गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

नैतिकता की यह परिभाषा किसके लिए है !!!


पिछले दिनों ब्लॉग जगत में अजित जी की पोस्ट " क्या पुरुषों की बेचारगी और बढ़ेगी " में एक घरेलू समस्या का जिक्र किया गया था . पति ने एक महिला के साथ अपने सम्बन्ध/चुम्बन को अपनी गलती मानते हुए प्रायश्चित करने का संकल्प लिया और अपनी पत्नी से सबकुछ सच बता दिया , पत्नी बहुत आहत हुई , बात मारपीट और अदालती कार्यवाही तक पहुँच गयी . इस पोस्ट पर बहुत से महिला /पुरुष ब्लॉगर्स ने अपने विचार प्रकट किये . कुछ के अनुसार पुरुष गलत था , कुछ के अनुसार उसकी स्त्री , और कुछ ने उस दूसरी स्त्री को दोषी ठहराया .


अभी कल ही आराधनाजी की एक अच्छी कविता पढ़ी जिसमे वह दोस्त को संबोधित करते हुए कह रही हैं कि सही मायने में मुक्ति वही मानी जायेगी जब मुझे अपनी मित्रता के लिए अपराध बोध नहीं होगा , ना ही उसके साथ अपनी पुरानी सी ही मित्रता निभाते हुए कुलटा कहलाने का भय नहीं होगा ..

" या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथा
या कि होंठ,
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान

जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,"

कविता निस्संदेह अच्छी है . जिसका सन्देश है कि मित्रता को पुरुष और स्त्री के खांचे में नहीं बांटा जा सकता है . जिस तरह दो पुरुषों या दो स्त्रियों की मित्रता समाज द्वारा मान्य है , एक पुरुष और स्त्री की मित्रता पर सवाल क्यों उठाये जाए . उसे भी सहज मित्रता के रूप में ही क्यों ना लिया जाये , उसे अशालीन या शालीनता से परिभाषित क्यों किया जाए.

यह तो हुए दोनों प्रविष्टियों की बात . अब मेरे दिल और दिमाग की रस्साकशी यह है कि है कि जो लोंग अजित जी कि पोस्ट पर अपनी महिला मित्र का चुम्बन लेने को अनैतिक मानते हुए उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ा आये , उनकी पत्नी द्वारा उठाये गये क़दमों को उसके साहस से जोड़ कर पीठ ठोंक आये , वे इस कविता को कैसे पसंद कर सकते हैं .
आखिर इस कविता में भी तो यही कहा गया है कि सच्चे अर्थों में मित्रता वही है कि एक स्त्री या पुरुष के रिश्तों पर शादी होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए.

उलझ गयी हूँ मै नैतिकता की यह परिभाषा जिसे हम क्या सिर्फ पुरुष के लिए होनी चाहिए , या सिर्फ स्त्रियों के लिए होनी चाहिए या दोनों के लिए समान ही हो ....

शिखा जी ने भी यहाँ एक समसामयिक संतुलित दृष्टिकोण रखा है .
लिव इन रिलेशनशिप में ज्यादा फायदा किसे है , और यदि इन रिश्तों में कानून दखल करता है और वही अधिकार देता है जो एक पत्नी को मिलने चाहिए तो फिर विवाह करने में क्या आपत्ति है , क्या सिर्फ इस भय से लोंग विवाह नहीं करना चाह्ते कि तलाक मिलने में परेशानी होगी तो इसका अर्थ तो यह ही हुआ कि अविश्वास तो इन रिश्तों में पहले से ही है , तो जो लोंग प्रेम के कारण रिश्ते या विवाह करना चाह्ते हैं , वे ऐसे रिश्तों को अपनी सहमति कैसे दे सकते हैं जिनमे प्रेम या विश्वास पहले कदम पर ही नहीं है ...

यह समय गंभीरता से मनन का है स्त्री मुक्ति के नाम पर हम कहीं एक अंधी खाई की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं या फिर पुनः पाषाण युग को आमंत्रित कर रहे हैं , एक सार्थक बहस के लिए आप आमंत्रित हैं !

कल करवा चौथ है ...अखंड सौभाग्य की कामना रखने वाले सभी व्रतियों और जिनके लिए व्रत रखा गया , उन सबको बहुत शुभकामनायें!

51 टिप्‍पणियां:

  1. अगर हमें स्त्री मुक्ति के नाम पर स्वतंत्रता नहीं... स्वछंदता चाहिए तो ... ऐसे में अंधी खाई में तो गिरेंगें ही......

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  2. समय कम है और आपने लिंक भी पकड़ा दिए हैं -दरअसल इसी दिक्काल में सोच और चेतना के विभिन्न स्तरों पर लोग जी रहे हैं ....
    मैं व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को ज्यादा सम्मान देता हूँ इसलिए आराधना की कविता मुझे ज्यादा स्वीकार्य और सहज लगी ...हाँ ऐसी स्वतंत्रता देश काल से थोडा तारतम्य बिठा सके तो ठीक हैं नहीं तो यह भी ठीक है -
    लीक छोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत

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  3. स्त्री और पुरुष निःसंदेह अच्छे मित्र होते हैं , पर समाज की सोच जो चलती है- वह बड़ी वीभत्स होती है .! पुरुष की संख्या अधिक है बहकने की , पर स्त्रियाँ भी इस श्रेणी में हैं . ऐसे पति, ऐसी पत्नी के साथ संबंध निभाने का तुक समझ में नहीं आता - यदि बच्चे इसका कारण हैं तो फिर वही निष्ठा होनी चाहिए - फिर उसी प्रसंग पर तू तू मैं क्या ! बच्चे तो इसमें पिसते ही हैं - उनके नाम पर कलह की अवधि क्यूँ बढ़ानी...
    अजीत जी के पोस्ट में पति ने जो किया , उसने स्पष्तः स्वीकार किया - इसे पश्चाताप ही कहेंगे . प्रसंग बहुत दुःख देगा . पर सच्चाई को भी देखना है (वैसे निर्णय पत्नी का भी सही है... वह नहीं स्वीकार कर सकी) ! पर जिसने इतना कहा , उसमें संभावनाएं जोड़ना सही नहीं ..... इतना ही हुआ होगा भला '
    नैतिकता की परिभाषा दोनों के लिए समान है , पर - एक सागर है , एक नदी - यह संतुलन नहीं बिगड़ना चाहिए . ' अति ' के विरोध में स्त्री दुर्गा बने , सही है- पर आजीवन दुर्गा !!! पुरुष एक स्तम्भ है , अगर स्तम्भ खोखला है तो उसे मुक्त करें , खुद भी मुक्त हों - पर मात्र संदेह के आधार पर खुद को बीमार न करें .

    स्त्री मुक्ति का अर्थ है - गलत से परे होना , पुरुष बन जाना नहीं - और यही बात लोगों को समझ में नहीं आ रही ------- कई बार लगता है कि अब मुक्ति के नाम पर स्त्री अपना वर्चस्व चाहती है और पुरुष को स्त्री के रूप में ट्रीट करती है . इसका उत्तरदायी वह समाज वह परिवार है , जिसने उसे इतना चुप कराया कि वह मानसिक रूप से गड़बड़ हो गई . किसी संबंध को जबरदस्ती नहीं टीका के रखें ' लोग क्या कहेंगे ' के नाम पर . इनलोगों में आप हम ही आते हैं , और जरा झाँक के देखिये तो सही किसके घर का क्या सच है . मेकप से कब तक चेहरा सुन्दर लगेगा , पानी से धोते असलियत सामने !!! और अपनी असलियत हम जानते हैं , दूसरे क्या तय करेंगे . गाली का दंश , ऊँगली उठाने का दंश , बात बात पर नीचा दिखाने का दंश वे क्या जानेंगे ...
    अपने साथ साथ अपने आस पास की नींद न उड़ायें , न बच्चों को निराधार बनायें ... उनके अन्दर यह प्रश्न न दें कि यदि गलत है तो क्यूँ ढोना ! उनका भी एक सर्किल होता है - उनकी भी सोच होती है , जिस पर हम अपनी और समाज की सोच नहीं लाद सकते .

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  4. सभी के विचारों को यहाँ बेनकाब किया गया है जो दोहरे मापदण्‍ड रखते हैं। पहले जमाना था कि पुरुष जो करे वह सत्‍य लेकिन स्‍त्री जो करे वो गलत। लेकिन फिर भी उन सबसे बड़ा परिवार था और प्रयाय यही रहता था कि परिवार ना टूटे। बच्‍चे माता-पिता के प्रेम से वंचित ना रह जाएं। लेकिन अब स्‍त्री कहती है कि मैं जो करूं वह सत्‍य लेकिन पुरुष जो करे वह दंडनीय अपराध। परिवार और बच्‍चे गौण हो गए हैं, बस अहम ही शेष रह गया है। नारी मुक्ति का आशय यह कदापि नहीं है। परिवार से मुक्‍त होने का अर्थ है सुरक्षा चक्र से मुक्ति। मुझे तो कई बार लगता है कि हम पुरुष के पक्ष में खड़े हैं, पूर्ण समाज को मुक्‍त कर देना चाहते हैं। विवाह संस्‍था और परिवार संस्‍था को छिन्‍न-भिन्‍न कर देना चाहते हैं जिससे पुरुष को महिला को पाने में सुविधा हो जाए। या समाज को पशुओं का झुण्‍ड बना देना चाहते हैं जहाँ मादा बहुतायत में होती हैं और नर एकाध ही होता है। चरित्र की परिभाषा यदि बदलनी है तो वह दोनों के लिए ही बदलनी होगी। पुरुष भोगवादी है तो अपराधी है लेकिन महिला भोगवादी बन जाए यह उसकी बलवती इच्‍छा है? इस इच्‍छा का हम समर्थन कर रहे हैं, जैसा कि उस कविता में लोगों ने किया है।

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  5. वाणी जी

    जहा तक मैंने अजित जी की पोस्ट पढ़ी है वहा पर स्त्री पुरुष की मित्रता की बात नहीं बल्कि मूल रूप से विवाहेतर संबंधो की बात है जबकि आराधना जी की कविता पुरुष के साथ मित्रता पर है ये दो अलग विषय मुझे तो दिख रहे है इनमे कोई भी समानता नहीं है | किसी विपरीत लिंग के साथ मित्रता को तो मै भी बुरा नहीं मानती हूँ किन्तु विवाह के अलावा किसी के साथ वैवाहिक संबंधो जैसा कोई प्रेम सम्बन्ध इसे स्वीकार नहीं कर सकती चाहे पति करे या पत्नी |

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  6. यही मैं कहना चाह रही थी कि वहां हम उस पुरुष को गलत ठहरा आये ,वह महिला उसकी मित्र ही तो थी और उसने ईमानदारी से अपने रिश्ते को स्वीकार किया , वहां कथित नारीवादी ब्लॉगर्स की सहानुभूति पत्नी के साथ थी, तो फिर वे इस कविता को पसंद क्यों कर रही है ..

    आराधना की कविता पर हम स्त्रियाँ अपने लिए वैसी ही स्वतन्त्रता चाह रहे हैं , ऐसी दोहरी नैतिकता क्यों ... स्त्रियों के अधिकार के लिए लड़ते कहीं हम भी तो एकपक्षीय नहीं होते जा रहे हैं!! स्त्री के प्रति आदर-सम्मान जब तक दिल से नहीं उपजेगा , सिर्फ कानून क्या करेगा ...
    कल कहीं पढ़ा कि जब तक निभे ,साथ रहो , बच्चो की जिम्मेदारी सरकार ले ...बिलकुल जानवर ही बन जाना चाह्ते है!!!

    @ मेरी पोस्ट में मित्रता को शारीरिक संबंधों से ना जोड़ा जाये!

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  7. @ नहीं , वहां बात विवाहेतर सम्बन्ध की नहीं थी , उक्त व्यक्ति की पत्नी ने और कुछ टिप्पणीकर्ताओं ने इसकी सम्भावना व्यक्त की थी जैसा कि रश्मि जी ने अपनी टिप्पणी में भी लिखा !

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  8. स्त्री-पुरुष की मित्रता को समाज आज भी स्वीकार नहीं कर पाया है। इस मित्रता को लेकर लोगों का नजरिया अलहदा ही है।

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  9. वाणी जी

    मैंने पोस्ट अच्छे से पढ़ी थी और जीतनी भी बात आई वहा कभी मित्रता जैसा कोई शब्द ही प्रयोग नहीं हुआ है पति अपराधबोध महसूस कर रहा था और प्रायश्चित कर रहा था क्या केवल किसी महिला से मित्रता कर लेने भर से मुझे नहीं लगता, जहा तक मेरा ख्याल है अजित जी ने प्रेम सम्बन्ध की भावना की बात की थी | अब तो अजित जी ही बता सकती है की पति का महिला से बस मित्रता भर भी या भावना आकर्षण के कारण कुछ समय के लिए बह कर किया गया प्रेम था | और परिवार और बच्चो के नाम पर एक दूसरे के साथ लड़ते झगड़ते साथ रहने से अच्छा है की अलग हो जाओ क्योकि इससे बच्चे पर और भी गलत प्रभाव पड़ता है उसका विकास अच्छे से नहीं होता है |

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  10. नैतिकता की परिभाषा दोनों के लिए समान होनी चाहिए ... अक्सर लोग स्त्री और पुरुष की मित्रता को गलत अर्थ में लेते हैं ... मानसिकता बदलने की आवश्यकता है ..आराधना की कविता सच ही बहुत पसंद आई ... स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अन्तर है

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  11. वह व्यक्ति पश्चाताप कर रहा था , इसकी तह में जाने की बात है , क्योंकि हमारे समाज में आज भी स्त्री पुरुष- मित्रता स्वीकार्य नहीं है , वह अक्सर विवाहेतर सम्बन्धों के रूप में ही जाना जाता है , उक्त व्यक्ति में अपराधबोध होने का एक कारण मैं यह मानती हूँ ... मैं यह मानती हूँ कि इसे स्वीकार नहीं किये जाने का महत्वपूर्ण कारण मित्रता की आड़ में स्त्रियों के छले जाने की सम्भावना रही हो .

    @ इस बात से मुझे इनकार नहीं कि यदि साथ रह कर एक दूसरे का जीवन नरक बना दिया जाए , और उससे बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़े तो उससे बेहतर है अलग रहा जाए ! यदि रिश्ते समाप्त कर दिए गये हैं तो फिर दूसरे साथी (स्त्री या पुरुष ) को प्रताड़ना क्यों दी जाये , उन्हें मुक्त क्यों न कर दिया जाए !
    हमेशा अपने माता या पिता को प्रताड़ित होते देखना उनकी मजबूरी नहीं होनी चाहिए मगर यदि कुछ प्रतिशत संभावना नजर आती है तो इस पर गौर जरुर करना चाहिए क्योंकि बच्चे माता -पिता दोनों का प्यार चाह्ते हैं !

    मैं नहीं कहती कि उक्त पुरुष सही था , उक्त स्त्री सही थी या उक्त कविता गलत है , यह कविता मुझे भी प्रिय है . मेरी इस पोस्ट का मकसद किसी को गलत या सही ठहराना नहीं बलिक , ऐसे विषयों पर अपने दिमाग और दिल में चलने वाली कशमकश को ही व्यक्त करना और और इस विषय पर अन्य व्यक्तियों की राय जानना है !

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  12. वाणी जी, आपने मेरी कविता को गलत जगह संदर्भित कर दिया है. आपने जो ये बात की है कि अजित जी के यहाँ जिन्होंने उन बातों का विरोध किया और मेरी कविता में समर्थन, तो ऐसा इसलिए कि दोनों जगह सन्दर्भ बिलकुल भिन्न हैं. यहाँ बात इरादों की है. अंशुमाला ने सही कहा है.
    मैंने वह कविता जब लिखी तो मुझे नहीं मालूम था कि ब्लॉगजगत में कोई ऐसी बहस चल रही है कि मेरी कविता विवादित हो जायेगी. कम से कम मैं दोहरी मानसिकता की नहीं हूँ और जो भी सही समझती हूँ, उसे कहने की हिम्मत रखती हूँ. लेकिन दुनिया को बहुत सी ऐसी बातें बुरी लगती हैं और हमें समाज के अनुसार चलना पड़ता है.
    मेरा मामला एकदम अलग है. पिछले दिनों मेरे कई पुरुष मित्रों की शादी हो गयी. उनमें से एक जो मेरा बहुत अच्छा मित्र है और इस समय दिल्ली में ही आई.ए.एस. की ट्रेनिंग में हैं, ने मुझे ट्रीट देनी चाही, तो मैंने उसे सिर्फ़ इसलिए मना कर दिया कि हो सकता है कि उसकी पत्नी को यह बात अच्छी ना लगे. जबकि जब हम एक साथ सिविल की तैयारी कर रहे थे, तब रात-रात भर जागकर पढ़ते थे और जब ऊब जाते थे, तो फ़िल्में देखते थे, कभी ग्रुप के साथ, तो कभी केवल हम और वो. उसने मुझसे पूछा भी कि मेरी और तुम्हारी दोस्ती के बीचमे मेरी पत्नी कहाँ से आ गयी? तो मैंने कहा कि अब वो तुम्हारी आधे की हिस्सेदार है, और मैं तुम्हारे साथ तब चल सकती हूँ जब उसकी अनुमति हो.'उस समय मुझे जो ठीक लगा मैंने कह दिया, लेकिन यह प्रश्न मेरे दिमाग में है कि क्या शादी के बाद व्यक्ति की निजता एकदम खत्म हो जानी चाहिए?
    लड़कियाँ तो वैसे भी शादी के बाद सहेलियों से दूर हो जाती हैं, लेकिन लड़कों की शादी के बाद मुझे दूर होना पड़ता है उनसे. सबको मालूम है कि मैं अविवाहित हूँ और ऐसी लड़कियों से किसी शादी-शुदा मर्द का मिलना-जुलना अच्छा नहीं माना जाता, चाहे वो पहले कितने ही अच्छे दोस्त क्यों ना रहे हों.
    अब मेरा एक दोस्त है, जिसकी शादी एकभी तक नहीं हुयी है, और मुझे डर लगता है कि शादी के बाद उससे भी दूर होना पड़ेगा. ये कविता उसी दोस्त के लिए है.
    मेरे ख्याल से यहाँ 'चूमने' की बात से गलतफहमी पैदा हो गयी है, तो सच ये है कि मैं इसे प्यार जताने का एक सबसे प्यारा माध्यम मानती हूँ, लेकिन यहाँ भी वही टैबू कि इसे 'सेक्स' से जोड़ दिया जाता है. जब हम बच्चों को चूमते हैं तो क्या हमारे मन में बुरे ख्याल आते हैं? तो यहाँ बात इरादों की है.
    हमारा समाज एक दोगला समाज है, यहाँ छुप-छुपकर कुछ भी करो जायज है, पर वही बात पता चलने पर हल्ला हो जाता है.
    मेरे ख्याल से नैतिकता ऊपर से थोपी जाने वाली चीज़ नहीं है, यह अंदर से आती है. मुझे लगता है कि हर बात में पारदर्शिता होनी चाहिए, जो भी हो सामने हो, ताकि उसमें 'इरादों' को भांपकर कोई भी फैसला लेने में सहूलियत हो.

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  13. @ आपने मेरी पोस्ट को गलत अर्थ में लिया है , आपकी कविता मुझे भी प्रिय है , सन्दर्भ इस विषय पर दोनों तरह की सोच का है , इस पोस्ट पर मेरी और अन्य टिप्पणियों को पढ़ोगी तो शायद ठीक से समझ पाओ कि मैं क्या कहना चाह रही हूँ !

    अजित जी की पोस्ट में यही था कि उस व्यक्ति ने मित्रतावश स्त्री का चुम्बन लिया जिसके कारण उसे अपराध बोध हुआ और उसने अपनी पत्नी के सामने प्रायश्चित स्वरुप इसे स्वीकार किया . यदि स्त्री पुरुष की मित्रता को अपराध बोध के रूप में नहीं माना जाता तो शायद उस व्यक्ति को प्रायश्चित करने की नौबत ही नहीं आती और स्थितियां इतनी विकट नहीं होती ! और आपकी कविता में भी यही भाव है !

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  14. लोग स्वछंदता में जीत-सुख के अभिलाषी हो गए है। शान्तिप्रिय जीवन की मनोकामना से वंचित है। सत्ता का अहंकार-लोभ सुखकर जीवन को बाधित कर रहा है। कुटुम्ब भावना का सर्वनाश है यह। परिवार भावना में समर्पण को हार और बंधन की दृष्टि से देख रहे है। यह नारी-पुरूष अपने अलग अलग किले बना रहे है। अभिमान को स्वाभिमान नाम देकर अपने अपने किले की दीवारे उंची उठाने में लगे है। समरसता का गुण त्याग कर अपने अपने घेरे के बाहर गहरी खाईयां खोदने में व्यस्त है ताकि प्रतिपक्षी उसमें गिर कर समाप्त ही हो जाय। सहजीवन सहायक की जगह शत्रु ही मान लिया गया है, एक दूसरे पर आक्रमण का कोई भी मौका नहीं चुकना चाहते।

    मानव मन के सदाचार, पश्चाताप और प्रायश्चित को संदेहास्पद बनाकर, माफ़ी और क्षमा की उपयोगिता को ही नष्ट करने पर उतारू है। आज लोगों को द्वेष, घृणा और क्रोधमय जीवन स्वीकार है। सुखमय जीवन के लिए इन दुर्गुणों को दूर करने में कत्तई रूचि नहीं है। बदले की मानसिकता में जीना है और मौका आने पर प्रतिशोध ही लेना है। भले यह बदले का कुचक्र जीवन भर चलता रहे या जीवन और परिवारों को बर्बाद ही क्यों न कर दे। हर गलती का निराकरण प्रायश्चित ही होता है। कोई भी सज़ा फिर चाहे वह घृणा, मारपीट, या कानूनी सज़ा ही क्यों न हो, किसी भी ‘गलती’ को ‘सही बात’ में बदल देनें में समर्थ नहीं। पश्चाताप, प्रायश्चित और क्षमा ही अन्तिम निदान होता है। जो लोग मामले को क्षमा पर खत्म नहीं करते अन्ततः जीवन बर्बाद ही करते है।

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  15. मेरे ख्याल से तो मुक्ति की कविता और अजीत जी कि पोस्ट दोनों भिन्न हैं. मुक्ति की पोस्ट में बात मित्रता की है.और अजीत जी कि पोस्ट में विवाहेत्तर संबंधों की हालाँकि बात वहाँ सिर्फ चुम्बन की ही गई है पर पर बात इतनी ही होगी भला ?या वहाँ यह मित्रता की नियत से किया गया?अगर ऐसा होता तो उसे इतना अपराधबोध क्यों सालता?और यहाँ तक नौबत क्यों आती?

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  16. जैसा कि आराधना ने मेल में कहा ....

    मैं आपका मंतव्य समझ गयी हूँ, दरअसल मैंने अजित जी की पोस्ट नहीं पढ़ी थी, इसलिए समझ नहीं पायी थी. मैं भी कभी-कभी बहुत दुविधा में पड़ जाती हूँ कि क्या सही है क्या गलत. पति-पत्नी के बीच कितनी पारदर्शिता होनी चाहिए और कितनी निजता. मेरे विचार से हम सभी आधुनिक होते हुए भी संस्कारों के बंधन पूरी तरह तोड़ नहीं पाते, इसीलिये ज्यादा परेशान रहते हैं. जो पूरी तरह रूढ़िवादी हैं या पूरी तरह आधुनिक हैं, उन्हें शायद ये परेशानी ना होती हो.
    आप इसे टिप्पणी के रूप में प्रकाशित भी कर सकती हूँ.

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  17. @पुनरागमन:
    "हमारा समाज एक दोगला समाज है, यहाँ छुप-छुपकर कुछ भी करो जायज है, पर वही बात पता चलने पर हल्ला हो जाता है." आराधना की इस बात से सहमत होते हुए यह भी जोड़ता हूँ कि यह साब वर्जनाएं भारत की थाती हैं ,ऐसी आलतू फालतू बातों के पीछे पड़कर लोग अपना जीवन बर्बाद करते जाते हैं और एक माईंडसेट बना लेते हैं ...मर्जी से वजूद में आ गए विवाहपूर्व विवाहेतर सम्बन्ध होते तो हैं मगर यहाँ उसे ढाक छिपा कर रखते हैं ..जबकि भारतीय सिनेमा ने काफी पहले ही यह पुरजोर अपील कर दी थी -प्यार किया तो डरना क्या?:)यहाँ खब्तू ,किसी काम के भी नहीं निखट्टू पति के साथ रिश्ता निभाते रहने की घुटन है ,कर्कशा नारी के साथ निर्वाह करने की विवशता है ...इसलिए कि समाज क्या कहेगा? मैं इन मामलों में पश्चिम के चेतना स्तर की सराहना करता हूँ -घुटन की जिन्दगी बर्दाश्त नहीं है -और इस मामले में खुद भी किसी दोहरे मापदंड को नहीं पसंद करता ....

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  18. दोनो का विषय ही अलग है मगर जहाँ तक सोच की बात है तो सोच मे ही बदलाव की जरूरत है चाहे मुक्ति जी की कविता हो या अजीत जी का आलेख्।

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  19. क्युकी आप ने लिंक भेज कर कमेन्ट करने का आग्रह किया हैं वाणी जी इस लिये ही कर रही हूँ अन्यथा दो विभन्न विषय हैं अजीत जी की पोस्ट और मुक्ति की कविता . और मुक्ति की कविता हैं अभिलाषा/कल्पना हैं वही अजीत जी की पोस्ट एक हकीकत . मैने मुक्ति की कविता पर कहा हैं की "गुड पोएम " यानी एक अच्छी कविता . मुक्ति की कविता का शब्द नियोजन और भाव एक बहुत बढ़िया कविता को जनम दे रहे हैं . कविता पर उसने की बहस की कामना नहीं की हैं . अजीत जी ने एक समस्या रखी थी और निदान माँगा था लोगो ने दिया और नैतिकता और विवाह में नैतिकता और पारिवारिक हिंसा इत्यादि पर बात की हैं
    आप ने दोनों को पढ़ा और आप ने मुक्ति की कल्पना को जीवित होते देख लिया ये आप की सोच हैं . जबकि अगर मुक्ति की कल्पना सच हो जाती हैं तो फिर उस समय नैतिकता की बात नहीं होगी क्युकी उस समय चुम्बन से क़ोई पश्चाताप नहीं होगा क्युकी उसमे वासना नहीं होगी यानी जेंडर से ऊपर उठ कर बात होगी जो आम लोग सोच ही नहीं सकते . चलते चलते एक कविता सुनाती हूँ कभी मैने भी लिखी थी

    एक संवाद

    अनैतिकता बोली नैतिकता से
    क्यो इतना इतराती हो
    मेरे प्रेमी के साथ रहती हो
    और पति है वह तुम्हारा
    बार बार मुझे ही समझाती हो
    कभी मेरी तरह अकेले रह कर देखो
    अपने सब काम खुद करके देखो
    पुरुष को प्यार सिर्फ और सिर्फ
    उसके प्यार के लिए कर के देखो
    सामाजिक सुरक्षा कवच
    पुरुष को तुम बनाती है
    समाज मे अनैतिकता तो
    तुम भी फेलाती हो
    फिर बार बार
    नैतिकता का पाठ
    मुझे ही क्यो पढाती हो ??

    http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2008/01/blog-post_29.html

    हमारे समाज में हर रिश्ते और हर व्यक्ति के लिये दोहरे माप दंड हैं इस लिये नैतिकता और अनैतिकता सिक्के के दो पहलु की तरह हैं जब देखो हेड एंड टेल की तरह लोग इसका इस्तमाल करते हैं

    पूरी पोस्ट में ये नहीं पता चला की आप के लिये क्या क्या सही था मुक्ति की कल्पना , अजीत की कहानी या आप केवल दूसरो की राय से निष्कर्ष निकलेगी की किस तरफ वोट ज्यादा पडे !!!!!!!!!!

    Some more links related to this post

    http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/05/blog-post_24.html

    http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/10/blog-post_12.html

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  20. if nay furthur clarification is need on my comment the readers will have to wait as i will be away from bloging for few days
    regds

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  21. जहाँ एक ही कृत्य की सामाजिक मान्यताएँ स्त्री और पुरूष के लिये भिन्न भिन्न हों वहीं से तो मुक्ति आदि की बातें जन्म लेती हैं. मुक्ति = स्वच्छन्दता स्वीकार नहीं की जानी चाहिए.

    जवाब देंहटाएं
  22. वाणी जी,

    अजीत जी की पोस्ट और आराधना जी की कविता एक ही विषय के तुलनात्मक अभिप्रायः के लिए सार्थक प्रस्तुति है। इसलिए भिन्न विषय में खपाना उपयुक्त नहीं है।

    @ "जबकि अगर मुक्ति की कल्पना सच हो जाती हैं तो फिर उस समय नैतिकता की बात नहीं होगी क्युकी उस समय चुम्बन से क़ोई पश्चाताप नहीं होगा क्युकी उसमे वासना नहीं होगी यानी जेंडर से ऊपर उठ कर बात होगी जो आम लोग सोच ही नहीं सकते."

    रचना जी,

    हमउम्र मित्र के होठों पर बिना वासना वाला चुम्बन? विश्वास नहीं होता। वाणी जी यही कह रही है कि (कविता के सन्दर्भ से) कि एक लडकी यह चुम्बन कामना करे तो वासना रहित और लडका करे तो वह चुम्बन से आगे के सन्देह सहित?

    और चुम्बन पश्चात अपराध बोध आ जाय तो अनैतिक, और उछ्रंखलता से परवाह न करे तो नैतिक? यह कैसा मापदंड है। पश्चाताप अपराध और ठीठता नैतिक?

    यह् बात आपने सही कही कि……
    "नैतिकता और अनैतिकता सिक्के के दो पहलु की तरह हैं जब देखो हेड एंड टेल की तरह लोग इसका इस्तमाल करते हैं"

    जवाब देंहटाएं
  23. नयी राह निकले पर इतनी भी तेजी से न बदले कि भटकन हो जाये।

    जवाब देंहटाएं
  24. वाणी,
    आसक्ति और दोस्ती में फर्क है...अजित जी की पोस्ट में जिस घटना का जिक्र है..वहाँ उन दोनों में सिर्फ दोस्ती नहीं थी...उन्होंने शुरुआत में ही लिखा है...वो एक दिलफेंक औरत थी...( ये 'दिलफेंक' शब्द मैं सिर्फ उद्धृत कर रही हूँ..इसमें मेरी सम्मति नहीं है.) पर इस शब्द से ये भाव ही आए कि उन दोनों के बीच पाक-साफ़ दोस्ती नहीं थी. पति को भी अपराध बोध हुआ इसका अर्थ उसके मन में भी उस स्त्री को लेकर सिर्फ दोस्ती वाले भाव नहीं थे. और जब निर्दोष दोस्ती नहीं थी तो इसे कोई भी पत्नी कैसे स्वीकार करे ??

    अजित जी ने अपनी पोस्ट में उस महिला के सम्बन्ध में कहा है...
    "वह महिला कुछ दिलफेंक अंदाज की है। बाते रूमानी सी करती है और आगे होकर सम्‍बन्‍ध बनाती है। विनोद जब भी भुवनेश्‍वर जाता, उससे मुलाकात हो जाती। कई बार मुम्‍बई में भी उसके फोन आ जाते। एक बार भुवनेश्‍वर में मुलाकात के दौरान एक चुम्‍बन भी हो गया।

    अब इन पंक्तियों से उन दोनों के बीच सिर्फ मित्रता की बात कैसे मानी जाए??

    तुमने अपनी प्रतिटिप्पणी में कहा है..

    "अजित जी की पोस्ट में यही था कि उस व्यक्ति ने मित्रतावश स्त्री का चुम्बन लिया जिसके कारण उसे अपराध बोध हुआ और उसने अपनी पत्नी के सामने प्रायश्चित स्वरुप इसे स्वीकार किया . यदि स्त्री पुरुष की मित्रता को अपराध बोध के रूप में नहीं माना जाता तो शायद उस व्यक्ति को प्रायश्चित करने की नौबत ही नहीं आती और स्थितियां इतनी विकट नहीं होती ."

    मित्रता में रूमानी बातें कब से होने लगीं??..:)

    (अब पति ने माफ़ी मांगी..पत्नी ने माफ़ नहीं किया...यह एक अलग विषय है...क्यूंकि सबकी सहनशक्ति (tolerance level )अलग-अलग होती है...कुछ पति के सैकड़ों गुनाह माफ़ कर देती है...और कोई एक गुनाह भी नहीं)

    नैतिकता की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग है...कुछ के लिए पर-पुरुष का हाथ पकड़ लेना ही बहुत बड़ा अपराध है...और कुछ के लिए गले लगाना भी नागवार नहीं .
    वैसे अगर स्त्री-पुरुष में सच्ची दोस्ती हो...किसी तरह की आसक्ति नहीं तो...उसे शक की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए. पर ये तब होगा जब इस तरह स्त्री-पुरुष मित्रता आम हो जायेगी. जबकि हमारे समाज में आज भी महिला और पुरुष जबतक किसी रिश्ते में ना बंधे हों...खुलकर नहीं मिल-जुल सकते. और अगर मिलते-जुलते हैं तो लोगो की भृकुटी पर बल पड़ जाते हैं.

    मुक्ति ने अपनी टिप्पणी में शादी के बाद अपने दोस्त से दूर हो जाने की बात कही है कि कहीं उसकी पत्नी को कोई शक ना हो....आशंका इसलिए है क्यूंकि जरूरी नहीं कि उसकी पत्नी का भी यूँ खुलकर दूसरे लडको के साथ पढना-लिखना...उठाना-बैठना हो. इस रिश्ते को वही समझ सकता है जिसके पास खुद भी ऐसा ख़ूबसूरत रिश्ता हो. और जैसे जैसे लडकियाँ घर से बाहर निकल काम करेंगी...सहकर्मियों के साथ मिलना-जुलना भी होगा...और ये सब शक की दृष्टि से नहीं देखा जाएगा. कम से कम महानगरो में तो ये प्रचलन शुरू हो गया है...महिला/पुरुष अपने दोस्त एक्स-कलीग से मिलते हैं..और उनके जीवनसाथी जान -बूझकर साथ नहीं जाते कि तुम दोस्तों के बीच हम क्या करेंगे ...

    बस ऐसे उदहारण आम हो जाएँ फिर हमें ऐसे बहस की जरूरत नहीं पड़ेगी..:)

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  25. सब असल मुद्दे से ही हट कर बात कर रहे हैं. अरे भाई, ये क्या नारी - पुरुष लगा रखा है. "पुरुष के लिए कैसे सही है और अगर है तो नारी के लिए कैसे नही","नारी मुक्ति और लाचार पुरुष" हम आखिर हर छोटी छोटी बात पर भी इतना बवाल क्यूँ मचा देते हैं. वक़्त आ गया है कोरी, चुक चुकी परिभाषाओं से बाहर निकलने का.

    हमारा जन्म इन्द्रियों के साथ इसलिए हुआ कि हम उनके माध्यम से इस संसार को जाने समझे और अपनी दैविकता को पहचाने. हमारा शरीर माध्यम है,दरवाजा है, एक दूसरे के 'उस' तक पहुचने का, उस 'उस' तक जिसे - मन कहो, आत्मा कहो या ईश्वर तत्व कहो....

    शरीर को नकारो भी मत और नाही उसे बेवजह तूल दो. 'मित्रता' भी और संबंधों कि तरह ही एक सम्बन्ध है और मित्रों में भी बहुत सहज और स्वाभाविक ढंग से शारीरिक सम्बन्ध बन सकते हैं, ठीक उसी प्रकार, जैसे दो मित्र एक दूसरे से हाथ मिलाते हैं, गले लगते हैं, या गाल या माथे पर चुम्बन अंकित करते हैं.

    शारीरिक सम्बन्ध को हम जब तक पाप की तरह देखना नही छोड़ेंगे, उसको सहजता से नही लेंगे, हम उसके आवेश से मुक्त नही हो पाएंगे. हम जीवन पर्यन्त अपने ही शरीर और उसकी जरूरतों से लड़ते रहते हैं, उसे एक हद की बेड़ियों में जकड़ कर रखना चाहते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि समय - असमय वह फुफकारने लगता है और फिर ऐसी हालत में हम उससे मुक्त कैसे हो सकेंगे.

    पाश्चात्य समाज ने हर तरह की की कुरीतियों और भौतिकवादिता के बावजूद तरक्की की, उसका एक महत्वपूर्ण कारण था, उन्होंने शारीरिक संबधों को एक उम्र तक ही सीमा में रखा और फिर आज़ाद कर दिया. व्यक्ति के निर्णय को उसकी सूझ - बूझ और परिपक्विता पर छोड़ दिया. हर एक को अपना निर्णय लेने और उसके हिस्से के फल के साथ छोड़ दिया गया. पर कहीं भी उन्होंने शारीरिक सम्बन्ध को नाकारा नही ही बल्कि उसे व्यक्तिगत
    सम्मान से नवाजा.

    और हमने, जिन्होंने, पूरे विश्व को 'संपूर्णता का ज्ञान दिया - शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की विस्तार से व्यख्या की, बताया कि यह तीनो ही सीढियाँ हैं 'स्वयं' तक पहुचने की. दुर्भाग्य ही कहें, कि हम ही खो गए हैं. वर्षों पहले जिस देश ने काम-सूत्र और तंत्र का विज्ञान दिया, खजुराहो के मंदिर में खुल कर सम्भोग को बिना किसी 'छि ... छि' के दर्शाया, शरीर सुख और प्रेम को एक दूसरे का अभिन्न अंग माना और बताया की इनमें कोई वैचारिक मतभेद ही नही. व्यक्ति के प्रकार और प्रकृति के अनुसार, सबकी अलग अलग जरूरतें होती हैं.

    खजुराहो के मंदिर इसी के सूचक हैं और वहां कि सारी मूर्तियाँ मंदिर के परिधि में इसीलिए रखी गयी हैं, ताकि हम उनसे गुजरें, गुजरने का मतलब है, उन्हें देखें- समझें, उन्हें स्वाभाविक और सम्मानजनक
    मान कर ही, हम मंदिर के गर्भ गृह में 'मुक्त भाव' से प्रवेश करें. हमारे ज्ञानी पूर्वजों को अच्छी तरह हमारी कमजोरियों और प्रवृतियों कि समझ थी, इसलिए उन्होंने शरीर और सुख को दैविक बताया. कहने का तात्पर्य बस इतना है शरीर को हम जितना नकारते जायेंगे उतना ही हम उसके साथ अटकते - जुड़ते जायेंगे. या तो हम उसे भोगने में लिप्त रह जाते हैं या फिर उसे नकारने में अपनी बहादुरी समझ बैठते हैं. दोनों ही स्तिथि में हम ही हार जाते हैं.

    जैसे कुछ पुरुष 'भोग' को अपना स्वभाव और अधिकार मानते थे, ठीक उसी तरह आज' कुछ' स्त्रियाँ, मुक्ति के नाम पर, उसी शरीर को जिसे कल तक पुरुष के सानिध्य में गंदगी और गंदे विचारों की संज्ञा दे रहीं हैं, और मुक्त होने के उन्माद में आज खुद शारीरिक सम्बन्ध को भोग्य मान रहीं हैं और उन कुछेक पुरुषों की ही भांति लिप्त होना चाहती हैं. नारी को नारी होते हुए मुक्ति चाहिए थी या वो प्रतिस्पर्धा में पुरुष हो जाना चाहती है, यह निर्णय अब नारियां ही करें तो बेहतर होगा.

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  26. सच पूछिए तो कुछ भी नही बदला है, लोग भर बस बदल गए हैं. हम कुछ भी कहें, कितनी भी तरक्की कर लें, इन मुद्दों से हम मुक्त हो ही नही पाए आज तक. कोई भी मुद्दा हो, हर मुद्दे को, हर प्रश्न को हम 'नैतिकता' और 'अनैतिकता ' के परिभाषा से तोलने कि भूल करते हैं. क्यूँकी हम उसी के आदी हैं या फिर हम बड़ी चालाकी से असहज मुद्दों और खुद पर से ध्यान हटाने की खातिर, 'नैतिकता' और 'अनैतिकता ' की चर्चा करके, उनसे बच निकलते हैं. .

    शरीर और शारीरिक, जिस्म और जिस्मानी बातों को इतना तूल ही क्यूँ देना है. यह बातें बहुत संवेदनशील हैं, सुसुप्त संस्कारों और भावनाओं से प्रेरित होती हैं और हम कितनी भी चर्चा कर लें, मूर्खता ही होगी, क्यूँकी व्यक्तिगत होने के साथ साथ, यह बहुत ही सूक्षम स्तर पर कार्य करती हैं. व्यक्ति, काल और परिस्थिति के अनुसार, जैसे सच का स्वरुप बदलता रहता है, जैसे एक की दवा दूसरे के लिए जहर हो सकती है, ठीक उसी तरह, एक उम्र के बाद इन मुद्दों को व्यक्तिगत मान कर छोड़ देना ही सही होगा. इन मुद्दों में फंसे रहने कि बजाय, हम अपनी 'उर्जा' को बहु आयामी ढंग से विकसित होने का मौका दें क्या ये बेहतर नहीं होगा? .

    चलते चलते कहता चलूँ - हमारे यहाँ तो ऐसे लोग भरे परे हैं, जो न खुल के 'खा' पा रहे हैं और ना ही 'छोड़' ही पा रहे हैं, उनकी पूरी ज़िन्दगी करवटें बदलते, ठंडी आहें और सिसकियाँ भरते निकल जाती है. अगर 'खाया' - तो उनके अपने ही संस्कार 'ग्लानी और अपराध बोध' देते हैं, और 'ना खाया' तो - अन्दर ही अन्दर रोष, द्वेष, ईर्ष्या , आपसी तनाव में सुलगते रहते हैं. उनके लिए मेरा सुझाव होगा - 'जो करना है कर लो और 'कर के' मुक्त हो जाओ यार. सबसे बुरी तरह तो वो बेचारे फंसे है, जिन्होंने कुछ किया भी नहीं और मुन्नी की तरह बदनाम भी हो गए. 'जातो गवाया भातो न खाया' श्रेणी के लोग.

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  27. नैतिकता क्या है ?
    सही क्या है ?
    और ग़लत क्या है ?
    इसे केवल ईश्वर ही जानता है और इसे वही तय करता आया है हमेशा से।
    अपनी वाणी के माध्यम से ईश्वर ने यही ज्ञान मनुष्य को हरेक देश-काल में सुलभ कराया है।
    जब मनुष्य ने ईश्वरीय ज्ञान के आलोक में चलना छोड़ दिया तो वह भटक गया और अब जितने मुंह हैं उतनी ही बातें हैं।
    इस भ्रमजाल से मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि इंसान ‘सन्मार्ग‘ पर वापस न आ जाए जिसके लिए वह गायत्री मंत्र में प्रार्थना करता है।

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  28. सबने अपनी-अपनी तरह से अर्थ निकाल लिया, बिना कविता को समझे. मैंने चूमने वाली बात पहले कही है और शादी के बाद भी मित्रवत सम्बन्ध बना रहे यह बात बाद में कही है, और ये भी कहा है कि हम सारी रात गप्पें मारते रहें. मैं खुद अगर स्वच्छंदता का समर्थन करती तो अपने पुरुष मित्रों के विवाह के बाद उनके साथ बिना उनकी पत्नी की अनुमति के घूमने से मना ना करती.
    मैंने पहले ही कहा है कि बात सिर्फ़ इरादों की है. जैसा कि मैंने रश्मि दी से भी कहा कि यदि आपके मन में सेक्सुअल भाव हैं तो किसी का हाथ पकड़ना भी सेक्सुअल ऐक्ट हो सकता है और यदि आपके मन में ऐसी कोई बात नहीं है तो आप उस व्यक्ति को कहीं भी चूम सकते हैं.
    होठ चूमना हमारे देश में सेक्सुअल ऐक्ट समझा जाता है, जबकि पाश्चात्य देशों में भाई-बहन भी एक दूसरे का होठ चूम लेते हैं, क्योंकि उनके यहाँ प्रेम की अभिव्यक्ति का यह तरीका सामान्य माना जाता है. मुझे तो कम से कम यही लगता है कि इसमें कुछ बुरा नहीं है, हाँ, हमारी संस्कृति में शायद बुरा है.
    मैंने बस यही कामना की है कि दोस्ती के सम्बन्ध को समाज सामान्य ढंग से ले. यहाँ स्वछंदता की बात कहाँ से आ गयी.

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  29. काफ़ी देर से आया। शहर से बाहर था इसलिए।
    टिप्पणी बॉक्स के ठीक ऊपर मुक्ति जी की टिप्पणी है। काफ़ी कुछ सहमत हूं। यह सब अलग-अलग परिस्थितियों और मनःस्थितियों में अलग-अलग अर्थ रखता है।
    मुझे नहीं लगता कि नैतिक और अनैतिक को परिभाषित करने की ज़रूरत है। हम सब भारतीय समाज में रहते हैं और यहां की परंपराएं और नैतिकता से वाकिफ़ हैं।

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  30. पोस्ट के बहाने कई विचार जानने का मौका मिला। अच्छा लगा।

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  31. उपसंहार :)
    वाणी जी ,लीजिये आपका यह चर्चा आह्वान सफल रहा ...मुझे सुमन सिन्हा के विचार ठीक लगे ..और यही उपसंहार होना चाहिए ....बाकी तो लोगों का दोहरा मानदंड ही सामने आया वे भी जो पहले इकहरे लगे थे ..... :)
    मित्रता तो उस स्तर की होती है कि वहां ना का कोई स्थान होता ही नहीं ...मुझे इसके विचित्र से अनुभव हैं ..पता नहीं एक बार मेरी एक मित्र ने क्या समझा कि उन्होंने ऐसी सहमति दे दी जैसे मैंने कोई मूक प्रस्ताव रखा हो ..वाक्य था "आप जो भी चाहें मुझे सब मंजूर है " मैं हतप्रभ कि गलतफहमी हो कहाँ से गयी? ....मैंने बात साफ़ की तो दोनों खूब हँसे ....बाद में जब उन्होंने कहा कि मित्र के लिए तो कभी भी कुछ भी ...तो मैं गहरे संवेदित हो उठा था ...आज भी मेरे मन में उनके प्रति बहुत सम्मान है ...और वे एक सफल सम्पन्न जीवन की स्वामिनी ...यह दृष्टांत यद्यपि बेहद निजी सा है मगर मैंने साझा इसलिए किया कि इन दो छोटी छोटी आँखों से हम बहुत कुछ देख नहीं समझ पाते ..मनुजता कहीं ज्यादा जटिल और व्यापकता समेटे हुए है.......

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  32. वाणी जी,
    सबसे पहले तो आपका धन्यवाद कि आपने सतही तौर पर परस्पर अलग दिखने वाली दो बातों की आंतरिक समानता देखी और यहाँ सामने रखी।

    विवाह = नियम, मर्यादा और जीवन-साथी पर एक परिभाषित साझेदारी/अधिकार भी
    स्वतंत्रता = मानव का मूल प्रकृति
    मैत्री, शत्रुता, स्वार्थ, परमार्थ, धोखा, त्याग, कमज़ोरी, शक्ति = व्यक्ति, स्वभाव, परिस्थिति, काल के अनुसार परिवर्तनशील ऐट्रिब्यूट्स

    समस्या तब आयेगी जब उपरोक्त परिस्थितियों में वर्णित त्रिकोणों के तीनों बिन्दुओं के लिये - उसमें भी विशेषकर पति-पत्नी के लिये विवाह का अर्थ भिन्न-भिन्न हो। यदि आपसी समझ और परिभाषा पर दोनों सहमत हैं तो मुझे किसी कंफ़्यूज़न की गुंजाइश कहीं नहीं दिखती है।

    हाँ, हर बात का दोष समाज को देना या बातों को वजन नारी-पुरुष, गाँव-शहर, के अनुसार कम-बढ कर देना मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई दुकानदार तौल में डंडी मारना ही न्याय समझता हो। अमेरिका में आज भी आम जनता से चुनी हुई जूरी न्याय करती है, ज़रा सोचिये, अपनी व्यक्तिगत व्यथाओं/पूर्वाग्रहों से जूझते/झुठलाते लोग क्या किसी और का या अपने खुद के रिश्ते का न्याय कर सकते हैं?


    विवाह कोई गुड्डे ग़ुड़ियों का खेल नहीं है, वह त्याग मांगता है। जो माँ-बाप जब खुद ही त्याग और सामंजस्य नहीं सीख सके वे अपने बच्चों को भी सिखा नहीं सकते, न उनके लिये अपने को बदल सकते हैं। दूसरी ओर यह बात भी (सही?) है कि मित्रता को जेंडर के बन्धन में क्यों बान्धा जाये। पर किसी भी मुद्दे पर आगे बढने से पहले यह ध्यान रखना होगा कि जिस प्रकार स्वतंत्रता का अर्थ राह चलते लोगों पर पत्थर फेंकना नहीं हो सकता उसी प्रकार विवाह-बन्धन का अर्थ भी बाहरी सम्बन्धों की स्वतंत्रता को मर्यादित/सीमित करना होता है। कमज़ोर, अस्थिर, मानसिक असंतुलित, बेईमान या दुष्ट पक्ष दूसरे को आसानी से धोखा दे सकता है और यह भी हो सकता है कि किसी को दबाव/ब्लैकमेल आदि द्वारा धोखा देने को मजबूर किया जाये। और फिर मानव कोई रोबट तो हैं नहीं, उनके विचार भी बदलते हैं। इन फ़ैक्ट, समय के साथ पति-पत्नी के विचार विपरीत दिशाओं में भी परिपक्व हो सकते हैं। घर में रहने या बाह्य अनुभवों का भी अंतर पडता है। रिश्ते के बाहर के लोग न उन जटिलताओं को समझ सकते हैं न उन पर कुछ कहने के सही अधिकारी हैं।

    पिछली पीढियों ने जैसे भी समय गुज़ारा हो, आज की पीढी यह समझे कि बच्चों को नैतिक और मानसिक रूप से सबल बनाये और उन्हें सिखायें कि वे विवाह ही नहीं, बल्कि हर रिश्ते में ईमानदारी बरत सकें, चाहे वह दोस्ती हो या नौकरी, या फिर ऐसा विमर्श जैसा आपने यहाँ चलाया।

    ये तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं
    सीस उतारे भुइ धरे, तब बैठे घर माहिं॥

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  33. ... और भी कई बातें हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऑडियेंस अभी उसके लिये परिपक्व है।

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  34. लिंगभेद रहित मित्रता की हम यहाँ प्रशंसा करते है, करनी भी चाहिए। दो मित्रों के बीच मित्रता पावन और वासना रहित हो सकती है। क्योंकि उन दोनों के मन परिपक्व और विशुद्ध है। यह उमके स्वभाव का हिस्सा होता है। पर हम अक्सर भूल जाते है कि हम तो विशुद्ध मन के है पर एक तीसरा पक्ष है जो इस सब से सर्वाधिक प्रभावित है। उसके दृष्टिकोण से हम अनभिज्ञ है। उसके स्वभाव को इस विशुद्धता के प्रति अनुकूल-अप्रभावित बना देना उन मित्रों के हाथ में नहीं है। शायद उसके स्वयं के हाथ में भी नहीं है, क्योंकि किसी के मन को कोई पढ़ नहीं सकता। जबकि पारिवारिक शान्ति का सारा दारोमदार इस तीसरे पक्ष पर निर्भर है। उसी के मन्तव्य को महत्व नहीं दिया जाता। और निर्दोष मित्रता का सुधारवादी राग ही बजाया जाता है।

    वैवाहिक रिश्ता एकाधिकार का स्तरीय रिश्ता नहीं है, यह बिखराव को खत्म करने का संयोजन भी है, स्वयं को नियमित करने का आधार भी है। क्या यह जरूरी है कि शान्त जीवन हेतु समर्पण पर एकाधिकार का आरोप लगा कर बिखराव मोल लिया जाय?

    अक्सर प्रेम को हम मन की उच्च दशा कहते है। और अपेक्षा रखते है कि हमारे निर्मल निर्दोष प्रेम को सभी समझ ले। पर मन कोई पढ़ नहीं पाता। उसी तरह समर्पण भी मन का ही विषय है, उसे मन ही मन कोई भी जान नहीं लेता। इसलिए प्रेम मित्रता और समर्पण मन में होने के साथ ही अभिव्यक्त करने भी जरूरी है, इन्हें महसुस करवाना भी जरूरी है, मात्र मन में होने से प्रतिपक्षी सन्तुष्ट नहीं हो जाता। और महसुस करवाने की क्रिया में यह सावधानी भी जरूरी है कि हमारी निर्दोष मित्रता किसी के समर्पण में भ्रांतियाँ खड़ी करने का कारण न बने।

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  35. मैं यहां भी वही प्रश्न करुंगा जो अजित जी की पोस्ट पर किया था...क्या आपने ओमपुरी और रेखा की फिल्म आस्था
    देखी है...

    जय हिंद...

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  36. नहीं खुशदीप, अभी तक तो नहीं देखी।

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  37. samay bishesh per kahi gayi baaton ka jindagi me koi bisht arth nahi hota hai..hame kai baar swyam lagta hai ki ham ye kar lenge wo kar lenge wo kar lenge per yatharth ke dharatal per aksar ye sambhav nahi hota hai..abhi sirf us ladki ne apne premi ko dekha hai ..uske chintan ka adhar kendra sirf ek hee hai..usne abhi kisi aaur purush ko jeewan me apne karib nahi paaya hai..shadi ke baad ye kadapi sambhav nahi hai..janwaron me ..apni hi nar santatiyon ke sambanh me aisi khinnta dekhi jaati hai..unka vyabahar nar santatiyon ke liye samanya nahi rahta..unhe prem paane ke liye satat sangharsh karna padta hai..insaan ka udbhav , hame nahi bhulna chahiye ki unhi janwaron se biksit hua hai...katai bardast nahi kar sakta ki uska pyaar bant jaaye..samaj me is pyaar ke sambandhon ka nirdharan samajik sansthayein karti hain..iske kuch niyam kayde hain....ye sansthaye pyaar ki ijjat deti hain ..muh marne ki nahin..ajit jee ke kathan se main purntaya sahmat hoon..is dhun me ham samaj ko janwaron ka dera nahi bana denge jahan nar ekadh ho bas madaye hi madaye jyada hon....rahi baat nischal kamna rahit pyaar ki....to maine pyar kiya film ka ek dialogue hai..ki do jawan ladka aaur ladki kabhi dost nahi ho sakte ..shristi chalti rahe isliye is akarshan ko sarwadhik prabal banaya gaya hai..lekin bidhata ke is bidhan se isi parampara me badha hua samaj dar gaya..uski chetna ne use majboor kiya taki wo bhi shwan prajati ke sadasyon ki tarah hi shrjeta banne ki chah me apni hi prajati ke jeevon ki akal mrity ka paryay ban jaaye......ham badlav to chahte hain per khud ko badlna nahi chahte isiliye shayad ham apni betiyon ko pure libas me dekhkar sanskaron ke naam per gaurwanvit hona chahte hain aaur dusri taraf dusron ki betiyon aaur bahuon ko nagna dekhkar apna manoranjan karna chahte hain..aaj charon taraf jo nagnata faili hai uske liye ham jimmewar hain..agar ham sab na dekhne ki thaan le to serial kya filme bhi badal jayengi..wo vyapaari jo thare.....isi dosti isi swachandata ka parinaam hai ..school jeewan me hi kitni ladkiyan apna kaumaratv kho dethi hai..sab jaante hain sab samajhte hain ki sacchai kya hai..aadhunik banana aaur aadhunik hone ka dikhawa karne me bada fark hai...main is kavita ko sweekar nahi kar sakta lekin ajeet ji ki kahani ka purush patra meri najron me abhi bhi sahi hai..aaur wo aaurat galat...(baise galat nahi hai lekin paschataap wo bhi swatah )kamse kam bacchon apne apne pati ki jindagi ke sochkar maaf karna chahiye tha..

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  38. इस तरह की पोस्ट पर ऐसे कमेन्ट करना बेहतर होगा :)
    आपकी पोस्ट पढ़ कर अच्छा लगा इसलिए की ये बात किसी स्त्री ने कही है शायद आप की बात को ज्यादा गंभीरता और सच के रूप में लिया जायेगा | कोई भी पुरुष [सज्जन] कहता तो उसे पता नहीं क्या हाल किया जाता ?

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  41. @नैतिकता की यह परिभाषा जिसे हम क्या सिर्फ पुरुष के लिए होनी चाहिए , या सिर्फ स्त्रियों के लिए होनी चाहिए या दोनों के लिए समान ही हो

    ये सिर्फ सज्जनों के लिए है, अगर कोई भी स्त्री या पुरुष सज्जन नहीं है तो उसके लिए ये नहीं है

    @स्त्री मुक्ति के नाम पर हम कहीं एक अंधी खाई की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं

    बिलकुल जी , बस पहुँच ही गए, बस कूदने की तैयारी है

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  42. विद्वानों के विचार पढ़ कर आनंद आया , बहुत अच्छी चर्चा है

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  43. कुल मिला कर निष्कर्ष यही निकला कि मित्रता देश काल के अनुसार लिंगभेद हो ,वही नैतिकता के मापदंड भी स्त्री या पुरुष सबके लिए एक ही हो .

    विवाहेतर संबंधों का एक महतवपूर्ण कारण हमारे सामाजिक ढांचे में स्त्री और पुरुष के बीच स्वस्थ मैत्री को स्वीकार नहीं किया जाना है . जिस तेजी से महिलाएं घर में रहकर या घर से बहार जाकर कार्य करने और विचार विमर्श में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है , पुरुषों के साथ उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बन जाने स्वाभाविक है . इसे एक सहज प्रक्रिया मान लेना ठीक है , यदि इसे स्वस्थ दृष्टिकोण से स्वीकार नहीं किया जाए तो चोरी छिपे होने के कारण मन में अपराधबोध के साथ ही रिश्तों में जटिलता बढती है और चोरी छिपे की जाने वाली मित्रता के अन्य आपत्तिजनक संबंधों में बदलने की सम्भावना भी .
    मित्रता से तात्पर्य सिर्फ साथ घूमना फिरना नहीं बल्कि एक दूसरे के सुख दुःख में काम आना भी हो , और सबसे अधिक यह आवशयक है कि यह सहज रूप में विकसित हो , यह शेखी बघारने के लिए नहीं कि (जैसे की ज्यादातर पुरुष मंडली करती है) कि मैं इतनी लड़कियों या स्त्रियों को मित्र बना सकता हूँ , वे मेरे लिए कुछ भी कर सकती हैं , आदि आदि !

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  44. स्त्रियाँ अपने लिए समान अधिकारों की बात/मांग अवश्य करें मगर उसमे यह भाव नहीं हो कि युगों तक स्त्रियाँ शोषित रही , पुरुषों के अधीन रही तो अब समानता की मांग करते हुए वे शोषक की भूमिका में आ जाये या पुरुषों को अपने अधीन करना चाहे . स्वयं को आजाद दिखाने की प्रक्रिया में भोग्या की उस स्थिति में ना पहुंचे जहाँ अंततः लाभ स्त्री /पुरुष की भोगवादी प्रवृति को ही मिले .
    इस पूरे विचार विमर्श के दौरान जो विचार बेहद ईमानदारी से रखे गये मगर सबसे क्रूरतापूर्ण विचार मुझे लगे वह यह थे कि स्त्री पुरुष साथ रहे जब तक निभे , बाद में वे अलग हो जाएँ , बच्चों की जिम्मेदारी राज संभाले , ना कि माता -पिता . हम एक भावनाप्रधान देश में रहते हैं , असामान्य परिस्थितियों के सिवा बच्चे हमारे यहाँ प्रेम के प्रतीक ही माने जाते रहे हैं , ऐसे में उन्हें यह सोचकर जन्म देना कि वे राज की जिम्मेदारी हैं , मुझे बहुत आपत्तिजनक लगता है . व्यक्तिगत तौर पर सिर्फ शारीरिक संबंधों के लिए रिश्ते बनाने को पशुवत ही मानती हूँ . इस तरह के रिश्ते आखिरकार स्त्रियों या पुरुषों को को सिर्फ उपयोग की वस्तु बना कर रख देंगे .

    गलतियों को माफ़ करना सीखें , गलतियों के दोहराव को नहीं!

    विवाद रहित गंभीर विमर्श के लिए आप सबका बहुत आभार ...

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  45. @मगर सबसे क्रूरतापूर्ण विचार मुझे लगे वह यह थे कि स्त्री पुरुष साथ रहे जब तक निभे, बाद में वे अलग हो जाएँ, बच्चों की जिम्मेदारी राज संभाले, ना कि माता-पिता .
    बहुत बार सत्य उतना सुपाच्य नहीं होता है जितना हम चाहते हैं। खाना बच जाये तो कुछ लोग पेट भर जाने पर भी बचा हुआ खाना खाने का दवाब यह सोचकर डालते हैं कि ऐसा न करने पर खाना बेकार जायेगा। वे यह नहीं देख बाते कि फेंकने (या पशु/पक्षी आदि को खिलाने) के बजाय खुद खाने पर खाना तो खराब जायेगा ही, पेट/स्वास्थ्य भी खराब हो जायेगा। कई बार हम एक कमी पूरी करने के लिये दो कमियाँ कर देते हैं। केवल बच्चे के बहाने से यदि पति-पत्नी अपना घर जीवन और बच्चे का जीवन नर्क बना दें तो "कुछ मामलों में" अलगाव एक बेहतर विकल्प हो सकता है। आदर्श स्थिति में हर बच्चे को माता-पिता का प्यार व परिवार मिलना चाहिये परंतु जिन्हें किसी कारण न मिल सके उनके लिये कुछ सामाजिक व्यवस्था अवश्य होनी ही चाहिये। अमेरिका में उसे फ़ॉस्टर केयर कहते हैं। अन्य देशों में भी यह व्यवस्था भिन्न रूपों में उपस्थित हो सकती है। हिन्दू विवाह में तलाक का प्रावधान न होते हुए भी कानून द्वारा उसे जोडे जाना एक आवश्यकता थी, पतन की सीढी नहीं। एक बात और, अनुभव मूल्यवान होता है पर वह ज्ञान का विकल्प नहीं हो सकता। बुद्धिमान लोग अपने सीमित अनुभव से बाहर आकर भी देखना चाहते/देख पाते हैं। आभार!

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  46. स्त्री-पुरुष समानता टेग को बेहद चालाकी से परिवार-विरोध, पुरुष विरोध, लिव-इन समर्थन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है , शायद युवा मित्र इस बात को नहीं समझ पा रहे या समझना नहीं चाहते या शायद जमाने के साथ चलने के लिए छद्दम अभिव्यक्ति दे रहे हैं

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  47. ये तो अच्छा है की कमेंट्स में सब कुछ आसानी से पकड़ा जा सकता है

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  48. @ आदर्श स्थिति में हर बच्चे को माता-पिता का प्यार व परिवार मिलना चाहिये परंतु जिन्हें किसी कारण न मिल सके उनके लिये कुछ सामाजिक व्यवस्था अवश्य होनी ही चाहिये।

    जब माता पिता किसी कारण बच्चों को संभाल नहीं पाते , ऐसी असामान्य परिस्थितियों में शासन द्वारा उनके लिए उचित व्यवस्था होनी ही चाहिए , इससे क्यों और कैसे इनकार हो सकता है मगर इन समाज सेवा केन्द्रों में क्या होता है या क्या होने की सम्भावना अधिक होती है , इसपर होने वाली सुगबुगाहट पर भी ध्यान देना होगा ...
    मेरा जोर इस बात पर है कि राज का दखल अनिवार्य रूप से ना हो!

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  49. @मेरा जोर इस बात पर है कि राज का दखल अनिवार्य रूप से ना हो!
    जी, मैं भी कई हज़ार साल से व्यक्तिगत जीवन में राज्य/सत्ता के दखल के विरुद्ध खड़ा हूँ

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  50. गहन विचार मंथन ..... देर से आया हूँ इस पोस्ट पर तो इतना कुछ पढ़ने को मिल रहा हूँ ... और इतना कुछ पढ़ने के बार प्रातक्रिया करना आसान नहीं ...

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