बुधवार, 23 मई 2012

आपका नाम क्या है!.......थैंक्स ,राम !(2)

थैंक्स, राम ! से आगे ....


दूसरी ओर फोन पर आर्णव हमेशा की तरह अस्तव्यस्त ..."मेरी चौकलेटी शर्ट नहीं मिल रही , और वो पीली फाईल भी "
अब 2000 किलोमीटर की दूरी से भी मैं तुम्हे ये बताऊँ कि तुम्हारी कौन सी चीज कहाँ रखी है ?
अंजना को खीझ होनी चाहिए थी , मगर वह मुस्कुरा रही थी ...वह आर्णव की उस पर निर्भरता के इन पलों को बहुत इंजॉय करती है .

कहता है आर्णव ..."तुम लड़कियां बहुत चतुर होती हो ...अपनी जड़ें छूटने का पूरा बदला हम बेचारे मासूम लड़कों से लेते हुए हमारी हर एक चीज , हर एक आदत पर अपना अधिकार जमाते हुए अपनी मर्जी से बनाती , बिगाड़ देती हो ... तुमने भी मेरी सारी आदतें बिगाड़ दी है , मैं अपनी सब चीजें व्यवस्थित रखता था , अब मुझे अपने हर काम के लिए तुम पर निर्भर होना पड़ता है "
अंजना में नहले पर दहला मारने से नहीं चूकती ," पता है मुझे ,तुम्हारा व्यवस्थित रहना कैसा होता था ...एक सूटकेस में कुछ जोड़ी कपड़े , फालतू के कागज़ , ज्यादा हुआ तो एक परफ्यूम की बॉटल ...अलमारी , ताकों पर बेकार के कागजों का ढेर , जिन पर मनों धूल जमी होती थी ... शुक्र मानो , तुम्हे घर में रहना हम लड़कियां ही सिखाती हैं, वरना तुम्हारे लिए घर और जंगल में क्या अंतर होता है..."

खुद के प्रति लापरवाह आर्णव... ताजा खाना फ्रिज में ठूंस कर आई थी ,उसके अलावा मठरियां , लड्डू भी ...जानती है , हर काम इत्मीनान से करने वाले आर्णव को बस खाना ठीक से खाने की फुर्सत नहीं होती ...रोज ऑफिस के लिए घर से निकलने से पहले खाने की थाली लिए उसके पीछे चक्कर काटना पड़ता है ...कई बार झुंझलाती है अंजना , खाना तो ढंग से बैठ कर खा लो मगर हमेशा की तरह आर्णव का वही गीत..." आज फिर देर हो गयी है "...

जब स्कूल में उसकी मोर्निंग शिफ्ट शुरू हो जाती है तो स्टाफ रूम से फोन पर आर्णव को खाना ठीक से खा लेने को कहते हुए वह एक नजर उसकी साथी शिक्षिकाओं को कोहनियों से एक दूसरे को टोहका मारते देख आँखें तरेर देती है ...नारी  जागृति  मंच से जुडी मिशेल कई बार ताना मारती है " तुम्हारी जैसी नारियां तो मेरे नारी सशक्तिकरण मंच की हवा ही निकाल कर रख देंगी , तुम्हारा पति कोइ बच्चा है ??"
" अरे बाबा , जिससे प्यार करते हैं , उसकी चिंता तो रहती ही है, ये नारी ,पुरुष की बात नहीं है ना ..." अंजना मुस्कुराने  लगती  थी ...

"तुमने नाश्ता किया या नहीं"
"नहीं , ऑफिस में ले लूँगा"
"इतना कुछ बना कर आई हूँ .थोडा तो खा लेते , कितनी तेज गर्मी है , भूखे पेट घर से मत निकलो "
"तुम कब लौट रही हो अपने घर"
"काकी से कह देती हूँ , एक दिन में ही सारी रस्में निपटा दे" चिढ़ा रही थी अंजना ... "अच्छा सुनो , राशिका जी के परिचित का सामान पहुंचा दिया"
"वही देने तो आई हूँ , यही पास में ही लीना का घर भी है , उसे लेते हुए घर लौटना है"
"अच्छी तरह चल रही है शादी की तैयारियां??"
"हाँ , बस तुम्हरी कमी लग रही है , सब पूछ रहे थे कंवर साहब क्यों नहीं आये ,"
"तुम जानती तो हो , औडिट का काम चल रहा है , मैं नहीं सकता था ...शादी के माहौल को एन्जॉय करो और जल्दी लौटो "....
"बाय.. टेक केअर"
आर्णव की कलिग राशिका जी का ससुराल भी यहीं था  ...लम्बी दूरी पर रहने वाले परिचित जैसे सामान पहुँचाने वालों की ताक में ही रहते हैं , जैसे ही पता चलता है कि कोई उनके शहर जाने वाला है , लाने और ले जाने वाले सामान या उसकी लिस्ट के साथ हाज़िर हो जाते हैं ...आरामदायक यात्रा के लिए कम से कम सामान ढ़ोने का आपका सपना साकार होने से पहले ही ढह जाता है ...दूरियों के मारे स्नेह से भीगते लोगों को इनकार भी तो नहीं किया जा सकता ...खुद काकी ने कई बार परिचितों के माध्यम से उसके लिए ख़ास हैदराबादी नान खटाई , टमाटर और इमली की खट्टी चटनी के साथ कई प्रकार के लहसुनिया अचार भेजे हैं उसके लिए !
राशिका जी का सामान पहुंचा कर अंजना फटाफट लीना के घर पहुंची ...लीना यूँ तो उसकी रिश्तेदार है , मगर साथ ही अच्छी सहेली भी है...अंजना के हैदराबाद पहुँचते ही धमकी भरा फ़ोन खुड़का दिया ,
" तुम रही हो या मैं जाऊं , चूल्हे पर चढ़ी दाल और आटे में डला पानी यूँ ही छोड़ कर "
भरोसा नहीं है लीना का , उसी हाल में घर छोड़ कर भागी आये ...
" तुम्हारे पड़ोस में ही काम है मुझे , मैं ही आती हूँ , मगर जरा फ्रेश तो हो लूं , तुम तैयार रहना , साथ ही लौटेंगे संगीत में ...
काकी को सामान अर्जेंट पहुंचा कर जल्दी लौटने का वास्ता देकर बड़ी मुश्किल से मनाया ...
"एक तो ऐन टाइम पर पहुंची हो , अब घूमने चल दी ....बहू के घर आज मेहंदी की रस्म है , वहां भेजे जाने वाले गहने ,कपड़े तो देख ले ...सब तो तैयारी हो गयी है , बस बहू की छोटी बहन के लिए कुछ लाना रह गया था '...

"आपकी तैयारी है तो सब कुछ परफेक्ट ही होगा , फिर भी जो रह गया है मैं लीना के साथ मार्केट से ले आउंगी ...क्या लाना है , साडी या सलवार कमीज" ...
"तू देख ले , जो तुझे पसंद हो ,ले आना , मगर समय से लौटना , फिर हमें यहाँ से मैरिज हौल भी जाना है , तू कुछ रिहर्सल भी कर लेती महिला संगीत के लिए"

हंसी आती है अंजना को , मेहंदी लगाते महिलाओं की हंसी -ठिठोली के बीच गाये जाने वाले विवाह गीतों का स्थान एक- एक कर स्टेज पर फ़िल्मी गीतों पर नृत्य कला के प्रदर्शन ने ले लिया है ..
उसे याद आया ...महिला संगीत में बहनों की ओर से क्या बांटा जाएगा ...सीमा से पूछा उसने ," जीजी, मैं ले आई हूँ , आप निश्चिन्त रहें "
ठीक है , कितने रूपये देने हैं , मुझसे ले लेना ...अभी तो मैं भागती हूँ , फिर जल्दी लौटना भी है ...और वह रिक्शे में बैठ कर चली आये लीना से मिलने ...

"कहाँ है तेरी जली हुई दाल ,फ़ोन पर तो यूँ दिखा रही थी कि बेचारी गृहस्थी के बोझ से दबी जा रही है , देख रही हूँ कि तेरा खुद का बोझ कितना बढ़ गया है " लीना से गले मिलते उसके बढ़ते मोटापे की ओर इशारा किया अंजना ने ...

"ओये नजर मत लगा , खाते -पीते घर के हैं हम" ... गले मिलते लीना ने धौल जमा दिया उसकी पीठ पर
"हाँ , मासी तो तुझे कुछ खिलाती- पिलाती नहीं थी "....लीना की माँ को अंजना मौसी ही कहती थी .
दोनों सहेलियां चाय की चुस्कियों के बीच एक दूसरे के परिवारों के हालचाल पूछती बतियाने लगी ...

चल अब तू जल्दी कर . थोड़ी शॉपिंग करते हुए लौटना है घर ...सभी इंतज़ार कर रहे हैं वहां ...अंजना ने बाजार से ख़रीदे जाने वाले सामान की लिस्ट निकाली...
"यह सब तो यही पास में मिल जाएगा , तुझे याद है, वो किराये का मकान जिसमे हम रहा करते थे ...उस पूरे बाड़े को गिराकर एक नया शॉपिंग काम्प्लेक्स बना दिया गया है , वही कर लेते हैं सारी शॉपिंग "लीना ने लिस्ट पर नजर डालते हुए कहा ...

बाड़ा , एक बड़ी सी धर्मशाला रही होगी कभी ...किसी पुराने मारवाड़ी सेठ की बनवाई हुई ...शादियों में बारात को रुकवाने या शहर घूमने आये अतिथियों के सस्ते और आरामदायक निवास के लिए शहर में कई स्थानों पर धन्ना सेठों द्वारा धर्मशालाएं बनाई गयी थी , मगर समय के साथ इन धर्मशालाओं को नौकरी पेशा लोगों के रहने के लिए किराये पर दिया जाने लगा ...उसी बाड़े के एक हिस्से में लीना रहती थी अपनी माँ के साथ ...लीना के जन्म के कुछ समय बाद ही कम उम्र में विधवा हुई उसकी माँ ने बड़ी मुश्किलों के बीच उसका पालन पोषण किया ...पति के जाने के बाद ससुराल से ठुकराई छोटी दुधमुंही बच्ची को गोद में लिए मायके आ तो गयी थी मासी , मगर भाई -भाभियों पर बोझ बन जाना उसे मंजूर नहीं था ...बहुत जिद करने पर उसके भाई ने ही अपनी परिचित द्वारा उस बाड़े में मामूली से किराये पर आजीवन रहने का बंदोबस्त कर दिया था , मासी ने दूसरों के कपडे सिलते , खाना बनाते , पापड़ मंगोड़ी बना कर बेचते हुए भी लीना के लिए हर प्रकार की सुविधाएँ जुटाने में कोई कसर नहीं रखी थी ...मगर पिता के साये से महरूम लीना को पढने लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी , उसकी दुनिया सजना संवरना , फ़िल्में देखना और बस पूरे बाड़े में उछल कूद मचाये रखना ...

मित्रता मित्र के गुण -अवगुण से परे होती है , एक सामान विचारों अथवा स्वभाव का होना वांछनीय नहीं है ...कई बार लगता है उसे, बाकी रिश्तों की तरह मित्रता भी ईश्वर ही तय करता है वर्ना कहाँ अंजना जैसी धीर, गंभीर,  ज़हीन  और सादगी पसंद लड़की , किताबें जिसके हाथ से छूटती नहीं और कहाँ किताबों के नाम से ही दूर भागने वाली फैशन परस्त लीना ...कोई जोड़ नहीं था दोनों का , मगर फिर भी उनके बीच अच्छी मित्रता थी.
कुछ ही देर में दोनों सखियाँ शॉपिंग काम्प्लेक्स में दाखिल हो रही थी ...उसकी आधुनिक साजसज्जा देख कर यकीन ही नहीं कर सकता कोई कि यहाँ कोई पुरानी धर्मशाला रही होगी, जिसकी सीढियों पर दर्जन भर परिवारों की आवाजाही रहती होगी , नीचे एक कोने में दूध की डेयरी जहाँ कुछ भैंसे भी बंधी होती थी ...

" कुछ याद आया " लीना छेड़ रही थी उसे ...देख यहाँ कही दीवारों पर तेरा नाम तो नहीं ...
तू सुधरने वाली नहीं है ...
एस्केलेटर से सीढियाँ उतरते उसकी धीमी खटर पटर में सुना अंजना ने ..." आपका नाम क्या है "
चौंक कर देखा इधर -उधर ... कोई नहीं था ...लीना की शैतान मुस्कराहट अंजना को भी संक्रमित कर रही थी ...वह भी धीमे से मुस्कुराने लगी ।
मगर तब वह इस तरह मुस्कुराई नहीं थी ...
गुस्से से लाल- भभूका हो गया था उसका चेहरा , जब राह चलते एक किशोर ने रोक कर उससे पूछ लिया....
" आपका नाम क्या है " अंजना के बिगड़े मूड को देख कर लीना ने उसकी हथेलियाँ अपने हाथ में कसकर दबा ली थी ...



क्यों गुस्सा हो गयी थी अंजना इस कदर , नाम क्यों पूछा उससे किसी अनजान शख्स ने ...
क्रमशः

23 टिप्‍पणियां:

  1. :)
    पकड है कहानी में। टिप्पणी करने बैठा तो शायद पूरा डब्बा ही भर जायेगा। इसलिये अभी चुप ही रहता हूँ। अगली कडी की प्रतीक्षा है।

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  2. मैं भी नहीं ही कहूँगा कुछ, ऐसी जगह तो कहानी रोक दी है आपने, अभी चुप ही रहना ठीक है।
    @"हैदराबादी नान खटाई , टमाटर और इमली की खट्टी चटनी के साथ कई प्रकार के लहसुनिया अचार"
    पिछली बार भी कहने से रह गया था, आपने तो पूरा हैदराबाद जीवंत कर दिया।
    उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा रहेगी।

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  3. यह आर्णव तो जवान होगा न?!
    हमारी तो पत्नीजी बनारस गयी हैं और हम नहाने जाते सामय इस उम्र में भी फोन कर पूछते हैं = मेरी बनियान कहां रखी है! :)

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  4. कहा कुछ भी जाए श्रीमतियों जी के बारे में...

    लेकिन सही बात है कि उनके बिना श्रीमानों को आदिम युग जैसा ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है...(कुछ कुछ सत्ते पे सत्ता फिल्म जैसा)....लेकिन मजाल है कि कभी मर्दजात इस बात को कबूल करे...

    बस यही कहेंगे, आदत सी हो गई है और खास कुछ नहीं...

    अगली कड़ी का इंतज़ार...

    जय हिंद...

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  5. इस कड़ी को अंत में रहस्यमय बना दिया है ... रोचकता बरकरार है ...आगे की कड़ी का इंतज़ार है :):)

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  6. बहुत ही रोचक कथानक है इस कथा का!
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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  7. मजा आ रहा है पढ़ने में .जल्दी जल्दी लिखिए.

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  8. By the way, क्यों गुस्सा हो गयी थी अंजना?

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  9. @यह आर्णव तो जवान होगा न?!
    जी हाँ , कुछ ही वर्ष हुए हैं उनके विवाह को ..

    @ कहानी को यदि कहानीकार से रिलेट करके नहीं पढ़ा जाए तो उनके पात्रों को लेकर कोई भ्रम नहीं रहेगा ..:)

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  10. फिर से पढ़ रहा था तो सोचा कहूँ, पात्रों के नाम (किसी भी कारण से लिए गए हों) बहुत पसंद आए।

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  11. इंतज़ार था इस कड़ी का...पर मन नहीं भरा....ऐसे जगह क्रमशः लगा दिया की उत्सुकता दोगुनी हो गयी...
    नाम बहुत सुन्दर हैं...और नाम चुनने में जो परेशानी होती है...उसे एक कहानीकार के सिवा और कोई नहीं समझ सकता.
    प्रतीक्षा, अगली कड़ी की.

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  12. चुस्त संवाद अदायगी के कारण कथानक की प्रभावोत्पादकता में वृद्धि हुई है। इसकी स्वाभाविकता, संबद्धता और संक्षिप्तता लाजवाब है।

    भाषा आकृष्ट करती है। पात्रानुकूल सरस, सरल और आकर्षक है। ...

    .... और सबसे अच्छी बात जो इस अंक में मुझे लगी .. वो है ..

    “मित्रता मित्र के गुण -अवगुण से परे होती है , एक सामान विचारों अथवा स्वभाव का होना वांछनीय नहीं है ...कई बार लगता है उसे, बाकी रिश्तों की तरह मित्रता भी ईश्वर ही तय करता है ..”
    मुझे भी यही लगता है।

    कहानी को ऐसे मोड़ पे आपने छोड़ा हैं कि अगले अंक की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी।

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  13. पहले बताईये यह उपन्यास तो नहीं ?
    एक बार पहले श्रीमती जी घर के बाहर गयीं , एक हप्ते श्रीमान भी ..
    एक महीने बाद दोनों साथ लौटे -
    घर के भीतर से बदबू उठ रही थी -रसोईं में घुसना दूभर था ..
    बरतन बिना साफ़ किये पड़े थे ..अन्खायी जूठन सड़ी थी -बदबू फैला रही थी ...
    मेज के दराज से लम्बा लम्बा सफ़ेद कुछ बाहर झाँक रहा था ...
    श्रीमती जी का होश गुल -श्रीमान भी हैरत में ...
    खुद आगे बढ़ जिज्ञासा से खोलते हैं तो क्या देखते हैं -उनकी अधखाई सैंडविच की पूरी प्लेट जल्दी में दराज में बंद थी और उससे फफूंद निकलकर सामने आ चुके थे..
    तब ब्लागिंग नहीं थी -कागज़ पर भाव उकेरे जाते थे ..श्रीमान जी लेखक थे ...
    जल्दी में .....
    सही है अगर बाद में श्रीमती जी घर छोड़तीं तो भला ऐसा ग़दर दीखता ..
    आपकी इस पोस्ट ने कितनी यादें दिला दीं!

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  14. आजकल के लेखक कहानी बीच में छोडकर पाठकों को इतने लम्बे समय तक क्रमशः सुनाते रहते हैं। ये अच्छी बात नईं हैSSSSSSS ...

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  15. @ उपन्यास तो नहीं , थोड़ी लम्बी कहानी है ...

    @ महाशय , मत भूलिए आपने अपनी कहानिया कितनी छोटी -छोटी किश्तों में कितने दिन खींची थी और वीरसिंह जी की कहानी तो अभी भी बीच में अटकी पड़ी है :)

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  16. @महाशय
    क्या कहेंगे अब? चुपचाप बैठकर अगली कडी का इंतज़ार करेंगे और पृष्ठभूमि में बेचारे वीरसिंह को बीमारी से जबरिया उठाने का प्रयास करेंगे।

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  17. “मित्रता मित्र के गुण -अवगुण से परे होती है , एक सामान विचारों अथवा स्वभाव का होना वांछनीय नहीं है ...कई बार लगता है उसे, बाकी रिश्तों की तरह मित्रता भी ईश्वर ही तय करता है ..”
    मुझे भी यही लगता है...

    @ महाशया,
    आप ऐसा काय कू करती है...?!
    बीच में कहानी नई छोड़ने का..पूरा करने का...:)

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  18. आशा है ’अवि’ वाली पहेली सुलझ गई होगी।

    बाकी सबकी तरह क्रमश: वाली बात पर विरोध भी नहीं जता सकता, बहुत बार यह अवश्यंभावी हो जाता है। कथानक रोचक है।

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