बुधवार, 9 जुलाई 2014

द्विरागमन .... (2)




मुझे लगता था कहीं भीतर से आती उसकी आवाज - तुम सब कुत्ते ही होते हो , सब एक जैसे।  गोश्त चूस लेने के बाद हड्डियां चुभलते रहने वाले कुत्ते , तुम्हारी भौंक बस हड्डी मुंह में रहने तक ही बंद रह सकती है।  
मैं काँप रहा था इस अनकही को सुनते , उसने तो कुछ कहा नहीं था।  कहीं मेरे मन की ही बात तो मेरे कानों में नहीं उड़ेली जा रही थी उसके अनकहे शब्दों में।  अपने आप को हमसे बेहतर और कौन जान सकता था! 
अपनी बेरहमी और बेशर्मी से घबराया मैं उसी बाग़ के दूसरे कोने पर लगे फूलों और बच्चों को देख मुस्कुराता , अपने भीतर के पशु को छिपाते सांत्वना देता मनुष्य को ! (द्विरागमन -1)
अब इससे आगे --

उस दिन जब वह लॉन की दूब को दांतों से कुरेदती ही तो मिली थी मुझे यहाँ , अपनी व्यग्रता को ही कुरेदती थी जैसे।  बाद के दिनों में मुझे बताया उसने।  मध्य आयु के स्त्री पुरुषों में जैसे परिवर्तन होते हैं  वैसी ही बेचैनियां लिए बढ़ती उम्र ...रिश्तों का ठहरापन ...मुट्ठी से फिसली उम्र के बीच कुछ भी अपने मन का न पा सकने की निराशा .,जाने क्या -क्या !

उस दिन फिर जल्दी -जल्दी करते भी तवे पर पराठे जल गए थे और उसका पति गुस्से में खाना खाए बिना ऑफिस निकल गया था ...नल से  पानी भांडे भरे बिना ही जा चुका  था ...बच्चों की डायरी में क्लास में पिछड़ते जाने का नोट !
वह देखती थी आस- पास स्त्रियों को सुबह जल्दी उठकर झाड़ू बुहारू लगाते , पूजा -पाठ करते , खाना बनाते ,  बच्चों को तैयार करते ख़ुशी -ख़ुशी और सबसे फारिग होकर कभी बाजार तो कभी पास पड़ोस में गप्प गोष्ठियां करते।  बड़ी ख़ुशी से अपनी गोपनीय बातें उजागर करते जैसे कि  आज धूप  में कुछ कार्य कर रही थी तो लाड़ में भरा पति दूध में ढेर सारे ड्राई ट्स घोल लाया उसके लिए ... कोई पिछली रात की बात खुसर फुसर में इस तरह करते कि  दूसरी महिलाएं झट कान लगा कर पूछ ले दुबारा।  कोई पति की शिकायत इस तरह करती मिल जाती जैसे कि  प्रशंसा कर रही हो ... हमारे ये तो कुछ काम ही नहीं  कराते घर का या की इन्हे तो कुछ पता ही नहीं रसोई  में कौन सी चीज कहाँ रखी  है ...कोई बताती छिपा  कर रखे गए पैसों से सोने के गहने / खरीददारी जिससे वह अपने उनको  चौंका देगी। सास की पदवी पा चुकी कुछ स्त्रियां अपने दुःख का पुलिंदा खोले बैठी होती।  उसका कभी इस गपगोष्ठी  में शामिल होना होता तो  चुपचाप बस सुन लेती क्योंकि उसके पास  या तो ऐसा कुछ सुनाने को होता नहीं  या फिर रिश्तों की गोपनीयता उजागर करना उसे अच्छा लगता भी नहीं। मंगोड़ियां , पापड़ बनाती हुई स्त्रियां , तो कभी लहंगा , ब्लाउज सिलती ये स्त्रियां खुश लगती थी अपनी जिंदगी से,  बहुत खुश !

किसने कौन सी किताब पढ़ी ...कौन सी फिल्म देखी... नया क्या सीखा सुन लेने को ही तरसती ! ऐसा नहीं था कि उन गोष्ठियों में स्त्रियां  पढ़ी लिखी नहीं थी।  अधिकांश संतोषजनक डिग्रियां प्राप्त थी , कुछेक कामकाजी भी मगर उनकी बातचीत का दायरा वहीँ तक सिमित था।  जल्दी ही वह ऊब जाती , अलबत्ता उसके पास समय भी नहीं होता था अधिक देर इनका हिस्सा बनने का ....

आम स्त्रियों से भिन्न शौक/मिजाज  रखने वाली निम्न अथवा उच्च  मध्यमवर्गीय स्त्रियों के मन का एक कोना किस तरह सूखा  अनछुआ सा रहता है .उससे नहीं मिलता तो शायद कभी जान भी नहीं पाता।  उसकी बातों ने , उसके चुप रह जाने ने , उसके चिल्ला पड़ने में , उसके हंसने ने , उसके मुस्कुराने ने मुझे बताया , समझाया। बस उसके आंसूं नहीं देखे मैंने . भरा गला और चेहरे की मुस्कराहट के साथ कुछ नमी जरूर थी कोरों पर मगर उसे आंसू नहीं कहा जा सकता था।

उसका नाम क्या था , क्या फर्क पड़ता है , भीड़ में शामिल भीड़ से अलग दिखने वाली कोई भी स्त्री हो सकती है वह. मध्यवय की मध्यमवर्गीय स्त्री जो अपने नाम का अपने होने का अर्थ ढूंढ रही हो वही स्त्री हो सकती है , हो सकती थी।

उस दिन जब मैं पहली बार उससे मिला था उस पार्क की बेंच पर बैठा उसे देखता दूर तक फ़ैली दूब  से तिनका तोड़ दांत में फंसाते जैसे कि  जिंदगी की तमाम नीरसता , व्यग्रता , बेचैनियों को खुरचती हो जैसे !

उस दिन बस मुस्कुराकर नमस्कार को नाराजगी से अनदेखा करने वाली स्त्री कभी इतनी घुली मिली होगी मुझसे कि  मैं उसके वय और परिवेश की स्त्रियों की मानसिक स्थिति का अंदाजा भी लगा सकूंगा  सोचा नहीं था मैंने।
उस दिन उसकी नाराजगी पर  मुस्कुराते हुए मैंने कहा था ,
शुक्र है आप बोली तो …
मैं अजनबियों से बात नहीं करती! त्योरियां अभी चढ़ी ही हुई थी।
मगर हम अजनबी नहीं है , कितने समय से तो एक दूसरे को देख  रहे हैं यहाँ !
क्या मतलब , मैं यहाँ किसी को देखने -दिखने नहीं आती।
जी , आप तो यहाँ लॉन की दूब  कुतरने आती हैं। मैंने लॉन के एक हिस्से से उखड़ी हुई दूब  की ओर इशारा किया।
इस बार वह कुछ झेंपी सी थोड़ी अधिक ही  मुस्कुराई।  पहली बार उसके चेहरे की ओर ध्यान से देखा मैंने , गेंहुए रंग पर कुछ गोल सा चेहरा, घनी पलकों वाली सम्मोहित करती सी बड़ी काली आँखें , मुस्कुराते गालों पर पड़े हुए भंवर... एक सामान्य चेहरे मोहरे से कुछ अधिक आकर्षक . बहुत  खूबसूरत  नहीं कहूँगा क्योंकि अपने इस जीवन काल में बहुत खूबसूरत लड़कियां देखी मैंने , लम्बे अंडाकार चेहरे वाली दूध सी गोरी लड़कियां , संतरी फांकों से गुलाबी होठों वाली पहाड़ी लड़कियां तो  लम्बी पतली तरासी हुई अँगुलियों से गालों पर उतर आई लटें संवारती सैंडिलों को खटखटाती आधुनिकाएं भी। वह इतनी खूबसूरत नहीं थी ! मगर उसकी छोटे बच्चों जैसी भोली कोमल मुस्कराहट बहुत प्यारी थी।   बेध्यानी में मैं एक बारगी उस  मुस्कराहट में अटक सा गया , मगर जब उसने भोंहे तरेर कर आँखें सिकोड़ी तब अपनी बेहूदगी पर लज्जित होता दूसरी ओर देखने लगा।

उस दिन बातचीत का  वह सिरा पकड़ने के बाद हम अब तक बातों के पालने बुनने लगे थे। अपनी शिक्षा , बच्चों की बातें , शरारतें , अपने शौक , राजनीति , खेल , फ़िल्में जाने कितनी दुनिया जहां की बातें करते हम।  कई बार मैं खुल कर हँसता उसकी बेवकूफियों भरी बातों पर , कभी चिढ़ता भी तो कभी सरल सहज सी बातों में उसकी दार्शनिकता ढूंढ लेने पर  अचंभित भी होता।  सामान्य से  दिखने वाले लोग सामान्य से अधिक ही चौंकाते हैं कई बार।  हालाँकि आम स्त्रियों की तरह ही उसे गुलाबी रंग बहुत पसंद था , गीत- संगीत भी ,  फूलों और बच्चों से भी उसका प्यार वैसा ही था जैसा की  स्त्रियों को होता है, मगर कहीं कुछ अलग था, अलग लगता था, बस बता नहीं सकता क्या। .... यही कहूँगा पता नहीं !

तो  आज जब मैंने कहा कि  हम सब कुत्ते हैं ! तब भी वह मुस्कुराई मगर मैं जान गया था कि उसने क्या कहा था।

तुम लड़कियां अजीब होती हो , सोचती कुछ हो , कहती कुछ हो और करती कुछ उससे अलग ही हो !

खुद का पता है ! तुम सब एक जैसे होते हो तुम्हारा शब्द इस्तेमाल नहीं करुँगी मगर ! वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि मैं लड़की नहीं हूँ .अपने पति के दो प्यारे बच्चों की अम्मा हूँ!  अपने मातृत्व के गर्व से गर्दन टेढ़ी कर वह इतरा- सी जाती।
क्यों ! क्या अम्माएं लड़कियां नहीं होती ! सीधे अम्मा ही जन्म लेती हैं !
 तुम्हे कैसे पता यह सब  , तुम्हारी तो शादी नहीं हुई न ! वह तीखी नजर से देखती!
पता चल जाता है ! मैं चिढ़ाता उसे !
कैसे पता चल जाता है , बताओं न … उसे अपने शब्दों  के द्विअर्थी होने का भान ही नहीं होता   मगर जब मैं शरारत से मुस्कुराता तो खिसिया सी जाती … तुमसे तो बात करना ही बेकार है , दिमाग में भूसे की तरह बस एक ही चीज भरी होती है।
अच्छा ! कौन सी एक चीज !
वह  इस तरह दांत पीसती मानो कच्चा ही चबा जाएगी।

सब जानता था मैं उसके बारे में ! उसका छोटा सा घर ... प्यार करने वाला पति ...स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे मगर अपने बारे में कभी कुछ कहा नहीं मैंने।
एक दिन जिद पर अड़ ही गयी ...
तुम बहुत आत्मकेंद्रित हो . कभी अपने परिवार और बच्चों के बारे में बात ही नहीं करते।
मैं क्या कहता … कई बार पूछने पर एक दिन झूठ बोल दिया मैंने।  मेरी शादी नहीं हुई अब तक !
उसे हैरानी जरूर हुई थी मगर वह इसे  सच मान बैठी थी।

क्यों नहीं की शादी अब तक तुमने ! किसी ने  धोखा दिया क्या !
क्या बताता कि  मुझे धोखा किसी और  ने नहीं स्वयं मेरी किस्मत ने दिया था।

क्यों करोगे तुम लोग शादी ! तुम्हारी आवारगी पर बंधन जो लग जाएगा इसलिए ही न .... मगर इस बंधन से तुम लोगो को क्या फर्क पड़ता है . घर में उसे बिठाकर बाहर तुम्हारी मटरगश्तियाँ तो उसी प्रकार चलती हैं . घर  में तुम लोगों को सती सावित्री , शांतचित्त , सुघड़ गौ सी स्त्री चाहिए मगर घर से बाहर तुम उनकी तारीफों में मरे जाते हो जो स्मार्ट , तेजतर्रार , महफ़िलों की शान लगती हो।
ओह अच्छा ! तुम्हारा पति भी करता है यही सब !
शटअप  , वो ऐसे नहीं है . बहुत मेहनत करते हैं हमारी छोटी सी गृहस्थी की गाडी खींचने को !
अच्छा , तो तुम कैसे जानती हो पुरुषों के बारे में यह सब ....
लो इसमें जान लेने का क्या है , दिखता  है न हर तरफ !
 मैं गोल घुमाता बात बदल देता , वह कई बार कोशिश तो करती कि मेरे जीवन का कोई सिरा  पकड़ सके। मगर सैनिक जीवन के अभ्यास ने ही शायद इतनी दृढ़ता दी थी कि मैं अपने गम भुलाकर दूसरों को हंसा सकता था।
मैं उसे हँसते देखना  चाहता था हमेशा , क्यों पता नहीं ! और सिर्फ उसे ही नहीं ., मैं सभी को खुश देखना चाहता था हमेशा।  खुशियों की कितनी छोटी सी उम्र देखी थी मैंने ! मैं जानता था उनकी अहमियत और हैरान हुआ करता था जब लोगो को  छोटे मामूली मसलों पर टन भर मुंह लटकाये देखता था।
 उससे भी शायद मेरी इसलिए ही अधिक बनती थी कि  वह मुस्कुरा सकती थी फूलों को खिलते देख , बच्चों की हंसी के साथ खिलखिला सकती थी , कितनी ही बार चहकते देखा मैंने उसे जब वह किसी की छोटी सी भी मदद कर पाती , कभी रसोई में अपने नए प्रयोग पर ही खुश हो लेती।
 एक दो बार ही अनमना सा देखा मैंने उसे - दो छोटे बच्चों को खेलते देख मुग्ध निहारते कुछ उदास सी ! मैंने लक्ष्य किया उसकी उदासी को तो बोल पडी , मुझे बच्चों की याद आ रही है ! हर दिन मुझे हैरान करने की उसकी यह  हरकत थी।  रोज घर से गायब रहना एक घंटे के लिए , इस पार्क में यूँ ही बैठे , अब तक जान नहीं पाया था मैं।
 तो घर चली जाओ , यहाँ क्यों बैठी हो।
 नहीं , अभी नहीं जाना है मुझे घर।  बच्चों को कुछ देर अकेले भी रहना चाहिए न !
इस रहस्य की गुत्थी मुझसे सुलझती न थी. एक दो बार लेकर भी आई थी वह उन्हें साथ ही ., दो छोटे से बहुत ही  प्यारे बच्चे थे उसके .,मोनू और स्वीटी।   पहले कुछ दिनों में जितनी चुप उदास -सी दिखी ... वह स्त्री स्वयं वही नहीं थी।