गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है!!!

मायानगरी  मुंबई का आकर्षण ही कुछ ऐसा है की लोग अपने आप खींचते  चलते आते हैं . इतिहास की तह में जाए तो यह एक द्वीपसमूह था . अंग्रेजों ने  व्यापार की दृष्टि से इसके महत्व को समझा और अपना व्यापारिक केंद्र बनाया . अंग्रेजों ने मुंबई को वृहत पैमाने पर सड़कों तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था से व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त आम नागरिकों के लिए भी सुविधाजनक बनाया . प्रथम रेल लाईन की स्थापना से ठाणे से जुड़कर व्यापारिक संभावनाओं को असीमित आकाश दिया .  यह शहर  कार्य की प्रचुर उपलब्धता तथा फिल्म इंडस्ट्री का प्रमुख स्थान होने के कारण ग्लैमरस जीवन शैली से सम्मोहित करता आम जनों को सम्मोहित करता रहा . छोटे शहरों अथवा गांवों से पलायन करती  जनता को यह शहर बहुत लुभाता रहा है .
आज आलम यह है की  समन्दर के किनारे बसे इस शहर में पानी की लहरों की मानिंद ही आदमजात का समंदर भी लहराता है . जनता के  इस समंदर को एक स्थान से दुसरे स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं यहाँ की  लोकल ट्रेनें जो प्रकारांतर से मुंबई की लाईफ लाईन ही मानी जाती है .मिनटों की समय सारणी और अंतर से चलने वाली इन ट्रेनों का सफ़र भी रोमांच से भरा होता है . इन ट्रेनों में घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी में ताश खेलते लोगों के साथ अपने घर अथवा दफ्तर के छोटे- मोटे काम निपटाते यात्री दिख जाना भी आम ही है . सुबह घर से निकलने वाले और शाम को घर लौटने को व्याकुल  यात्रियों के रोमांच भरे सफ़र में खचाखच भरे रेल के इन डब्बोंमें अपनी जगह बना पाना शारीरिक और मानसिक श्रम की मांग रखता है . इतनी मुश्किलों में सफ़र करने वाले दैनिक यात्रियों का क्या हाल होता होगा , उत्सुकता ने ने ऐसे ही कुछ दैनिक  यात्रियों से यह प्रश्न दाग दिए . जवाब खासे रोचक थे .
ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन  एक ही ट्रेन से लम्बी दूरी का सफ़र करने वाले यात्री बीच के दूसरे  स्टेशनों पर अपने परिचितों के लिए सीट रोक कर रखते हैं . दो चार मुस्टंडे बॉडी बिल्डर टाईप लोग ट्रेन के दोनों ओर  दरवाजों पर द्वाररक्षक की मुद्रा में अड़े होते हैं , उनकी कृपा दृष्टि के बिना अन्य किसी का उस डब्बे में चढ़ पाना संभव नहीं . इस तरह   दुबले- पतले  निरीह लोगों का गुजारा इनकी बदौलत हो जाता है , वर्ना सुबह ऑफिस टाईम में बेचारे आती -जाती ट्रेनों को नजरे भर देखते ही रह जाए , ट्रेन में सीट मिलना तो दूर ,चढ़ने की हिम्मत भी ना जुटा पाए। और खुदा ना खास्ता किसी दिन कोई ऐसा ही तगड़ा अनजान मुसाफिर उनकी बोगी में जबरन चढ़ भी जाए तो उसकी इतनी लानत -मलानत की जाती है शब्दों के द्वारा कि बेचारा सर झुकाए जैसे -तैसे इस सफर के पूरे होने का इन्तजार करते हुए मन ही मन प्रण  ले लेता है की आईंदा इन सहयात्रियों साथ हरगिज सफ़र नहीं करेगा .
दरअसल एक लोकल ट्रेन महज एक रेल नहीं , दर्पण है हमारी आम और ख़ास जनता की मानसिकता का . आम में से ही कुछ  लोग जो ख़ास बन जाते हैं , आम को अमचूर बना देना उनका प्रिय शगल हो जाता है . खासमखास भी सब एक दुसरे के ख़ास तो हो नहीं सकते , इसलिए इनमे से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक  चक्रव्यूह- सा  रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा  राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
कभी -कभी मुझे हिंदी ब्लोगिंग में भी यही नजर आने लगता है , असमंजस में होती हूँ की यह  मेरा दृष्टिदोष है या वास्तविकता . शायद टिप्पणियों में कुछ खुलासा हो जाए .
अपना स्थान  बनाये रखने के लिए आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है , आम आदमी ने गाँठ बाँध ली है , आपने बाँधी की नहीं !!