शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अधिकार और कर्तव्य या स्नेह और प्रेम ...सवालों का चक्रव्यूह !

व्यक्ति परिवार की तो परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई है इनमे से एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती वही किसी भी परिवार की मुख्य धुरी माता -पिता या पति -पत्नी हैं जैसा कि हमारे समाज में पित्रसत्तात्मक व्यवस्था रही है , परिवार बसाने के लिए विवाह के बाद लड़कियों को अपने -माता पिता का घर छोड़ना पड़ता है , और वे अपने पति के घर को अपना घर बनाती हैं पुराने समय में पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में घर की आर्थिक स्थितियों पर नियंत्रण पुरुषों के हाथ में होने के कारण धन की व्यवस्था करने से लेकर खर्च करने तक के अधिकार पुरुषों के हाथ में ही रहते थे समाज के विकास के साथ परिवारों की सोच में परिवर्तन के साथ महिलाओं में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई जिसने उनकी आर्थिक स्थितियों पर विचार करने को विवश किया
चूँकि महिलाओं में शिक्षा और आत्मनिर्भरता नहीं थी इसलिए विवाह के समय दिए लड़कियों को मायके से दिए जाने वाले धन , जिसका उपयोग महिला स्वयं अपनी इच्छा से कर सकती थी, को स्त्रीधन की संज्ञा दी गयी समय के साथ महिलाओं में साक्षरता दर बढ़ी , उच्च शिक्षा के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वे आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ी , हालाँकि आत्मनिर्भर महिलाओं का प्रतिशत कम ही रहा जो महिलाएं स्वयं आत्मनिर्भर नहीं है , वे अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तीज त्यौहार पर मायके से मिलने वाले नेग और पति द्वारा दी जाने वाली मासिक आय अथवा जेबखर्च पर निर्भर हैं वही यदि महिलाओं को इस तरह के कोई अधिकार नहीं दिए जाए तो उनके प्रताड़ित होने या दोयम दर्ज़ा हासिल होने की भी पूरी सम्भावना होती है , क्योंकि जिस परिवार में वह प्रेम के कारण आती है ,उससे उनका रक्त सम्बन्ध नहीं है . तो क्या रक्त सम्बन्धियों में प्रेम प्राकृतिक रूप से मौजूद है , ऐसा है तो क्यों अक्सर महिलाओं के लिए उनका रक्त सम्बन्ध प्रेम सम्बन्ध के आगे छोटा ही पड़ जाता है . पति के घर आने के बाद उनकी सारी जवाबदेही उस परिवार से ही क्यों हो जाती है , क्या यह सिर्फ कंडिशनिंग की बात है ? क्या यह सिर्फ इसलिए है कि उन्हें बचपन से सिखाया जाता है कि यह तुम्हारा घर नहीं है , तुम्हारे पति का घर तुम्हारा है . इसलिए जो सपने पिता के घर पूरे नहीं किये जा सके , पति के घर, जो अब उनका भी घर होगा , अधिकार स्वरुप हासिल करने की जिद सी हो जाती है .

प्रेम के कारण और महिलाओं की जरुरत को समझते हुए दी जाने वाली राशि महिलाओं में आत्मविश्वास को बढाती है . सिर्फ अधिकार स्वरुप पति की रकम का एक बड़ा हिस्सा पत्नी को दिया जाए , क्या तब भी ??

अब महिलाओं को पति द्वारा दिए जाने वाली राशि की बात करते हैं तर्क दिया जाता रहा है क्योंकि महिलाएं घर में पति से ज्यादा श्रम करती हैं , इसलिए उन्हें इस हक़ के रूप में यह रकम जेबखर्च की तरह मिलनी चाहिए दिमागी तर्क के रूप में यह सही लगता है लेकिन क्या कोई भी महिला अपने बच्चों का या परिवार का पालन पोषण महज उस रकम के हिसाब से करती है , जो उसे अपने श्रम के बदले मिलने वाली है क्या पत्नी के प्रेम , माँ की भावनाओं और देखभाल, बहन के स्नेह का कोई मोल लगाया जा सकता है , इसके लिए कोई कीमत निर्धारित की जा सकती है , माँ या पिता भी अपने बच्चों और परिवार के लिए जो करते हैं , अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए या प्रेम के लिए , इसकी भी क्या कीमत लगाई जा सकती है क्या घर गृहस्थी अथवा अन्य रिश्तों का आधार प्रेम की बजाय लिया- दिया जाने वाला धन होना चाहिए सिर्फ अधिकार की भावनाओं से ही क्या घर अथवा रिश्ते बनते हैं, या निभते हैं वे रिश्ते जो सिर्फ कानून के डर से निभाए जाए , उनकी उम्र और वास्तविकता क्या हो सकती है !!!

जो रिश्ते प्रेम और विश्वास की डोर से बांधे हों , उनकी कीमत क्या हो सकती है ... महिलाओं के कर्तव्य और अधिकार की बात पर कई बार सवालों के इस चक्रव्यूह में घिर जाती हूँ ...


14 टिप्‍पणियां:

  1. हर एक के विचार और स्‍वभाव में अन्‍तर होता है लेकिन स्‍नेह में अन्‍तर नहीं होना चाहिए।

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  2. अब इन विषयों पर क्या टिप्पणी की जाय -असमर्थ पाता हूँ !

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  3. on this topic a lot was discussed in blog world in 2008 on chokherbali and naari blogs and the topic is still under discussion .
    the continued discussion proves that there are distinctly 2 views one which supports the financial independence to all woman irrespective of the fact whether they are married or unmarried , working or non working and the other view says that financial independence is not needed as we are family oriented

    in indian society we have accepted some things as norms and many among us are afraid of any change

    i am always in favor of woman having financial independence because love cannot buy things like daal roti in case of adversity and all discussions are primarily for protecting woman in adversity

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  4. (१)
    प्रेम में मोल कहां ? और काहे ? वैसे भी प्रेम को लेकर संभ्रम बहुत है ! क्या इसका वास्ता हमारे मनो-संसार मात्र से है या फिर केवल केमिकल लोचा ? तो हे अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसना ही क्यों :)

    (२)
    जहां तक मुद्दा स्त्री और पुरुष के एक नग परिवार बसाने के लिए एकजुट होने का है , वहां पर सामाजिकता ने सुदीर्घ समय में अधिकारों के सहअस्तित्व का एक तंत्र विकसित किया है ! वैसे तो आदर्श सहअस्तित्व को समतामूलक होना चाहिए था परन्तु भिन्न समाजों में इसकी अभिव्यक्ति भिन्न दिखाई देती है जैसे पितृसत्ता वाला हमारा समाज या फिर मातृसत्ता वाले खासी / गारो / मुस्लिम मापेला वगैरह का समाज ! सहअस्तित्व की प्रक्रिया में पक्ष विशेष के डामिनेशन (प्रभुत्व) की इन दोनों प्रवृत्तियों का प्रकटीकरण लंबी व्याख्या और स्पष्टीकरण चाहता है ! पर मैं अपनी बात संकेत पर ही समाप्त करना चाहूँगा :)

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  5. क्या पत्नी के प्रेम , माँ की भावनाओं और देखभाल, बहन के स्नेह का कोई मोल लगाया जा सकता है , इसके लिए कोई कीमत निर्धारित की जा सकती है , माँ या पिता भी अपने बच्चों और परिवार के लिए जो करते हैं , अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए या प्रेम के लिए , इसकी भी क्या कीमत लगाई जा सकती है ।

    ये बाते भारतीय समाज में बिल्कुल गौण हैं और इसी लिये नारी सदैव त्याग की मुर्ति है जो सिर्फ़ शाब्दिक नही बल्कि धरातल पर है.

    रामराम.

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  6. आपकी इस प्रस्‍तुति ने तो नि:शब्‍द कर दिया ...।

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  7. -- पूर्व में भी स्त्रीधन स्त्री की स्वेक्षा नहीं थी ..... (अपवाद को इस श्रेणी में नहीं ला सकते !)

    -- स्त्रियों की यह विशेषता रही है कि जिस घर में वह एक चुटकी सिंदूर के साथ आती है , उसे अपनी ज़िन्दगी की तरह संवारती है - पर दो टुकड़ों की मुहताज कही जाती है ! (अपवाद को इस श्रेणी में नहीं ला सकते !)

    --अधिकार की बात तो विषम स्थिति में आती है- अब यह स्थिति जो खड़ा करे !

    --नहीं रकम पाने के लिए वे घर नहीं संवारतीं , पर हर कदम पर जब उससे हिसाब माँगा जाता है, उसके मायके के लिए कुछ नहीं करने दिया जाता और कहा जाता है कि खुद कमाओ तो पता चले... घर में आराम फरमाते हुए पैसे माँगना आसान लगता है...... तब ऐसी बातें उत्पन्न होने लगती हैं . !

    --किसी भी डर से निभाए जाने वाले रिश्तों की कोई उम्र नहीं होती .... और वे सिर्फ बीच मझदार में हिचकोले खाते हैं , कोई संतुलित सोच नहीं होती ..... जिन बच्चों की दुहाई देकर लोग रिश्ते ढोते हैं , उन बच्चों की मनःस्थिति भी संतुलित नहीं होती !...

    ---जो रिश्ते प्रेम और विश्वास की डोर से बांधे हों , उनकी कीमत क्या हो सकती है ... उनकी कोई कीमत नहीं होती

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  8. प्रेम और कर्तव्य, दोनों ही आवश्यक हैं, दोनों में ही साम्य आवश्यक है।

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  9. जहाँ तक प्रेम और स्नेह की बात है उसका कोई मोल नहीं है .. एक स्त्री घर की और घर में रहने वाले हर सदस्य की देख भाल अपने कौशल से पूरी तरह करती है ... हो सकता है इसमें भी कुछ अपवाद हों ..
    रही वित्तीय स्वतंत्रता की बात तो निश्चय ही इसके लिए स्वतंत्रता होनी चाहिए ... कुछ धनराशी उसको श्रम के बदले नहीं बल्कि उसकी स्वायत्त बनी रहने के लिए , उसके अस्तित्व को स्वीकारने के लिए मिलना ही चाहिए ..कई परिवारों में देखा जाता है कि घर के बड़े या मुखिया अपनी मर्ज़ी से तो कहीं भी पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं पर पत्नि या बहू के खर्च फ़िज़ूल खर्ची लगते हैं ..ऐसे में ज़रुरी हो जाता है कि महिला के पास कुछ पैसे अपनी मर्ज़ी से खर्च करने के लिए भी होने चाहिए ..
    यह विषय बहुत व्यापक है ..विचारणीय मुद्दा उठाया है ..सार्थक लेखन

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  10. प्रेम का कोई मोल नहीं होता ... मेरा तो मानना है वो वित्तीय सम्बन्ध मिओं ज्यादा अच्छे निर्णय लेती है तो उसे ज्यादा स्वतंत्रता होनी चाहिए ...

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  11. @@जो रिश्ते प्रेम और विश्वास की डोर से बांधे हों , उनकी कीमत क्या हो सकती है ..
    इसकी माप हो ही नहीं सकती,आभार.

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  12. आपकी इस प्रस्‍तुति ने तो नि:शब्‍द कर दिया ...।

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  13. औरत के मन में दूसरों के प्रति जितना प्रेम और विश्वास होता है उतना ही अपने लिए भी हो तो अधिकार और कर्तव्य से जुड़े सवालों का चक्रव्यूह अपने आप ही टूट जाता है..तब सभी भावों का सही अनुपात जीवन को खूबसूरत बना देता है...

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