बचपन शब्द याद आते ही जो सबसे पहली बात जबान से निकलती है वह है...वह बचपन का लड़ना- झगड़ना. . बचपन की मासूमियत और निष्पाप हृदय को अभिव्यक्ति करती है ये पंक्तियाँ "बच्चो सी मुहब्बत कर लो मुझसे लड़ना -झगड़ना, रूठना-मनाना. दिन भर खेलना कूदना शाम पड़े पर घर जाना और सब कुछ भूल जाना सुनो.
मानो बचपन का नाम ही लड़ना झगड़ना हो . और ऐसा होता भी है . कैरम ,सितोलिया , गिल्ली डंडा , कंचे , क्रिकेट आदि खेलते हुए कई बार झगडे होंगे बचपन में , जाओ नहीं खेलते तुम्हारे साथ , तुमने बेईमानी की और खेल वही समाप्त हो जाता . मगर अगले ही दिन जब खेल का समय हो तो आवाज़ लगते ही सारे एक साथ दौड़े चले आते , कभी तो कल का झगडा याद ही नहीं होता , और जो याद होता तो कल जैसी बेईमानी की तो फिर कभी नहीं खेलेंगे , यह जानते हुए भी कि ेल में बेईमानी तो होनी है , किसी ने ना की , तो लगातार हारते हुए हम यही बहाना बनाकर तो खेल समाप्त करेंगे .
ग़ज़ल की पंक्ति सुनते ... वो चिड़िया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना, वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना " मन किसका ना भीग जाता होगा . सच यह है की कपट रहित लड़ने- झगड़ने का सौभाग्य सिर्फ बचपन में ही नसीब होता है . बड़े होते सभ्यता के मारे लडाई- झगडा बंद हो जाता है , और यदि होता भी है तो कुटिलता के साथ जिसमे परस्पर मान सम्मान की हानि पहुंचाते हुए दुर्भावना साफ़ नजर आती है।
बच्चों और बड़ों के/से झगडे में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि बच्चे जितनी शीघ्रता से लड़ते झगड़ते हैं , उसी शीघ्रता से मान भी जाते हैं . बड़ी बातो के छोटे झगडे होते हैं , जबकि बड़े होने पर पर छोटी बाते बड़े झगडे की वजह बन जाती है .
बड़े होने पर झगडे भूले नहीं जाते /पाते और बुरे व्यवहार की यह याद आपस में वैर भाव बढाती ही जाती है और हृदयों के बीच कभी ना पाटने वाली खाई बन जाती है .
लडाई -लड़ाई माफ़ करो , गाँधी जी को याद करो ....बड़े होने पर अधिकांश मामलों में सही हो सकता है मगर यदि इसकी आड़ में आत्मसम्मान और स्वाभिमान लगातार प्रताड़ित हो तो भूलना या माफ़ करना मुश्किल होता है और होना भी चाहिए . माफ़ करो का मतलब यह थोड़े ना है , पडोसी आपके घर में अपना कचरा उठा कर डालता रहे , और आपसे उम्मीद करे , आप भूल जाएँ . बचपन के लड़ने- झगड़ने और प्रताड़ना में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जितना ही अंतर होता है .
कई कलहप्रिय लोगो के लिए लड़ना झगड़ना भी एक शौक सा बन जाता है . कई बार ये लोग बिना बात दूसरों से उलझते हैं तो कभी दूसरों को उकसा कर लडवाना और फिर हाथ बंधे खड़े होकर तमाशा देख अपना मुफ्त का मनोरंजन करने वालों में शामिल हो जाते हैं . क्रोध में अपना नुकसान ना कर ले , संयत वाणी का प्रयोग करें , जैसे उपदेशों के साथ हममे से अधिकांश ने वह कहानी सुनी ही होगी . वही कहानी, जिसमे झगडे को मिटाने के लिए साधारण पानी को दवा बताते हुए क्रोध के समय अपने मुंह में भर लेने की सलाह दी जाती है .
मगर इससे अलग एक कहानी भी सुनी हमने कभी ....सुन लीजिये आप भी !
एक लड़ाका स्त्री थी. ( खिल गयी ना बांछे , यहाँ भी मानसिकता हावी होगी, कभी किसी लड़ाका पुरुष की कहानी कभी कही सुनी ही नहीं गयी ). खैर , सुनते हैं आगे . उस स्त्री को रोज लड़ने का बहाना चाहिए था , क्योंकि उसके बिना उसे कुछ अच्छा नहीं लगता था . जैसे सामान्य मानव के लिए पेट भरने के लिए रोज भोजन का सेवन आवश्यक है , उसके लिए झगडा ही औषधि थी . ना लड़े तो बीमार हो जाए , मगर रोज एक पडोसी से ही कब तक लड़े , बोरियत होती थी उसे , और बेचारा पडोसी भी परेशान .
पडोसी ने ही एक समाधान सुझा दिया कि क्यों ना हफ़्तावसूली की ही तर्ज पर वह प्रतिदिन अलग -अलग घर में जाकर लड़ना झगड़ना कर ले , इससे किसी एक पर ही मानसिक दबाव नहीं होगा और दूसरों का मुफ्त मनोरंजन भरपूर होगा . नए लोग , नई बातें , नए झगडे . उस स्त्री को यह सुझाव जम गया . अब वह हर दिन नए घर में जाती , उल्टा -सीधा बोलती , तो उस घर के लोगों से रहा नहीं जाता , वे भी जम कर उसे वापस सुनाते। मोहल्ले के बाकी लोग उनका झगडा देख मुसकी काटते हुए घबराते कि कल उनका नंबर भी आने वाला है भयंकर तू- तू मैं -मैं होती , जब लड़ते हुए दोनों पक्ष थक जाते , तब वह शांति से अपने घर लौट आती . झगडे का मनोरंजन भी आखिर कब तक .
कुछ शांतिप्रिय लोग मन से लोग डरे सहमे रहते कि उनका नंबर भी आने वाला है . ऐसे ही एक घर में नई शादी हुई थी , नई बहू आई , द्वारचार तथा अन्य रस्म निभाते हुए सासू माँ का डरा सहमा चेहरा और अन्य स्त्रियों की कानाफूसी , बहू ने कारण पूछ ही लिया . पड़ोस की एक स्त्री ने बताया , कल उस लड़ाका स्त्री का तुम्हारे घर लड़ने आने का कार्यक्रम है , सास इसलिए ही सूखी जा रही है , नई बहू के सामने बहुत तमाशा हो जाएगा .
बहू बड़ी समझदार थी , सासू माँ के चरण पकड़ लिए . माँ , आप परेशान ना हो , मैं स्वयं उससे निपट लूंगी . सास ने ममता भर उड़ेलते हुए चिंतित मुख बहू को गले लगा लिया ," ना री , तू क्या उससे मुकाबला करेगी , उससे तो आजतक कोई ना जीत सका "
माँ, आप चिंता ना करें , बस मुझ पर विश्वास रखे . बहू ने कौल ले लिया सबसे कि उसके अलावा आँगन में कोई नहीं रहेगा , सब लोग कमरा बंद कर चुपचाप रहेंगे .
क्या करती सासू माँ , नयी बहुरिया का आग्रह टाल भी नहीं सकती , और साथ में चिंता भी कि यह नई नवेली सुकुमारी गालियां , अपशब्द कैसे सुनेगी/ सहेगी .
दूसरे दिन नियत समय पर वह लड़ाका स्त्री आ पहुंची , देखे तो आँगन में सिर्फ एक स्त्री घूंघट निकाले खड़ी है , घर में कोई और नहीं है .
अब बड़ी प्रसन्न , आज आएगा मजा लड़ने में , नई बहू है ,नया जोश होगा , एक कहूँगी तो चार सुनाएगी , फिर मैं आठ सुनाऊंगी , आज ही आएगा मजा लड़ने में .
लड़ाका स्त्री शुरू हो गयी , अरे कहां मर गये नासपीटों , कहाँ छिपे हो सब करमजलों , और भयंकर गालियाँ बकना शुरू कर दिया . नई नवेली बहू आँगन में चुपचाप वैसे ही घूंघट काढ़े खड़ी रही , एक शब्द भी ना कहा . लड़ाका स्त्री परेशान , एकतरफा झगडा आखिर कितनी देर तक हो सकता था . आज और लड़ने का कोई फायदा नहीं था.
वह मुड़ कर जाने लगी , अभी दरवाजे तक पहुंची भी ना थी की बहू ने घूंघट हटाया , धीरे से बोली ." कहाँ चली नासपीटी , करमजली " . जाते- जाते लड़ाका स्त्री के कान में यह शब्द पड़े.
अब आया है मजा लड़ने में , सोचते वह पुलकती गालियाँ बकते लौट आयी . देखे तो बहू फिर से उसी तरह घूंघट निकाले आँगन में खड़ी , मुंह से एक शब्द ना निकाले . जी भर कर गालियाँ बकते थक गयी वह स्त्री मगर बहू तो कुछ ना बोले . आखिर फिर से घर लौटने का रास्ता पकड़ते दरवाजे तक आयी कि बहू ने घूंघट हटाया और फिर वही दुहराया " कहाँ चली नासपीटी , करमजली " .
अब तो लड़ाका स्त्री के क्रोध का पारावार ना रहा . पलट कर अनगिनत गालियाँ बकते लौट आई . और बहु उसी तरह फिर से घूंघट निकाले चुपचाप खड़ी . जब तक वह स्त्री लडती , बहू कुछ ना कहती, मगर जैसे ही वह पलट कर जाने लगती , बहू फिर उसे छेड़ देती . ऐसा कई बार होते आखिर वह स्त्री थक गयी . इस बार बहू के कहने पर भी नहीं पलटी और धीमे- धीमे घर से बाहर निकल गयी . रास्ते भर अपने आपसे प्रण करती रही कि आज के बाद वह किसी के घर झगड़ने नहीं जायेगी .
अथ श्री लड़ाई- झगडा पुराणम !!
चित्र गूगल से साभार !