मायानगरी मुंबई का आकर्षण ही कुछ ऐसा है की लोग अपने आप खींचते चलते आते हैं . इतिहास की तह में जाए तो यह एक द्वीपसमूह था . अंग्रेजों ने व्यापार की दृष्टि से इसके महत्व को समझा और अपना व्यापारिक केंद्र बनाया . अंग्रेजों ने मुंबई को वृहत पैमाने पर सड़कों तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था से व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त आम नागरिकों के लिए भी सुविधाजनक बनाया . प्रथम रेल लाईन की स्थापना से ठाणे से जुड़कर व्यापारिक संभावनाओं को असीमित आकाश दिया . यह शहर कार्य की प्रचुर उपलब्धता तथा फिल्म इंडस्ट्री का प्रमुख स्थान होने के कारण ग्लैमरस जीवन शैली से सम्मोहित करता आम जनों को सम्मोहित करता रहा . छोटे शहरों अथवा गांवों से पलायन करती जनता को यह शहर बहुत लुभाता रहा है .
आज आलम यह है की समन्दर के किनारे बसे इस शहर में पानी की लहरों की मानिंद ही आदमजात का समंदर भी लहराता है . जनता के इस समंदर को एक स्थान से दुसरे स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं यहाँ की लोकल ट्रेनें जो प्रकारांतर से मुंबई की लाईफ लाईन ही मानी जाती है .मिनटों की समय सारणी और अंतर से चलने वाली इन ट्रेनों का सफ़र भी रोमांच से भरा होता है . इन ट्रेनों में घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी में ताश खेलते लोगों के साथ अपने घर अथवा दफ्तर के छोटे- मोटे काम निपटाते यात्री दिख जाना भी आम ही है . सुबह घर से निकलने वाले और शाम को घर लौटने को व्याकुल यात्रियों के रोमांच भरे सफ़र में खचाखच भरे रेल के इन डब्बोंमें अपनी जगह बना पाना शारीरिक और मानसिक श्रम की मांग रखता है . इतनी मुश्किलों में सफ़र करने वाले दैनिक यात्रियों का क्या हाल होता होगा , उत्सुकता ने ने ऐसे ही कुछ दैनिक यात्रियों से यह प्रश्न दाग दिए . जवाब खासे रोचक थे .
ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन एक ही ट्रेन से लम्बी दूरी का सफ़र करने वाले यात्री बीच के दूसरे स्टेशनों पर अपने परिचितों के लिए सीट रोक कर रखते हैं . दो चार मुस्टंडे बॉडी बिल्डर टाईप लोग ट्रेन के दोनों ओर दरवाजों पर द्वाररक्षक की मुद्रा में अड़े होते हैं , उनकी कृपा दृष्टि के बिना अन्य किसी का उस डब्बे में चढ़ पाना संभव नहीं . इस तरह दुबले- पतले निरीह लोगों का गुजारा इनकी बदौलत हो जाता है , वर्ना सुबह ऑफिस टाईम में बेचारे आती -जाती ट्रेनों को नजरे भर देखते ही रह जाए , ट्रेन में सीट मिलना तो दूर ,चढ़ने की हिम्मत भी ना जुटा पाए। और खुदा ना खास्ता किसी दिन कोई ऐसा ही तगड़ा अनजान मुसाफिर उनकी बोगी में जबरन चढ़ भी जाए तो उसकी इतनी लानत -मलानत की जाती है शब्दों के द्वारा कि बेचारा सर झुकाए जैसे -तैसे इस सफर के पूरे होने का इन्तजार करते हुए मन ही मन प्रण ले लेता है की आईंदा इन सहयात्रियों साथ हरगिज सफ़र नहीं करेगा .
दरअसल एक लोकल ट्रेन महज एक रेल नहीं , दर्पण है हमारी आम और ख़ास जनता की मानसिकता का . आम में से ही कुछ लोग जो ख़ास बन जाते हैं , आम को अमचूर बना देना उनका प्रिय शगल हो जाता है . खासमखास भी सब एक दुसरे के ख़ास तो हो नहीं सकते , इसलिए इनमे से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक चक्रव्यूह- सा रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
कभी -कभी मुझे हिंदी ब्लोगिंग में भी यही नजर आने लगता है , असमंजस में होती हूँ की यह मेरा दृष्टिदोष है या वास्तविकता . शायद टिप्पणियों में कुछ खुलासा हो जाए .
अपना स्थान बनाये रखने के लिए आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है , आम आदमी ने गाँठ बाँध ली है , आपने बाँधी की नहीं !!
आज आलम यह है की समन्दर के किनारे बसे इस शहर में पानी की लहरों की मानिंद ही आदमजात का समंदर भी लहराता है . जनता के इस समंदर को एक स्थान से दुसरे स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं यहाँ की लोकल ट्रेनें जो प्रकारांतर से मुंबई की लाईफ लाईन ही मानी जाती है .मिनटों की समय सारणी और अंतर से चलने वाली इन ट्रेनों का सफ़र भी रोमांच से भरा होता है . इन ट्रेनों में घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी में ताश खेलते लोगों के साथ अपने घर अथवा दफ्तर के छोटे- मोटे काम निपटाते यात्री दिख जाना भी आम ही है . सुबह घर से निकलने वाले और शाम को घर लौटने को व्याकुल यात्रियों के रोमांच भरे सफ़र में खचाखच भरे रेल के इन डब्बोंमें अपनी जगह बना पाना शारीरिक और मानसिक श्रम की मांग रखता है . इतनी मुश्किलों में सफ़र करने वाले दैनिक यात्रियों का क्या हाल होता होगा , उत्सुकता ने ने ऐसे ही कुछ दैनिक यात्रियों से यह प्रश्न दाग दिए . जवाब खासे रोचक थे .
ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन एक ही ट्रेन से लम्बी दूरी का सफ़र करने वाले यात्री बीच के दूसरे स्टेशनों पर अपने परिचितों के लिए सीट रोक कर रखते हैं . दो चार मुस्टंडे बॉडी बिल्डर टाईप लोग ट्रेन के दोनों ओर दरवाजों पर द्वाररक्षक की मुद्रा में अड़े होते हैं , उनकी कृपा दृष्टि के बिना अन्य किसी का उस डब्बे में चढ़ पाना संभव नहीं . इस तरह दुबले- पतले निरीह लोगों का गुजारा इनकी बदौलत हो जाता है , वर्ना सुबह ऑफिस टाईम में बेचारे आती -जाती ट्रेनों को नजरे भर देखते ही रह जाए , ट्रेन में सीट मिलना तो दूर ,चढ़ने की हिम्मत भी ना जुटा पाए। और खुदा ना खास्ता किसी दिन कोई ऐसा ही तगड़ा अनजान मुसाफिर उनकी बोगी में जबरन चढ़ भी जाए तो उसकी इतनी लानत -मलानत की जाती है शब्दों के द्वारा कि बेचारा सर झुकाए जैसे -तैसे इस सफर के पूरे होने का इन्तजार करते हुए मन ही मन प्रण ले लेता है की आईंदा इन सहयात्रियों साथ हरगिज सफ़र नहीं करेगा .
दरअसल एक लोकल ट्रेन महज एक रेल नहीं , दर्पण है हमारी आम और ख़ास जनता की मानसिकता का . आम में से ही कुछ लोग जो ख़ास बन जाते हैं , आम को अमचूर बना देना उनका प्रिय शगल हो जाता है . खासमखास भी सब एक दुसरे के ख़ास तो हो नहीं सकते , इसलिए इनमे से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक चक्रव्यूह- सा रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
कभी -कभी मुझे हिंदी ब्लोगिंग में भी यही नजर आने लगता है , असमंजस में होती हूँ की यह मेरा दृष्टिदोष है या वास्तविकता . शायद टिप्पणियों में कुछ खुलासा हो जाए .
अपना स्थान बनाये रखने के लिए आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है , आम आदमी ने गाँठ बाँध ली है , आपने बाँधी की नहीं !!
शाहजहांपुर अपनी पोस्टिंग के दौरान अक्सर मैंने भी ट्रेन से लखनऊ -शाहजहांपुर के बीच डेली आवागमन किया है | और जो मैंने पाया था शब्दशः आपने वही लिखा है | प्लेटफार्म पर पहुँचते ही अपने ग्रुप के लोग जब मिल जाते थे तब लगता था अब कितनी भी भीड़ हो जगह मिल ही जाएगी | लोग पहले सी ही जगह रोक कर रखते थे | यहाँ तक की पिछले स्टेशन से ही कुछ मेरे स्टाफ जगह रोक लेते थे | मुझे गलत लगता था और इसी गलती के प्रायश्चित स्वरूप मैं अक्सर अपनी जगह अन्य किसी जरूरतमंद को दे दिया करता था | पर जब आम के बीच कोई आपको ख़ास बना दे तब अच्छा तो लगता ही है | मनुष्य-प्रकृति ही है आम में खास दिखना और इसमें कोई दोष भी नहीं है अगर वह ख़ास अपने ख़ास होने में आम की अनदेखी न कर जाए | " इग्नोर होना कहाँ किसी को अच्छा लगता है " |हाँ ! ब्लॉग जगत भी इससे अछूता नहीं है , यह सच है |
जवाब देंहटाएंख़ास होने के बाद भी आम बने रहना दुर्लभ गुण है :)
हटाएंखास तो हर कोई होना चाहता है...... आजकल तो अजीब सा आइडेन्टिटी क्राइसिस नज़र आता सभी में | अपने आपको कुछ अलग दिखाने, साबित करने की धुन ......
जवाब देंहटाएंख़ास होने के फेर में अजीबो गरीब हो जाना , आजकल आम है :)
हटाएंखुशी से बढ़कर पौष्टिक खुराक और कोई नहीं है। दूसरों को खुशी देना सबसे बड़ा पुण्य का काम है।
जवाब देंहटाएंयह बात आम आदमी बेहतर जानता है -- इसलिए मैं आम ही रहना चाहता हूं, खास से दूरी बनाते हुए।
ख़ास होने के बाद स्वयं को आम कहने का इम्पैक्ट अलग होता है ...
हटाएंजो महज आम ही है ,उनका हाल तो आप- हम देख ही रहे हैं:)
हम का खासम-खास होने के लिए किसी खास की तलाश में है . कब तक अमचूर बने.
जवाब देंहटाएंवाणी जी हम तो आम ही ठीक हैं क्योंकि खास बनने की गठजोड हमें आती नहीं :):):)
जवाब देंहटाएंआम होने का सुख तो बहुत है , अगर अमचूर ना बनना पड़े :)...
हटाएंयहाँ बात आम में से ख़ास बन गए लोगो की आम लोगों से बढती दूरियों की है !
मुंबई का मिजाज बड़ा अटपटा है, जितना अच्छा है उतना ही बुरा भी.
जवाब देंहटाएंवाकई !
हटाएंखास बनने की होड में इंसान आम भी नहीं रह पाता .... खास बने यह सबकी ख़्वाहिश होती है पर यह खासियत यदि दूसरों को अमचूर बना कर पायी जाये तो टिकती नहीं लकीर को छोटा करने के लिए बिना मिटाये बड़ी लकीर बनानी पड़ती है .... यह बात हर जगह लागू होती है शायद ब्लॉग जगत में भी .... पर यहाँ खास बनने में कुछ खासियत नहीं ।
जवाब देंहटाएंसही बात !
हटाएंMumbai me aisa hota hai kya?? par sahi kaha Amit jee ne daily passengers jahan bhi chalte hain, wahan aisa hota hai... hame to apne college days yaad hai... mera college karib 16 km dur tha aur bich me 10 km ka rashta ham cycle ko train pe chaddha kar safar karte the.. aur hamare pyare se dost hamari cycle ko lagane ke liye bhi vyavastha karte the..TRAIN PAR.:))
जवाब देंहटाएं.
kahne ka matlab ye hai, aam me thore se special aam... bole to mango me dashahari hona kise nahi achchha lagta:)
.
blog jagat to sirf give n take wali policy me chalta hai.... :)
किसी की नजर में ख़ास होना तो अच्छा लगता ही है:)
हटाएंगिव एंड टेक जैसा ब्लॉगजगत में क्या है ?
तुमने मेरी कवितायेँ छापी , इसमें क्या गिव एंड टेक हुआ बल्कि हम लोग एक दूसरे की हर पोस्ट पर टिप्पणी भी नहीं करते ,...
हर नियम हर किसी पर लागू नहीं हो सकता :)
mera kahna sirf comments se juda hua tha...
हटाएंVani di!!
मेरे भाई , टिपण्णी की ही तो बात मैं कर रही हूँ .. तुम कहा हर बार करते हो टिप्पणी :):)
हटाएंखास बनने की महत्वाकाँशा आदिम है, मनुष्य के हर पर्याय हर परिस्थिति मेँ नजर आएगी.'जिजीविषा' के लिए 'विजिगीषा' है.
जवाब देंहटाएंबच्चों को ही देख लें , अपने माता पिता की नजर में ख़ास होने के लिए आपस में लड़ते रहते हैं :)
हटाएंवाणी जी
जवाब देंहटाएंदूर से देखने में जरुर ये रोमांच लगता हो किन्तु इसमे कही से भी रोमांच नहीं है कम से कम रोज वालो के लिए , स्थित और भी बुरी है रोज का 2-3 की औसत है मरने का :(
मायानगरी क्या छोट शहर गांवो सभी जगह लोग खास बनने के लिए उतावले रहते है , उम्मीद रखते है की वो खास बने और सभी उन्हें ऐसा समझे भी , कुछ गलत फहमी में जीते रहते है की वो खास है , जब समाज का ये हाल है तो ब्लॉग जगत इससे कैसे दूर रहे ।
Have you been there recently or in remote past?No no I just want to know how you are concerned with this plight?
जवाब देंहटाएंमुझे मुंबई दर्शन किये अरसा हुआ , मगर वहां के हालात से वाकिफ रहती हूँ .
हटाएंNow on the concluding portion of your post:
जवाब देंहटाएंWho are the mango people in banana/blog republic?
आम हर एक की पहुँच में होता है और खास सिर्फ खास के बीच ही रहता है या फिर चमचों के बीच। इसलिए आम बन कर रहिये सभी का प्यार मिलेगा। ब्लॉग हो या जीवन आम बन कर जीना ही जीना है।
जवाब देंहटाएंसच में !
हटाएंआम से खास बनने में लगे रहना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंसकारात्मक उत्तर !
हटाएंखरगोश और कछुए सा फर्क है आम और ख़ास में ....
जवाब देंहटाएंख़ास की परिभाषा बदल गई है , कई रास्तों को पार करके पन्त,बच्चन,महादेवी .... ख़ास हो सके . आज कोई क्षेत्र हो - ख़ास बनने के लिए कोई भी रास्ता अपना लेते हैं . अमर्यादित रास्ते तो सबसे ऊपर हैं . जो इन विधाओं से ख़ास होते हैं,वे पुनः बहुत जल्दी गम भी हो जाते हैं . खुद पर विश्वास आम व्यक्तित्व की खासियत है
खुद पर विश्वास आम व्यक्तित्व की खासियत है!
हटाएंलाख टेक की बात ! मेरे लिए ख़ास होने का मतलब यही है !
बिल्कुल सही कहा है आपने ... हर कोई खास होना चाहता है ...
जवाब देंहटाएंजी , बिलकुल :)
हटाएंहर आम कुछ के लिए खास होता है. बस उतना काफी है.ज्यादा खास होने में मजा नहीं.हम तो आम ही रहना चाहते हैं.
जवाब देंहटाएंज्यादा ख़ास होने की अपनी बड़ी मुसीबतें है ,,,सच कहा !
हटाएंhar koi khas banNa chaahta hai....lekin khas banna bhi ek mrigtrishna hai is se insaan door nahi rah pata. lekin jab thoda sa khas banta hai to aur jyada khas banNa chahta hai...lekin asal me vo aam insaan wale jiwan ko peechhe dhakel deta hai aur usi aam jiwan me chhupe sukh ki lalsa se bhi nahi chhoot pata. lekin jo santosh dhan ka malik hota hai vo kabhi bhi khas ki lalsa nahi karta. aur is blog jagat me to ek din jo khas hai dusre hi din vo aam ban jata hai....yahan waqt ka pahiya aur bhi teevr gati se ghoomta hai....yaha aam/khas ka fark bahut jaldi khatam ho jata hai to kya aam aur kya khaas ?
जवाब देंहटाएंजिसको अपने होने में संतुष्टि है , वह अपने आप में ख़ास ही होता है .
हटाएंमेरी पोस्ट में ख़ास का मतलब यही है :)
बाकी ब्लॉगजगत पर आपकी विहंगम दृष्टि का जवाब नहीं !
आपकी आखिरी टिप्पणी से सहमत .
हटाएंहम तो खुद को खास ही समझते हैं .
और खास बने रहने की कोशिश में निरंतर लगे रहते हैं . :)
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (20-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ! नमस्ते जी!
आभार !
हटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
हुम्म...
गहरी पोस्ट... पर मेरी नजर में ब्लॉगवुड के संदर्भ में अगर देखें तो अलग अलग ब्लॉग अलग अलग ट्रेनों की माफिक हैं और पाठक उनके यात्री... ट्रेन में भीड़ बड़ानी है तो या तो खूब प्रचार-प्रसार-प्रमोशन करो अपनी ट्रेन का... या किराया (पाठक का अपने दिमाग पर जोर डालना) कम रखो... या भीड़ भड़क्के वाली दूसरी ट्रेनों से अपनी ट्रेन का लिंक-टाइमिंग जोड़ो... या फिर ट्रेन उसी टाइम पर निकालो जब भीड़ को शहर या स्कूल-आफिस जाना है (लिखो वही जो पाठक चाहे)... या उस स्टेशन ले जाओ जहाँ जाना फैशन में है... और अगर यह सब नहीं करना तो ले जाओ दूर, अनजाने, अनछुऐ स्टेशनों की ओर अपनी गाड़ी... भले ही यात्री कम ही मिलें पर आप तो वहीं पहुँचेंगे जहाँ जाना चाहते थे, वाकई में... :)
कर दिया न आम और खास को उल्टा-पुल्टा ?
...
उल्टा पुल्टा करने में ही तो व्याख्या हुई:)
हटाएंआभार !
बहुत खुबसूरत .
जवाब देंहटाएंअगर खुद ख़ास बनने की कोशिश की जाए तो वो कोशिश ही रह जाती है,
जवाब देंहटाएंलुत्फ़ तो तब है कि जब लोग ख़ास बना दे, और पता भी न चले यानी आप आम ही रहें
लोकल ट्रेन हो ब्लॉग जगत हो या समाज एक ही बात लागू होती है,सब जगह
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंMumbai kuchh aisee hee hai....bahut rah chukee hun!
जवाब देंहटाएंआम नहीं ,बस ख़ास ही होना है
जवाब देंहटाएंमायानगरी मुंबई का आकर्षण ही कुछ ऐसा है की लोग अपने आप खींचते।।।।।।(खिंचते ).......... चलते आते हैं . इतिहास की तह में जाए तो यह एक द्वीपसमूह था . अंग्रेजों ने व्यापार की दृष्टि से इसके महत्व को समझा और अपना व्यापारिक केंद्र बनाया . अंग्रेजों ने मुंबई को वृहत पैमाने पर सड़कों तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था से व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त आम नागरिकों के लिए भी सुविधाजनक बनाया . प्रथम रेल लाईन की स्थापना से ठाणे से जुड़कर व्यापारिक संभावनाओं को असीमित आकाश दिया…
एक स्थान से दुसरे(दूसरे ),,,,,,,,,,, स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं
इसलिए इनमे।।।।।।।(इनमें )......... से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक चक्रव्यूह- सा रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने।।।।।।।।।(बनने )........... से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
जो कहिये मुंबई की सिविलिटी ,नागर बोध का ज़वाब नहीं .पढ़े लिखे सुलझे लोगों का शहर है यह सिर्फ पढ़े लिखे लोगों का नहीं .
ब्लोगिंग में कौन से बाउंसर हैं हमें नहीं पता .
बहर सूरत आपके लेखन में तंज है शैली सौन्दर्य है ,आकर्षण है .बधाई .
कमाल है सारे विमर्श का ही स्वर बदल गया विषय परिवर्तन हो गया .राज ठाकरे का मुंबई गया पृष्ठ भूमि में .,जैसे राज ठाकरे भी कोई ब्लोगिया हो .
जवाब देंहटाएंमुंबई वासी न हो .
बढ़िया खाना पकाने और तरक्की का कोई छोटा रास्ता नहीं होता .छोटे रास्ते तिहाड़ जेल नंबर 11 में खुलते हैं .
आम नहीं ,बस ख़ास ही होना है
जवाब देंहटाएंमायानगरी मुंबई का आकर्षण ही कुछ ऐसा है की लोग अपने आप खींचते।।।।।।(खिंचते ).......... चलते आते हैं . इतिहास की तह में जाए तो यह एक द्वीपसमूह था . अंग्रेजों ने व्यापार की दृष्टि से इसके महत्व को समझा और अपना व्यापारिक केंद्र बनाया . अंग्रेजों ने मुंबई को वृहत पैमाने पर सड़कों तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था से व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त आम नागरिकों के लिए भी सुविधाजनक बनाया . प्रथम रेल लाईन की स्थापना से ठाणे से जुड़कर व्यापारिक संभावनाओं को असीमित आकाश दिया…
एक स्थान से दुसरे(दूसरे ),,,,,,,,,,, स्थान पर आराम से पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाती हैं
इसलिए इनमे।।।।।।।(इनमें )......... से कुछ ख़ास विरोधी भी हो जाते हैं .एक ख़ास प्रकार की इस व्यवस्था में कुछ ख़ास अपने और ख़ास विरोधियों का एक चक्रव्यूह- सा रच जाता है , इसके भीतर जो है वह सुरक्षित है , ख़ास है , बाकी सब आम हैं . पूरी व्यवस्था इस ख़ास चक्रव्यूह के भीतर ही जन्म लेती है , दम तोडती है . लोकल ट्रेन के इस दृष्टान्त को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल के व्यापारिक अथवा राजनैतिक परिमंडल में आसानी से देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में बने रहना है तो आम बन्ने।।।।।।।।।(बनने )........... से काम नहीं होगा , ख़ास बनना होगा , या किसी खास का खासमखास .
जो कहिये मुंबई की सिविलिटी ,नागर बोध का ज़वाब नहीं .पढ़े लिखे सुलझे लोगों का शहर है यह सिर्फ पढ़े लिखे लोगों का नहीं .
ब्लोगिंग में कौन से बाउंसर हैं हमें नहीं पता .
बहर सूरत आपके लेखन में तंज है शैली सौन्दर्य है ,आकर्षण है .बधाई .
कमाल है सारे विमर्श का ही स्वर बदल गया विषय परिवर्तन हो गया .राज ठाकरे का मुंबई गया पृष्ठ भूमि में .,जैसे राज ठाकरे भी कोई ब्लोगिया हो .
मुंबई वासी न हो .
बढ़िया खाना पकाने और तरक्की का कोई छोटा रास्ता नहीं होता .छोटे रास्ते तिहाड़ जेल नंबर 11 में खुलते हैं .
स्पैम में अटक जाती है कई बार टिप्पणियां ...
हटाएंमुंबईवासियों के नागरबोध पर आपने सही कहा ,बस इन दिनों माहौल कुछ बदला सा है !
आभार !
@आम में से ही कुछ लोग जो ख़ास बन जाते हैं , आम को अमचूर बना देना उनका प्रिय शगल हो जाता है .
जवाब देंहटाएंयही होता है आम का :)
आम की कोशिश है भाव खाकर खास बनने की और खास विनम्रता के साथ सफ़ाई से झूठ बोलकर अपने को आम बताता है। अजी ज़माना ही खराब है ट्रेन या ब्लॉगिंग का क्या दोष!
जवाब देंहटाएंऔर हम सोचते थे कि मुस्टंडे द्वारपाल\रक्षक सिर्फ़ हमारे शहर में ही होते हैं।
जवाब देंहटाएंकुछ प्रवास और कुछ अस्त-व्यस्तता के कारण आपकी पोस्ट पढ़ी नहीं जा सकी। मैं भी अनुभव करती हूँ कि दल विशेष में रहने पर ही आपकी कद्र होती है नहीं तो आप बेकद्री के ही शिकार रहते हैं।
जवाब देंहटाएंSometimes I pretend to be NORMAL, but it gets boring...so I go back to being ME :)
जवाब देंहटाएंआम और खास के बारे में फ़र्क सभी को मालूल है. आम बने रहने में तो पकते ही कोई खा डालेगा.:) इसलिये आम नही बनना बल्कि खास या किसी का खासमखास बनना उपयोगी रहेगा.
जवाब देंहटाएंब्लागिंग में खास बनने के लिये खुद एक ब्लागर्स एसोशिएशन बनाया जा सकता है या ब्लाग चर्चा जैसा कुछ...और भी बहुत सारे उपाय हैं मसलन ताऊ युनिवर्सिटी से इसका डिप्लोमा कोर्स भी किया जा सकता है. :)
रामराम.