बुधवार, 26 सितंबर 2012

अपने पैसे से उत्कृष्ट साहित्य संग्रहों में अपनी रचनाएँ छपवाने में असहजता का क्या कारण हो सकता है !!

सबसे पहले तो स्वयं को बधाई दे दूं कि बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं . अब लिखा नहीं तो इसमें बधाई देने की क्या बात है !  अकारण व्यर्थ प्रलाप करने का हमें कोई शौक नहीं है , वजन होता है हमारी बात में , इसलिए इस बधाई का भी उचित कारण ही  है . लिख नहीं पा रहे ,  मतलब  साफ़ है कि हम भी राईटर ब्लाक से गुजर रहे हैं , जिससे बड़े -बड़े रचनाकार गुजरा करते हैं . यानि कि  यह तो साबित हो गया ही हम भी लेखक /लेखिका कहलाने योग्य हो चुके हैं , वरना राईटर ब्लाक जैसे साहित्यिक बीमारी से कैसे प्रभावित हो सकते थे !!


अब बात मुद्दे की , लम्बे अरसे से नया कुछ लिखना हो नहीं रहा . कई बार इस स्थिति से हम सब गुजरते हैं . परिस्थितिवश कई बार भावनाओं या विचारों का तीव्र अव्यवस्थित प्रवाह अभिव्यक्ति को अवरुद्ध करता है , वह लेखन की हो या मौखिक !  जो लिखने की इच्छा है लिखना नहीं चाहती हूँ , ऐन वक्त पर दिल और दिमाग में रस्साकसी आरम्भ हो जाती है कि आखिर हमारा ब्लोगिंग में होने का उद्देश्य क्या है . एक कशमकश सी रहती है कि व्यर्थ वाग्जाल में फंसकर अपनी साहित्यिक अभिरुचि को बाधित करना क्या उचित है , वही वाद विवाद में पड़ने  से बचने के लिए कुछ   प्रश्नों /आरोपों का प्रत्युत्तर नहीं देकर बच निकलने जैसी अनुभूति कही स्वयं एवं दूसरों को भी दिग्भ्रमित नहीं करे . जब कुछ कहानी /लेख /संस्मरण नहीं लिखा जा रहा है तो क्यों ना कुछ विचार ही बाँट लिए जाएँ . गृहिणियां रसोई में दाल- सब्जी की छौंक के साथ विचारों का तड़का भी बखूबी लगा सकती है . 

पिछले वर्ष अखबार में लिखे/ छपे   एक आर्टिकल पर सम्बंधित पक्ष की प्रतिक्रिया यूँ मिली " आपने इतनी जल्दी इस विषय पर कैसे लिख दिया , लोंग हमसे पूछ रहे थे कि ख़बरें पैसे देकर लिखवाई जाती हैं " . उस व्यक्ति के लिए यह विश्वास करना जरा मुश्किल था कि मुझे लिखने के लिए पैसे खर्च नहीं करने पड़े थे , बल्कि मुझे पारिश्रमिक दिया गया था . सच कहूं तो उस व्यक्ति द्वारा दी गयी खबर से ही मैंने जाना कि ख़बरें या आर्टिकल पैसे खर्च करके भी लिखवाए/छपवाए  जा सकते हैं . 
 इन दिनों विभिन्न पत्रिकाओं , पुस्तकों या काव्य संग्रहों में पैसे लेकर या देकर कवितायेँ या अन्य रचनाएँ छपवाने के बारे में कई ब्लॉग्स और फेसबुक स्टेटस  में पढ़ा. 
हिंदी ब्लोगिंग के अपने तीन वर्षीय अनुभव में मैंने अनुभव किया कि यहाँ साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले वाले प्रतिभाशाली ब्लॉग लेखक /लेखिकाओं या पाठकों की कमी नहीं है . अपनी रचनाओं को ब्लॉग पर लिखने के अलावा पत्र -पत्रिकाओं /पुस्तक रूप में देखने की इच्छा  भी स्वाभाविक ही है . ब्लॉगर्स की  दिन दूनी रात चौगुनी बढती संख्या में से कम ही सौभाग्यशाली रचनाकार होते हैं जिन्हें पत्र- पत्रिकाओं में छपने का मौका मिल पाता है . अक्सर प्रकाशन समूह अपने प्रतिष्ठित रचनाकारों को ही छपने के अधिक अवसर प्रदान करते हैं . कई प्रकाशन समूहों की अपनी तयशुदा नीतियाँ  या मजबूरियां होती है जिसके तहत विशेष विषय की  उत्तम रचनाओं को भी अपनी पत्र- पत्रिकाओं में छापने में असमर्थ होते हैं . रचनाकारों की प्रकाशन - समूहों और संपादकों की मेहरबानी पर  निर्भरता ब्लॉग लेखकों /लेखिकाओं की  निष्पक्ष बेलाग अभिव्यक्ति पर एक बंधन -सी होती है . क्योंकि ब्लॉग पर लिखते समय प्रत्येक रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र होता है , चाहे जो लिखे . इसके अलावा यदि कहीं रचना भेजी भी तो छपने में , अस्वीकृत होने की अवस्था में जवाब पाने में बहुत समय लगता है .

प्रकाशन समूहों की अपनी मजबूरी है . बढती महंगाई के इस दौर में जब आम आदमी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण जरूरते रोटी , कपडा , मकान जुटाना मुश्किल हो रहा हो तो अपनी मानसिक खुराक के लिए किताबें / पत्रिकाएं आदि खरीदने की हिम्मत कहाँ से जुटा पायेगा . ईमानदारी से बताये कि पढने के शौक़ीन मध्यमवर्गीय  समाज   में से कितने प्रतिशत लोंग अपने पैसे खर्च कर किताबें खरीद पाते हैं!! 

इन परिस्थितियों के मद्देनजर यदि  कोई प्रकाशन समूह उन ब्लॉग लेखकों /लेखिकाओं की  रुचियों और सुविधा को ध्यान में रखकर कुछ सहयोग राशि  पर उनकी रचनाओं को पत्रिकाओं अथवा पुस्तक के रूप में  सहजने का जिम्मा लेता है तो इसमें परेशानी क्या है . अपराध तब माना जा सकता है जब किसी से धोखे से पैसे ऐंठे गये हो , या उन पर दबाव बनाया गया हो  . यदि कोई रचनाकार असहज मसूस करता भी है तो पुनः इस प्रकार के प्रकाशन में रूचि नहीं लेगा . ब्लॉग रचनाकारों से स्वविवेक की अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे अपनी रचनाएँ  किस प्रकार और किस कीमत पर सहेजना चाह्ते हैं . मुझे इसमें कुछ बुराई नहीं लगती , कम से कम अपने पैसे देकर आत्मसंतुष्टि के साथ अपना स्वाभिमान तो बना ही रहता  है . जब लोंग अपने पैसे को मन मुताबिक कपड़ों , किताबों , मनोरंजन , कुत्ते- बिल्लियों के रखरखाव,  दारूबाजी  आदि पर खर्च करने में सहज है तो अपने पैसे से उत्कृष्ट साहित्य संग्रहों में अपनी रचनाएँ छपवाने में असहजता का क्या कारण हो सकता है !!   

कुछ कहना है आपको भी ???