रविवार, 6 नवंबर 2011

साहित्य से सिनेमा तक ......

कल ही चेतन भगत की रिवोल्यूशन २०२० पढ़ कर समाप्त की . चेतन भगत के लेखन को लेकर साहित्यिक हलकों में अक्सर बहस छिड़ जाती है कि उनका लेखन गंभीर नहीं है , साहित्य नहीं है, मगर फिर भी उनके उपन्यासों की रिकोर्ड़तोड़ बिक्री बताती है कि आजके समय के लोकप्रिय लेखकों में से हैं .

साहित्य देश या समाज की तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक और मानसिक परिस्थितियों को प्रदर्शित करते हैं, और चेतन के उपन्यासों में भी वर्तमान पीढ़ी का जीवन पूरी ईमानदारी से झलकता है. युवाओं की सोच , प्रतिस्पर्धा में आगे बने रहने के लिए तथा अपने तयशुदा मुकाम को पाने के लिए किसी भी स्तर तक जाना , उससे असंतुष्ट होकर फिर से अपनी जड़ों को तलाशना , समाज में क्रांति की अलख जगाने जैसे उतार- चढ़ाव वाले जीवन को चेतन अपने उपन्यासों में बखूबी उतारते हैं . चेतन अपने उपन्यासों में पात्रों को सिर्फ प्रस्तुत करते हैं , कोई फैसला नहीं सुनाते . आपाधापी के इस युग में आम इंसान के लिए अपने भीतर के जुझारू इंसान को जगाये रखना बहुत मुश्किल होता है और ऐसे में नायक और खलनायक दोनों की छवि एक-सी ही हो जाती है . अब ये पाठक पर निर्भर करता है कि वह पात्र की किस छवि को देखता है और निर्णय लेता है कि कौन नायक है , कौन खलनायक , किसे अच्छा समझा या किसे बुरा ...

जैसा कि अक्सर कोई उपन्यास पढने के बाद होता है , इस उपन्यास के पात्र गोपाल , आरती और राघव दिमाग बहुत देर तक दिमाग में घूमते रहे . तीनों का बचपन , गोपाल के भीतर पलती ईर्ष्या , आरती का भोलापन , राघव की निष्ठा , गोपाल की खलनायकी और फिर प्रतिस्पर्धा में राघव से पिछड़े गोपाल का संघर्षपूर्ण स्थितियों में हीन भावना से ग्रस्त होकर अपने जीवन को शुक्लाजी जैसे राजनीति के माहिर खिलाडी के हाथ में सौंप देना , फिर ख़ामोशी से अपने प्यार के लिए त्याग करना ...
किसी भी उपन्यास को पढने के बाद देर तक वे पात्र साथ चलते हैं , उस समय उस परिस्थिति से गुजरते उन्होंने कैसा महसूस किया होगा, उनकी खुशियाँ , दुःख , दर्द सब अपने से ही हो जाते हैं . पता नहीं आप लोगों के साथ ऐसा होता है या नहीं.

ऐसा ही कुछ अनुभव गंभीर किस्म की मूवी देखने के बाद भी होता है, जब उनके पात्र हमारे साथ चलते रहते हैं , हम वास्तविक जीवन के चरित्रों से उन पात्रों को रिलेट करने लगते हैं , जबकि हम यह वास्तविकता जानते हैं कि किसी भी उपन्यास या मूवी का पात्र सिर्फ किसी एक चरित्र को नहीं जीता है , कई चरित्रों के समावेश से वह एक पात्र बुना जाता है . मूवी की बात करूं तो हालाँकि आजकल बहुत कम सिनेमा देखना होता है , टीवी पर चौबीसों घंटे फिल्मों के दोहराव ने इनके प्रति उत्सुकता कम कर दी है , मगर फिर भी लीक से हटकर गंभीर फिल्मे आकर्षित करती हैं .

बात हो रही है साहित्य और सिनेमा के हमारे जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की . किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को इनके पात्र प्रभावित करते हैं, हम देखते हैं अक्सर संवेदना से भरे दृश्यों में दर्शकों या पाठकों की आँखों से भी आंसू बह निकलते हैं , जबकि प्रबुद्ध पाठक या दर्शक वर्ग सिर्फ कहानी होने के सच को अच्छी तरह जानता है , फिर भी ....

सोचती हूँ जब दर्शकों या पाठकों पर इसका इतना असर होता है तो जो लोंग इसे जीते हैं यानि वे पात्र जो इन चरित्रों का अभिनय करते हैं , उनपर इनका कितना असर होता होगा . अभिनय को गंभीरता से लेने वाले व्यक्ति इससे अवश्य प्रभावित होते हैं . एक बार कहीं अमिताभ बच्चन जी का वक्तव्य पढ़ा कि फिल्मों में माँ-पिता के मरने पर अपनी संवेदनाओं को इतनी बार अभिनीत किया है कि मुझे लगता है ऐसी वास्तविक परिस्थितियों में शायद मैं कुछ महसूस ही ना कर पाऊं .
ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार को भी लगातार दुखी भावुक नायक का अभिनय करते हुए डिप्रेशन से अस्वस्थ होने पर चिकित्सकों ने कुछ दिन तक दुखी एवं उदास चरित्रों के अभिनय से दूर रहने की सलाह दे दी थी .
जब अभिनय करना या उन्हें पढना , सुनना या देखना ही इतना दुःख पहुंचाता है , तो वे लोंग कैसे बर्दाश्त करते हैं, यह दर्द जिनका अपना ही होता है !!!!

ऐसी ही मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर बनी दो फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया था. वहीदा रहमान के मुख्य चरित्र वाली " ख़ामोशी " और कमल हसन और श्रीदेवी की "सदमा " .
ख़ामोशी ,हेमंत दा के सुमधुर संगीत और गुलज़ार के नायाब गीतों के संकलन (हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू , तुम पुकार लो , वो शाम कुछ अजीब थी )से सजी यह फिल्म अपने आप में एक अनूठी फिल्म थी . मानसिक रोगी देव कुमार (धर्मेन्द्र ) और अरुण चौधरी (राजेश खन्ना ) का अपने प्रेम से इलाज़ करने वाली नर्स राधा (वहीदा रहमान ) अपने अभिनय में इतना खो जाती है कि अपने मरीज से प्रेम कर बैठती है , जबकि स्वस्थ होने के बाद वे अपनी नर्स को भूल जाते हैं, ये यादें एक दिन राधा को गहरी खामोशियों में ले जाती है और वह स्वयं एक मरीज बन कर रह जाती है .

इसी प्रकार की दूसरी क्लासिक फिल्म " सदमा " भी थी . यह तमिल फिल्म मुन्दरम पिराई की हिंदी रीमेक थी. इल्याराजा के संगीत और गुलजार के गीत (सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा ) . एक स्कूल में शिक्षक सोमू (कमल हसन ) को एक दिन अपने घर परिवार से बिछड़ी एक युवती लक्ष्मी (श्रीदेवी ) मिलती है , जिसका दिमाग एक बच्चे जैसा ही है . किसी दुर्घटना के कारण उसके दिमाग पर बहुत असर होता है और वह छः वर्ष की बच्ची की तरह ही व्यवहार करने लगती है . उसके इलाज़ की व्यवस्था के साथ ही उसके माता पिता को ढूँढने की जिम्मेदारी निभाता सोमू जब अपने उद्देश्य में सफल होता है तो लक्ष्मी उसे भूल चुकी होती है . फिल्म के आखिरी दृश्य में स्टेशन पर लक्ष्मी को सब भूल कर माता- पिता के साथ जाते हुए देखकर सोमू द्वारा उसे अपनी याद दिलाने की कोशिश वाला दृश्य भुलाये नहीं भूलता ....