मंगलवार, 22 जुलाई 2014

द्विरागमन ....(3)

अपने जीवन की परेशानियों से निबटता एक सैनिक जा बैठा हरे भरे पार्क की एक बेंच पर , उसी बेंच से कुछ दूर मखमली दूब पर तिनके कुतरती एक स्त्री ,. तल्खी भरे परिचय से बढती मुलाकातें अजनबियत को परे धकेलती आत्मीयता में बदलती है . दोनों के बीच के  संवादों  के टुकड़े उन दोनों की कहानी को आगे बढ़ाते हैं , उनके जीवन की कहानी को . कहते हैं सुख में साथ चल रहे अपने फिर पराये हो जाते हैं मगर दुःख और संवेदना दो इंसानों के बीच बेहतर पहचान बनाती है ....जीवन की आपधापी के भागते क्षणों के बीच कुछ ठहर सी गयी है खुद को तलासते , सैनिक के दर्द अभी सिर्फ उसके अपने हैं ! पिछले  दो अंकों  द्विरागमन (1), द्विरागमन (2)के बाद अब आगे ....


        

उससे बतियाते मैं जानने लगा था कि वह अपने पति और बच्चों के साथ अकेले रहती थी।  उसके सास ससुर इतने नाराज थे कि एक ही शहर में रहने के बावजूद उससे कभी मिलने नहीं आते ...बच्चों के जन्म से लेकर उनके स्वास्थ्य खराब होने पर भी। बताया नहीं था उसने बस , उसकी बातों से जाना।
एक दिन पूछ  लिया था मैंने -
तुम्हारा प्रेम विवाह हुआ है क्या  !
हां, प्रेम विवाह के बाद हुआ है।
प्रेम विवाह के बाद प्रेम!
बुद्धू , प्रेम मुझे विवाह के बाद हुआ !!
अच्छा , उससे पहले किसी से प्रेम नहीं हुआ ! सच बताओ , तुम्हे विवाह से पहले कभी प्रेम नहीं हुआ।
वह कुछ देर खामोश रही।
प्रेम क्या होता है आखिर ! दो व्यक्ति एक साथ रहने और साथ जीने में ख़ुशी महसूस करते है , इसके अतिरिक्त प्रेम क्या होता है !
 मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जब कुछ अच्छा नही लगता ...  घबराहट होती है !भूख- प्यास मिट जाती है ... पढने में मन नही लगता ... रात में नींद नहीं आती  दिन में सपने देखने लगते हैं लोग !
वह प्यार होता है।  मुझे तो लगता था कि ये लक्षण ब्लड प्रेशर के होते हैं या अनिमिक होने के !
इस उम्र में तुम यह कह सकती हो , मगर मैं उस उम्र की बात कर रहा हूँ जब यह सब होता है ! क्या तुम्हे कभी कोई अच्छा नहीं लगा। तुम भी अच्छी खासी खूबसूरत हो ...तुम्हे भी तो किसी ने पसंद जरुर किया होगा .
अच्छा  क्यों नहीं लगा।  हम अपने जीवन में बहुत लोगो से मिलते हैं जो हमें अच्छे लगते हैं.  हम उनसे और  वो हमसे आकर्षित होते हैं.  सब हमारे जीवन में शामिल नहीं होते .  इससे प्रेम का क्या सम्बन्ध !
अभी तुमने कहा न दो व्यक्ति एक साथ रहने जीने में ख़ुशी महसूस करें , वही प्रेम है !

अचकचा गई वह।  शब्दों के जाल में उलझा दिया था मैंने।  उलझन भरी नजरों से थोडा नाराजगी से कहा उसने , मुझे नहीं पता ये सब ! मुझे इस तरह का कोई प्रेम नहीं हुआ बस।  मैं उसे ही प्रेम मानती हूँ जो जिम्मेदारी बन जाता है।
वह कुछ जल्दी में थी उस दिन। जल्दी जाना था उसे।  उसके पति शहर से बाहर जा रहे थे कुछ दिन के लिए . उनके सामान की पैकिंग करनी थी और भी घर के कुछ काम भी।  मुझे हैरानी हुई कि उसका पति उसकी कजिन के विवाह में अकेला ही जा रहा था।
कमाल है ! कजिन तुम्हारी है और पति तुम्हारा जा रहा है शादी में।  तुम क्यों नहीं जा रही।
मैं नहीं जा सकती। कम से कम एक सप्ताह लगेगा . बच्चों की पढाई का नुकसान होगा। वह कुछ उदास सी थी।
ऐसा भी क्या कि बच्चों को कुछ दिन की छुट्टी नहीं दिला सकती।
एक्जाम होने वाले है उनके कुछ दिनों में ही।
हाँ , मगर इसमें क्या हुआ ! तुम अपने सास ससुर के पास छोड़ सकती हो बच्चों को।
नहीं छोड़ सकती , वे नहीं आते हमारे घर !
मैंने उसकी ओर गौर से देखा तो वह एकदम से गड़बड़ा गयी .
मेरा मतलब है कि बच्चे कभी रहे नहीं है अकेले  इसलिए नहीं छोड़ सकती उनको कहीं।
वह कुछ नहीं बोली।  मगर मैं चाहता था कुछ कहे वह ! क्यों नहीं जाना चाहती है वह , क्यों नहीं जा सकती है !!
बस नहीं जा सकती , काफी है तुम्हारे लिए।
मुझे पता चल गया क्यों नहीं जाना चाहती हो तुम।  उसके जाने के बाद एक सप्ताह पार्क में मुझसे मिलने ज्यादा देर आ सकोगी … उसे खीझा कर बुलवाने का हुनर मैं सीख गया था !
खिझी बहुत अधिक वह मगर बोली कुछ और ही।
मैं तुम्हारा सर फोड़ दूँगी।
हा हा हा , मेरे सर तक तुम्हारा हाथ पहुचेगा भी  !! मैं सीधा तन कर खडा हो गया।  वह मेरे कंधे से भी छोटी थी।
मुझे बात ही नहीं करनी है तुमसे और उस दिन वह  नाराज होकर पैर पटकते चली गयी।

वह सचमुच नाराज हो गयी थी।  उस पूरे एक सप्ताह वह पार्क में आई ही नहीं . मैं पहली बार थोडा बेचैन हुआ। किससे पूछूं उसके बारे में।  आस पास खेलते बच्चों से , या आइसक्रीम वाले से।  मैं नहीं जानता था कहाँ रहती है वह . कभी मैंने पूछा नहीं . कभी उसने बताया भी नहीं। पहली बार मैंने सोचा ! कई बार उठ कर उन बच्चों के बीच गया मगर कदम फिर फिर कर लौट आते।  क्या पूछूं बच्चों से  , क्या कहेंगे बच्चे ! कौन थी वह जिसके बारे में मैं जानना चाह रहा था।  पता नहीं  कौन क्या सोचेगा . मैं चुप ही बैठा रहा मगर मुझे बेचैनी होती रही। इस बार मुझे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था . मैंने उसे उदास देखा था कुछ परेशान भी और मैंने उसे चिढाना जारी रखा था . मुझे नहीं करना चाहिए था ऐसा .

क्यों नहीं आई वह ! सब ठीक तो है या हो सकता है वह भी अपने पति और बच्चों के साथ चली गयी हो विवाह में।  या कही मुझसे सचमुच नाराज तो नहीं हो गयी है।  ईश्वर जानता था मैंने सिर्फ उसे खिझाने के लिए ही कहा था।  जब कभी वह अनमनी नजर आती या अधिक चुप रहती नजर आती मैं जानबूझकर कुछ ऐसा कहता कि उसे गुस्सा आ जाये और चिल्लाते हुए लड़ पड़ती और लड़ते हुए उदासियाँ उस ज्वालामुखी चेहरे के डर के मारे दुबकी रहती . लड़ते हुए ही जाने कब मुस्कुराने भी लगती।   मुझे उसे मुस्कुराते देखना बहुत अच्छा लगता था।  मैं टटोलता हूँ खुद को , उसे ही क्यों , मुझे सबको मुस्कुराते देखना अच्छा लगता है।

उस पूरे सप्ताह मुझे बहुत अकेलापन लगा।  गलत है यह . मैं खुद को धिक्कारता था।  मैं सब बन्धनों से छूट चूका हूँ , मुझे किसी को याद नहीं करना ., याद नहीं आना है।  मगर क्या सचमुच छूटा जा सकता था !!
 मैं याद करता था उस मनहूस दोपहर को जिसने मेरी जिंदगी का रुख बदल दिया था।  हलकी सर्दी के दिन उस पार्क की बेंच पर धूप का टुकड़ा मुझे आकर सहलाता रहा . मैं याद करता रहा जो मैं भूल जाना चाहता था , मगर भूला नहीं था।
सैनिकों के जीवन में छुट्टियाँ उनकी पूरी एक उम्र होती है।  कब जाने कौन सी छुट्टी उनके जीवन की आखिरी हो जाए , उस छुट्टी के बाद कभी लौट नहीं पाए जीवन। हर जवान जी लेना चाहता है उन पलों को यादगार लम्हों की तरह। अचानक घर जाकर निशा को चौंका देना चाहा था मैंने . मगर उससे पहले ढेर सारी खरीददारी करनी थी मुझे . लाल किनारे वाली सफ़ेद साडी  बंगला साहित्य को सनक तक पसंद करने वाली निशा . बहुत भाता था उसे उसी बंगला स्टाईल में साडी पहनना , उसके लम्बे बालों और बड़ी आँखों के बीच चेहरे की बड़ी बिंदी उसे ठेठ बंगाली लुक देती थी . कई बार यकीन करना मुश्किल हो जाता कि वह बंगाल से नहीं थी , बंगाली नहीं थी .  "आमी तुमाको भालो वासी " दुकानदार ने चौंक कर देखा था मेरी ओर . सेल्सगर्ल द्वारा खोल कर दिखाई जाने वाली साडी में जाने कब निशा आ खड़ी हुई थी . सेल्सगर्ल ने भी पूछा,  कुछ कहा आपने सर!,
हाँ हाँ वो .... इस साडी को पैक कर दो . मैं घबरा गया था . क्या सोचा होगा उन लोगों ने . कैसी चुभती अर्थपूर्ण निगाहें थी दुकानदार की मगर सेल्सगर्ल बहुत प्यारी संजीदा सी लड़की थी.
 वह समझ गयी थी ,"सर , मैम पर बहुत जचेगी यह साडी , अच्छी पसंद है आपकी !"
घर परिवार से दूर रहने वाले जाने कितने पथिक घर की उड़ान भरने से पहले यहाँ भटकते आ जाते होंगे . माँ , बहन, पत्नी,  प्रेयसी के लिए कुछ उपहार में खरीदते उनकी आँखों को पढना सीख जाती है ये बालाएं . कई बार उनसे सलाह भी ले लेते हैं जैसे अपनी पसंद से दे दीजिये बहन को क्या अच्छा लगेगा ... क्या ले जाना चाहिए माँ के लिए , प्रेयसी को कौन सा रंग सुहाएगा . अनजान दुनिया के कुछ पल के साथी जाने पहचाने अपनों के लिए किस अपनेपन से जुट जाते हैं . ना , सिर्फ व्यापार या मजबूरी नहीं . उनके चेहरे की नम आत्मीयता बेगानों में भी संवेदनाओं के बचे होने की पूरी गारंटी देती हैं . और जब अपनी नन्ही परी  तृषा के लिए परियों वाली ड्रेस और गुडिया सिंड्रेला लेते तो जैसे वात्सल्य का समन्दर उछाले भरता उनकी ममता को सहलाते रहा .
मेरी नन्ही परी , आ रहा हूँ मैं !  फोन पर अपनी तुतलाती जुबान में जाने क्या सुनाती रहती थी .  उसकी माँ से ही जान पाता था कि कभी वह लोरी सुना रही होती है तो कभी मम्मा की शिकायत . उस दिन उसकी प्यारी शरारतें बताते सुनते हम दोनों के गले भर आये थे . कागज़ पेन लेकर बैठी उसकी तृषा अपने पिता को ख़त लिख रही थी . उसकी माँ का सिखाया गीत गाते. पापा , जल्दी आ जाना . अच्छी सी गुडिया लाना .

क्रमशः ....
चित्र गूगल से साभार !