बुधवार, 10 सितंबर 2014

परम्पराएँ मूढ़मगज की उपज हरगिज नहीं थी , न हैं!!

तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए इन दिनों   अपना ज्ञान बघारने और कोसने हेतु  भारतीय सभ्यता और संस्कृति एक रोचक , सुलभ और असीमित  संभावनाओं वाला विषय बना हुआ है।  आये दिन तीज त्योहारों पर फतवे प्रायोजित किये जाते हैं जैसे कि -  परम्पराएँ मानसिक गुलामी का प्रतीक हैं , तीज-चौथ-छठ  के बहाने स्त्रियों का शोषण किया जाता है।  समाज के दुर्बल अथवा पिछड़े  माने जाने वाले वर्गों पर   अत्याचार है आदि- आदि  !
विचार प्रवाह में शामिल होते हुए  इन परम्पराओं पर चिंतन किया तो आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता की सीमा  न रही। यह विश्वास  पुष्ट होता गया कि हमारी  परम्पराएँ  मूढ़मगज की उपज हरगिज नहीं थी , न हैं ।
इन परम्पराओं को   समाज के विभिन्न वर्गों की परस्पर आवश्यकता ने प्रचलित किया  एवं  समन्वयन के लिए इन्हे विस्तार दिया गया ताकि समाज का कोई भी अंग उपेक्षित न रह जाए । परम्पराओं के जरिये विभिन्न उत्सवों का आयोजन करना आपसी मेल मिलाप और मानसिक उन्नति का  मनोवैज्ञानिक हल भी है।
इसमें शक नहीं कि  कालांतर में वास्तविक उद्देश्य का विस्मरण हुआ ,परम्पराओं ने रूढ़ियों और अंधविश्वास का स्थान लिया और  बेड़ियां सी प्रतीत होने लगी। मगर  परम्पराओं के महत्व को ही सिरे से नकारना समाज में उल्लास और उत्साह को  नष्ट करना उदासीनता एवं नैराश्य को बढ़ावा देने जैसा है।  रूढ़ियों के अनुसरण से बचते हुए स्वस्थ परम्पराओं का अनुकरण समाजों में आपसी सद्भाव हेतु एक सेतु बन सकता है।   

अभी श्राद्ध पक्ष है। पूर्वजों को याद कर उनकी स्मृति में  गाय , कौवे , कुत्ते , अतिथि (यहाँ अतिथि माने मेहमान नहीं है! द्वार पर सबसे पहले भोजन लेने आने वाले व्यक्ति को  भी अतिथि कहा जाता है ) को भोजन प्रसाद देने का समय है।

(पूर्वजों के स्मरण का पर्व सिर्फ हिन्दुओं में नहीं होता।  विभिन्न संस्कृतियों , समुदायों  में भी भिन्न नामों से ये परम्पराएँ प्रचलित हैं।  यहाँ तक कि ईसाईयों में भी दुःख भोग सप्ताह के रूप में पूर्वजों को स्मरण किया जाता है. पूरे सप्ताह  विशेष पूजा अर्चना के अलावा कब्रिस्तान में फूलों की सजावट और मोमबत्तियां जलाकर पूर्वजों को नमन किया जाता है) 

श्राद्ध के समाप्त होते ही नवरात्र प्रारम्भ होंगे। नवरात्र में पूजा पाठ अधिक होगा।   प्रसाद के लिए छोटी बच्चियों को ढूँढा  जाएगा। पुत्रों को त्राण कर देने  वाला मानने वाली परम्परा में पुत्री भी उपेक्षित नहीं थी। नौ दिन इन कन्याओं के नाम कर उनका स्थान सुरक्षित करने की कोशिश की गयी। परिवारों में विभिन्न संस्कारों /उत्सवों में न सिर्फ पुत्रियों द्वारा  आरती/ पूजन , नेग सुनिश्चित थे , अपितु परिवार के प्रत्येक सदस्य की  विभिन्न रस्मों के समय आवश्यकता और महत्व को ध्यान में रखा गया।    
माली /कुम्हार की आवश्यकता भी होगी पुष्प , कलश/ मिटटी के सिकोरे  आदि के लिए ! अभी कुछ समय पहले वट सावित्री पूजन पर वटवृक्ष तो गोवत्सद्वादसी (बछबारस ) पर बछड़े वाली गाय की आवश्यकता थी। पशुपालकों के लिए  बछिया वाली गाय प्रसन्नता देती है , मगर  बछबारस के बहाने बछड़े को भी याद किया।  
उसके बाद कार्तिक मास में नदी , कुएँ , बावड़ी आदि के जल से स्नान के समय उनकी भी पूजा होगी।  केला ,पीपल , आँवला ,तुलसी , सूर्य , चन्द्र किसको याद नहीं किया। करवा चौथ पर करवे के लिए तो  दीपावली पर फिर से कलश /दीपक के लिए कुम्हार  तक पहुंचे। होली पर चंग -ढोल बजाने वालों का नेग था तो संक्रांति पर सफाई कर्मियों  का भी  । होली दिवाली कपड़ों/कालीनों आदि की  सफाई तो होली में रंगों /कीचड (!) आदि से सरोबार कपड़ों की धुलाई में धोबी की आवश्यकता थी।

संक्रांति पर्व पर भी परिवार के सदस्यों के साथ ही सफाईकर्मी के अलावा  गरीबों /भिक्षुकों आदि को विशेष दानपुण्य।  इनके साथ चील कौवों के लिए पुए पकौड़ी का भोग.  
शीतलाष्टमी पर सराई /करवे में माता को भोग लगाकर थाली का प्रसाद व दक्षिणा भी कुम्हार के हिस्से में आया।

विवाह में चाक की रस्म में कुम्हार की आवश्यकता और नेग, तो घर -घर बुलावे देने और विभिन्न रस्मों की तैयारी  में नाई /नाईन की आवश्यकता और नेग।  गृहप्रवेश , जलवा पूजन में कुएँ का पूजन और जलभर  कलश  का लाना …बालक /बालिका के जन्म पर जच्चा बच्चा की मालिश/स्नान /सफाई  आदि के साथ वही बुलावे से लेकर अन्य संस्कारों की तैयारी में  धोबी , नाई , दाई की आवश्यकता , मनुहार और उनका नेग भी । 
और भी जाने कितने पर्व , संस्कार और रस्में और उनके कारण से समाज में प्रत्येक अंग की आवश्यकता , मनुहार, नेग  निश्चित किया गया। 
पंडितों  के विषय में अलग से नहीं लिखा  क्योंकि उनके कार्यों /दक्षिणा आदि के बारे में अलग से जागरूक करने की आवश्यकता नहीं है। पूजा पाठ करने वाले /करवाने वाले और दक्षिणा देने वाले /नहीं देने वाले पंडितों के विषय में यूँ भी अधिक जानते ही हैं। 
  
अचंभित होती हूँ किस तरह परम्परा में हमें प्रकृति /पेड़ / पौधे /नदी /कुएँ आदि की आवश्यकता और उनके महत्व  के प्रति जागरूक किया जाता रहा। उनके प्रति कृतज्ञ होने का अवसर प्रदान किया जाता रहा। वहीँ समाज के प्रत्येक अंगों की आपस में समन्वयन के लिए एक दूसरे की आवश्यकता और महत्व पर बल दिया गया। 
सोचती हूँ कि जिन समाजों में ये परम्पराएँ नहीं है , वे लोग कैसे जुड़ते होंगे प्रकृति से अथवा आपस में भी जिस तरह हमें दैनिक जीवन की  आदतों और विभिन्न उत्सवों के रूप में बचपन से ही जोड़ा जाता रहा है !  

विभिन्न संस्कृतियों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक रहने वाले समाज के विभिन्न अंगों में समन्वय का जरिया कुछ न कुछ अवश्य होता होगा … बस भिन्न परम्पराओं/नामों /प्रतीकों आदि  के द्वारा ही सही।  

यदि आप विभिन्न संस्कृतियों की परम्पराओं द्वारा प्रकृति और समाज के प्रत्येक अंग के आपस में समन्वय के विषय में जानकारी रखते हैं तो अवश्य साझा करें !!