राजस्थानी संस्कृति के परिधान में चुन्दडी के बारे में जाना , अब बात लहरिया और फागणिया की
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लहरिया |
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मोठड़ी |
सावन- भादो में भी अक्सर शुष्क ही रह जाने वाली मरुभूमि के लिए लहरिया राजस्थानी संस्कृति का महत्वपूर्ण परिधान है . यहाँ कलकल बहती नदियाँ- झरने नाममात्र ही हैं , मगर प्रकृति के अनुकूल अपने आपको ढाल लेने वाले राजस्थानियों ने अपने वस्त्रों पर समन्दर/ नदी की लहरों को ही अपने वस्त्रों में प्रतीकात्मक रूप से उतार लिया . राजस्थानी लहरिया देश में ही क्या, अब तो सुदूर पूर्व के लिए अनजाना नहीं रह गया है . कभी सिर्फ हरे - गुलाबी-पीले रंग में बहुतायत में रंगे जाने वाले लहरिये आजकल लगभग हर रंग में विभिन्न लहरदार डिजाईनो के साथ सिर्फ साडी, पगड़ी में ही नहीं बल्कि सलवार- कमीज जैसे अन्य वस्त्रों में शामिल होकर फैशन की दुनिया में भी अपना परचम लहराए हुए हैं .क्रेप , शिफॉन , जॉर्जेट, कॉटन के अलावा सिल्क और खादी पर भी इन लहरदार आकृतियों की विभिन्न रंगों में लहरिये तैयार किये जाते हैं। मुख्यतया तीज और राखी अथवा सावन -भादों के विभिन्न तीज त्योहारों पर इसी लहरिये को पहने त्योहार संपन्न होते हैं। गरीब और अमीर का भेद भी नहीं , क्योंकि ये से प्रारम्भ होकर कई हजार तक के दाम में उपलब्ध होते हैं। लहिरये के साथ पहने जाने वाले लाख के कड़े , चूड़े भी इतने ही रंगों में सादे अथवा कीमती मशीनकट और सेमिकट नगीनों के साथ उपलब्ध होते हैं
लहरिया
सावन में तीज के पहले दिन मनाये जाने वाले सिंझारे के दिन नववधू को ससुराल पक्ष से मेहंदी , घेवर आदि के साथ लहरिया भेंट किया जाता है , जिसे पहनकर वह अगले दिन तीज माता की पूजा करती है . कुछ स्थानों पर परंपरागत लहरिया डिज़ाईन के साथ ही विवाह के बाद की पहली तीज पर नववधू को गुलाबी या रानी रंग में रंगे मोठड़ी भी भेंट की जाती है जो लहरिया का ही एक रूप है . आम लहरदार डिजाईन के स्थान पर इस पर बारीक़ बुन्दियों से बनी लहरदार लाईने होती हैं , जिन पर आरी -तारी वर्क भी किया जाता है . सावन के महीने में लहरदार लहरिये पहनकर बागों में झूले झूलती स्त्रियों के होठों पर गीत गूंजते हैं .
"लहरियों ले दयो जी राज ".
फागुन माह में पहना जाने वाला फागणिया
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राजस्थानी वस्त्र अपनी चटकदार रंगबिरंगी छटा के कारण ही जाने जाते हैं , मगर इनके बीच प्लेन सफ़ेद रंग की साड़ी पर बंधेज की कारीगरी के नमूने देखे तो सोचना पड़ा कि चटखदार रंगों के बीच सफ़ेद का क्या काम ...पता लगा कि यह भी राजस्थानी संस्कृति का ही एक अंग है .. फागणिया कहते हैं इसे , जिसे फागुन के महीने में पहना जाता है . वसंत के प्रतीक फागुन माह में प्रकृति और मौसम की मेहरबानी आमजन में एक अलग उल्लास भरती है . रंगबिरंगे फूलों और मादक गंधों से महका -निखरा वातावरण होली के रंगों में सरोबार हो आमजन में मस्ती और उल्लास भरता है . दूर तक फैले सरसों के पीले खेत , पेड- पौधों पर पनपती ताजा हरी कोंपलें , रंग -बिरंगे फूलों के बीच वस्त्रों के सादे रंग इन रंगों को पूरी तरह निखरने का अवसर देते हैं . सफ़ेद रंग की पृष्ठभूमि में लाल हरे नीले पीले रंगों के बांधनी प्रिंट पर मौसम के साथ ही होली के विविध रंग भी स्पष्ट नजर आते हैं , शायद इसलिए इस महीने में पहनने के लिए चुना गया है यह परिधान ....चंग की थाप पर होली के गीतों के साथ होठों पर गूंजती है मनुहार " फागुण आयो फागणियो रंग दे रसिया " !!
क्रमशः