शुक्रवार, 26 मार्च 2010

लापता हुए गाँवों और कस्बों का पता ...लापतागंज में जरुर देखे ....

गाँधीजी का कहना था कि " भारत का ह्रदय गांवों में बसता है"। आज भी हमारी ८५ प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है। गाँव में ही भारत की सच्ची तस्वीर देखी जा सकती है । परन्तु गाँवो में रोजगार की कमी , उच्च शिक्षा के पूरे अवसर उपलब्ध ना होने के कारण गाँव से लोग तेजी से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं ।
मगर गाँव से शहर आकर भी उनका भीतरी गंवाई मन जब तब अपना फन उठाता रहता है ।
गाँव जहाँ प्रकृति अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ उपस्थित होती है, हरे -भरे खेत , झूमती सरसों , बरसता सावन, खुली हवा, सुगन्धित हवा , अप्रदूषित शांत वातावरण, अमरायिओं में गूंजती कोयल की कूक , सावन की पहली फुहार पर प्रफुल्लित नाचते मोर , खेतों के बीच की पगडंडियाँ , ताजा सब्जियों और धन्य -धन्य से भरे खेत -खलिहान ....जिसने भी सादा साफ़ सुथरा मधुर ग्राम्य जीवन जीया है , लाख शहरी हो कर भी बस मौका मिलते ही वापस वही भागने को मचलता है ।

गाँव जहाँ ना सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य बसता है , बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी अत्यंत मनोहारी होता है । गाँव में लोग प्रकृति की हर लय के साथ नाचते -गाते गुनगुनाते होली , दीपावली, तीज , आदि लोकपर्व या सामाजिक व धार्मिक पर्व बड़े धूम धम से साथ मिलकर मनाते हैं । भाईचारे का अटूट बंधन ग्रामवासियों को आपस में मजबूती से बांधे रखता है इसलिए ही वे एक- दूसरे के सुख-दुःख में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं ....जहाँ किसी एक इंसान की बेटी पूरे गाँव की इज्जत होती है , वही सभी का एक समान ध्यान रखने वाली ममतामयी भाभियों को अपने सहज स्नेह के लिए चरित्र प्रमाणपत्र नहीं लेना पड़ता । इनके सुख दुःख साझा होते हैं । विवाह की रस्में , गीत , विदा के क्षण ग्राम्यवासियों की भावुकता और व्यवहारकुशलता को प्रकट करते हैं ।
गाँव के निश्छल वातावरण में पले बढे ग्रामवासी जब कतिपय कारणों से शहर की ओर बढ़ते हैं तो कुछ समय के लिए शहरी चकाचौंध उन्हें बहुत लुभाती है मगर जैसे जैसे शहरी गीरगटी रंग और चमक -दमक के पीछे छिपा गन्दला और यत्न से ढक कर रखा लिजलिजा वातावरण सामने आता है , मन तो बस सहज , सौम्य , शांत गाँव की ओर ही सरपट भागता है , तन से शहर में रहने की मजबूरी को ढोते हुए भी ...

टेलीविजन धारावाहिकों से तेजी से गायब होते गाँवों के बीच एक सुखद ग्रामीण अहसास लेकर आया है ख्यातनाम व्यंग्यकार शरद जोशी की कहानियों पर आधारित धारावाहिक " लापतागंज " । जहाँ ज्यादातर धारावाहिक शहरी जीवन को रेखांकित करते भव्य , दोगलापन , भड़कीले सेट आईना बने हुए हैं , वही यह धारावाहिक हमें अपनी बिसरा दी गयी संस्कृति की जड़ों की ओर लेकर जाता है




भड़कीले रंगों से सजे ठेठ गंवई या कस्बाई सेट , और सीधे -सादे कस्बाई चरित्र कितने भूले गाँवों और कस्बों की संस्कृति को साकार करते नजर आ जाते हैं ।
मुकुन्दी और इंदुमती की छोटी सी गृहस्थी और एजी ओजी की पुकार के साथ उनके बीच होने वाली तकरार और हंसी ख़ुशी के पल के बीच पलता सहज स्वाभाविक जीवन , दस साल से डीपली कानून की पढ़ाई करता अपने अंग्रेजी ज्ञान को बघारता बिज्जी पाण्डेय और सुरीली का मूक प्रेम (क्यूंकि सुरीली गूंगी है ) दिमाग की नसों को शिथिल करने के लिए पर्याप्त है । कछुआ चाचा , सुरीली की मौसी , मामा आदि सभी पात्र इस धारावाहिक के कस्बाई चरित्र को पूरी तरह उभारते हैं । हलके फुल्के हास्य व्यंग्य के साथ व्यवस्था की खामियों पर प्रहार करता और सामाजिक सन्देश देता यह धारावाहिक भारत में लापता हो चुके ऐसे गाँवों की बहुत याद दिलाता है ।

शरद जोशी की कहानियों का पता लापतागंज -1

शरद जोशी की कहानियों का पता लापतागंज -2




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चित्र गूगल से साभार ...

गुरुवार, 25 मार्च 2010

विपत्ति कसौटी जे कसे सोई सांचे मीत .....



जीवन एक संग्राम ही तो है । जिसमे समय समय पर विभिन्न विपत्तियाँ आती हैं । इन विपत्तियों में ही परम मित्र की सत्यता प्रमाणित होती है ।
पंचतंत्र में कहा गया है ...." जो व्यक्ति न्यायलय, शमशान और विपत्ति के समय साथ देता है उसको सच्चा मित्र समझना चाहिए "
मित्र का चुनाव बाहरी चमक दमक , चटक मटक या वाक् पटुता देखकर नहीं कर लेना चाहिए। मित्र ना केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला बल्कि हमारी भावनाओं को समझने वाला सच्चरित्र , परदुखकातर तथा विनम्र होना चाहिए।

मित्रता के लिए समान स्वाभाव अच्छा होता है परन्तु यह नितांत आवश्यक नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में में भी मैत्री संभव है। नीति-निपुण अकबर तथा हास्य -व्यंग्य की साकार प्रतिमा बीरबल, दानवीर कर्ण और लोभी दुर्योधन की मित्रती भी विपरीत ध्रुवो की ही थी ...

सच्ची मित्रता बनाये रखने के लिए जागरूकता आवश्यक है। यह देखना आवश्यक है कि क्या हमारा मित्र हमारा हितैषी है ? हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है ? दोषों से हमारी रक्षा करता है? निराशा में उत्साह देता है ? शुभ कार्यों में सहयोग और विपत्ति सहायता करता है या नहीं ?

दूसरी जागरूकता यह होनी चाहिए कि हम अपने मित्र के विश्वासपात्र बने । उसकी निंदा से बचे। उन पलों या घटनाओं को उससे दूर, छिपा कर रखे जो उसे अंतस तक दुःख पह्नुचाते हैं ना कि उसका विश्वासपात्र बनने के लिए उसे खूब प्रचारित करे ।
किसी ने ठीक कहा है ..." सच्चा प्रेम दुर्लभ है , सच्ची मित्रता उससे भी दुर्लभ "

श्रीरामचरितमानस के पठन का असर अभी गया नहीं है ...राम की महिमा ही ऐसी है .... मित्र धर्म पर पर कुछ बेहतरीन सूक्तियां देखें ....

जे ना मित्र दुःख होहिंबिलोकत पातक भारी
निज दुःख गिरी संक राज करी जानामित्रक दुःख राज मेरु समाना

जोग लोग मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के सामान तथा मित्र के धूल के समान दुःख को पर्वत के समान जाने ।

जिन्ह के असी मति सहज ना आई ते सठ कत हठी करत मिताई
कुपथ निवारी सुपंथ चलावा गुण प्रगटे अव्गुनन्ही दुरावा

जिन्हें स्वाभाव से ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख क्यों हाथ करे किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाये। उसके गुण को प्रकट करे और अवगुणों को छिपाए।

देत लेत मन संक धरई बल अनुमान सदा हित कराई
विपत्ति काल कर सतगुन नेहा श्रुति का संत मित्र गुण एहा

मित्र अपने बल अनुसार देने लेने में संकोच ना करते हुए सदा हित करे । विपत्ति के समय सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि सच्चे मित्र के यही गुण होते हैं ।

आगे कह मृदु वचन बनाई पाछे अनहित मन कुटिलाई
जाकर चित अहि गति सम भाई अस कुमित्र परिहरेहीं भलाई

जो सामने तो बना बना कर भले वचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है , तथा मन में कुटिलता रखता है। जिसका मन सर्प की चाल के सामान टेढ़ा है,उस कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है ।

सेवक सठ , नृप कृपन , कुनारी, कपटी मित्र सुल सम चारी ....
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा , कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारों शूल के सामान है ...इनसे बचना चाहिए।

मित्र के बारे में चाणक्य ने भी कुछ लिखा है ....
परोक्षे परोक्षेकर्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम
वर्जये तासदृषम मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम
पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले तथा सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे विष के घड़े के सामान त्याग देना चाहिए ।




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बुधवार, 24 मार्च 2010

दुष्ट महान हैं ...........

नवरात्र के नौ दिन श्रीराम को समर्पित रहे ...ये सच है कि इससे पहले इतना डूब कर श्री रामचरित मानस का पाठ कभी नहीं किया (जय हो ब्लोगिंग देवा ...गंभीरता से पढ़ना सिखा दिया ) ...पढ़ते पढ़ते कई स्थान पर रुक कर मनन भी किया ...बहुत कुछ नया नए प्रकार से सीखने को ,जानने को मिला ...उसका कुछ अंश आप सबसे बाँट लिया है ...देखें ....

दुष्टों का स्वभाव .....

सुनहु असंतंह के सुभाऊभूलेहु संगति करीअ न काहू
तिन्ह कर संग सदा दुखदाईजिमी कपिलाही घालइ हरहाई

अब दुष्टों का स्वभाव सुनो , कभी भूलकर भी उनकी संगती नहीं करनी चाहिए । उनका संग सदा दुःख देनेवाला होता है जैसे हरहाई गाय कपिला गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है .....

खलन्ह ह्रदय अति ताप बिसेषी जरहिं सदा पर संपत्ति देखी
जहँ कहूँ निंदा सुनहि पराई हरषहिं मनहूँ परी निधि पाई

दुष्टों के ह्रदय में बहुत अधिंक संताप होता है । वे परायी संपत्ति (सुख ) देखकर सदा जलते रहते हैं । वे जहाँ कहीं दूसरों की निंदा सुन पाते हैं , वहां ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पढ़ी निधि (खजाना ) पा लिया हो ।

काम क्रोध मद लोभ परायन निर्दय कपटी कुटिल मलायन
बयरु अकारन सब काहू सों जो कर हित अनहित ताहू सों

वे काम , क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी , कुटिल और पापों के घट होते हैं । वे बिना कारण ही सब किसी से बैर किया करते हैं । जो भलाई करता है उसके साथ भी बुराई करते हैं ।

झूठलेना झूठदेना झूठ भोजन झूठ चबेना
बोलहिं मधुर बचन जिमी मोरा खाई महा अहि ह्रदय कठोर

उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है । झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है (अर्थात वे लेन - देन के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक़ मारते हैं और चबेना चबाकर माल खाने की बात करते हैं ) जैसे मोर (बहुत मीठा बोलता है परन्तु ) का ह्रदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान विषैले सर्पों को भी खा जाता है । वैसे ही दुष्ट भी ऊपर से मीठे बचन बोलते हैं परन्तु ह्रदय के बड़े निर्दयी होते हैं ।

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद
ते नर पांवर पापमय देह धरे मनुजाद

वे दूसरों से द्रोह करते हैं , और पराये धन, परायी स्त्री और पराई निंदा में आसक्त रहते हैं । वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर में धारण किये हुए राक्षस ही हैं ।

लोभई ओढ़न लोभई डासन सिस्नोदर पर जमपुर त्रासन्न
काहू की जों सुनहिं बड़ाई स्वास लेहीं जनू जुडी आई

लोभ ही उनका ओढना और बिचौना होता है । वे पशुओं के सामान होते हैं , उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता । यदि किसी की बडाई सुन लेते हैं तो ऐसी सांस लेते हैं , मनो उन्हें जूडी आ गयी हो ...

जब कहूँ के देखहिं बिपति। सुखी भये मनहूँ जग नृपति
स्वारथ रत परिवार बिरोधी लम्पट काम लोभ अति क्रोधी

और जब किसी को विपत्ति में देखते हैं , तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत भर के राजा हो गए हों । वे स्वार्थपरायण परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लम्पट और अत्यंत क्रोधी होते हैं ।

माता पिता गुरु विप्र मानहीं आपु गए अरु घालहि आनहि
करहिं मोह बस द्रोह परावा । संत संग हरी कथा भावा

वे माता पिता , गुरु किसी की भी नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं , साथ ही अपने संग से दूसरों को भी नष्ट करते रहते हैं । मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है , न भगवान की कथा सुहाती है ।

अवगुन सिन्धु मंदमति कामी बेद बिदूषक परधन स्वामी
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा दंभ कपट जिय धरे सुबेषा

वे अवगुणों के समुद्र , मंदबुद्धि कामी और पराये धन को लूटने वाले होते हैं । वे दूसरों से द्रोह रखते हैं। उनके ह्रदय में कपट और दंभ भरा होता है परन्तु वे सुन्दर वेश धारण किये रहते हैं ...





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