गुरुवार, 28 मार्च 2019

देसी चश्मे से लंदन डायरी.... शिखा वार्ष्णेय




अपने घर /गांव / शहर से बाहर जाने वालों  के मामले में हमारे भारतीय परिवारों में दोहरी मान्यताएं चलती हैं।  पहला प्रश्न यही होता है - खाने का क्या होगा (यदि लड़का है और वह भी अविवाहित  तो ) और यदि लड़की है तो कैसे रहेगी , वहां कोई जानने वाला है या नहीं  आदि।  इस पहली चिंता से निपट चुकने के बाद होती है शुरुआत  रिश्तेदारों और परिचितों में अपने पुत्र पुत्री के फॉरेन स्टे या फॉरेन रिटर्न की खबर फैलाने की. अपने पुत्र पुत्री के विदेश में सेटल होने या घूमने जाने की खबर या ख़ुशी  भिन्न -भिन्न तरीकों और बहानों से दी जाती है. भिन्न संस्कृति , संस्कार  के साथ आर्थिक , सामाजिक, राजनैतिक और भौगौलिक दृष्टि से भी बिलकुल विपरीत स्थान पर घूम घाम आना तो फिर ठीक है मगरजीवन यापन के लिए  वहां बस जाना व्यक्ति को एक अलग ही चुनौतीपूर्ण परिस्थिति और अनुभव से रूबरू कराता है।  लाख सुख सुविधाएँ जुटा ली जाएँ मगर मन जैसे बच्चों की तरह अपनी मातृभूमि और परिवेश को ललकता ही है।  विकसित देशों की सुख सुविधाओं का लाभ ले रहा प्रफुल्लित मन संतुष्टि को जीता है मगर भीतर कहीं एक कसक अपनी मातृभूमि से दूर होने की भी रखता है।  विभिन्न अवसरों पर चाहे अनचाहे खांटी देसी मन जाग जाता है और चाहे अनचाहे तुलनात्मक  हो उठता है।  कभी ख़ुशी कभी गम की तर्ज़  पर यह तुलनात्मक विवेचना या अध्ययन  उसी परिवेश में रह रहे व्यक्ति को तो अपनी  मनकही या समभाव  होने के कारण आकर्षित करता ही है, वहीँ दूर बैठे व्यक्तियों के मन में उत्सुकता जगाता है।  यदि यही अनुभव रोचक शैली में लेखबद्ध हों तो दुनिया के इस छोर से उस छोर के बीच जानकारियों के एक सेतु का निर्माण करता है।  ऐसा ही एक लेखन सेतु निर्मित किया है लन्दन में रह रही अप्रवासी भारतीय लोकप्रिय हिंदी ब्लॉगर शिखा वार्ष्णेय ने अपनी पुस्तक " देसी चश्मे से लन्दन डायरी " में।

लन्दन शहर ही नहीं बल्कि यूनाइटेड किंगडम और यूरोप के भी सामाजिक /आर्थिक / राजनैतिक परिदृश्यों की जानकारी के साथ ही सांस्कृतिक बनावट के बारे में  पुस्तक में संकलित आलेखों के माध्यम से दी गई जानकारी आम पाठकों को लुभाती तो है ही  वहीं उस देश में  बसने की चाह रखने वालों के लिए यह पुस्तक एक गाइड का कार्य भी करती है।  दैनिक जीवन से जुड़े क्रिया कलाप , शिक्षा , सुरक्षा व्यवस्था के बारे में विभिन्न घटनाओं के जिक्र से उस स्थान का परिवेश पाठक को बिलकुल भी अनजाना महसूस नहीं होने देगा।  लन्दन में रह रहे एशियाई परिवारों के रहन सहन और उसमें आने वाली परेशानियों तथा उन्हें दूर करने के लिये  किये जाने वाले प्रयासों के बारे में पर्याप्त सामग्री है।  अपने देशी चश्मे से झांकते हुए शिखा ने लन्दन के पूरे आर्थिक , सामजिक ,सांस्कृतिक ,  शैक्षणिक और राजनैतिक परिवेश पर दृष्टि इस तरह  डाली है कि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है।  उस देश में होने वाले चुनाव प्रचारों की सादगी हो या जनप्रतिनिधियों का सामान्य जीवन के साथ ही आर्थिक मंदी से जूझने के बावजूद रानी के स्वागत अथवा ओलम्पिक खेलों की तैयारियों में किया जाने वाला व्यय पर सटीक प्रतिक्रिया देती शिखा साबित  करती  हैं की आर्थिक मंदी का भुगतान आम जनता को ही विभिन्न करों के माध्यम से करना होता है शासन  चाहे लोकतंत्र का हो या राजशाही का।अपने आलेखों में शिखा   देश की शिक्षा प्रणाली , बुजुर्गों के लिए की जाने वाली सरकारी व्यवस्थाएं , बच्चों की सही देखभाल के लिए फ़ॉस्टर केयर जैसी संरचना के लाभ और दोष दोनों को इंगित करती हैं।  लिव इन ,समलैंगिक विवाह, और शुक्राणु दान पर भी बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करती शिखा बताती हैं कि पाश्चात्य सभ्यता अपने  स्वतंत्र विचारों और समानता के महिमा मंडन के बीच नस्लभेद और जातीय भेदभाव से अछूती नहीं रही है. विदेश में रहकर भी अपनी संस्कृति , भाषा से जुड़ाव और लगाव शिखा के अपने व्यवहार , दैनिक कार्यकलापों के अतिरिक्त उनके आलेखों से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।  लन्दनवासियों के गौरव , शिक्षा व्यवस्था की विशेषताएं , सामाजिक ढाँचे के गुण दोषों पर विशेष जानकारी देती यह पुस्तक पठनीय है.

हालाँकि अब तक बहुत बड़ी संख्या में पाठकों तक यह पुस्तक पहुँच ही चुकी होगी , तब भी कोई रह गया है पढ़ने से तो अमेज़न पर यह उपलब्ध है बहुत ही उचित मूल्य पर।

शिखा को अपने लेखकीय कार्यों और प्रसिद्धि के लिए ढेरों बधाई  और शुभकामनाएं।