बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

प्रगतिशीलता बनाम पूर्वाग्रह …

"राँझणा फिल्म  में एक दृश्य है --  जे एन यू में पाईप के सहारे चढ़ते को एक प्रगतिशील ग्रुप के छात्र देख लेते हैं और चोर समझ कर पुलिस के हवाले करने  से पहले काफी विमर्श करते हैं कि इसका क्या किया जाए . यह इस तरह पाईप पर क्यों चढ़ रहा था !
 पुलिस को सौंपने का तात्पर्य कि हम सिस्टम पर भरोसा कर रहे हैं जबकि हमें सिस्टम का विरोध करना है . इसकी गरीबी का कारण अशिक्षा है आदि -आदि  . 
अंग्रेजी में  गरीबी और अशिक्षितों पर हो रहे इस विमर्श के बीच नायक कहता /सोचता है -- इस समय मेरी सबसे बड़ी समस्या भूख है और उसका हल  चाय -समोसा है।  (निर्देशन की कुशलता से इस दृश्य की और अधिक मारक बनाया जा सकता था )

सामाजिक समस्याओं पर होने वाले विमर्श की परतें उधेड़ता बहुत ही मारक है यह दृश्य। हमारे देश /समाज में होने वाले अधिकांश विमर्शों की यही दशा /दिशा है।  गरीबों और मजदूरों की समस्याओं पर पर विमर्श होता है फाईव स्टार होटल या होटल जैसी ही सुविधाओं वाले एयरकंडीशंड कमरों में खाए पिए अघाए व्यापारियों द्वारा . देश के ग्रामीण अशिक्षितों की समस्याओं पर विचार होता है महज अंग्रेजी में ही गिटरपिटर करते डिग्रीधारकों द्वारा।  विमर्शकर्ता  इन विमर्शों की सीढ़ी  चढ़ते  पहुँच जाते है समाज के उच्चतम श्रेणी में और  जिस पर विमर्श किया जा रहा है वह अनगिनत वर्षों से वहीँ  का वहीँ जमा। विमर्श जिस पर किया जा रहा है ,  उन्हें इन विमर्शों में शामिल किया जाता , उनकी भी राय ली जाती तो शायद इन विमर्शों का स्वरुप कुछ और होता. समस्या वास्तविक धरातल पर समझी जाय तब ही  उसका निराकरण संभव है।  

यही हाल स्त्री और उससे जुड़ी समस्याओं के विमर्श का है।  इस  करवा चतुर्थी  पर भी प्रगतिशीलों का विमर्श बदस्तूर जारी रहा  . एकतरफा घोषणा या दिशा -निर्देश जारी करने  से पहले  इन रस्मों को धारण /निभाने वाली स्त्रियों की राय तो ले लेते कि वे चाहती क्या हैं  या शायद इनके लिए इन स्त्रियों की राय मायने नहीं रखती क्योंकि व्रत उपवास का मतलब पति की गुलामी करना ही होता है।  यह मान  बैठना कि व्रत /उपवास करने वाली सभी विवाहित स्त्रियाँ बेड़ियों में जकड़ी है , एकतरफा  सोच है , पूर्वाग्रह है।   
 
आप जिनकी समस्या पर बात कर रहे हैं , दरअसल वे अपनी समस्याओं का हल किस प्रकार चाहते हैं , यह अधिक मायने रखता है. ना कि आप द्वारा थोपे गए विचार। जब आप धर्म विशेष द्वारा थोपी गयी धारणाओं का विरोध धूमधाम से करते हैं तो यह भी निश्चित होना चाहिए कि आप थोपे गए विचारों का विरोध करते हैं  , स्वयं  अपने विचार थोपते नहीं। जो कार्य आप नहीं करते वह दूसरे  के लिए लिए गुलामी ही हो यह आवश्यक नहीं।  मुश्किलें तब आती है जब सभी समस्याओं के  हल हम एकतरफा सोच के साथ करना चाहते हैं। या वे  शायद यह मान कर ही चलते हैं कि विवाहित स्त्रियाँ  का कोई वजूद / स्वतंत्र व्यक्तित्व ही नहीं है और यदि आप ऐसा ही मानकर चलते हैं तो आपसे मूढ़ और कोई नहीं।

(इस विषय पर कविता जी का यह लेख उल्लेखनीय है )

व्यक्ति की स्वतन्त्रता में विश्वास करने वालों को स्त्रियों को स्वयं निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने में सहायता करनी चाहिए , ना कि अपनी बनी बनाई सोच परोसकर उसपर ही अमल करने की समझाईश।  

इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के हल सिर्फ अंतरजातीय विवाहों में ढूँढने वाले लोग भी  मुझे ऐसी ही एक तरफ़ा सोच वाले नजर आते हैं .  समाज के विरोधाभास पर प्रश्नचिन्ह लगाते  इन लोगों के   विचारों में कितना विरोधाभास है , ये स्वयं भी नहीं जानते।  एक और ये  सिर्फ प्रेम विवाह की स्वीकृति चाहते हैं  . दूसरी ओर इनकी धारणा  है कि विवाह अपनी जाति  धर्म में करना जाहिली है।  मतलब यह प्रगतिशील  समूह  सिर्फ यह मानकर ही चलते हैं कि दो इंसानों के बीच प्रेम तभी संभव है जब वे विजातीय हो। 
क्या यह भी अपने आप में एक भयंकर पूर्वाग्रह  नहीं है। 

हम सभी जानते हैं कि एक ही  या एक जैसे माहौल में रहने वाले लोग एक दूसरे  के साथ ज्यादा सुविधाजनक होते हैं।  क्या किसी शाकाहारी के लिए मांसाहारियों के साथ तालमेल बैठना आसान है ! पान सुपारी भी नहीं खाने वाले लोग क्या मादक द्रव्यों के सेवन करने वालों के साथ सुविधानाजक निबाह कर  सकते हैं ? यह सही  है कि व्यवहार या विवाह यदि प्रेम के लिए हो तो लोग तालमेल बैठाना /सामंजस्य /समझौता करना पसंद करते हैं …. यानि घूम फिर कर बात तो समझौते और सामंजस्य पर ही आई . विवाह या व्यवहार प्रेम /पसंद से हो या प्रायोजित !!

अब आँखें खोलकर बताएं कि पूर्वाग्रही कौन है ! एकतरफा सोच किसकी है !!