सोमवार, 29 जून 2020

हिंदी के प्रसार में ब्लॉग का योगदान.... वाया यूके हिंदी समिति

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

आधुनिक हिंदी कविता के आदि रचनाकार  भारतेंदु हरिश्चंद्र उपरोक्त दोहे में मातृभाषा हिंदी की  कितनी ही प्रशंसा कर उसकी महत्ता साबित कर गये  हों परंतु हाल ही में हमारे देश के हिंदीभाषी प्रदेश में हिंदी में आठ लाख विद्यार्थियों का फेल होना बताता है कि हम हिंदी को कितनी गंभीरता से लेते हैं. वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मनाकर हम अपनी मातृभाषा की इतिश्री कर रहे हैं.
पिछले एक स्टेटस में मैंने लिखा भी था कि महत्वपूर्ण विषयों की अनदेखी करने में हम भारतीय अव्वल हैं.उसमें से एक हिंदी भाषा भी है और उपरोक्त समाचार में इस बात की पुष्टि भी होती है.
देश में हिंदी की दुर्दशा के बाद जब हम प्रवासी भारतीयों को हिंदी के प्रचार/प्रसार के लिए कृतसंकल्प देखते हैं तो कहीं मन में एक आश्वस्ति बनी रहती है. जिस तरह हर प्रकार के शोध/ अनुसंधान की सत्यता अथवा प्रमाणिकता के  लिए हम पश्चिम जगत पर ही विश्वास करते हैं, अगले कुछ वर्षों में मातृभाषा के लिए भी शायद विदेश में रहने वाले भारतीयों पर ही निर्भर हों. इस सत्यता का भी भान होता है कि जिसको जो वस्तु सरलता से उपलब्ध नहीं, वही उसकी सही कीमत भी जानता है.

हिंदी की इस दशा-दिशा के दौर में जब यूके की एक हिंदी समिति आपके ब्लॉग   ज्ञानवाणी की एक पोस्ट को अपने पाठ्यक्रम (सिलेबस) के एक कोर्स में सम्मिलित करती है तो खुशी स्वाभाविक ही है.

https://vanigyan.blogspot.com/2019/04/blog-post.html

शनिवार, 7 मार्च 2020

अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस बनाम शाहीन बाग...



कल इंंडिया टीवी पर अनायास ही शाहीन बाग दिख गया. अनायास यूँ कि आजकल समाचार चैनल , अखबार आदि विशेष स्थिति में ही देखती हूँ. फेसबूक के पत्रकारों की संगति में उसकी अधिक आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि यहाँ पक्ष / विपक्ष दोनों ही प्रभावी रूप से उपस्थित एवं मुखर भी हैं. अधिकांश वाट्सएप विडियो भी मैं देखे बिना ही डिलीट करती हूँ. स्मार्ट टीवी पर  यूट्यूब विडियो देखते हुए जब नेट कनेक्टिविटी बाधित होती है तब अपने आप टीवी चैनल पर सेट होने  के कारण ही अनायास दिख पड़ा समाचार चैनल.

तो आती हूँ मैं शाहीन बाग के समाचारों पर. अनूठा दृश्य था. दो लड़कियां रिपोर्टिँग कर रही थीं छिटपुट सी भीड़ में. रिपोर्टिंग करती लड़कियों ने उपस्थित स्त्रियों से बातचीत करनी चाही. उसने कम भीड़ का कारण पूछा तो एक का जवाब था कि हमारी हेड नहीं आई हैं. उनके आने के बाद हम इकट्ठी होती हैं.  दूसरी स्त्री से पूछा कि आपकी हेड कौन है तो जवाब आया हमारी कोई हेड नहीं है.अन्य स्त्रियों से बात करने पर वे जवाब दे ही रही थीं कि एक आदमी आया और उनमें से एक बुजुर्ग स्त्री के मुँह को उसकी चुन्नी से ढ़कने लगा चुप रहो के इशारे करते हुए. तभी हूटर बजने लगा और बहुत से युवक एकत्रित हो गये.  चुप रहो सब , कोई कुछ नहीं बोलेगा करते हुए अपने मुँह पर अँगुलियाँ रखते हुए चुप रहने का इशारा करते हुए. वहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ अब चुप थीं. कोई जवाब नहीं दे रही थीं. कुछ दिन पहले ही किसी प्रबुद्ध स्त्री की वाल पर पढ़ा था कि अपने अधिकार के लिए जाग चुकी हैं, स्वतः प्रेरणा आदि आदि....
उन संवाददाता लड़कियों ने युवकों से कहा भी कि आप इन्हें बोलने क्यों नहीं दे रहे हैं. इस पर उपस्थित लड़कों की भीड़ की ताली बजा बजाकर चिढ़ाने जैसी आवाजें आती रहीं और उन आत्मनिर्भर साहसी लड़कियों की आवाजें - बदतमीजी न करें, कैमरे को हाथ न लगायें,  कैमरा क्यों बंद करवा रहे हैं आदि आदि....

वहाँ उपस्थित स्त्रियों के हुजूम में से कोई भी स्त्री उन युवकों को टोकते , उन लड़कियों के वहाँँ से सुरक्षित निकल जाने का कोई प्रयास करती दिखीं नहीं मुझे. हालांकि बैकग्राउंड में एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति की झलक अवश्य दिखी मुझे जो कुछ लड़कों को डाँट रहा था....

उसी समाचार के बीच में पुलिस फोर्स पर पत्थर बरसाती स्त्रियों का  विडियो भी दिखा. उसके अलावा भी यहीं फेसबूक पर भी बहुत तस्वीरें भरी पड़ी थीं हाथों में पत्थर लिये. इनमें से अधिकांश तो वही रही होंगी न जो कुछ समय पहले ट्रिपल तलाक के फैसले पर आजादी का जश्न मना रही थी.

अंतरराष्ट्रीय दिवस पर अधिकांश प्रबुद्ध स्त्रियों की वाल पर पढ़ने को मिलेगा- स्त्रियों की जात कुछ नहीं होती आदि आदि. और मैं सोच रही हूँ कि क्या वाकई ऐसा ही है....

फिर भी मैं अपने योगदान का उत्तरदायित्व वहन करते हुए सभी स्त्रियों को अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की ढ़ेरों शुभकामनाएं देती हूँ और प्रार्थना भी करती हूँ कि हम अपनी स्वतंत्रता को सही मायने में समझें और उसका रचनात्मक उपयोग करें....

बुधवार, 8 जनवरी 2020

चीख पुकार और आँसुओं की पृष्ठभूमि....


दो तीन दिन पहले अचानक बच्चों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनकर अपनी दुखती कमर को सम्भालते बाहर गई तो अजब नजारा दिखा. पड़ोसी के मेनगेट के अंदर वही लड़का जोर जोर चीखता हुआ रो रहा था जिसे थोड़ी देर पहले ही बची हुई मिठाई का डब्बा पकड़ाया था. दो युवकों ने एक हाथ से गेट और दूसरे हाथ से बच्चे को पकड़ रखा था.  बच्चे को भीषण रोते (चीख पुकार) देख ममता जाग उठी और मैं उन दोनों के बीच जा खड़ी हुई.

क्या हुआ. मारो मत बच्चा है.

माताराम, अभी तो हाथ भी नहीं लगाया. हम मार नहीं रहे. सिर्फ पूछने में इतना चिल्ला रहा है.

दीदी, भाभी आदि से आंटीजी, माताराम में हुए प्रमोशन की पीड़ा बच्चों के रोने के आगे गौण थी. माताओं को बीच बचाव करते देख पड़ोसी के लॉन में झुरमुट में छिपी दो लड़कियां भी हाथ जोड़े मेरे सामने आ खड़ी हुईं. वे भी लगातार चीख कर रोती जाती थी.

 मैंने पूछा युवकों से कि आखिर हुआ क्या....

कुछ दूर पर ही एक मकान में निर्माण कार्य चल रहा है. ये युवक वहीं ठेकेदार/मजदूर थे. बताया उन्होंने कि साइट से कई बार लोहे की छोटी मोटी चीजें गायब हो रही थीं. मगर आज तो गजब ही हो गया. कल ही नया तिरपाल लाये थे.  जरा सी नजर चूकते ही उठा लिया. यह पूरा ग्रुप है. दो बड़ी महिलाएं भी इनके साथ है.  वे तिरपाल लेकर कहीं छिप गईं.  हम बाइक पर इनका पीछा करते आये तो हमें देखकर ये भी छिपने लगे.

यह सब सुनकर बच्चे और जोर से चीख चीख कर लोट पोट होने लगे.
हम दुविधा में झूल रहे थे सच जानकर भी बच्चों का रोना देखा नहीं जा रहा था.
आप देख लो. हमने हाथ भी नहीं लगाया. सिर्फ पूछ रहे हैं कि तिरपाल कहाँ छिपाया है, बता दे. हम कुछ नहीं कहेंगे... ये लोग ट्रेंड होते हैं.  बच्चों और महिलाओं को आगे कर देते हैं. मजमा लगाना जानते हैं कि इस तरह रोने चीखने पर लोग इकट्ठे हो जायेंगे और आप जैसी माताएं बीच बचाव करने आ जायेंगी.
 उनकी शिकायती नजरें जाने मुझसे यह कह रही थीं. (छोटी मोटी चोरी से बढ़ती हुई इनकी  आदतें महाचोर ही बनायेंगी. सब लोग सुरक्षा, शांति और बदलाव चाहते हैं पर करने की पहल नहीं करते ना ही दूसरों को करने देते हैं )
सीधे तरह नहीं बतायेंगे तो पुलिस को बुलाना पड़ेगा. किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हम किसी तरह युवकों को समझाने में सफल रहे कि आप थोड़ी दूर जाओ . हम इनको समझा बुझाकर पूछते है. वे युवक बाइक से कुछ दूर गये और इधर ये बच्चे उसकी विपरीत दिशा में तेजी से भागे.  मैंने यह भी ध्यान दिया कि पूरे समय की चीख पुकार,  लोट पोट होने में उसने मिठाई का डब्बा हाथ से नहीं छोड़ा था.
लंबी साँस लेते अपने सफल या असफल अभियान को देखकर भीतर आई तो दूर से फिर चीखने / रोने की आवाजें आ रही थी. शायद उन युवकों ने उन्हें  फिर से रोका था....

मेरे कानों में उससे भी बहुत किलोमीटर  दूर के बच्चों की  चीख पुकार गूँज रही थी और उन युवकों के सवाल भी.... क्या संयोग था! और मैं यह सोच रही कि आँसुओं और चीख पुकार की भी भिन्न भिन्न पृष्ठभूमि हो सकती है... कौन जाने कितने सच्चे कितने झूठे!