फागुन का महिना है . मौसम की तमाम कारगुजारियों के बावजूद फाग का रंग कुछ कम उल्लास के साथ ही सही , जनमानस को सरोबार कर रहा है . मंदिरों , गलियों , कूचों , घरों में फाग उत्सव की धूम है इन दिनों . ढोलक की थाप पर कृष्ण के साथ होली खेलने की दबी कुंठाएं , ईर्ष्या , हास- विलास, गालियाँ गीतों और भजनों में गाई जा रही है . गालियाँ भी स्नेह से भरी हैं और रोचक है यह देखना कि गाली देने वाला और गाली सुनने वाले दोनों ही आनंदित भी हैं .
कल मोहल्ले के मंदिर में फाग उत्सव था . दोपहर के दो तीन घंटे हम भी समर्पित कर आये कृष्ण कन्हैया के नाम . रंगों और धूल - मिटटी एलर्जी मुझे फाग जैसे कार्यक्रमों से दूर रखती है , मगर सहेलियों ने आश्वस्त किया कि इनमे सिर्फ गुलाल अथवा फूलों का प्रयोग होता है और वह भी सिर्फ उनके लिए जो रंग खेलना चाहते हैं आजकल अधिकाँश जनसँख्या एलर्जी पीड़ित हैं , इसलिए सभी सावधानी बरतते हैं और किसी को भी गुलाल भी लगाने के लिए बाध्य नहीं किया जाता . मन को तसल्ली हुई वरना तो फाग उत्सव में गुलाल की फुहार के रंगीन धुएं से सांस तक लेना मुहाल हुआ जाता था . आजकल फाग उत्सव ही नहीं , होली के दिन भी रंग लगाने की कोई बाध्यता नहीं होना हमारे जैसे एलर्जी के मरीजों को लिए सुकून का कारण होता है .
स्त्रियों के इस संसार में उनके हास परिहास अपनी सीमायें तोड़ते नजर आते हैं . यूँ भी संतों के लिए होली प्रेम का पर्व है तो मनोवैज्ञानिक इसे कुंठाओं की निवृति का उपाय बताया जाता है .शिवरात्रि से होली तक चलने वाले फाग में कुप्रवृतियों और मन की गंदगी को धोने का कार्य बड़ी कुशलता से किये देखा जा सकता है .चंग और ढाप की थाप पर फाग का धमाल तो करते ही थे , इसके साथ पूर्वाग्रहों और कुंठाओं के विरेचन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग करते हुए नाम ले कर गालियाँ देना , स्यापा करते लोग मन का मैल बहा देते थे .
भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग इन दृश्यों का अवलोकन भी कम आनंद नहीं देता . समूह में गीत /भजन गाती स्त्रियों का ठुमकने का मन होता है, मगर स्वयं उठ कर नृत्य शुरू कैसे कर दें , शुरू हो जाती है एक दूसरे की ठेलाठाली , तुम करों नृत्य , साथ में हम भी कर लेंगे . कुछ स्त्रियां वारने के बहाने उठ कर चली आती है तो नृत्य करने वाली महिलाओं में से उन्हें भी टोली में खींच लिया जाता है.ऊपर से ना ना करती थोडा सा अवसर पाते ही जमकर ठुमकना शुरू कर देती है.
हर स्त्री को ऐसे भीडभरे माहौल में भीड़ से अलग होकर देखते हुए जाने क्या देखती हूँ मैं अक्सर . निर्भीक , सानन्द बन्धनहीन मुक्त हास परिहास करती स्त्रियाँ खोल से बाहर निकले केचुए सी नजर आती है .सिर्फ अपने संसार में एक कृष्ण को साक्षी मान नृत्य में तल्लीन , पेट के बढे हुए हिस्से , पीठ से दोनों ओर लटकती मछलियों सी वसा से अनभिज्ञ अथवा लापरवाह झूमती गाती बेफिक्र स्त्रियाँ ......परिवारों में सकारात्मकता , लय , आकर्षण , रस , सौहाद्र बनाये रखने के लिए स्त्रियों की जीवन्तता आवश्यक है और घनी दुश्वारियों के बीच अपने लिए जीवन जीने के कुछ पल चुरा लेने की कला ही शायद स्त्रियों को जीवंत बनाये रखती है .
कॉलोनियों के विभिन्न मंदिरों में नित्य दर्शन , पूजा के लिए आने वाली महिलाओं के छोटे ग्रुप बन जाते हैं , जो नियमित पूजा के अतिरिक्त विभिन्न पर्व त्योहारों पर एकत्रित होकर भजन गीत आदि का आयोजन करती है . पवित्र कार्तिक मास के अतिरिक्त नवरात्री में माता के भजन , जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्मोत्सव , होली पर फाग आदि . कुछ ग्रुप प्रतिदिन दोपहर अथवा शाम को मंदिर में भजनों का समां बांधते हैं तो कुछ का कार्यक्रम मासिक होता है। हारमोनियम , ढोलक , खरताल आदि के साथ भक्तिमय माहौल और ब्रेक के बीच चलने वाला उनका हास परिहास . इस प्रकार के मेल मिलाप , भजन गीत संगीत आदि दैनिक जीवन की एकरसता को भंग करने में अहम् भूमिका निभाते हैं . दैनिक क्रियाकलापों में से दोपहर या शाम के कुछ घंटे चुराकर इन भक्ति कार्यक्रमों में शामिल होना स्त्रियों को तरोताजा कर देता है .क्योंकि भजन का मतलब सिर्फ भक्ति ही नहीं है , भगवान् के नाम के साथ सखियों के साथ मिल बैठना , दुःख सुख की बाते करने के साथ वस्त्रों /गहनों की होड़ाहोड़ी जैसे पल गृहणियों की एकसार उबाऊ दिनचर्या में जीवन्तता बनाये रखते हैं .
स्त्रियों द्वारा सिर्फ अपने लिए चुराए जाने वाले पलों की झांकी राजस्थान में लड़कों की शादी के दिन निभायी जाने " टूंटया " की रस्म , गर्भावस्था के सातवे अथवा आठवे महीने में की जाने वाली गोदभराई , गणगौर पर्व के सोलह दिन में भी नजर आती है .
पहले ज़माने में बारात में सिर्फ पुरुष ही जाते थे . ऐसे में जब घर और मोहल्ले के के सभी पुरुष विवाह में शामिल होने के लिए प्रस्थान कर जाते तब सभी स्त्रियाँ मिल कर घर में शादी का स्वांग रचती थी .परिवार की महिलाओं में से कोई वर तो कोई वधू बनती , कुछ महिलाएं घराती बनती तो कुछ बाराती . बारात के स्वागत के साथ , तोरण ,सप्तपदी , आदि रस्मों को हंसी ठिठोली के बीच सांकेतिक रूप से निभाया जाता . इन परपराओं में मालिन , धोबी , नाई , सब्जी वाली आदि का स्वांग धर बहुएं और सासुएँ, ननदें और भाभियाँ अपनी शिकायतों को हंसी मजाक में प्रकट कर मानसिक कुंठाओं का विरेचन कर लेती है . आजकल स्त्रियाँ भी बारात में साथ जाती है इसलिए सिर्फ रस्म के तौर पर खानापूर्ति ही अधिक होती है और शायद अब इसकी अधिक आवश्यकता नहीं समझी जाती क्योंकि विवाह की सभी रस्मों की वे स्वयं भागीदार अथवा साक्षी भी होती है .
पर्व , त्यौहार और लोक परम्पराएँ मानव जीवन में आश्चर्यजनक रूप से मनोवैज्ञानिक बदलाव लाते हैं . आवशयकता है कि हम इनके सांस्कृतिक , धार्मिक , सामाजिक और वैज्ञानिक कारणों को समझने की दृष्टि रखें!
चित्र गूगल से साभार ....
वाह - बड़ी सूक्ष्मता से हर चीज को देखा है और उसकी व्याख्या की है
जवाब देंहटाएंसबसे आखिरी पंक्ति में बहुत सार्थक सन्देश दिया है आपने.
जवाब देंहटाएंइन भक्ति कार्यक्रमों में शामिल होना स्त्रियों को तरोताजा कर देता है .क्योंकि भजन का मतलब सिर्फ भक्ति ही नहीं है , भगवान् के नाम के साथ सखियों के साथ मिल बैठना , दुःख सुख की बाते करने के साथ वस्त्रों /गहनों की होड़ाहोड़ी जैसे पल गृहणियों की एकसार उबाऊ दिनचर्या में जीवन्तता बनाये रखते हैं .
जवाब देंहटाएंबहुत ज़रूरी होता है अपने लिए कुछ पलों को चुरा लेना .... भजन के ही बहाने सही ... सार्थक लेख ।
लोक परम्पराएँ जीवन को जीवंत बनाती हैं.... हमारी उत्सवधर्मिता ने कितना कुछ सहेज रखा है ....
जवाब देंहटाएंसमाज में उत्सव जीवन में उत्साह वर्धन के उद्देश्य से ही होते है। उनका सार्थक साकारात्मक प्रयोग हो तो निश्चित ही जीवन औषधि का कार्य करते है। गहन विषय विवेचन!!
जवाब देंहटाएंलेकिन इन उत्सवों को जब सतही मानसिकता से ही निभाया जाता है तो दुष्परिणाम सामने आते है अथवा कुरीतियाँ जन्म लेती है। इसलिए मूल ध्येय केन्द्रित रहना आवश्यक है।
उत्सव के पीछे का विज्ञान बहुत गहरा होता है..सूक्ष्म दृष्टि चाहिए उसे परखने के लिए..रोचक लेख !
जवाब देंहटाएंसामयिक और सार्थक आलेख!
जवाब देंहटाएंजो इन उत्सवो में सहभगिता देते है बहुत अछि तरह से इन भावो में रम जाते है ।बहुत अच्छी पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंsarthak nd satik lekh .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक वर्णन...महिलाओं के लिए भी इस तरह के अवसर बहुत जरूरी हैं. उनकी दैनंदिन एकरसता को दूर करते हैं.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंबहुत आभार !
हटाएंआपने बढिया विष्लेषण किया है, उत्सव धर्मिता और रीतिरिवाजों के पीछे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी समझने वाली बात है, बहुत सारवान आलेख.
जवाब देंहटाएंरामराम.
पुराने ज़माने में भी स्त्रियाँ अपने ढंग से तीज त्यौहारों का आनंद ले ही लेती थी। आजकल सब एक हैं।
जवाब देंहटाएंवह परिवेश ही बदल गया है जो महिलाओं का स्वर्ग हुआ करता था मगर अब वे 'बेस्ट आफ द बोथ वर्ल्ड' के चक्कर में अपना पहला एकलौता स्वर्ग भी खो दे रही हैं! बढियां लिखा है, जबरदस्त!
जवाब देंहटाएंएक सूक्ष्म और गहन दृष्टि से आपने विषय को परखा है।
जवाब देंहटाएंबारात जाने के बाद स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला स्वांग हमारे गाँव में अब भी होता है. उसे नकटा या नकटौरा कहते हैं. आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी. सच में भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों का सांस्कृतिक के साथ ही साथ मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी है और होली तो मेरा सबसे प्रिय त्यौहार है. बस एलर्जी की समस्या के कारण अब इतने अच्छे से नहीं खेल पाती रंग.
जवाब देंहटाएंमन के उत्साह को कोई न कोई राह तो देनी ही होगी, होली में सब उन्मुक्त हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंहोली की बहुत-बहुत शुभकामनायें और स्नेह .....
जवाब देंहटाएंबहुत रोचकता से आपने गहन विषय पर लिखा है .....!!
जवाब देंहटाएंसशक्त लेखनी के लिए बधाई स्वीकार करें वाणी जी ....!!
आधुनिक रहन सहन ने हमें मिट्टी से दूर कर दिया है, कहीं इसी का परिणाम तो नहीं कि अब धूल-मिट्टी से हम में से बहुतों को एलर्जी हो जाती है?
जवाब देंहटाएंइस उत्सव-परंपरा और निहितार्थों को आपने समग्रता से देखा और समझाया है, साधुवाद स्वीकारें।
उत्सव रोज रोज की नीरसता से उभरने के लिए बने होंगे ... तभी अधिकाँश त्यौहार खुशी ओर उलास के रहे हैं अपने देश में ...
जवाब देंहटाएंइसी बहाने मिलना ओर आपसी सुख-दुःख बांटना भी आसान होता है ...
आके विश्लेषण में बाखूबी मिलती है ये सोच ... बहुत अच्छा आलेख ...
बहुत अच्छा व रोचक विश्लेषण!
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
पर्व , त्यौहार और लोक परम्पराएँ मानव जीवन में आश्चर्यजनक रूप से मनोवैज्ञानिक बदलाव लाते हैं . आवशयकता है कि हम इनके सांस्कृतिक , धार्मिक , सामाजिक और वैज्ञानिक कारणों को समझने की दृष्टि रखें! ...सच यही बात विशेष तौर पर समझने चाहिए सबको ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया विश्लेषण ....होली की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँ ..
खूब दारुन लेखा गेये छे ..:)
जवाब देंहटाएंयही त्यौहार हमारी ज़िन्दगी में नए रंग भरतें हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
पधारें " चाँद से करती हूँ बातें "
वृंदावन में फूलों की होली होती है, ऐसे धार्मिक आयोजन आनन्ददायक होते हैं आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंबाधा प्यार सामयिक लेख..
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
@ निर्भीक, सानन्द, बन्धनहीन, मुक्त, हास-परिहास करती स्त्रियाँ ...
जवाब देंहटाएंप्रकृति पर भी इतने बंधन! :(
अपने घर की स्त्रियॉं का ज़िक्र आने पर मुझे बंधन नहीं, उन्मुक्त चहकना, निडरता, उल्लास, स्नेह और बड़प्पन याद आता है ... समय कब बदल गया, कब हम एक अजनबी देश-काल में प्रविष्ट हो गए? हमारा देश कब हमारे हाथ से फिसला?
मजा आया। हम तो खूब खेलते हैं होली। कोई अलर्जी होती है तो एंटी अलार्जिक खा लेते हैं।
जवाब देंहटाएं“अपने लिए जीवन जीने के कुछ पल चुरा लेने की कला ही शायद स्त्रियों को जीवंत बनाये रखती है" सही कहा!
जवाब देंहटाएंत्यौहार शायद मनाये ही इसीलिए गए कि घर की औरतों को रोज के कामों की एकरसता से कुछ छुट्टी मिले. कुछ उल्लास का माहौल उनके लिए भी हो.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख