शुक्रवार, 27 जून 2014

द्विरागमन .... (1)




"We All are Dogs !"
कह दिया मैंने और उसकी प्रतिक्रिया को परखता रहा।  पिछले जितने समय से उसे जानता था उसे लगा था कि वह  बुरी तरह चिढ़ेगी , चीखेगी और कहेगी कि  इसमें क्या शक है ! 
मगर नहीं! एक सेकण्ड के लिए उसके चेहरे का रंग बदला और फिर से वही  स्निग्ध मुस्कराहट लौट आई थी।
बात चल रही थी उसके पति की .  अपनी धुन में डूबी हुई सी वह बता रही थी उसके पति के बारे में . वह मितभाषी है , ईमानदार है , दिल बहुत बड़ा है उनका …  
मैं उसे चिढ़ाना चाहता था या फिर उसका भ्रम दूर करना चाहता था  पता  नहीं क्यों . मैं देर तक  सोचता रहा था  उसके जाने के बाद कि  आखिर क्यों। … 
मैं जवाब नहीं जानता था या  जो जानता था उसे झुठलाना चाहता था। । पता नहीं , क्या , क्यों।
अचानक हंसी आ गयी मुझे। 

उस दिन पूछ लिया था था मैंने. आखिर तुम अपनी  जिंदगी से चाहती क्या हो।
पता नहीं!
तुम जिंदगी से खुश हो!
पता नहीं!
तुम नाराज हो!
पता नहीं!

मुझे झुंझलाहट होने लगी थी। तुम्हे कुछ पता भी  होता है !
अभी मैं इस समय यहाँ तुम्हारे साथ हूँ , तुम रखते हो न सब पता… 
और उसकी  खिलखिलाहट में मेरी झुंझलाहट जाने कहाँ ग़ुम  हो गयी।
मैं चिढ़ता हूँ खुद पर  उस पर-  गुस्सा हो तो खिन्न दिखना  चाहिये मगर  नहीं, उसे तो मुस्कुराना या  कहकहे ही लगाना है हमेशा। 
और आज मैं था जो हर बात पर कहता था.… पता नहीं !
इतनी देर से बात कर रहा हूँ उसके बारे में। 
वह कौन! कौन थी वह !कहाँ से आई थी ! कौन थी वह मेरी !
इस अनजान  शहर में चला आया था सबकुछ छोड़कर , या कहूँ छूट गया था …

अपने बारे में क्या लिखूं , उसकी ही बात करता हूँ.  इस  नए शहर की वसंत ऋतु की  एक दोपहर रही होगी . उस बाग़ की एक बेंच पर बैठा यूँ ही कर रहा था जिंदगी का हिसाब- किताब .  पता नहीं चला था कब सामने आ बैठी थी वह बेंच से थोड़ी दूर . पार्क की दूब पर बैठी तिनके तोड़ कर दांत में कुरेदती जैसे कुछ फंसा था  उसके दांत में ! 
नहीं , कुछ अटका हुआ जेहन में जैसे कुतरती जाती थी।

मेरी नजर कैसे पड़ी उस पर . शायद वहां खेलते दो बच्चों की बॉल उसके सर पर जा लगी थी . बच्चे डरे सहमे उसके पास जा खड़े हुए थे . उसने हलकी सी मुस्कराहट के साथ बॉल उठाई और दम  लगा कर दूर फेंक दी। बच्चे हुलस  कर बॉल के पीछे भागे और वह फिर उदास सी दूब कुतरती रही दांतों में जैसे कि  जिंदगी की मुश्किलात को कुतर देना चाहती हो।

क्या सूझा मुझे मैं अपनी जिंदगी के हिसाब किताब बंद कर उसकी ओर  देखने लगा।  एक अनचीन्ही सी मुस्कराहट लिए बैठी रहती है रोज उसी स्थान पर कभी मेरे आने से पहले , कभी आने की बाद से। कभी किसी को  देख मुस्कुरा देती मगर कुछ कहती नहीं  . कभी हाथ में पकडे काले क्लच के बटन को खोलती बंद करती , कभी घडी में समय देखती , कभी अँगुलियों पर कुछ गिनती। … एक सप्ताह  हो गया था मुझे उसे इसी प्रकार देखते। अपनी आँखों के सामने पड़ने वाले दृश्य से बिना  जाने कब हमसे  रिश्ता  बना लेते हैं .  जाने कब हमें उनकी आदत हो जाती है।  रोज देखते हुए उसे मुझे भी  उत्सुकता होने लगी थी . कौन है यह स्त्री ! किसी से बातचीत नहीं बस कभी अपने में खोयी तो कभी दूसरों को निहारती चुपचाप एक निश्चित समय तक ,. उसके बाद उठकर धीमे क़दमों से चल देती।

अपनी शांति को दरकिनार रख मेरा मन करने लगा  था  कुछ बातचीत करने को ,. किसी से भी  पास से गुजरते चने या आईसस्क्रीम वाले को रोक उससे जोर से बातें करता ,  मगर वह निस्पृह सी दूसरी और निगाह  किये जाने क्या तलाशती लगी मुझे।  बात करना चाहता था मैं उस ख़ामोशी से जो उस हरी दूब के मखमली लॉन  से  इस बेंच के दरमियान पसरी रहती थी. संकोच भी था कहीं वह मुझे  असभ्य न समझ बैठे।

मौका मिल गया था उस दिन बातचीत का जब फिर से एक बॉल आ टकराई थी उसके क्लच से होते हुए मेरी बेच तक !
मैंने मुस्कुराकर उसे नमस्कार कहा-  रोज देखता हूँ आपको यहाँ !
हूँ -  उसके शब्दों के रूखेपन में टोकने पर टरका  दी जाने वाली की नाराजगी ने मुझे आगे कुछ कहने से रोक लिया !
 भीतर कही जिद जोर मारने लगी . शायद मेरे भीतर का पुरुष  जानवर क्यों न कहूँ .  एक स्त्री की उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। कहीं भीतर मेरे सम्मान को चोट तो नहीं लगी यह देखकर कि  मुस्कराहट का जवाब भी मुस्कुराहट से नहीं दिया  गया। अब मेरी जिद मेरी ख़ामोशी को पीछे धकेलते वाचालता में तब्दील होती जाती थी।  उससे बेखबर होने का दिखावा करता मैं कभी बॉल खेलने वाले बच्चों से  कभी कुल्फी या चना  वालों से जोर से बातें करता . बिना बात कहकहे लगाता मगर इतने दिनों बाद भी उन आँखों में पहचान या होठों पर मुस्कराहट नहीं उभरी। 
मैं समझ नहीं पाता  था , क्यों चाहता था मैं ऐसा। ऐसा कुछ ख़ास तो नहीं था उस स्त्री में . उसके सामान्य कद जैसा ही सामान्य पहनावे में लिपटा  .... किसी भी स्त्री को देखकर ही प्रभावित हो जाने वाला या उनके आगे पीछे चक्कर काटने जैसा चरित्र मेरा नहीं था. अपने  सैनिक जीवन के  औपचारिक  माहौल में जमने  वाली  अनौपरिक बैठकों में खूबसूरत ग्लैमरस तेजतर्रार  पार्टी की शान बनी तितलियाँ कम  नहीं देखी थी मैंने , देखने से लेकर मित्रता , साथ घूमना और वह सब भी जो सामान्य जीवन में अनैतिक माना जा सकता था … शायद एक सामान्य सी स्त्री द्वारा उपेक्षित किये जाने   ने ही मुझे कही भीतर नाराज किया था। जिस व्यक्ति को आप रोज देखते हो दिखते हो !  बात न करे पहचान आगे न बढ़ाये मगर सामने पड़ने पर मुस्कुराया तो जा सकता है !

उसे मुस्कुराता देखने की मेरी नाकाम कोशिशें मुझे चिढ़ाती जाती थी।  अपने व्यवहार की तबदीली पर हैरान मैं स्वयं पर झुंझलाता  था  और एक दिन जब यह झुंझलाहट हद से बढ़ी तो मैं पास से गुजरते कुल्फी वाले को जबरन रोककर उसे सुनाने की गरज से जोर से  बोल पड़ा , जब लोगो को किसी से बात नहीं करनी होती , किसी से घुलना मिलना पसंद नहीं होता तो घर से बाहर ही क्यों निकलते हैं।  सार्वजानिक स्थानों पर आने  की क्या आवश्यकता है , अपना कमरा बंद कर पड़े रहे न घर में !
इस बार पलटकर देखा उसने।  जाने कैसी सख्त निगाहें थी - सार्वजानिक स्थान किसी की बपौती नहीं , और  लोग  हर किसी से बातें करने के  लिए यहाँ आते भी नहीं।
मेरा तीर निशाने पर लगा था .  गुस्से से तिलमिलाती ही सही कुछ कहा तो उसने ! 

उस शाम से लेकर अब तक जाने कितनी शामें थी हम रोज ही आते मुस्कुराते  बातें करते .  वह बताती अपने बारे में , अपने पति , अपने बच्चों के बारे में , और मैं सुनता , कभी कुछ पूछ भी लेता … 
जाने कब  बीच की अनौपचारिकता की दीवार ढही मुझे या शायद उसे भी पता नहीं चला नहीं होगा  जब भी मैं उस दिन की तल्खी की बात सोचता हूँ।

आज वह गुस्से में तिलमिलाई नहीं  मगर उसके शब्दों में पर्याप्त तीखापन था - हंसी आ रही  है मुझे कि एक पुरुष मुझे यानि एक स्त्री को यह बता रहा है!
उसकी आँखों में अभी भी वही पहले से सख्ती जैसे कह रही हो मुझे कि हम स्त्रियां बेहतर जानती हैं कि तुम कुत्ते ही होते हो मगर अगले ही पल  फुर्ती से लौटी उसी स्निग्ध मुस्कराहट ने अपने शब्दों पर पर्याप्त  बल  देकर कहा - नहीं , वे ऐसे नहीं है ! सब ऐसे नहीं होते !
मत  मानो अभी  . एक दिन तुम मानोगी तब मुझे याद करोगी।
तुम्हे याद तो मैं यूँ ही कर लूंगी . कुत्तों के बहाने क्यों !
उसकी तिरछी नजरों के साथ  खिलखिलाहट  का अंदाज बात वहीं समाप्त कर देने जैसा था ! मगर बात समाप्त नहीं हुई  थी वहां।
मुझे लगता था कहीं भीतर से आती उसकी आवाज - तुम सब कुत्ते ही होते हो , सब एक जैसे।  गोश्त चूस लेने के बाद हड्डियां चुभलते रहने वाले कुत्ते , तुम्हारी भौंक बस हड्डी मुंह में रहने तक ही बंद रह सकती है।  
मैं काँप रहा था इस अनकही को सुनते . उसने तो कुछ कहा नहीं था।  कहीं मेरे मन की ही बात तो मेरे कानों में नहीं उड़ेली जा रही थी उसके अनकहे शब्दों में।  अपने आप को हमसे बेहतर और कौन जान सकता था! 
अपनी बेरहमी और बेशर्मी से घबराया मैं उसी बाग़ के दूसरे कोने पर लगे फूलों और बच्चों को देख मुस्कुरा दिया. अपने भीतर के पशु को छिपाते सांत्वना देता मनुष्य को !

मुझमे अभी बाकी है जिंदगी . रहेगी भी ! यकीन दिलाता स्वयं को।  वह थी ही ऐसी . बुरी तरह कुरेदती  अपने शब्दों से भीतर को बाहर खड़ा कर देती  जैसे कि आईने में अपना अक्स नजर आ रहा हो।

क्रमशः

(चित्र गूगल से साभार )