रविवार, 16 दिसंबर 2012

रूठना कोई खेल नहीं !


तुम  ही  हो माता ,पिता तुम  ही हो !
तुम ही हो बन्धु ,सखा तुम ही हो !

प्रार्थना के बीच अधमुंदी आँखों से सुनीता ने अपनी पीछे  की लाईन में देखा . कुसुम अब तक नहीं आयी थी . कद के आधार पर बनाई जाने  वाली पंक्तियों में सबसे पीछे लम्बी -सी कुसुम अलग ही दिखती थी . लम्बी कुसुम और छोटी सुनीता दोनों की दांत कटी  दोस्ती पूरे विद्यालय में  लम्बू- छोटू के नाम से जानी जाती थी . विद्यालय में प्रवेश करने के बाद से दोनों हर समय साथ दिखती .टीचर जी द्वारा दिए गए कक्षा कार्य से  लेकर स्पोर्ट्स और खाने तक उनका साथ हमेशा कायम होता .

क्या हो रहा है सुनीता, सीधे खड़ी रहो ...भटनागर मैम  की कडकती आवाज़ के बीच सुनीता ने जल्दी से दोनों आँखें मीच प्रार्थना में सुर मिलाया . कहाँ रह गयी कुसुम !
आज का अनमोल विचार कुसुम को  ही पढ़ना था . 
प्रार्थना के बाद जैसे ही आँखें खोली डायस के पास कुसुम को देख कर राहत  की सांस ली उसने .

प्रार्थना के बाद क्लास में लौटते दोनों की खुसुर पुसुर शुरू थी . 
देर कैसे हो गयी .आज टिफिन में क्या लाई हो !
केर का अचार , मूली का पराठा ! 
ला दिखा .
 कुसुम  ने लगभग छीनते हुए उसके हाथ से टिफिन ले लिया और खोलने लगी .
हद है . बहुत सारे हैं.  मम्मी ने तेरे लिए भी एक्स्ट्रा रखे हैं , अभी ही शुरू मत हो जा .

लंच तक कौन रुकेगा !
 कुसुम ने टिफिन खोल लिया था . क्लासरूम में अपनी सीट पर पहुँचते एक बड़ा ग्रास उदरस्थ कर चुकी थी . दूसरा ग्रास तोडा ही था कि   रजिस्टर लिए क्लासटीचर   क्लास में पहुँच गयी . हडबडाहट में टिफिन खुला ही डेस्क की खुली दराज में सरका तो दिया मगर अचार की खुशबू को मैम की नाक से बचाना संभव नहीं हुआ . 

अचार की खुशबू कहाँ से आ रही है .  तुम लोग घर से नाश्ता नहीं करके आते और यहाँ क्लास में घुसते ही  शुरू हो जाते हो. बंद करो यह सब ...

मैम के खुद के मुंह में पानी आ रहा है मगर कहे कैसे . बंद कर तो दिया .
कुसुम को कोहनी मारती हुए सुनीता ने टिफिन बन कर रख दिया .

सुनीता और कुसुम , क्या खुसुर पुसुर करती रहती हो दोनों . चलो , कुसुम तुम वहां से उठो और इधर बाईं बेंच पर बैठो ...
नहीं मैम , हमें यही बैठने दीजिये . हम अब बात नहीं करेंगे .
नहीं तुम उठो वहां से ! कितनी बार समझा दिया तुम्हे !

प्लीज़ मैम ...पक्का अब नहीं  करेंगें बातें, प्लीज़ -प्लीज़ !

ये मेरी आखिरी वार्निंग है ।अब अगर कानाफूसी करती नजर आयी तो क्लास से बाहर निकाल दूँगी ...
भटनागर मैम शब्दों को भरसक कोमल बनाते हुए बोली .

नहीं मैम . अब नहीं करेंगे . 
चल बैठ जा , कॉपी  निकाल फुर्ती  से .  सुनीता ने कुसुम का हाथ पकड़कर सीट पर बैठा दिया . 

लंच टाइम में क्लास मॉनिटर सहित सभी लड़कियां बरस रही थी , क्या है तुम लोगों का , तुम्हारे कारण पूरी क्लास डिस्टर्ब होती है .

क्या किया मैंने . टिफिन खोल कर दो ग्रास खा लिए , थोडा बतिया लिया तो कौन सा अनुशासन भंग हो गया .

तुम्हारी ढिठाई के कारण  पूरी क्लास का तमाशा बन जाता है  मगर तुम्हे क्या फर्क पड़ता है .
नाराजगी प्रकट करते हुए वीणा क्लासरूम से बाहर निकल गई  .  

उस दिन जाने सर जोड़े जाने किस बात पर खीखी में लगी थी दोनों . मैम का क्लासरूम  में आना उन्हें नहीं दिखा , न ही पूरी क्लास का उनके सम्मान में खड़ा होना . थोड़ी देर तक चुपचाप उन दोनों का भरपूर अवलोकन करने के बाद मैम की आवाज़ से ध्यान भंग हुआ।  दोनों  हडबड़ाती गुड मोर्निंग कहती उठ खड़ी  हुई  जरुर , मगर बंद होठों में खिलखिलाना रुका नहीं .
पढ़ाते  हुए कई बार ध्यान भंग होने पर शालिनी मैम ने उन्हें बेंच पर खड़ा होने की सजा सुना दी . दोनों साथ खड़े हुए भी अपनी खिलखिलाहट से बाज नहीं आयी . साथ ही हंसी के संक्रमण का असर पूरी क्लास पर होते देख  दोनों को क्लासरूम के बाहर खड़ा कर दिया गया था  .

सब लोग परेशान है हमारे कारण . चल, दोनों आज से अलग सीट पर बैठेंगे , बात भी नहीं करेंगे ! खीझती हुए कुसुम  ने कहा .

सॉरी , मैं ऐसा नहीं करूंगी .

अरे ,सचमुच बात करना बंद थोड़ी न कर देंगे .  बस क्लास में नहीं बोलेंगे  सबको यही लगेगा कि  हमारा झगडा हो गया .

नहीं , मुझसे नहीं होगा . मैं पूरे एक पीरियड तुझसे बात नहीं करू , ऐसा नहीं हो सकता .

रोज क्लास का माहौल खराब होता है , सबसे डांट  पड़ती है , सिर्फ एक दिन के लिए यह नाटक कर देखते हैं .

दूसरे दिन सुबह पूरी क्लास हैरान थी . सुनीता और कुसुम अलग -अलग आयी क्लास में और एक दूसरे  से दूर दूसरी कतार में बैठी . बस एक दूसरे को मुस्कुराते देखती रही मगर बात नहीं की .
पूरी क्लास दम साधे  लंच का इन्तजार कर रही थी . यह सातवाँ आश्चर्य संपन्न कैसे हुआ . कुछ बच्चे सुनीता के पास तो  कुछ कुसुम के पास घेरा बना कर खड़े हो गए .

क्या हुआ , आज दोनों बात नहीं कर रही . अपना टिफिन लेकर कुसुम के पास जाती सुनीता के पाँव वहीं  थम गए .

कुछ नहीं , बस अब बात नहीं करेंगे . रोज डांट पड़ती है हमें ...
अच्छा है . क्लास में शांति बनी रहेगी.  देखते हैं कितनी देर तक ...वीणा  मटकते हुए वहां  से चली गयी .

 कुसुम सोचती रही सुनीता आएगी अपना टिफिन लेकर उधर सुनीता उसके आने का  इतंजार करती रही . आखिर  लंच समय समाप्त हुआ . दोनों के टिफिन बिना खुले बैग में रख गए .
आखिरी पीरियड के बाद उसी तरह गोलों में घिरी दोनों अपनी -अपनी बस में चढ़ गयी . पेट में दौड़ते चूहों ने जोर मारा बस में टिफिन खोलकर खाती सुनीता और कुसुम की आँखें नम  थी . यह पहला अवसर था जब कैर का अचार अनखाया रह गया था .

दूसरा दिन , तीसरा दिन , और कई दिन इसी तरह गुजरते गए . 

सुनीता और कुसुम दोनों ही सोचती रही , उनका सचमुच झगडा थोड़ी ना हुआ है . मगर फिर से बात कौन पहले शुरू करे। दोनों एक दूसरे को देखती दूर से, मुस्कुराती मगर शब्द जुबान पर ही अटके रहते .  

सहपाठी सोचते ,पूछते , बाते करतें . 
क्या हुआ है इन  दोनों के बीच , किस बात पर झगडा हुआ . 
दोनों चुप रहती।  
क्या कहती . झगडा तो हुआ ही नहीं था . रूठने का खेल हकीकत- सा हो गया था . 
फाइनल एक्जाम के लिए प्रिपरेशन लीव शुरू होने वाली थी . दोनों रोज़ सोचती आज  बात की  शुरुआत कर ही लेंगे  मगर स्कूल पहुँचते समझ नहीं आता की क्या बात करें , कैसे बात करें . एक गुमसुम सन्नाटा सा पसरा रहता उन दोनों के बीच . 

एक दिन सुनीता ने तय किया कि   आज  वह बात कर के ही रहेगी . बात ही क्यों , सीधे अपना बैग अपनी पहले वाली सीट पर ही रखेगी . 
प्रार्थना में उसकी नजरे ढूंढती रही कुसुम को  मगर वह कहीं नजर नहीं आयी और ना ही क्लास में . किससे पूछे वह कि  कुसुम क्यों नहीं आयी . 
हमेशा  उन दोनों से ही सब पूछते थे दोनों के बारे में . एक दिन , दो दिन , कई दिन बीत गए . आखिर  एक दिन सुनीता पहुँच ही गयी कुसुम के उन रिश्तेदार के घर जहाँ वह पेईंग गेस्ट बन कर  रह रही थी . 
कुसुम के चिकित्सक पिता की पोस्टिंग एक कस्बे  में थी जहाँ शिक्षा की समुचित व्यव्यस्था नहीं हो पाने के कारण कुसुम को इस शहर में अपने रिश्तेदार के घर रहना पड़ा था .   मालूम हुआ  कि उसके पिता की तबियत अचानक बहुत ख़राब हो गयी , उसे जाना पड़ा था . उसके पिता का स्थानांतरण बड़े शहर में हो गया है .  वह सिर्फ परीक्षा देने ही आएगी .और इसके बाद  अपने परिवार के साथ उस शहर में ही रहेगी .

सुनीता लौट आयी थके क़दमों से . खेल -खेल में रूठने ने उसकी एक मित्र को उससे हमेशा के लिए दूर कर दिया था . 
दिन , महीने , साल बीतते गए , सुनीता और कुसुम का आमना -सामना कभी नहीं हुआ मगर अब सुनीता को भूल कर भी किसी से रूठने में डर लगता है , कही वह इस रिश्ते को हमेशा के लिए खो ना दे .


अपना लिखा अर्चनाजी की आवाज़ में सुन लेना सुखद है !
साभार !
http://archanachaoji.blogspot.in/2012/12/blog-post_5597.html

32 टिप्‍पणियां:

  1. भूल कर भी किसी से रूठने में डर लगता है , कही वह इस रिश्ते को हमेशा के लिए खो ना दे .
    सच कहा आपने ... रूठना कोई खेल नहीं

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  2. ओह , काश ये रूठने का खेल कक्षा तक ही सीमित होता .... सच कहा रूठना कोई खेल नहीं ... रिश्ते ही खत्म हो जाते हैं ।

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  3. हृदय स्पर्शी .....बहुत सुंदर लिखा है वाणी जी ...
    बहुत सुंदर लघुकथा ...

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  4. भूल कर भी किसी से रूठने में डर लगता है , कही वह इस रिश्ते को हमेशा के लिए खो ना दे .
    उफ़ …………कभी खेल कितने भारी पडते हैं।

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  5. उफ़ ...जरा सी दूरी कब अहम के कारण पसर ही जाए रिश्तों में कहा नहीं जा सकता.

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  6. dono sakhiyon kae liyaee "aah"
    aap ki kehani vidha kae liyae "waah "

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  7. बड़ी प्यारी सी कहानी है .
    स्कूल से निकल हकीकत की दुनिया में भी यही सब होता है।

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  8. बहुत अच्छी कहानी ..मन भर आया...

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  9. रूठने की कीमत कभी कभी बहुत ज्यादा चुकानी पडती है, हर किसी के बस की बात नही. बेहतरिन लिखा आपने.

    रामराम.

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  10. .
    .
    .
    हाँ, समझ नहीं आता कभी कभी कि रिश्ते के तार को दोबारा कैसे जोड़ा जाये... झेंपने या शर्म के चक्कर में हमारे अपने बहुत दूर निकल जाते हैं कभी कभी...

    आप की इस कहानी का सबक... रूठो, पर पहले उपलब्ध मौके पर ही मना भी लो, मौका न मिले तो पैदा करो...


    ...

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  11. Bahut khoobsurat kahaani...
    ek geet yaad aa gaya ..geet bhi bahut sundar hai..
    aapka aabhaar..

    ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम
    वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते

    फूल खिलते हैं, लोग मिलते हैं
    फूल खिलते हैं, लोग मिलते हैं मगर
    पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
    वो बहारों के आने से खिलते नहीं
    कुछ लोग जो सफ़र में बिछड़ जाते हैं
    वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं
    उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम
    वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
    ज़िन्दगी के सफ़र में ...

    आँख धोखा है, क्या भरोसा है
    आँख धोख है, क्या भरोसा है सुनो
    दोस्तों शक़ दोस्ती का दुश्मन है
    अपने दिल में इसे घर बनाने न दो
    कल तड़पना पड़े याद में जिनकी
    रोक लो रूठ कर उनको जाने न दो
    बाद में प्यार के चाहे भेजो हज़ारों सलाम
    वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
    ज़िन्दगी के सफ़र में ...

    सुबह आती है, शाम जाती है
    सुबह आती है, शाम जाती है यूँही
    वक़्त चलता ही रहता है रुकता नहीं
    एक पल में ये आगे निकल जाता है
    आदमी ठीक से देख पाता नहीं
    और परदे पे मंज़र बदल जाता है
    एक बार चले जाते हैं जो दिन\-रात सुबह\-ओ\-शाम
    वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
    ज़िन्दगी के सफ़र में ...


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  12. कहानी का मारल -कभी भी दो स्त्रियों को एक दूसरे से रूठना नहीं चाहिए और पुरुष मित्रों को नाराज !
    यानी मेरे काम की नहीं कहानी :-)
    तुम्ही हो सखा वाली लाईन किसी विज्ञापन का असर है क्या > इन दिनों बहुत सुनायी पड़ रहा है !

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  13. देर तक रूठे रहना स्वयं पर भी अन्याय है !

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  14. बहुत सुन्दर कहानी.....
    रूठ कर हम खुद को तकलीफ देते हैं.....
    फिर रूठना ही क्यूँ??

    सादर
    अनु

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  15. ओह! कहानी का अंतिम वाला टर्न शुरुआत में नहीं सोचा था।
    रुठना-मनाना अनुभूति को सजाने वाले अवयव हैं। इन्हें रहना जरूरी है, पर विलगाव सदैव मर्मांतक होता है।
    आभार।

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  16. शायद इस कहानी से इसका कोई संबंध नहीं हो, फिर भी एक शे’र याद आ गया ...
    पहले ज़मीन बांटी थी, फिर घर भी बट गया,
    इंसान अपने आप में कितना सिमट गया।
    कहानी कथ्य और शिल्प दोनों मामले में बेजोड़ है। कथा बुनने का आपका कौशल सधा हुआ है।

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  17. jindagi khel khel men bhi kabhi kabhi bada khel khel jati hai.....marmsparshi kahani.

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  18. hriday sparshi.. par aisa hota hai..
    chhoti moti ruswai me ham kho dete hain, kisi apne ko..!!

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  19. बहुत अच्‍छी कहानी। दूरियां चाहे झूठ-मूठ की ही क्‍यों ना हो, इनको बनाने की कीमत चुकानी पड़ती ही हैं। आपको बधाई।

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  20. स्पर्श करती है कहानी ... रूठना मानना चलना चाहिए पर इतना भी नहीं की हमेशा को हो जाए ... या हाथ से डोर टूट जाए ...
    कई बार बहुत देर हो जाती है ...

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  21. अदा जी ने गाने में सारी बात कह दी।

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  22. सहेली के साथ साथ रिश्तो में भी अक्सर हो जाता है और पहले आप पहले आप में हम तुम छुट जाते है ।बहुत सुन्दर कहानी ।

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  23. बहुत सुन्दर कहानी।..खुद से क्यो रुठना..

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  24. :)
    रूठे सूजन मनाइए जो रूठे सौ बार
    रहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुकताहार

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  25. इतनी अच्छी कहानी आज पढ़ पाया!:( सब संजोग की बात है।

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  26. 'परिकल्पना ब्लोगोत्सव' में आपकी कहानी को पढ़ा था 'मौन मौन कहाँ होता है' शीर्षक के साथ | कहानी बहुत अच्छी लगी | आपकी कहानी पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों के आगे मेरे बचपन की एक-एक तस्वीर सजीव होती जा रही थी | मेरा एक बचपन का दोस्त है आशीष , मुझे याद भी नहीं कि उस से पहले मेरा कोई दोस्त था भी कि नहीं | साथ में स्कूल , साथ खेलना , किस्मत से कुछ दिनों में हमारे घर भी पास-पास हो गए , हर शैतानी में साथ , हर प्रशंसा में साथ , अक्सर ही नंबर भी लगभग बराबर ही आते थे , यहाँ तक कि काफी लोग हमारे नाम भी नहीं जानते थे , किसी एक के नाम से दोनों का काम चल जाता था | फिर हम लोगों ने साथ में इंजीनियरिंग की तैयारी शुरू की | मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे उस से अलग किसी कॉलेज में जाना पड़ेगा लेकिन अंत में वही हुआ | आश्चर्य की बात तो ये है कि मेरे कॉलेज में लड़के उसे जानते भी नहीं हैं फिर भी गलती होने पर मेरा नाम आशीष ही पुकारते हैं |
    शुक्रिया इतनी अच्छी यादों के लिए |

    सादर

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