बुधवार, 3 अगस्त 2011

भगवान बचाए ऐसे भाई- बहनों से ...

नौकरीशुदा इंसान की सबसे बड़ी ख्वाहिश होती है कि वह अपने सेवाकाल में ही बच्चों की शिक्षा , विवाह के साथ ही एक नीड़ का निर्माण भी कर ले ताकि वृद्धावस्था आराम से कटे . पिता ने भी इस शहर में मकान लेते समय यही सोचा था हालाँकि होनी को कुछ और ही मंजूर था . अपनी व्यस्त दिनचर्या के कारण स्वयं तो गिनती के दिन ही गुजारे होंगे इस मकान में मगर अपनी पत्नी और बेटों के लिए रहने का इंतजाम कर गये . मकान के उपरी हिस्से की छत डली हुई थी , बल्ली फंटों के बीच उस हिस्से को अँधेरे में सिर्फ एक नजर ही देख पाए थे , खैर ...
उनकी मृत्यु के बाद माँ अपने कुनबे सहित यही बस गयीं . शुरू से शुगर मिल कोलोनी में रही माँ को आस- पास के लोगों से अच्छा व्यवहार रखने की आदत पडी हुई है . ऐसी कॉलोनियों में हर धर्म और जाति के लोंग आपस में मिलजुल कर रहते हैं और एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते हैं . जब सबके पति ऑफिस में होते हैं तो ये महिलाएं साथ मिल कर पापड़ , बड़ी , अचार आदि बनाने से लेकर मूवी देखना , खरीददारी तक भी साथ ही करती हैं . पूरा मोहल्ला एक कुनबा ही बन जाता है . तारक मेहता का उल्टा चश्मा देखते हुए मुझे वो कोलोनी बरबस ही याद आ जाती है .
माँ की वही आदत यहाँ भी बनी रही . पड़ोसियों के दुःख दर्द में काम आना , किसी की पतोहू की जचगी में उनके साथ अस्पताल में रहना , तो किसी की बेटी की पसंद के कपड़े खरीदने साथ जाना , किसी नई बहू को अचार बनाना सिखाना , किसी अकेली वृद्धा को खुद खाना बना कर पहुँचाना आदि . उनके बेटे -बेटी- बहुएं सब नाराज होते हैं उनसे इस समाज सेवा को लेकर , क्योंकि कई बार इसमें उन्हें पैसे और सम्मान का नुकसान भी उठाना पड़ता है , मगर उनकी आदत है, जो है ...

एक बार छुट्टियों में बच्चों के साथ मैं भी दो-चार दिनों के लिए रहने गयी . एक ही शहर में होने का सबसे बड़ा नुकसान मुझे यही लगता है कि मायके में ज्यादा दिन रहना संभव नहीं हो पाता . माँ के आँचल में तो इस उम्र में भी बच्चों जैसा ही लगता है . सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़ते हुए बाहर गेट पर किसी महिला द्वारा मम्मी कह कर पुकारे जाने पर बाहर जाकर देखा तो सामने बने आधे -अधूरे मकान में से कोई महिला माँ को आवाज लगा रही थी । पीछे पीछे माँ भी चली आई . माँ को देखते ही वह महिला दौड़ी चली आई ," अच्छा , दीदी आई हुई हैं " कह कर गले लगने लगी . मेरी बहुत बुरी (?) बुरी आदत है , मैं जल्दी से किसी अनजान को गले लगाना तो क्या हाथ भी नहीं मिलाती , इस पर चाहे कोई मुझे नकचढ़ी कहे या घमंडी !
मैंने पीछे हटते हुए माँ से थोड़े नाराजगी भरे लफ्जों में पूछा ." अब ये नई बहन कहाँ से आ गयी मेरी ". तब तक वह महिला मां के गले में लटक चुकी थी " अरे , सामने ही रहती है , कुछ ही दिन हुए है आये हुए ." तब तक उसके गेट पर कोई युवक आ पहुंचा . माँ से यह कहते हुए कि उसके देवर आये हैं , वह महिला खिसक ली .

अब मैं माँ पर बिगाड़ने लगी । तुम यूँ ही किसी पर विश्वास कर लेती हो , पता नहीं कौन है , क्या है , बेटी बना लिया ...

अरे , गरीब मजदूर है बेचारी , मम्मी -मम्मी करते हुए आ जाती है तो कैसे परे धकेलूं । देख कितनी मुश्किल में रह रही है , घर में लाईट भी नहीं है , इसका आदमी भी कहीं बाहर नौकरी करता है .ये भी पास ही फैक्ट्री में काम करती है .

माँ तुम भी ना ....जानती हूँ , कितनी भोली हैं , जरा सा कोई आँख से आंसूं टपका दे , अपनी परेशानियों का रोना रो दे , बस झट से पिघल जाती हैं , कितना ही समझा लो कि माँ , ये तुम्हारी मिल कोलोनी नहीं है , ये शहर है , यहाँ लोगों को पहचानना इतना आसान नहीं है , नहीं मानती है !

तीन चार दिन तक मैं रही वहां और देखती रही कि उसके घर जाने कैसे अजीब से लोंग आते हैं , जब भी माँ पूछती तो यही जवाब कि मेरा देवर है. मैं माँ पर झुंझला रही थी ," कितने देवर हैं इसके , हर बार कोई नई शकल नजर आती है " .
मेरी भोली माँ समझाती मुझे ," इसके ससुराल का बहुत बड़ा परिवार है , मौसी , मामा , चाचा आदि के लड़के आते रहते हैं यहाँ मिलने "
मैंने माँ को टोका , मुझे ठीक नहीं लग रहा , कभी कोई महिला तो नहीं आती इससे मिलने ..और देवर हैं ,अभी घर में लाईट नहीं है तो इस अँधेरे में अकेले क्या करते हैं घर में ...
अभी कुछ दिन पहले आई थी इसकी मौसी सास ,मेहमान को चाय- नाश्ता नहीं बना कर खिलायेगे क्या , गरीब है इसलिए तुम लोंग हर वक़्त इस पर अंगुली उठाते रहते हो ...
मेरी माँ तो पुरानी हिंदी फिल्मों वाली टिपिकल मां है !
खैर , मैं घर लौट आई वापस अपनी गृहस्थी में मगन , मगर मुझे बार -बार वह महिला ध्यान आती रही । लगभग एक सप्ताह बाद माँ का फोन आया ." तुझे पता है , वो सामने रहती है न मीना, वो बहुत बुरी औरत निकली , कोलोनी वालों ने उससे तुरंत मकान खाली करवा लिया है और आस पास दिखाई भी नहीं देने की चेतावनी दी है .

अब बोलो माँ , तुम कैसी महिला को मेरी बहन बना रही थी .भगवान् बचाए ऐसे भाई -बहनों से !

मन खराब हो गया था ।छत पर यूँ ही टहलते देखा किसामने तीन मंजिला बिल्डिंग के फ़्लैट की बालकनी में एक आधुनिका स्ट्रिप वाली ड्रेस पहने अपने लैपटॉप से उलझी पड़ी मुस्कुरा रही थी . कल ही उनकी पड़ोसन बता रही थी ,पता नहीं कौन है , अकेले रहती है , संडे को अक्सर कोई आता है , तेज संगीत के साथ नाचने- गाने की आवाजें आती हैं , देखते हैं एक दो दिन नहीं तो इसके मकान मालिक से शिकायत करनी पड़ेगी .

मुझे फिर वही मीना याद आ गयी , क्या पता चलता है , किस भेस में कौन मिल जाए !!

सोच रही हूँ जब वास्तविक दुनिया में इंसानों को पहचानना इतना आसान नहीं है तो अंतरजाल पर तो ??