गुरुवार, 9 सितंबर 2010

ब्लॉग की नगरी मा कुछ हमारा भी हक़ होईबे करी ...काहे नही टिपियाएंगे??

ब्लॉग की नगरी मा कुछ हमारा भी हक़ होईबे करी ...काहे नही टिपियाएंगे??

अभी कुछ दिनों पहले चिट्ठाजगत के धड़ाधड़ टिप्पणियां कॉलम में अपनी बहुत सारी टिप्पणियों पर अपने ब्लॉग का पता देखा तो मारे डर के हालत खस्ता हो गयी ... ये कहाँ -कहाँ टिपिया आए हम ..इससे पहले कि  कोई पलटकर हमसे पूछ ले कि आप कौन होती हैं इतनी  टिप्पणियाँ करने वाली आख़िर गीत ,ग़ज़ल, तकनीक , राजनीति , सामाजिक मुद्दे आदि का आपको ज्ञान ही कितना है  आप ठहरी "साधारण गृहिणी  " .  हम तो अपना स्पष्टीकरण पेश कर ही देते हैं।

शुरुआत तो पहले यही से कर लेते हैं कि आख़िर ब्लॉग है क्या ...इतने सारे ब्लॉग्स को पढ़ने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ब्लॉग हमारी निजी डायरी का वह हिस्सा है जिसे हम सार्वजनिक करना चाहते हैं .. अपने आसपास चलने वाली गतिविधियों में ,सामाजिक दिनचर्या में जो भी रोचक, आश्चर्यजनक और ज्ञानवर्धक नज़र आता है उससे उपजे सवाल अथवा उन सवालों के जवाबों को दूसरों से साझा करने का ही तो एक अच्छा व सुलभ माध्यम।

अब डायरी में अपने विचारों को उतारने के लिए शब्द - संयोजन , वाक्य - विन्यास , अलंकार आदि की ज्यादा समझ और आवश्यकता नहीं  होती है । इन परिस्थितियों के मद्देनजर अगर साहित्य कम लिखा जा रहा है तो ...कि फरक पैंदा है ? हालाँकि ब्लॉग लेखन में साहित्यकारों और तकनीकी विशषज्ञों की भी कोई कमी नहीं है . ऐसे में सामान्य  रचनाकारों को सरल ,सहज भाषा में लिख लेने दीजिए ना ...जितना ज्यादा लिखेंगे कलम की धार ( कम्प्यूटर पर तो टाइपिंग की जाती है ना ..तो टाइपिंग ... नहीं  नहीं  अँगुलियों की धार पैनी होगी तो और कुछ नही तो सितार - गिटार जैसा कुछ बजा कर ही संतोष कर लेंगे !! ) उतनी ही पैनी होगी । 

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान "

जन्मजात प्रतिभावान विरले ही होते हैं । जिन्होंने लताजी के शुरुआती दौर के गाने सुने हैं जान सकते है कि उनके इस सुरीले गले के पीछे उनकी कितनी रियाज़ छुपी है । यदि गुलज़ारजी के गीत लेखन का सफर बीड़ी जलायिले से शुरू होकर हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू से गुजरता हुआ मोरा गोरा अंग लई ले की तरफ़ बढ़ता तो भी क्या उनकी रचनाधर्मिता पर सवाल उठाये जा सकते थे ??

और जब थोड़ा बहुत लिख लिया है तो अपनी रचना को सराहे जाने का का इन्तिज़ार लाजिमी है ..प्रत्येक रचनाकार को अपनी हर रचना प्रिय ही लगती है ...ठीक वैसे ही जैसे कितनी भी बेसुरी मां अगर अपने बच्चों को लोरी सुनाकर सुला रही हो तो किसी स्वरकोकिला से कम नही लगती । प्रशंसा पाने का आग्रह तो वाजिब है मगर दुराग्रह नहीं !!

अब आते हैं टिपियाने की ओर .. अब यह सवाल कि टिप्पणी कौन  करे .. कौन न करे ..क्यों करे ..क्यों न करें ..तो एक बात बता दें कि लोकतंत्र में सबको अपनी अभिव्यक्ति का जितना अधिकार है उतना ही दूसरों की अभिव्यक्ति पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का भी है ।  इसमें  दूसरों की गरिमा को ठेस न पहुंचे इसका ध्यान अवश्य  रखा जाना चाहिए । रचनाकारों का हौसला बढ़ाने के लिए की गयी टिप्पणी पर उस विषय में पारंगत होना कोई आवश्यक नही है ।

अमिताभ जी की आवाज को रेडियो पर नकार दिए जाने के बावजूद वे कला जगत के जिस उच्चतम शिखर पर शोभायमान है. उसके पीछे कारण पत्र - पत्रिकाओं या अन्य दूसरे माध्यमों (टीवी ,इन्टरनेट आदि ) में कला मर्मज्ञों द्वारा लिखी या पढ़ी जाने वाली समीक्षाओं से ज्यादा प्रेरणा अपनी हाड़तोड़ मेहनत की कमाई का हिस्सा खर्च करने वाले कला से अनभिज्ञ मेहनतकशों की वाहवाही अथवा तालियों की गड़गड़ाहट है ...

तो लिक्खाड़ और टिप्पणीकार भाइयों और बहनों, घबराना नहीं डटे रहना ...हतोत्साहित करने वाली टिप्पणियों पर भी जश्न  इस तरह मनाना कि...
अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफिल में है !! "

तो अब आप हमारे लिखे पर लाल ताते होते रहें...हम तो अपना स्पष्टीकरण दे चुके ...इससे पहले कि कोई सवाल उठे !

चलते चलते विविधताओं से भरे इस देश में जन्म लेने पर थोड़ा गर्व भी महसूस कर लें ...कि ..जहाँ लैंग्वेज लर्न पर एक धेला भी खर्च करे बिना भी इतनी भाषाएँ या बोलिया सीख पाये ...और तो गर्व करने लायक इस देश में कुछ बचा नहीं है .....।

नेट पर ज्यादा समय नहीं दे पा रही हूँ ...इसलिए दूसरे ब्लॉग्स पर टिप्पणी नहीं कर पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ...यह लेख ब्लॉग लेखन की शुरुआत के कुछ समय बाद ही लिखा था ...थोड़ा सुधार कर दिया है ...झेल लीजिये ...!