!
अब  सुनसान  बियाबान  में जेवड़ी  कहाँ  से आती  , मैं बोला  मित्र से-- तेरे  ऊंट की जेवड़ी   निकाल  कर ले आ  . मित्र  भागा हुआ  गया और ऊंट के नाक  से बंधी  नकेल  का  आधा  हिस्सा  काट  कर ले आया.
मैंने बोला  कि तू   पूरी रस्सी  क्यों नहीं लाया  तो कहने  लगा  कि आधी  रस्सी  से ऊंट को पेेेड़ड़ से बांध  कर आया हूँ  . कहीं  इधर-  उधर  चला गया तो ?
खैर,  आधी  जेवड़ी  से जैसे-  तैसे  पानी निकाला  , मगर मेरा मन  खराब  हो गया था ,
बोलो!  ऐसा भी कोई मित्र  होता है?

सही कहते हो भाई ऐसा भी कोई मित्र होता है ! मगर तुमने अपने  ऊंट  की नकेल क्यों नहीं निकाली ...

क्या कहते हो . और मेरा ऊंट कही इधर - उधर चला जाता तो ? मैं तो बर्बाद ही हो जाता !

सही कहते हो भाई , ये लोग मित्र बनाने के योग्य नहीं है. अब तुम सुनो मेरा किस्सा !!
पिछले बरस अच्छी कमाई हुई खेती में . बारिश सही समय पर  आई   . अच्छी फसल हुई , अच्छी कीमत पर बिक भी गई तो सोचा के अबके बेटी का ब्याह ही  निपटा  दिया जाए . सो अच्छा -सा खाते -पीते घर का लड़का देखा .  शादी पक्की कर दी .  लगन हुआ . सारी  तैयारी करते शादी की तारीख भी आ गयी . मगर गलती ये हुई कि ननिहाल गयी बेटी को शादी के दिन समय से बुलवाने की बात ही  भूल गया  .
उधर बारात रवाना होने की खबर आई तो जल्दी से भाई को भेजा कि बेटी को लिवा  लाये . अब इतनी दूर का मामला . आते तो समय लगता ही . उधर बरात  रवाना हो चुकी थी . मैं अपने मित्र के पास गया कि एक दिन के लिए अपनी बेटी को मेरे घर भेज  दे .  हल्दी  , तेल  , मेहंदी  , जयमाल  तक  की सारी  रस्मे    कर लेगी .  तब  तक   मेरी बेटी आ जाएगी  ननिहाल से . फिर उसका  विवाह  कर देंगे  और तेरी बेटी तुझे वापस  .
मेरा मित्र बोला  कि हम इतने दिनों से अच्छे  मित्र है .  जैसी  मेरी बेटी  वैसी  ही तेरी  बेटी  मगर ये तो आज  तक  नहीं हुआ कि तेल  , हल्दी  , मेहंदी  किसी का हो , और विवाह  किसी और का .  यह नहीं हो सकता ...मुझे  माफ़  कर दे .

ओहो  ! फिर क्या हुआ , क्या किया ?

क्या करता  . मिट्टी  की गुुड़िया रखकर  सारे नेगचार  किये  . किस्मत  अच्छी थी कि जयमाल  के समय बेटी वापस  आ गयी थी ननिहाल से . सो शादी तो सही ढंग  से निपट  गयी मगर मैंने इस मुसीबत की घड़ी  में दोस्त  को अच्छी तरह परख   लिया . मैंने उससे दोस्ती ही तोड़ ली.   ऐसा भी कोई मित्र होता है भला ?

सही कहते हो भाई . ऐसे लोगों को तो मित्र बनाना ही नहीं चाहिए ! ऐसा भी कोई मित्र होता है भला!

लोक कथा से प्रेरित  ...
कहानी  का मॉरल  तो आप सब लिख   ही देंगे  :)

सोमवार, 23 जुलाई 2012

लड़कियां इतनी खुश कैसे रह लेती !!


एक ज़माने में सभी लड़कियां खूबसूरत थी या नहीं ,रोती बहुत थी. चक्की चलाते आटा पिसती , तेज धूप में मीलों सिर पर पानी की गागर उठाये चलती , कपास कातती, खेतों से सिर पर मनों वजन उठाये उबड़ खाबड़ सड़क पर लड़खड़ा कर  चलते सहमकर बातें करती , हंसती मुस्कुराती यूँ कि जैसे रोती थी .
वक़्त से पहले झुकती कमरें , चेहरों की झुर्रियों वाली उन रोती हुई उदास स्त्रियों में से ही किसी एक ने रची एक कहानी , यह सोच कर कि उनकी बेटी को भी यूँ ही रोना ना पड़े ....
ठुड्डी पर दोनों हाथ टिकाये एक उदास बच्ची को उसकी माँ ने पास बुलाया , गुदगुदाया ...क्या हुआ ?
कुछ नहीं ...अनमनेपन से नहीं कहते हुए  उसकी आँखों के पीछे उदासियों का शुष्क समंदर लहराया ... 
हूँ ...माँ की आँखों में प्रश्न नहीं थे ! वह भी कभी एक ऐसी ही उदास बच्ची थी , उसकी नानी भी , दादी भी ....
मगर उस माँ को इन उदासियों को यही रोक देना था ...
तुम्हे पता है , मैं जब छोटी थी मेरे माँ ने मुझे एक कहानी सुनायी थी , तुम सुनोगी ...
हाँ हाँ, क्यों नहीं , मगर परियों वाली , सफ़ेद घोड़े के राजकुमार की कहानी तो तुम मुझे कई बार सुना चुकी ....अब लड़की की आँख में आकाशदीप झलका.
कहानी तो सुनायी मैंने , लेकिन कहानी कहते हुए माँ ने जो कहा , मैंने नहीं सुनाया ...तुम्हे पता है , जिस वक़्त परमात्मा ने सृष्टि रची , स्त्री को बनाया , उसी समय उस ने किसी को उसके लिए बनाया जो उसे हर समय प्रेम करता है , हर स्थिति में , उसके होने में , ना होने में ! अच्छे- बुरे होने में , सफल -असफल होने में ! वह उसे कभी मिलता है , कभी नहीं मिलता है , कभी दिखता है , कभी नहीं दिखता है ...मगर वह होता है या होती भी है !   
ऐसा हो सकता है मां , ऐसा होता है !! 
हाँ,होता है ना , वह हमेशा सफ़ेद घोड़े पर आने वाला राजकुमार ही नहीं होता , हाथ पकड़कर पुल पार कराने वाला पिता भी हो सकता है , चोटी खींच कर भाग जाने वाला भाई , रूठ कर मनाने वाली बहन , चिढाते रहने वाला मित्र , कोई भी हो सकता है ...वह दृश्य हो या अदृश्य , मगर वह होता जरुर है ! 
लड़की की आँखों के शुष्क समंदर में आशाओं का पानी उतर आया था ...
तुमने मुझे बताया , मगर सब उदास बच्चों को कैसे पता होगा ....
तुम उनको यही कहानी सुनाना !
लड़की ने इस कहानी के आगे सोचा ... कहानी सुनाने के साथ वह स्वयं भी तो वैसी ही हो जाए तो , जैसे कि किसी को ईश्वर ने किसी के लिए बनाया , उसे भी बनाया ...
आँचल के साए में घेर लेने वाली मां , अनुशासन में सुरक्षित  रहने की सीख देता पिता , उसकी पसंद की चीज बहुत खिझा कर देने वाला  वाला स्नेहिल भाई या बहन , सन्मार्ग को प्रेरित करता मित्र , कंटीली राहों पर क़दमों के नीचे फूल बिछाने वाला प्रेमी या हाथ पकड़कर हर मुश्किल में साथ रहने वाली प्रेमिका ....वह जितनी अपने करीब आती गयी वैसी ही होती गयी , जैसे कि ईश्वर ने उसे किसी के लिए बनाया . 
उस लड़की ने कहानी में सब कहा , जोड़ा और स्वयं भी वैसी हो गयी . जब वह लड़की बड़ी हुई , माँ हुई तब उसने अपनी बेटी को सुनायी  यही कहानी ... पीढ़ी दर पीढ़ी सब कहते सुनते गये , खुशहाल होते गये ....
वरना ऐसा कैसे हो सकता था कि लड़कियां इतनी खुश रह लेती !!!!

सोमवार, 16 जुलाई 2012

कब मिल पायेगा लड़कियों को एक सुरक्षित समाज ....


कहीं किसी शहर के एक कमरे (कमरा कहा है , कौन लोंग हैं --अंदाज़ा लगायें ) में कुर्सियां लगा कर विडियो पर फिल्म देखी जा रही थी  . दृश्य देखते अचानक इन्ही लोगों के बीच एक पत्रकार जैसा व्यक्ति  बदहवास- सा नजर आता है . साथियों के पूछने पर  कुछ नहीं कहता , अचानक उठ कर चल देता है . दूसरे दिन उस व्यक्ति की बहन  की  आत्महत्या की खबर अख़बारों में . 
नहीं जानती कितनी सच्चाई थी इन उडती -सी ख़बरों में , मगर इस तरह हुआ एक बेइन्तहा खौफनाक काण्ड का खुलासा जिसने सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न राज्य में अफरातफरी मचा दी  . जिस तरह परते खुलती गयी , लड़कियों की आत्महत्याओं की संख्या बढती गयी. 
सुनने में आया कि इस दलदल में लड़कियां अपनी मर्जी से जानबूझकर नहीं आई ...एक लड़की, उसकी सहेली  , फिर उसकी सहेली , किसी की ननद , किसी की भाभी , किसी की कोई  ...अपने बचाव के लिए दूसरे को फंसाने  से शुरू हुए इस  ब्लैकमेलिंग के  सफ़र की गिरफ्त में संभ्रांत परिवारों की जाने कितनी लड़कियां भंवर की तरह उलझती  गयी . 
हममे से शायद ही कोई इस तथ्य से अपरिचित होगा  कि एक सभ्य माने जाने वाले समाज में व्यापक स्तर पर ब्लैकमेलिंग क्यों कर संभव हो पाती है . लड़कियों/स्त्रियों के भीतर अपनी या परिवार की बदनामी का भय या फिर  अपने  अपने साथ हुई अनहोनी का जिक्र अपने परिवार से करने का साहस ना हो पाना,  साहस कर भी लिया तो दोषी उन्हें ही ठहराया जाना ...सबसे दुखद यह है ऐसे संगीन मामलों की शुरुआत अक्सर  नजदीकी रिश्तेदार , करीबी मित्रों से ही होती है .  
यदि उस दिन उस व्यक्ति ने वह विडियो नहीं देखा होता तो जाने यह सीरिज जाने कितनी लम्बी चलती .... जिन लोगों का जिक्र यहाँ हैं वे शायद अपनी ड्यूटी निभा रहे थे , मगर ऐसे लोगो की कमी नहीं है जो अपने शौक के लिए ऐसी  फ़िल्में देखते हैं और बड़े फख्र से मनोवैज्ञानिक कारणों का तर्क देते हुए उसका स्पष्टीकरण भी देते हैं . कहा जाता है कि जब लड़कियां खुद अपने आप को उघाड़ रही है तो हमें देखने में हर्ज़ क्या, बल्कि उन्हें बोल्ड होने की संज्ञा देते हुए उनकी प्रशंसा की जाती है . कितने ही तर्कों से इसे ढांकने की कोशिश की जाए मगर सच यह है कि इस तरह की फ़िल्में या साहित्य समाज में एक निम्न स्तर की घृणित उत्सुकता जगाती है जिसकी आंच उन बोल्ड/मजबूर  लड़कियों से होती हुई सामान्य घरों तक पहुँचती है . उच्च वर्ग की बोल्ड लड़कियां अंग प्रदर्शन कर  करोड़ों कमाती हैं मगर इसके बुरे साईड इफ़ेक्ट के रूप में सामान्य घरों की लड़कियां  या स्त्रियाँ उन निम्न स्तरीय निर्माताओं के हाथ की कठपुतली बनती है  जो कम पैसे खर्च कर करोड़ों कमाना चाह्ते हैं ,  लड़कियों की बोल्डनेस को ढाल बनाने वाले उपर्युक्त घटना से जान सकते हैं कि वे बोल्ड किस प्रकार  बनाई जाती है. घृणित उत्सुकता  सस्ते विकल्प के रूप में छिपे कैमरों को किसी मॉल के चेंजिंग रूम से  लेकर किसी होटल के कमरे तक पहुंचाती है . परेशान लड़कियां चीख कर खुले आम कहती हैं कि जब बिकना ही है तो अपने दाम और अपनी शर्तों पर क्यों नहीं---- काश यह समाज   इन शब्दों के पीछे  की गहन  पीड़ा , क्षोभ , दर्द , टीस को महसूस कर सकता . दरअसल उनकी चीख सफेदपोशों के चेहरे पर झन्नाट थप्पड़  है जिससे बौखलाते हैं हम सब मगर  हम उनकी तकलीफ को महसूस नहीं करते , बल्कि उन्हें चालू , कुलटा , वेश्या , लालची, व्यभिचारिणी  के उपनाम दे कर निश्चिन्त हो जाते हैं . 

इस बीच देश को शर्मसार करने गुवाहाटी की घटना से आहत लोंग तर्क देते नजर आते हैं कि इव टीजिंग की घटनाएँ स्त्री- पुरुष को एक- दूसरे से अलग रखने के कारण संभव हो पाती है . तब तो ये निर्माता बड़ा नेक(??) करम कर रहे हैं .
आदि हो जाने का क्या मतलब है , मुझे  यही समझ नहीं आया . क्या ये लोंग अपने घर में अपनी  माँ -बहनों-भाभी -चाची-या अन्य महिला रिश्तेदारों  के साथ नहीं रहते ?  बच्चे कैसे शिक्षा प्राप्त करें यह अलग बात है , वे साथ पढ़ते हैं , लिंग विभेद के बिना आपस में बातचीत करते हैं , इसलिए उन्हें एक दूसरे से बात करने में संकोच नहीं होता , यह बिलकुल अलग बात है . इसका इव टीजिंग से कोई  वास्ता  नहीं है. स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार किसी  व्यक्ति/ समाज विशेष की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है .  
यदि स्त्री -पुरुष का अलग संसार ही इन दुष्कृत्यों का कारण है  तो इस दृष्टिकोण  से  हर धर्म के साधू -सन्यासी , ब्रह्मकुमारी , सिस्टर या नन, अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले  पति- पत्नी आदि, इन  सभी को  दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए. इस प्रकार के तर्क  दुराचरण को सिर्फ एक आवरण प्रदान करते हैं.  

कुछ लोगो का हास्यास्पद तर्क सुना / पढ़ा कि लड़कियों का खुला स्वभाव या उनके छोटे वस्त्र ही इव टीजिंग की घटनाओं का कारण बनते हैं या उकसाते हैं . आये दिन अखबार रंगे होते हैं छोटे बच्चों के साथ दुराचरण की ख़बरों से . क्या मासूम बच्चे किसी प्रकार की उकसाहट का कारण बन सकते हैं .    क्या पूरे वस्त्र पहने स्त्रियाँ अभद्र नजरों, कटाक्षों या व्यवहार से बच पाती हैं ...नहीं .  
बुरी नजरों या अभद्र व्यवहार का कारण  मानसिक रुग्णता ही अधिक होती है . 
दुष्ट प्रवृतियाँ बुरी संगति , घटिया साहित्य या मानसिक रुग्णता के कारण होती है , निराकरण इन परिस्थितियों का किया जाना चाहिए . 
मेरी समझ से दुराचरण या अभद्र व्यवहार के दोष से बचने के लिए स्त्री -पुरुषों को  एक दूसरे के शरीर का  आदि बनाये जाने की बजाय  आत्मनियंत्रण सीखने /सिखाने की आवश्यकता अधिक  है  . विभिन्न समाजों में स्त्रियों या लड़कियों को यह बहुत समय से सिखाया जाता रहा है , इसलिए पुरुषों के प्रताड़ित होने की संख्या ना के बराबर रही है.  यदि हम सामाजिक संतुलन के लिए स्त्रियों को दुर्व्यवहार अथवा अभद्र व्यवहार से बचाना चाह्ते हैं तो पुरुषों को भी उसी मात्रा में संयम और आत्मनियंत्रण सीखने और सिखाये जाने की आवश्यकता अधिक है ना कि स्त्रियों को और अधिक बंदिशों में रहने /रखने अथवा उघाड़ने की सीख दिए जाने की . 

समस्या जिस भी कारण से हो , आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण से बढ़कर और कोई समाधान मुझे नजर नहीं आता .
आत्मसंयम के प्रश्न पर मुझे  स्वामी विवेकानंद से जुडा संस्मरण याद आता है ...  
अमेरिका भ्रमण के समय एक महिला ने स्वामी जी से विवाह की इच्छा प्रकट की क्योंकि वह उनकी विद्वता पर  मोहित थी . स्वामी जी ने जब उस महिला से उनसे विवाह का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि वह विवेकनद जैसे जहीन बच्चे की माँ बनना चाहती है . तब उन्होंने स्वयम को ही उनके बच्चे के रूप में प्रस्तुत किया .  




(यह अधूरा लेख ड्राफ्ट में सेव था , पिछले दो दिन व्यस्तता में रहे , तभी रश्मि रविजा की पोस्ट नजर आ  गयी  . स्त्रियों के प्रति अभद्रता और उन्हें बाजार बना दिया जाना , दोनों ही विषय एक दूसरे से सम्बद्ध नजर आये तो उसकी पोस्ट की टिप्पणी के रूप में लेख को  विस्तार दिया ) 

शुक्रवार, 29 जून 2012

बात तो दिमाग के खुलेपन की है ....

गत 25 माई को राजस्थान की एक  दिलेर जांबाज सुपुत्री  दीपिका राठौर ने एवरेस्ट पर फ़तेह हासिल कर इस स्थान पर झंडा फहराने वाली पहली राजस्थानी महिला होने का गौरव प्राप्त किया . भ्रूण हत्याओं , दहेज़ हत्याओं की  ख़बरों के बीच यह खबर एक सुखद बयार सी लगी . भ्रूण हत्याओं  के कारण लड़कियों की बीच घटती औसत जन्मदर के बावजूद  राजस्थान की बेटियों ने यूँ भी परचम कम नहीं लहराए हैं . इससे पूर्व राजस्थान की ही स्नेहा शेखावत ने 63वें गणतंत्र दिवस परेड में वायु सेना का नेतृत्व कर इतिहास रचा . गौरतलब हैं कि ये लड़कियां राजस्थान के छोटे कस्बे से निकल कर आये माता- पिता की संतान हैं . गाँवों में पाले बढे ये अभिभावक और इनकी संतान एक बेहतर उदाहरण है कि खुले दिमाग के लिए शहरी आबोहवा ही ज़रूरी नहीं है . इन अभिभावकों ने अपनी पुत्रियों को भी पुत्र की तरह ही आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया और परिणाम आज अपनी ख़ास राजस्थानी कुर्ती- कांचली में पूर्व मुख्यमंत्री के हाथों  मिठाई और बधाई प्राप्त करते उनके गर्वोन्मत्त चेहरे पर साफ़ नजर आता है .  




कुछ समय पूर्व ही एक राजपूत विवाह समारोह में जाना हुआ . जयमाल कार्यक्रम संपन्न हो चुका था. सामने स्टेज पर दूल्हा- दुल्हन को घेरे लम्बे घूंघट सहित राजपूती परिधान में बहुत सी स्त्रियों  को देखते हुए पतिदेव ने मुझे ही वहां जाकर दुल्हन की माँ को लिफाफा दे आने के लिए कहा क्योंकि हमें एक और विवाह समारोह में भी शामिल होना था . चूँकि मैं उन महिला से कभी मिली नहीं थी  तो पतिदेव ने बताया कि तुम   उक्त महिला का नाम लेकर किसी से भी पूछ लेना. घूंघट वाली महिलाओं के झुण्ड के बीच उन महिला तक पहुँच उन्हें बधाई देकर जाने लगी तो वे पतिदेव से मिलने मेरे साथ ही आ गयी यह कहते हुए कि बिना भोजन किये नहीं जाए . 
इस बीच मैंने उन्हें पूछ ही लिया ,लम्बे  घूंघट में इन लोगों को परेशानी नहीं होती . दुल्हन के चेहरे पर भी  लम्बा घूंघट है . तस्वीरों में चेहरा भी नजर नहीं आएगा .वे सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी . बाद में पतिदेव ने बताया कि वे उनके कार्यालय में कार्यकुशल रौबदार  अधिकारी  हैं. 

विवाह के कुछ वर्षों बाद एक परिचित प्रधानाध्यापिका से एक इंटरव्यू के दौरान मिलना हुआ . उलटे पल्ले की साड़ी में उनके सादा सौम्य स्वभाव ने बरबस ही मोह लिया था . मेरी हिचकिचाहट को देखते हुए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि तुम घर में घूंघट में रही हो  सिर्फ इसलिए मत सकुचाओ . तुम्हे पता है, जब मैं विवाह होकर ससुराल आई थी तो बहुत लम्बे घूंघट में रहना होता था . शादी के बाद ही मैंने बी एड किया . तब घर से परदे में निकलती थी और वापस घर लौट कर भी उसी परदे में रहना होता था . मगर इससे मेरी शिक्षा पर कोई असर नहीं हुआ. प्रधानाध्यापिका होने का आत्मगौरव उनके  चेहरे पर इसकी चुगली खा ही रहा था . हालाँकि छोटे बच्चों के कारण होने वाली असुविधा को देखते मैं उनके  प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकी परंतु एक अच्छी सीख तो मुझे उनसे मिल ही गयी कि ढ़के हुए सिर के भीतर भी खुले दिमाग हो सकते हैं . 

हिंदी की एक विदुषी प्रोफ़ेसर जिनका स्टडी रूम  मूल्यवान साहित्यिक  कृतियों से सजा -धजा है . जब भी हमसे मिलने घर आती , अपने सास- श्वसुर  के सामने उन्हें सिर ढ़के हुए ही पाया . 

वाणिज्य की  गोल्ड मेडलिस्ट व्याख्याता , आयुर्वेद की जानी- मानी वैद्य , एल एल बी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण प्रतिभावान वकील , जाने कितनी महिलाओं से मिलना हुआ जो घर में सिर ढ़के हुए या घूंघट में मिली . 


सगाई के लिए ससुराल से आई महिलाओं के एक हाथ लम्बे घूंघट को देखकर मैंने पास बैठी ननद से धीरे से पूछ लिया ." आपके यहाँ इतना लम्बा घूंघट निकलते हैं " . वे मुस्कुराती हुई बड़े गर्व से बोली - हाँ.  
स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले इस दिल और दिमाग के कितने टुकड़े हुए, बता  नहीं सकती थी . मेरा मायका भी कोई आधुनिक बस्ती का जमावड़ा नहीं था . वहां भी महिलाएं  अपेक्षाकृत   कम परदे में मगर रहती तो थी और चूँकि विवाह की स्वीकृति भी उनके घर के रीति -रिवाज़ और संस्कारों को जानते हुए ही दी थी  इसलिए विरोध करने का कोई कारण भी नहीं बनता था . विवाह के बाद घर की बुजर्ग महिलाओं से भी लम्बे घूंघट निकलने की ताकीद मिली तो एक आह निकल कर रह गयी . बुजुर्ग महिलाओं के सामने पति से बात नहीं करना ,  जेठ- ससुर से पर्दा करना और  उनसे कुछ पूछना कहना हो तो एक मध्यस्थ की आवश्यकता . यदि  घर में कोई और नहीं हो तो क्या करें , कुछ समझ नहीं आता था .  
एक रिश्तेदार के साथ जब सिनेमा देखने निकले तो रास्ते में मुझसे बोली ." भाभी , आप ठीक से सिर नहीं ढकती है . किसी ने देख लिया तो घर पर शिकायत कर देगा ".
 मैंने बड़ी उलझन में कहा . अब क्या सिनेमा भी घूंघट निकाल कर देखा जाएगा और यहाँ इस भीड़ में मुझे कौन पहचानता है . 

विवाह के बाद के इन चौबीस वर्षों में बहुत कुछ बदला है . आज पारिवारिक कार्यक्रमों में वही परिचित महिला कहती नजर आती है ," अरे , छोडो ये सब घूंघट , आप लोंग तो जेठ -ससुर जी से बात किया करो , हम कब तक मध्यस्थ बने रहेंगे ". 

इसके विपरीत आजकल परिचित  अथवा  रिश्तेदार अपेक्षाकृत  कम पढ़ी-लिखी , आधुनिक महिलाओं से साक्षात्कार  कम नहीं होता  . सिर ढकना , घूंघट करना , बड़ों के पैर छूना जैसे कार्यों को दकियानूसी मानने वाली इन रूपसी सजी धजी महिलाओं से बात कर देख लो  तो उनकी आधुनिकता की पोल पट्टी दन से उघड़ जाती है . 

इसका मतलब यह हरगिज नहीं है कि पर्देदार महिलाएं सब सुसंस्कृत ही होती है और आधुनिकाएं बिगडै़ल या दिमाग से पैदल . गज भर घूंघट में चपड़ -चपड़ कर लड़ती स्त्रियाँ भी नजर आ जायेंगी तो  वहीं बिना परदे आँखों की शर्म लिए सभ्य महिलाएं भी .   
यह सब लिखते हुए दिमाग में हलचल भी हो रही है , सिर्फ महिलाओं के लिए ही क्यों है यह सब , आँख में लज्जा , जुबान में मिठास ...मैं यह सब क्यों लिख रही हूँ . हम लोग पुरुषों के लिए क्यों नहीं सोचते ...वे क्या पहने , कैसे बोले , उनके संस्कार , आदर्श , लिहाज़ . इन पर इतनी कम बात क्यों होती है !
खैर , फिलहाल इस दिमागी हलचल को एक तरफ रख कर अपने दिल और दिमाग की  सम्मिलित संतुलित पुकार को ही सुन लेती हूँ ....

विगत वर्षों  में यह अच्छी तरह जान लिया है कि  घूंघट या पर्दा तो एक आवरण भर है .   स्त्री -पुरुष के विभेद के बिना यह निष्कर्ष तो निकल ही आया है  कि ढके हुए सिर के भीतर खुले दिमाग भी हो सकते हैं और उघाड़े माथे के भीतर सब कुछ खाली भी हो सकता है . 

इस लिहाज़ से यह  पुरानी पोस्ट भी ताज़ा ही है ..

बुधवार, 20 जून 2012

जंगल का लोकतंत्र ....



जंगल में सभी जानवर एक दूसरे के दुश्मन होकर भी हिल -मिल कर रहते थे . शेर , चीता , हाथी जैसे बड़े और बलवान भी तो लोमड़ी ,भेड़िये जैसे धूर्त भी .,यहाँ तक कि खरगोश , हिरन जैसे निरीह जंतु भी. इन सब जानवरों ने मिलकर शेर को राजा बना लिया था . सदियों से राजा बने रहने के कारण शेर को अपने आप पर बहुत घमंड हो गया था . वह भूल गया था कि सभ्यता के विकास और प्राकृतिक उथलपुथल का असर मनुष्यों के साथ जानवरों के स्वभाव और प्रकृति में भी स्पष्ट नजर आने लगता है . 

समय के साथ परिवर्तन अवश्यम्भावी है . शेर के खिलाफ भी जंगल के प्राणियों में खुसर- फुसर शुरू हो गयी . अपने घमंड में सना शेर यह नहीं समझ पाया था कि जनता में व्यवस्था से पनपा असंतुष्टि का भाव सत्ता परिवर्तन में अहम भूमिका निभाता है . बलवान शेर से मुकाबला किसी एक अकेले जानवर के लिए संभव नहीं था . सभी जानवरों ने विचार विमर्श कर निर्णय लिया कि हाथी बलवान तो होते ही हैं और झुण्ड में रहना उनकी शक्ति को और बढाता है ,वही धूर्तता में लोमड़ी का कोई सानी नहीं है इसलिए यदि ये दोनों एक साथ शेर के खिलाफ एकजुट हो जाए तो उसका घमंड तोडा जा सकता है .

जंगल में सभा हुई और सर्वसम्मति से हाथी और लोमड़ी को मिलकर जंगल का प्रशासन सँभालने का भार सौंपा गया .शेर के सामने पदत्याग के सिवा चारा नहीं था .अब चूँकि लोमड़ी और हाथी को एक साथ व्यवस्था का सञ्चालन करना था तो दोनों ने आपसी सहमति से तय किया कि दोनों बारी -बारी से 6 महीने के लिए जंगल का राज्य संभालेंगे . जब हाथी राजा होगा तो लोमड़ी को उसके निर्देशों का पालन और सहयोग करना होगा , वही कार्य लोमड़ी के जंगल की बागडोर सँभालने पर हाथी को करना होगा .सबसे पहले लोमड़ी को राज्य सँभालने का मौका मिला . लोमड़ी स्वभाव से ही धूर्त होती है , उसने पद सँभालते ही अपनी मीठी बोली से सभी जानवरों को अपने पक्ष में करने का अभियान प्रारंभ कर दिया . 

अपनी स्थिति कमजोर देखकर शेर अभी तो चुप बैठा था मगर भीतर ही भीतर उसने हाथियों को भड़काना शुरू कर दिया . उसने हाथी को समझाया कि 6 महीनों तक लोमड़ी अपनी पैठ जमा चुकी होगी , जानवरों के साथ खजाने पर भी उसका आधिपत्य हो जाएगा , तुम तो बस राजा बनने के सपने ही देखते रहना . हाथी को भी अब शेर की बातों में दम नजर आता था . उसने व्यवस्था बनाये रखने के लिए लोमड़ी के लिए गए हर निर्णय का विरोध करना शुरू कर दिया . आये दिन हाथियों और लोमड़ी में तकरार होने लगी जिसका असर प्रबंधन पर भी नजर आने लगा . जिस अव्यवस्था से उकताकर जानवरों ने इन्हें अपना राजा बनाया था , वह तो ठीक हुई नहीं , उलटे जानवरों के छोटे- छोटे झुण्ड बनकर उनमे आपस में बैर भाव शुरू हो गया . 

अब बेचारे जानवर रोज माथा पीटते थे . इससे तो शेर ही भला था, सिर्फ एक तानाशाह ही तो था , उसे तो जैसे- तैसे झेलते थे , अब तो हर तरफ से मार पड़ने लगी थी . हाथी और लोमड़ी के बीच बढती कलह को देखकर आखिर जंगल में मध्यावधि चुनाव करवाए गए . जंगल की जनता खिचड़ी सरकार की करमात देख चुकी थी इसलिए इस बार शेर को भारी समर्थन से राजा बनाया गया . अब चूँकि सत्ता की चाबी शेर के हाथ में थी , वह फिर से बलशाली हो गया था . उसने अपने गुप्तचरों को सभी उन प्रमुख जानवरों के पीछे लगा दिया जिससे उसे खतरा हो सकता था . गुप्तचरों ने सूचना दी कि भालू और लोमड़ी अभी चुप बैठे हैं , मगर मौके की तलाश में है . अब शेर को उनका शिकार करना था , मगर जंगल के लोकतंत्र में भी बिना किसी साबित अपराध के सजा नहीं दी जा सकती थी . शेर ने कुछ दिन धीरज रखा . 

शीत ऋतु में ठण्ड के आते -जाते दौर ने शेर को भी नहीं बख्शा . जुखाम के कारण छींक -छींक कर बेहाल हुआ जा रहा था . वो राजा ही क्या जो अपनी किसी भी कमजोरी या बीमारी को भी इस्तेमाल ना कर सके . .उसके दिमाग ने भी अपनी बीमारी को हथियार बनाकर षड्यंत्रकारियों से बदला लेने का उपाय ढूंढ लिया . पूरे जंगल में खबर फैला दी गयी. शेर अस्वस्थ है , उसे जुखाम हो गया है . सभी जानवर बारी- बारी से अपने राजा का हालचाल पूछने राजा की गुफा के बाहर इकठ्ठा हुए . जंगल के वैद्य को बुलाया गया . वैद्य को पहले ही ताकीद कर दी गयी थी कि सभी जानवरों के सामने राजा की बीमारी का पूर्वनियोजित कारण और उपाय ही बताना है . वैद्य जी ने  परीक्षण  करते हुए अपना आला बैग में रखा और गंभीर मुद्रा में सर हिलाते हुए राजा को गंभीर संक्रमण के कारण बीमार होना घोषित किया . वैद्य ने बताया की जुखाम नामक रोग वायु के साथ कीटाणुओं के फैलने से होता है . जंगल के ही किसी प्राणी में इस रोग के कीटाणु हैं , यदि जल्दी ही इसकी रोकथाम ना की जाए तो सभी जानवरों को इस रोग से संक्रमित होने का गंभीर खतरा है .

 वैद्य के सामने एक- एक कर सभी जानवरों का परिक्षण किया गया . अपनी षड्यंत्रकारी योजना के अनुसार भालू और लोमड़ी को रोक कर बाकी जानवरों को वैद्य ने संक्रमण मुक्त होने का स्वास्थ्य प्रमाण पत्र दे दिया . भालू और लोमड़ी चकित . वे जुखाम से पीड़ित नहीं थे . लोमड़ी ने कहा ," वैद्य जी , हमें जुखाम नहीं है , बल्कि हमें अपनी जिंदगी में कभी जुखाम नहीं हुई . " "ह्म्म्म....तो तुम्हारे परिवार में किसी को हुआ होगा ." "नहीं महाराज , हमारे परिवार में भी कोई इस रोग से पीड़ित नहीं है ." "तो तुम्हारे दादा -परदादा को रहा होगा ". "मगर वे तो कबके सिधार चुके ." ..तो क्या हुआ . यह एक गंभीर रोग है . इसके कीटाणु वर्षों तक सुरक्षित रहते हैं , जब उन्हें जुखाम हुआ होगा और छींकें आयी ही होंगी , तब ये कीटाणु वातावरण में फ़ैल गए होंगे जिन्होंने आज मुझे बीमार कर दिया है . आखिर भालू और लोमड़ी को जंगल प्रदेश छोड़ कर जाने का फरमान सुना दिया गया . साथ ही यह चेतावनी भी दी गयी कि समय -समय पर जंगल में सभी जानवरों का परीक्षण किया जाएगा , जिसमे भी इस रोग के कीटाणु मिलेंगे , उन्हें जंगल छोड़ कर जाना पड़ेगा . 

राजा और वैद्य के षड़यंत्र को समझते हुए भी रोग के फैलने या अपने परीक्षण में संक्रमित पाए जाने के डर से अन्य किसी भी जानवर ने इसका विरोध नहीं किया ... अब शेर का जंगल पर एकछत्र शासन था !!


रविवार, 10 जून 2012

कुछ अशुद्ध शब्द जो अंतर्जाल पर बहुतायत में हैं ...(हिंदी को पढ़ते हुए --2)


रविवार की एक शाम यूँ ही घूमते -घामते  एक पर्यटक स्थल के प्रवेश द्वार पर कुछ सूचनाओं को पढ़ते हुए  जयपुर विकास प्राधिकरण के एक बोर्ड के "व्यस्क " शब्द पर  नजर टिक गयी .  सही शब्द व्यस्क या वयस्क  क्या होना चाहिए.  इस पर वाद विवाद होता रहा . प्रतिष्ठानों,  पार्कों, चिकित्सालयों जैसे स्थानों पर लिखी गयी सूचनाओं को लिखने अथवा चित्रित करने का कार्य  अक्सर अशिक्षित पेंटर ही करते हैं इसलिए इनमें मात्राओं की गलतियों की अनदेखी कर दी जाती है.  परंतु पिछले कुछ वर्षों में दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल से लेकर प्रिंट मिडिया तक पर कई बार हिंदी के अशुद्ध शब्द आँखों से होकर गुजरते रहे हैं . यहाँ लिखने वालों के अशिक्षित होने का तो सवाल ही नहीं है . विचार करने पर पाया कि  मुद्दा शिक्षित या अशिक्षित होने का नहीं है . कई बार टाईपिंग के कारण होने वाली गड़बड़ियों के कारण भी शब्द अशुद्ध लिख दिए जाते हैं . परंतु क्या सचुमच ऐसा ही है !
 क्या यह अशुद्धियाँ सिर्फ  टाईपिंग की गलतियों के कारण ही है !!

बच्चों की स्कूली शिक्षा के दौरान  उनकी हिंदी की जाँची हुई कॉपी में भी मात्राओं की भयंकर अशुद्धियों को देखकर कई बार बहुत खीझ हुई है .
  बच्चे बड़ी सफाई से कहते -  एक क्लास  में साठ बच्चे हैं. मैम आखिर कितने ध्यान से चेक करेंगी और वह भी इंग्लिश मीडियम से पढने वाले बच्चों की हिंदी की कॉपियां  . ऐसे में मुझे अपने समय के गुरु /गुरुआईन  बहुत याद आते . हिंदी अथवा अंग्रेजी में श्रुतलेखन में अशुद्ध पाए जाने वाले शब्दों को लिखकर दुहराने की सजा मिलती थी . दुहराव  की संख्या संख्या दस से पचास तक भी हो सकती थी .  बच्चे जब किसी शब्द के बारे में पूछते तो भ्रम होने की अवस्था में शब्द को लिखकर देखते ही सही मात्रा याद हो आती . इसे चाहे रट्टा मारना ही कहें परंतु गणित के पहाड़े और हिंदी और अंग्रेजी के शब्द  इसी प्रकार याद कराये जाते थे . अब जब विद्यार्थियों को अशुद्ध  लिखने के लिए टोका ही नहीं जाता तब वे शुद्ध और अशुद्ध शब्द का अंतर कैसे पता कर पायें .  सिर्फ अपनी पुस्तक से ही तो सही लिखना पढ़ना  सीखा नहीं जा सकता . विद्यार्थियों की शंकाओं का समाधान और गलतियों या अशुद्धियों को सही कर पाने में ही विद्यालय और शिक्षकों की उपयोगिता   है . आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में कैलकुलेटर और लैपटॉप पर पढ़ने वाली अथवा हिसाब किताब करने वाली पीढ़ी के लिए कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं है . कुछ याद ना आये तो गूगल है ही . अँगुलियों पर ही जुबानी हिसाब किताब कर पाने वाली हमारी पीढ़ी  कई बार सोच में पड़ जाती है  . क्या यह स्थिति सही है . कहीं  इस प्रकार भावी पीढ़ी के दिमाग की कार्यक्षमता प्रभावित तो नहीं हो रही !!!  
वर्तमान पीढ़ी के गूगल या अन्य सर्च माध्यमों पर निर्भरता को ध्यान में रखते हुए अंतर्जाल   पर लेखकों  की  शब्दों की शुद्धता और सही सूचनाओं को प्रस्तुत करने करने की जवाबदेही बनती है .  मेरी  अपनी ही एक पोस्ट में शेर शब्द के प्रयोग करने पर कुछ वरिष्ठ ब्लॉगर झूम रहे थे . जब लेखन की शुद्धता पर ध्यान देना शुरू किया तब उनका तंज़ समझ आया :). 
कुछ ऐसे ही शब्द हैं यहाँ जो प्रिंट अथवा दृश्य माध्यमों में भी टंकण अथवा फौन्ट्स की त्रुटि के कारण अधिकाधिक अशुद्ध ही लिखे पाए जाते हैं .... 

शुद्ध   --   अशुद्ध 

दीवाली -- दिवाली 
कवयित्री  -- कवियित्री
परीक्षा   --   परिक्षा
तदुपरांत -- तदोपरांत 
निःश्वास -- निश्वास 
त्योहार --  त्यौहार
गुरु      -   गुरू 
निरीह -- निरिह   
पारलौकिक -- परलौकिक 
गृहिणी   --  गृहणी /ग्रहिणी
अभीष्ट -- अभिष्ठ 
पुरुष  --  पुरूष 
उपलक्ष्य -- उपलक्ष 
वयस्क --  व्यस्क 
सांसारिक --  संसारिक
तात्कालिक -- तत्कालिक  
ब्राह्मण  --  ब्राम्हण 
हृदय -- ह्रदय 
स्रोत --स्त्रोत 
सौहार्द --  सौहाद्र 
चिह्न -- चिन्ह 
उददेश्य --  उदेश्य 
श्रीमती -- श्रीमति 
आशीर्वाद --आर्शीवाद 
मध्याह्न  --- मध्यान्ह 
साक्षात्कार --साक्छात्कार 
रोशनी -- रौशनी 
धुँआ -- धुआँ  

मात्राओं का सही ज्ञान नहीं होने के कारण अथवा टंकण या फॉन्ट की गड़बड़ी के कारण  अंतर्जाल  पर  कई ब्लॉग्स  (मेरे या आपके भी हो सकते हैं ) , समाचारपत्रों , साहित्यिक पत्रिकाओं तक में  ये अशुद्धियाँ प्रचुरता में हैं . 

यकीन नहीं होता ना , सर्च कर देखें !!! 
कुछ त्रुटियाँ इस लेख भी हो तो अनदेखा ना करें , टोकें अवश्य  !