संस्कृति किताबों में लिखी हुए वे इबारतें नहीं हैं जो अलमारी में सहेज कर रख दी जाएँ , यह हमारी दैनिक जीवनचर्या है जो आदतों और परम्पराओं के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती हैं .
राजस्थानी संस्कृति अपनी विशिष्ट जीवन शैली के कारण पूरे विश्व में सराही जाती है. सदियों तक पानी और अच्छी जलवायु से वंचित इस मरुप्रदेश के बासिंदों ने अपनी जीवटता से प्रकृति के पक्षपात को अपनी जीवन शैली से वरदान में बदल दिया . जल की कमी के कारण सूखी धरती और रेत के बड़े धोरों के दूर तक फैले सिर्फ एक मटिया रंग के कारण धुले पुते रंगों को उन्होंने अपने रंगबिरंगे वस्त्रों में उतार लिया . इस प्रदेश में सर्दी और गर्मी दोनों ही भीषण होती है . मौसम की इस प्रतिकूलता से अपने शरीर की रक्षा करने के लिए खान पान भी विशिष्ट ही है . यहाँ पहनावा ,खान- पान, मौसम और उत्सव के साथ ही बदलता जाता है जो तेज गति से भाग रहे जीवन के बीच प्रति पल नवीनता का एहसास भरता है.
संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करने में स्त्रियों का ही विशेष योगदान है. यदि स्त्रियाँ नहीं हों तो जाने कितनी संस्कृतियाँ यूँ ही काल के गर्भ में समा कर दम तोड़ चुकी होती.
राजस्थानी महिलाएं विभिन्न पर्व -उत्सवों या शुभ अवसरों के अनुसार चटकदार लहरिये , चुंदड़ी , फगुनिया , पोमचे , पीले आदि पहनती है ...हालाँकि पुरुषों के लिए भी वस्त्रों का विधान अवश्य होगा , मगर बमुश्किल ही पुरुष वर्ग इनको पहनाता है या पहनना चाहता है ...
ऐसा ही एक परिधान चुंदड़ी (चुनरी ) राजस्थानी महिलाओं का विशेष पहनावा है जो उनके जन्म से मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर उनके शरीर की शोभा बनता है . विवाह में सप्तपदी के दौरान अपने ननिहाल से प्राप्त चुंदरी पहनकर वे सप्तपदी के सात फेरों को पूर्ण करती हैं , कुछ स्थानों पर यह चुंदड़ी ससुराल पक्ष से पहनाई जाती है . विवाह के बाद कम से कम वर्ष भर किसी भी शुभ आयोजन या त्यौहार पर उन्हें वही चुंदड़ी पहनकर विभिन्न रस्मों या पूजा का निर्वाह करना होता है. बच्चों के विवाह के समय "भात" रस्म में भाई अपनी बहन को चुंदड़ी भेंट करते हैं .
विवाह के बाद पहली गणगौर पर नववधू को सिंजारे के दिन अपने ससुराल से विशेष चुंदड़ी पहनाई जाती है जिसे पहनकर वे गणगौर पूजन करती हैं .
विवाहित स्त्रियों के लिए ससुराल और मायके से मिली चुंदड़ी विशेष महत्व रखती है . चुंदड़ी हर विवाहिता का श्रृंगार है , जिसे पहनकर वह इठलाती , गुनगुनाती है ...
मैं ना पहनूं थारी चुंदड़ी ...
इस गीत में अपने मायके की चुंदड़ी पहनकर इठलाती युवती अपने पति /होने वाले पति को छेड़ते हुए कहती है कि मैं तुम्हारी चुंदड़ी पहनने वाली नहीं हूँ , और इसके कारण गिनाते हुए वह बताती है कि मैं इतने वर्षों से सिर्फ बेटी बनकर मर्यादा से भरी रही हूँ , जबकि विवाह के बाद यह स्थिति बदल जाने वाली है . मेरे पिता की दी हुई चुंदड़ी लाड़ -प्यार से लाई हुई है , जिसे मैं बड़े गर्व से पहने बाग़- बगीचों में इठलाती फिरती रही , कभी मुझे किसी ने रोका- टोका नहीं मगर तुम्हारी चुंदड़ी पहनते मुझे लाज आती है . यह मेरे सर पर टिकती नहीं , तुम्हे तो कुछ शर्म है नहीं ....
अनगिनत खुले और वाहियात शब्द या चित्र दाम्पत्य के इन सुन्दर पलों को इससे बेहतर प्रस्तुत नहीं कर सकते ..आखिर संस्कृति सिर्फ अच्छा पहनावा, खान- पान ही नहीं है , वह हमारे शब्दों , कार्य -व्यवहारों में भी प्रतिध्वनित होता है ...
राजस्थानी संस्कृति में चुंदड़ी महत्वपुर्ण है। मांगलिक अवसरों पर इसका प्रयोग होता है………।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगा राजस्थानी-संस्कृति के बारे में जानकर !
जवाब देंहटाएंइन परम्पराओं की अपनी खुशबू अपनी खासियत है .... छेड़छाड़ भी जीवन में रंग भरने के लिए होते हैं
जवाब देंहटाएंलाजवाब!
जवाब देंहटाएंभारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतम् संस्कृतिस्तथा। ( भारत की प्रतिष्ठा दो चीजों में निहित है, संस्कृति और संस्कृत।)
इस तरह की परंपराएं हमारे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियां बनाती हैं
राजस्थान में चुनरी का गजब महात्म्य है। चुनरी खुशहाली सौन्दर्य स्नेह और सम्मान का प्रतीक है।
जवाब देंहटाएंराजस्थान के लोकगीतों में सर्वाधिक लोकगीत्तों में चुनरी को बुना गया है।
संस्कृतियों का बेजोड संगम ही तो है जो देश को एक रक्खे हुवे है ...
जवाब देंहटाएंचून्दडी के महत्त्व और उससे जुड़े प्रसंगों को विस्तार से बताने का शुक्रिया ...
्यही तो भारतीयता की प्रतीक हैं।
जवाब देंहटाएंaap jase mahan partibao ke karan hi gaon ki sanskriti pardrshit hoti hai
जवाब देंहटाएंसंस्कृति है तो हम हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंकल 28/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... मधुर- मधुर मेरे दीपक जल ...
चुनरी हर स्त्री के सौन्दर्य में चार.... नहीं सोलह चाँद लगा देती है..:)
जवाब देंहटाएंयही प्रथाएं हमारी संस्कृति को मोहक बनाती हैं.
हमारी संस्कृति में लोकगीत और स्थानीय रीति रिवाजों का विशेष स्थान है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ।
सुन्दर विवरण ..सुकोमल भाव ...मगर संस्कृति एक सापेक्षिक अवधारणा है ....शीघ्र स्वस्थ हों
जवाब देंहटाएंहाँ, मेरी चुन्दडी भी हमेशा साथ ही रहती है ..... परम्पराओं के रंग जीवन को उल्लासित करते हैं.....
जवाब देंहटाएंपरम्पराओं को कहती सुंदर पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंखुले वाहयात शब्द फ़ूहड़ता दिखाते हैं, प्रेम की सात्विकता को छू भर भी नहीं सकते।
जवाब देंहटाएंकितनी सुन्दर हैं हमारी परम्पराएं....
जवाब देंहटाएंखुद-ब खुद निबाहने को जी करता है....
इला जी के कंठ का क्या कहूँ....
आभार.
अनु
संस्कृति को आगे बढ़ाने का दायित्व हर परिवार, हर समाज पर है।
जवाब देंहटाएंसुंदर गीत और बहुत सुंदर प्रस्तुति वाणी जी ...
जवाब देंहटाएंहमारी संस्कृति, 'हमारी दैनिक जीवनचर्या है जो आदतों और परम्पराओं के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती हैं '...बिलकुल ठीक कहा आपने ..और यही हमें पूरी दुनिया से अलग करती हैं ...हमारी परम्पराएं वह धरोहर हैं जिनकी वजह से हमें अपने भारतीय होने पर गर्व है ....बहुत प्यारी पोस्ट ....राजस्थान का संगीत...वहा की संस्कृति को जीवंत करती प्रस्तुति ....!!!
जवाब देंहटाएंLok sanskrit ka sundar manoram prastuti hetu aabhar!
जवाब देंहटाएंराजस्थानी संस्कृति के बारे में जानकार अच्छा लगा. शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर निबन्ध, आभार!
जवाब देंहटाएंइसमें कोई शक नहीं..संस्कृति को जीवित हम महिलाओं ने ही रखा है..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति..
सुन्दर चित्रण किया आपने संस्कृति की धरोहरों की , मरुभूमि राजस्थान तो वैसे ही विभिन्न संस्कृतियों का उद्गम रहा है . सुन्दर
जवाब देंहटाएंगीत का आनन्द लेते हुए टिप्पणी कर रही हूँ। राजस्थान इतने रंगों से भरा है कि शायद ही दुनिया का कोई देश इतने रंगों से भरा हो। न जाने कब किस कलाकार ने, सारे ही शोख रंगों को एकत्र कर बंधेज बनायी और उससे बनायी चूंदड़। चूंदड शान और वै
जवाब देंहटाएंभव का प्रतीक बन गयी। इसलिए विवाह में ससुराल पक्ष अपनी बहु को चूंदड़ ओढाकर ही विदा करता है। पूर्व में महिलाओं के पास बहुत अधिक साड़िया नहीं होती थी लेकिन चूंदड़ अवश्य होती थी इसलिए किसी शुभ प्रसंग पर घर में पहनी साड़ी के ऊपर चूंदड़ को डालकर सुन्दर दिखा जाता था और फिर यह परम्परा बन गयी। चूंदड़ पहनने का अर्थ ही है कि विवाहित महिला। अब नायिका कह रही है कि मैं तेरी चूंदड़ नहीं पहनूंगी, अर्थात मैं तेरे साथ विवाह बंधन में नहीं बंधूगी। मुझे तो अभी मेरा बाबुल का घर ही अच्छा लगता है। बहुत ही प्यारा गीत है, यहाँ गणगौर के अवसर पर देकर बहुत अच्छा लग रहा है। इस बार गणगौर पर मैं भी जयपुर ही थी और महिलाओं को सजे-धजे देखकर चूंदड़ में खिला हुआ रूप देखकर बहुत ही अच्छा लगा। पुरुषों की भी वेशभूषा है लेकिन उन्होंने पेंट-शर्ट में सभी को बिसरा दिया है। महिलाओं ने अभी राजस्थान वेशभूषा को जीवित रखा हुआ है।
सुन्दर गीत के साथ बहुत सुन्दर प्रस्तुति..वाणी जी बधाई..
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारा गीत है दी .....
जवाब देंहटाएंव्यस्तता के कारन आ नहीं पाई काफी दिनों से ....
अन्यथा न लें ....
हमारे यहाँ मेवाड़ में बहन के बच्चों के पहले विवाह पर मायरा (मामेरा) लेकर जाता है और उसमें सबसे खास होती है "चुंदड़ी" जिसे पहन कर बहन को सबसे ज्यादा खुशी होती है। कोई शायद विश्वास ना करें लेकिन यह एक मात्र प्रसंग है जब बड़ी बहन अपने भाई की लाई चुंदड़ी ओढ़ कर उसके पाँव छू लेती है।
जवाब देंहटाएंपहले विवाह पर मामा मायरा लाता है लेकिन उसके बाद के विवाहों में मायरा नहीं "चुंदड़ी" लेकर आता है।
एक सुंदर राजस्थानी गीत सुनें
http://sagarnahar.googlepages.com/Khelandogingaur.mp3
बढ़िया! बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंऔर गीत! अन्यंत मोहक।
आपका आभार इसे साझा करने हेतु।
एक ही शब्द में कहूँ तो,यह है परिपक्वा और मनोहारी पोस्ट जो मन को इस रंग में रंगने से अछूता नहीं रहने देती......
जवाब देंहटाएं