गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

टोटा.... लघु कथा


ये ले सुगनी! कल से काम पर मत आना.

उसके हाथ में रुपये ठूँसती मालकिन बोली!

पूर्व  सूचना के बिना छुट्टी कर दिये जाने से सहसा हतप्रभ हुई सुगनी मगर जल्दी ही समझ गयी.

अच्छा! माँ जी आने वाली हैं!

मालकिन भी कम विस्मित न हुई. मन ही मन सोचा इसे पता कैसे चला . फोन तो कल रात ही आया था.

अरे नहीं! कुछ समय से साहब का हाथ तंग है. खर्चा नहीं निकलता.

कुछ बोली नहीं सुगना मगर जानती थी कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. 

गाँव में बड़े अफसर की पत्नी बड़ी मालकिन को सब सुख सुविधाएं प्राप्त थीं. अवकाशप्राप्ति के बाद आराम से रहने के लिये शहर में मकान बना लिया था जहाँ रह कर बेटा पढ़ा लिखा और अब विवाह के बाद पत्नी के साथ रह रहा था. 

जानती थी सुगनी कि बड़ी मालकिन यह असुविधा नहीं झेल पायेंगी . फिर उनके कहने पर उसे बुलाया जायेगा और घर खर्च चलाने , बहू की बहन की शादी में होने खर्चों के साथ उसकी एक दो महीने की तंख्वाह भी वही देंगी . तब तक बहू का हाथ तंग ही रहने वाला है!

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

राजस्थान में अक्षय तृतीया ....धर्म और परंपरा

आज अक्षय तृतीया है. पुराणों और शास्त्रों के मतानुसार इस दिन का धार्मिक महत्व यह है कि इस दिन से सतयुग का अत आरम्भ एवं द्वापर का अंत अर्थात त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ था . भगवान विष्णु के 24 अवतारों में भगवान परशुराम, नर-नारायण एवं हयग्रीव आदि तीन अवतार अक्षय तृतीया के दिन ही इस धरती पर अवतरित हुए . हिन्दुओं के महातीर्थ स्थल माने जाने वाले  बद्रीनारायण धाम के पट भी अक्षय तृतीया को खुलते हैं।
इसके अतिरिक्त वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन भी केवल अक्षय तृतीया को होते हैं।

अक्षय तृतीया (अखातीज) को अनंत-अक्षय-अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है। जो कभी क्षय नहीं होती उसे अक्षय कहते हैं। इस दिन किया जाने वाला कार्य अनन्त फल देता अक्षय तृतीया (अखातीज) को अनंत-अक्षय-अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है। जो कभी क्षय नहीं होती उसे अक्षय कहते हैं।
इस दिन बिना पंचांग देखे कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार इस दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना गया है। समस्त शुभ कार्यों के अलावा प्रमुख रूप से शादी, स्वर्ण खरीदने, नया सामान, गृह प्रवेश, पदभार ग्रहण, वाहन क्रय, भूमि पूजन तथा नया व्यापार प्रारंभ कर सकते हैं। इस दिन किया जाने वाला दान भी अक्षय माना जाता है . लोग जल से भरे मटके , पंखे , खरबूजा , ककड़ी , आम  आदि फलों का का दान करते हैं. इसी दिन नए अनाज के बीजों का भी रोपण किया किया जाता है .
धर्म के कारण माने अथवा परम्परा में , इस प्रकार किये गए दान का लाभ जनता को मिलता ही .  भीषण ताप में विभिन्न स्थानों पर दान किये गए जल के पात्र और फल आदि राहगीरों/कृषकों /जरुरतमंदों  की भूख प्यास का इतंजाम हो ही जाता  था .
कहते हैं कि इस दिन जिनका परिणय-संस्कार होता है उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इसलिए राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में इस दिन बहुत छोटे बच्चों का बड़ी संख्या में विवाह कर दिया जाता था . इतनी अधिक संख्या में ये विवाह संपन्न होते थे कि आखा तीज को बाल विवाह के दिन के रूप में ही जाना जाता था
.धर्म और परंपरा का दैनिक जीवन में इस तरह घुलना मिलना रहा है कि कई बार यह तय करना मुश्किल होता है कि धर्म से परंपरा चली या परम्परा ही धर्म की प्रेरक रही .  यह समय गेहूं , जौ, चना और सरसों की फसल काटने का होता है . भारत कृषिप्रधान देश रहा और यहाँ की बड़ी आबादी की जीविका का साधन भी कृषि ही रहा . कृषकों के कार्यकलाप और सुख दुःख  फसलों के बोने और काटने के समय पर निर्भर होते रहे . इस समय उनके पास अर्थ की व्यवस्था होती और फुर्सत भी इसलिए ग्रामीणों में आखा तीज शुभ मुहूर्त के साथ ही सुविधा का समय भी होता रहा .
इस दिन का आकर्षण हुआ करता था ट्रैक्टर ट्रौली में रंग बिरंगे चमकदार वस्त्र और बन्धेजी अथवा सादे साफे पहने ग्रामीण, चटख लाल पीली चुनरी और पीले में सजी औरतें गीत गाती  दिन भर मेले की तरह गुजरते देखना . हम भाई बहन कभी छत पर तो कभी बाउन्ड्री वाल पर टिके मासूमियत से ये नजारे देखते . हैरान होते रहते कि इतने छोटे बच्चों का विवाह हो रहा है! कई तो बिल्कुल दूधमुँहे से भी माँ की गोद से चिपके होते. हमारा कुतुहल समाप्त ही न होता था कि आखिर इनका विवाह अभी ही क्यों कर रहे!!
अच्छा है कि अब कानून के भय से ही सही , इस प्रकार के विवाह बड़ी संख्या में नहीं होते . मगर चोरी छिपे अभी भी ग्रामीण इलाकों में छोटे बच्चों के विवाह इस प्रकार संपन्न होने की इक्का दुक्का ख़बरें आती रहती हैं
गुड़राब और गेहूँ का खीच/ खिचडा


 ‪#‎अक्षय‬तृतीया जिसे ‪#‎राजस्थान‬ में ‪#‎आखा‬ तीज भी कहते हैं  को विशेष  प्रसादी के भोजन में  बाजरे या  गेहूं का खिचड़ा गुड़राब(आटे को गुड के पानी में पकने तक उबालकर ) और आखी (साबुत ) मंगोड़ी की सब्जी , आखी ही गंवार फली धूणी दी हुई. गंवार फली को उबालकर उसके रेशे निकालकर बर्तन में जलता कोयला रख उसपर घी डाल कर (जिस भी मसाले की खुशबू उसमें डालनी हो वह भी साथ ही डाल देते हैं , मैं अजवाइन डालती हूँ ) ढक्कन से ढक देते हैं . कोयले के धुंए की भीनी भींनी खुशबू उसमें रच बस जाती है . ( जिन्होंने मास्टर शेफ देखा , वे भी सब्जियों को इस प्रकार सुगन्धित करना जान गए होंगे ).
परंपरा में अन्य खाद्य पदार्थों के अलावा  पांच बाटियां बनाकर रसोई में ऊपर आले में रख देने का भी रिवाज रहा जो वर्षपर्यन्त वहीँ रखी होती थी .  इसके पीछे भी रसोई/घर में अन्न के अक्षय भंडारण की कामना रही होती होगी .इन सभी परम्पराओं के पीछे नए अनाज का स्वागत  और नई फसल की तैयारी और शुभेच्छा भी रही है .
(एक और रोचक बात भी पता चली कि इस दिन छिपकली का दिखना शुभ होता है. इसका कोई आधार ज्ञात नहीं  ).
बीकानेर में यह दिन पतंग उत्सव का भी  होता है . जहाँ अन्य शहरों में संक्रांति के दिन छतें पतंगों के शोर से गुलजार होती हैं , इस दिन बीकानेर का भी वही आलम होता है .

धन धान्य , सुख शांति की अक्षय कामनाओं के साथ आप सबको भी अक्षय तृतीया की बहुत शुभकामनाएँ !