शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

नैतिकता का पाठ !



बोलो बच्चों. आज की कहानी से क्या सबक सीखा ?

डस्टर  से  ब्लैकबोर्ड साफ़ करते मास्टरजी ने कक्षा में बच्चों की ओर मुख करते हुए पूछा .

उत्साहित मोहन ने हाथ खड़ा कर कहा  - सर ! मैं बताऊँ !!

हाँ हाँ .बताओ मोहन ...उसका उत्साह बढ़ाते हुए सोहनलाल जी ने पूरी कक्षा को चुप रह कर सुनने का आदेश दिया . 
जी सर!  हमने इस कहानी से सीखा कि जो आपको ईश्वर ने दिया है  उससे संतुष्ट रहना चाहिए . लालच  नहीं करना चाहिए . कभी किसी का धन चुराने की इच्छा भी नहीं रखनी चाहिए .

पास की सीट पर बैठा रोहित   बोल उठा -  सर ! ये झूठ बोल रहा है. कल इसने मेरे टिफिन में से खाना चुरा  कर खा लिया था .

चुराया कब था ? टेबल पर टिफिन बॉक्स रखा था . मैंने उठा कर खा लिया .ये क्या चोरी हुई . नहीं ना सर !....

अनुमोदन के लिए चमकदार हो उठी उसकी आँखे और मुंह बनाते मोहन को देख शिक्षक मुस्कुरा दिए .बचपन कितना भोला और निष्कपट होता है  . क्या होता जो बच्चे हमेशा बच्चे ही रह जाते . सोचते हुए  वे कुछ जवाब देते  इससे पहले ही घंटी की आवाज़ आयी और सभी बच्चे अपना बैग सँभालते उठ खड़े हुए . मोहन और रोहित कक्षा से बाहर निकलते हुए एक दूसरे का हाथ पकडे थे . 

कक्षा से बाहर निकलते हुए सोच रहे थे सोहनलाल जी  . बच्चे भी कितना कुछ सिखा देते हैं . शब्दों और भाषा की सजावट के बिना भी!!

सायकिल पर तेजी से पैडल मारते हुए सोहन लाल जी  को थोड़ी दूर पर काले बैग सी चमकती कोई चीज नजर आयी . पास जा कर देखा तो किसी का बटुआ जमीन पर गिरा  पड़ा था . इधर उधर नजर दौड़ते हुए सोहनलाल जी ने बटुए को खोल कर देखा . तीन- चार हजार रूपये , फोटो , कार्ड जैसी कई वस्तुएं उस बटुए में थी . सोहन लाल जी ने एक बार फिर इधर- उधर देखा . बटुए में से पैसे निकाल कर जेब के हवाले किये और पुनः बटुए को सड़क पर  फेंक दिया .

सोहनलाल जी की नजर नहीं पड़ी.  उनके पीछे साईकिल पर चलते मोहन और रोहित बहुत हैरानी से उन्हें ही देख रहे थे।   

सोहनलालजी को मिल गये आत्माराम जी भी पीछे आते हुए ...

क्या सोहनलाल जी!!
बच्चों को नैतिक शास्त्र पढ़ाते हो और स्वयं पाठ भूले हो .

ओहो ! आत्माराम जी . आप भी ...
बताईये  क्या करता इस बटुए का . पुलिस वाले के पास जमा  करता तो क्या जरुरी था कि  उक्त व्यक्ति को उसकी रकम मिल ही जाती.  व्यक्ति का नाम -पता ढूंढ कर उस तक पहुंचाता तो जाने कैसा व्यक्ति होता!!  कही मेरे गले ही पड़ जाता तो . कही मुझ  पर उसमे ज्यादा रकम होने का इलज़ाम लगा देता तो जेब से या जेल में भुगतनी पड़ती ईमानदारी की सजा . नैतिकता के पाठ जो भी पढाये जाए  उनको समयानुसार बदलाव के साथ स्वीकारने में ही भलाई है .

कहते तो ठीक ही हैं सोहनलाल जी.  आत्मारामजी अपनी राह चलते सोच रहे थे .


क्या आप भी सोहनलाल जी की राय से इत्त्तिफाक रखते हैं , हमसे मत पूछियेगा , इस पर एक संस्मरण अलग से लिखा जाएगा .