बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

प्रगतिशीलता बनाम पूर्वाग्रह …

"राँझणा फिल्म  में एक दृश्य है --  जे एन यू में पाईप के सहारे चढ़ते को एक प्रगतिशील ग्रुप के छात्र देख लेते हैं और चोर समझ कर पुलिस के हवाले करने  से पहले काफी विमर्श करते हैं कि इसका क्या किया जाए . यह इस तरह पाईप पर क्यों चढ़ रहा था !
 पुलिस को सौंपने का तात्पर्य कि हम सिस्टम पर भरोसा कर रहे हैं जबकि हमें सिस्टम का विरोध करना है . इसकी गरीबी का कारण अशिक्षा है आदि -आदि  . 
अंग्रेजी में  गरीबी और अशिक्षितों पर हो रहे इस विमर्श के बीच नायक कहता /सोचता है -- इस समय मेरी सबसे बड़ी समस्या भूख है और उसका हल  चाय -समोसा है।  (निर्देशन की कुशलता से इस दृश्य की और अधिक मारक बनाया जा सकता था )

सामाजिक समस्याओं पर होने वाले विमर्श की परतें उधेड़ता बहुत ही मारक है यह दृश्य। हमारे देश /समाज में होने वाले अधिकांश विमर्शों की यही दशा /दिशा है।  गरीबों और मजदूरों की समस्याओं पर पर विमर्श होता है फाईव स्टार होटल या होटल जैसी ही सुविधाओं वाले एयरकंडीशंड कमरों में खाए पिए अघाए व्यापारियों द्वारा . देश के ग्रामीण अशिक्षितों की समस्याओं पर विचार होता है महज अंग्रेजी में ही गिटरपिटर करते डिग्रीधारकों द्वारा।  विमर्शकर्ता  इन विमर्शों की सीढ़ी  चढ़ते  पहुँच जाते है समाज के उच्चतम श्रेणी में और  जिस पर विमर्श किया जा रहा है वह अनगिनत वर्षों से वहीँ  का वहीँ जमा। विमर्श जिस पर किया जा रहा है ,  उन्हें इन विमर्शों में शामिल किया जाता , उनकी भी राय ली जाती तो शायद इन विमर्शों का स्वरुप कुछ और होता. समस्या वास्तविक धरातल पर समझी जाय तब ही  उसका निराकरण संभव है।  

यही हाल स्त्री और उससे जुड़ी समस्याओं के विमर्श का है।  इस  करवा चतुर्थी  पर भी प्रगतिशीलों का विमर्श बदस्तूर जारी रहा  . एकतरफा घोषणा या दिशा -निर्देश जारी करने  से पहले  इन रस्मों को धारण /निभाने वाली स्त्रियों की राय तो ले लेते कि वे चाहती क्या हैं  या शायद इनके लिए इन स्त्रियों की राय मायने नहीं रखती क्योंकि व्रत उपवास का मतलब पति की गुलामी करना ही होता है।  यह मान  बैठना कि व्रत /उपवास करने वाली सभी विवाहित स्त्रियाँ बेड़ियों में जकड़ी है , एकतरफा  सोच है , पूर्वाग्रह है।   
 
आप जिनकी समस्या पर बात कर रहे हैं , दरअसल वे अपनी समस्याओं का हल किस प्रकार चाहते हैं , यह अधिक मायने रखता है. ना कि आप द्वारा थोपे गए विचार। जब आप धर्म विशेष द्वारा थोपी गयी धारणाओं का विरोध धूमधाम से करते हैं तो यह भी निश्चित होना चाहिए कि आप थोपे गए विचारों का विरोध करते हैं  , स्वयं  अपने विचार थोपते नहीं। जो कार्य आप नहीं करते वह दूसरे  के लिए लिए गुलामी ही हो यह आवश्यक नहीं।  मुश्किलें तब आती है जब सभी समस्याओं के  हल हम एकतरफा सोच के साथ करना चाहते हैं। या वे  शायद यह मान कर ही चलते हैं कि विवाहित स्त्रियाँ  का कोई वजूद / स्वतंत्र व्यक्तित्व ही नहीं है और यदि आप ऐसा ही मानकर चलते हैं तो आपसे मूढ़ और कोई नहीं।

(इस विषय पर कविता जी का यह लेख उल्लेखनीय है )

व्यक्ति की स्वतन्त्रता में विश्वास करने वालों को स्त्रियों को स्वयं निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने में सहायता करनी चाहिए , ना कि अपनी बनी बनाई सोच परोसकर उसपर ही अमल करने की समझाईश।  

इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के हल सिर्फ अंतरजातीय विवाहों में ढूँढने वाले लोग भी  मुझे ऐसी ही एक तरफ़ा सोच वाले नजर आते हैं .  समाज के विरोधाभास पर प्रश्नचिन्ह लगाते  इन लोगों के   विचारों में कितना विरोधाभास है , ये स्वयं भी नहीं जानते।  एक और ये  सिर्फ प्रेम विवाह की स्वीकृति चाहते हैं  . दूसरी ओर इनकी धारणा  है कि विवाह अपनी जाति  धर्म में करना जाहिली है।  मतलब यह प्रगतिशील  समूह  सिर्फ यह मानकर ही चलते हैं कि दो इंसानों के बीच प्रेम तभी संभव है जब वे विजातीय हो। 
क्या यह भी अपने आप में एक भयंकर पूर्वाग्रह  नहीं है। 

हम सभी जानते हैं कि एक ही  या एक जैसे माहौल में रहने वाले लोग एक दूसरे  के साथ ज्यादा सुविधाजनक होते हैं।  क्या किसी शाकाहारी के लिए मांसाहारियों के साथ तालमेल बैठना आसान है ! पान सुपारी भी नहीं खाने वाले लोग क्या मादक द्रव्यों के सेवन करने वालों के साथ सुविधानाजक निबाह कर  सकते हैं ? यह सही  है कि व्यवहार या विवाह यदि प्रेम के लिए हो तो लोग तालमेल बैठाना /सामंजस्य /समझौता करना पसंद करते हैं …. यानि घूम फिर कर बात तो समझौते और सामंजस्य पर ही आई . विवाह या व्यवहार प्रेम /पसंद से हो या प्रायोजित !!

अब आँखें खोलकर बताएं कि पूर्वाग्रही कौन है ! एकतरफा सोच किसकी है !!

31 टिप्‍पणियां:

  1. चिंतनीय आलेख वाणी जी ! दूसरे की सोच की बखिया उधेड़ने के बजाय अपने दिल दिमाग को उदार बनाना ज़रूरी है साथ ही किसी भी समस्या के समाधान के लिये सतही विमर्श के स्थान पर उसके मूल कारणों पर विचार करना अधिक आवश्यक है शायद तब ही किसी निर्णय पर पहुँच पाना संभव हो सकेगा ! बढ़िया आलेख के लिये बधाई !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    साझा करने के लिए आभार।

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  3. भारतीयता में केवल पति के लिए ही नहीं अपितु पुत्र, भाई आदि सभी रिश्‍तों के लिए त्‍योहार हैं। इसी प्रकार पुत्री, बहन, मां आदि के लिए भी त्‍योहार हैं। समाज सुधारकों की आदत सी हो गयी है कि वे भारतीय जीवनमूल्‍यों की आलोचना करें। इसे प्रगतिशीलता नहीं कहते कि आप किसी पर अपने विचार थोपे। यदि आपको उचित नहीं लगता तो उसे अमान्‍य कर दें लेकिन दूसरों पर यदि विचार थोपना चाहते हैं तब वह तानाशाही होगी। जबरन दूसरों को अपने धर्म में दीक्षित करने जैसा ही। हिन्‍दु विवाह में कन्‍या के विवाह के समय उसे गौरी का स्‍वरूप मानते हैं और परिवार के सभी भाई ( बड़े भी ) उसकी पूजा करते हैं। ऐसे ही अनेक परम्‍पराएं हैं, लेकिन जिन्‍हें भारतीयता से ही विरोध हो तब क्‍या किया जा सकता है?

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  4. यह भटकाव् और उलझन हम स्वयं ही पैदा कर रहे हैं ..... पूरी सहमत हूँ कि समस्याओं का हल उन्हें जानकर समझकर निकाला जाना चाहिए ...हमने बस , एक राह पकड़ ली है

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  5. वाणी जी
    @यह मान बैठना कि व्रत /उपवास करने वाली सभी विवाहित स्त्रियाँ बेड़ियों में जकड़ी है , एकतरफा सोच है , पूर्वाग्रह है।

    मेरा एक नियम हैं की किसी भी तीज त्यौहार पर चाहे वो किसी भी धर्म या जेंडर से जुड़ा ना हो , जिस दिन वो त्यौहार होता हैं उस दिन मै उस पर कभी कोई बहस नहीं करती क्युकी "आस्था " और " विश्वास " से बड़ा कुछ नहीं होता।
    आप की इस पोस्ट पर कमेन्ट इस लिये दे रही हूँ क्युकी कई बार कोई भी जो किसी बात पर बात करता हैं ख़ास कर अगर वो धर्म , मान्यता इत्यादि से जुड़ी होती हैं तो लोग उसको प्रगति शील , फेमिनिस्ट का तमगा दे ही देते हैं ऐसा क्यूँ हैं ?? पूर्वाग्रह तो ये भी हैं।

    गीता में एक जगह कहा गया हैं अँधा अनुकरण धर्म नहीं अधर्म हैं धर्म मान्यता में नहीं होता हैं मान्यता धर्म को प्रचारित करने के लिये बनती हैं

    आप ने सही कहा हैं की साथ रहने के लिये तालमेल बैठाना /सामंजस्य /समझौता जरुरी हैं लेकिन किसी को महज कुछ ऐसा करना हो जो करना उसका अंतर्मन नहीं चाहता तो वो उस मान्यता का अंधा अनुकरण हैं , या वो एक डर हैं की समाज क्या कहेगा
    समाज हम से हैं हम समाज से नहीं हैं , जीव हैं तो समाज की जरुरत हैं जीव ही नहीं होगा तो समाज भी नहीं होगा

    करवा चौथ स्त्री की सहनशीलता का प्रमाण हैं उसके पति प्रेम का नहीं क्यूँ बहुत सी ऐसी सुहागिने भी हैं जो इस व्रत को केवल और केवल इस लिये रखती हैं क्युकी ना रख कर उनको तमाम सवाल के जवाब देने पड़ते हैं , और कुछ तो पति को गाली दे दे कर नहीं थकती पर वर्त भी रखती हैं

    मेरे लिये जो रखती हैं या जो नहीं रखती हैं ये उनका पर्सनल मामला हैं , लेकिन ये परम्परा पुरुष को स्त्री से ऊपर के स्थान पर स्थापित करती हैं , स्त्री में एक डर बिठाती हैं की अगर पति नहीं होगा तो उसको सुहाग सिंगार नहीं मिलेगा

    करवा चौथ विवाहित स्त्री के लिये नहीं होता हैं केवल सुहागिन के लिये होता हैं इस लिये इसका महत्व स्त्री से नहीं जुड़ा हैं अपितु उसके सुहागिन होने दे जुड़ा हैं

    बहुत सी विधवा स्त्री के लिये ये दिन एक दुःख भरा रहता हैं क्युकी उस दिन उसको निरंतर ये एहसास होता हैं की वो विधवा हैं


    @विवाह या व्यवहार प्रेम /पसंद से हो या प्रायोजित !!

    वाणी जी
    विवाह करना या न करना जब तक व्यक्तिगत निर्णय ना हो कर , पारिवारिक निर्णय , सामाजिक निर्णय , सही समय पर सही काम , इत्यादि से जुड़ा मुद्दा रहेगा तब तक विवाह का वर्गीकरण , प्रेम , प्रायोजित , इन्टर कास्ट , इन्टर रेलिजन होता रहेगा।

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    1. रचना जी , धर्म में यदि किसी बुराई/कर्मकांड के कारण मानवता का नुकसान होता है तो बेशक उसका प्रतिवाद करना चाहिए , कोई भी समझदार इंसान करेगा ही मगर मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूँ कि अति किसी भी चीज की बुरी होती है। धर्म से जुडी हर आस्था और श्रद्धा पर बिना सोचे समझे सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना हो तो यह अति ही है।
      विधवा होना किसी स्त्री का कुसूर नहीं है , यदि किसी कारण कोई उन्हें प्रताड़ित करता है , तो बेशक यह निंदनीय है। स्त्रियों के पुनर्विवाह की बहुत सी घटनाएँ मेरे सामने है , यहाँ तक कि पति को खो चुकी स्त्रियों के श्रृंगार पर भी अब कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता। बहुत सी ऐसी स्त्रियाँ भी हैं हमारे सामने जिन्होंने पति के जाने के बाद सुहाग चिन्ह नहीं। समाज में सुधर हो रहा है , बेशक कम है लेकिन विरोध का यह तरीका ," करवा चौथ का नाश हो " किस तरह जायज है, जबकि सभी सुहागिन अथवा विवाहित स्त्रियों के लिए यह आवशयक भी नहीं है कि वे इस व्रत को करें। बिहार , उत्तरप्रदेश , दक्षिण में बहुत कम लोग ही इस व्रत को करते हैं , स्वयं मेरे मायके में भी इस व्रत की कोई अहमियत नहीं है , माँ ,चाची ,दादी नहीं करती थी करवा चौथ , अब भाभियाँ अपनी मर्जी से करती हैं।

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    2. विवाह दो व्यक्तियों /परिवारों का नितांत व्यक्तिगत मामला है , यदि दो लोग अपनी सुविधा से अपनी जाति में विवाह करे और आप उसे दकियानूसी साबित कैसे कर सकते हैं , बात तो प्रेम की है , वह किसी को किसी से भी हो सकता है। विवाह से पहले या विवाह के बाद भी और बिना सामंजस्य तो प्रेम विवाह भी नहीं निभता या आपके शब्दों में कहूं जिया नहीं जा सकता !

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    3. वाणी जी
      आप किसे प्रगतिशील कह रही हैं ? क्या आप प्रगतिशील शब्द का दुरूपयोग नहीं कर रही हैं ? आप तो खुद उपहास उड़ा रही हैं उन लोगो का जो वास्तव में समाज में प्रगति का आवाहन कर रहे हैं क्युकी आप आप उनलोगों को प्रगतिशील कह रही हैं नहीं पता की " किस समय क्या बोलना चाहिये " जिस ने भी ये कहा हैं "करवा चौथ नाश हो " उसको प्रगतिशील कह कर आप भी टंच ही कस रही हैं। ये भी पूर्वाग्रह ही तो हैं।

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  6. बखिया उधड़ने के बाद भी मूढ़ और पूर्वाग्रही का इलाज सम्भव है क्या ??

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  7. वाणी जी,यदि महिला की मर्जी ही कोई मापदंड होता तो सती प्रथा पर्दा प्रथा का भी कोई निदान नहीं था।हमें तो ये देखना चाहिए कि यदि कोई परंपरा पहले से चली आ रही है तो उसके पीछे तर्क क्या है और उसका प्रभाव क्या है।हालांकि मैं ये भी नहीं मानता हूँ कि केवल करवा चौथ न मनाने से ही कोई महिला प्रगतिशील हो जाएगी।

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  8. राजन जी ,
    करवा चौथ और सतीप्रथा बिलकुल अलग बात है , इसकी कोई तुलना नहीं है। जैसा कि मैंने बताया आधे भारत में या व्रत नहीं किया जाता , स्वयं मेरे मायके में भी नहीं। मगर मैं दूसरों की आस्थाओं और श्रद्धा का सम्मान करती हूँ जब तक वह अमानवीय साबित ना हो !

    रचना जी ,
    प्रगतिवाद और नारीवाद शब्द इसलिए उपयोग में लिया है कि बेतुके तर्क देने वाले इन शब्दों के प्रयोग के तले ही श्रद्धा का अपमान कर रहे हैं।

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    1. रचना जी ,
      प्रगतिवाद और नारीवाद शब्द इसलिए उपयोग में लिया है कि बेतुके तर्क देने वाले इन शब्दों के प्रयोग के तले ही श्रद्धा का अपमान कर रहे हैं।


      वाणी जी
      किसी भी विषय पर बात करने से अगर कोई अपना अपमान समझ ले तो बात कैसे संभव होगी { बात = कम्युनिकेशन }
      जब तक बात नहीं होगी , बहस नहीं होंगी , कैसे पता चलेगा श्रद्धा हैं अंध श्रद्धा हैं।
      बात करवा चौथ तक ही सिमित नहीं हैं , जब भी इन विषयों पर जहां हम लोग कोई बात करना चाहते फ़ौरन हमरी छवि को एक नेगेटिव में तब्दील कर दिया जाता हैं
      ये सब तर्क किसी महिला को अगर सोचने पर मजबूर कर दे की वो जो करती रही हैं उसको करना उसके लिये अनिवार्य नहीं हैं / था तो समझिये तर्क देने वाला प्रगतिशील ही रहा होगा
      महिला का अधिकार हो उसकी सोच पर और महिला की सोच को कंडीशन से मुक्ति मिले तभी बात बराबरी की होगी
      महिला करवा चौथ रखती हैं इस लिये आज कल पति भी साथ में फ़ास्ट कर रहे हैं , क्या ये बराबरी हैं , नहीं ये तो अँधा अनुसरण हैं एक प्रथा का।

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  9. सबसे अहम् बात ये है कि स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हो, वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनें ,तभी उनमें अपनी सोच -समझ विकसित होगी और वे अपने विवेक से व्रत करने या न करने का या अपने जीवन से सम्बंधित कोई भी निर्णय ले सकेंगीं, तब न तो पुरातन पंथी और न ही तथाकथित प्रगतिशील लोग कोई दबाव डाल पायेंगे .

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    1. सही कहा रश्मि जी।कुछ यही बात मैं रचना जी के ब्लॉग पर कहना चाहता था पर ढंग से कह नहीं पाया।

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  10. क्यों न कुछ फैसले स्त्रियों पर ही छोड़ दिए जाएँ. क्यों जरुरी है उन्हें बताना कि अब व्रत करो , और अब छोड़ दो. उन्हें विचार करने के काबिल बना दो इतना काफी है फिर वे अपना भला बुरा खुद सोच लेंगीं

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  11. दो तरह के लोग हैं -एक तो परम्परा अतिवादी और दूसरे प्रगतिशील अतिवादी . मुझे लगता है कि एक अच्छी सामाजिक व्यवस्था कहीं इन दोनों अतिवादों के मध्य है .

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  12. कई परम्पराए ,अनुष्ठान आदि महज कर्मकांड सरीखी ही हैं मगर चूँकि वे एक सांस्कृतिक पहचान भी हैं इसलिए अच्छी भी लगती हैं !

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  13. अपने अपनी बात सलीके से कही है। आस्था और विश्वास तो अतिवादियों के पास भी थोक में है। फर्क इतना है की जहां सामान्य लोग अपने रीति रिवाज अपने तरीके से अपनाते हुए दूसरों के तौर तरीकों का सम्मान करते हैं वहीं अतिवादी मनोवृत्ति अपनी सोच को ही दुनिया पर थोपना चाहती है। मेरा विचार, मेरे नायक, मेरी किताब, मेरा धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठना आसान नहीं है।
    सबकी अपनी सोच है, अपने हैं विचार
    अपने रंग में रंगना क्यूँ चाहे संसार

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  14. विचार विमर्श सार्थक हो और फलदायक भी, शुष्क ज्ञान संप्रेषण निष्फल ही रहता है।

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  15. एक रस सी ज़िंदगी में त्योहार सरसता भरते हैं .... पूरे वर्ष भारतीय घरेलू स्त्रियाँ एक सा जीवन जीती हैं उसमें कुछ दिन त्योहार के रूप में माना कर थोड़ा परिवर्तन आ जाता है .... हर त्योहार आस्था से जुड़ा है ... जैसी जिसकी समझ है वो उसी रूप में सोचता है .... कोई भी त्योहार बेड़ियाँ नहीं पहनाता .... करवाचौथ का जितना बाजारीकरण किया गया है उतना किसी अन्य का नहीं .... और ऐसा भी नहीं है कि पूरे भारत में इसे मनाया जाता हो ..... पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो कर अपनी सामर्थ्य अनुसार त्योहार मनाना चाहिए .... बहुत सी स्त्रियॉं को देखा है कि भूख बर्दाश्त नहीं होती और व्रत करती हैं फिर पति पर एहसान दिखाती हैं कि तुम्हारी लंबी उम्र के लिए व्रत रखा है ..... ऐसे व्रत करने का कोई लाभ नहीं .... व्रत ,उपवास वैज्ञानिक रूप से शरीर को दुरुस्त रखने के लिए होते हैं .... पर हम उपवास के नाम पर और भी ज्यादा गरिष्ठ भोजन कर उपवास का उपहास ही करते हैं .... अब ये मेरे विचार हैं वैसे तो यदि पकवान न हों तो कैसा त्योहार :):)
    आपकी भावना से सहमत हूँ कि किसी कि आस्था पर अपने विचार थोपने नहीं चाहिए .... यदि मान्य नहीं हैं तो अमान्य कर दें ...... बस स्त्रियों को स्वयं सोचने और उस पर चलने की आज़ादी मिले ..... और यह आज़ादी कोई वस्तु नहीं है जो उठाई और दे दी ..... इसे खुद हासिल करना होगा .... विचारणीय लेख ।

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  16. समझौता तो जीवन का पहला सच है, जो जन्म से ही शुरू होता है। हमारे जन्मजात संस्कार,कुसंस्कार होते हैं, हमारी आत्मा को जो शरीर मिला है - वह किस परिवार के आँगन में उतर रहा है - यहीं से कई बातें आरम्भ होती हैं .
    प्रेम,तय किया रिश्ता - दोनों में दो जगहों के समझौते होते हैं, और संकल्प शपथ इसीलिए दोनों पक्ष से होते हैं,इकतरफा होते - सबकुछ धीरे धीरे खत्म होने लगता है।
    सामाजिक,पारिवारिक,राजनैतिक,एकांत जीवन - चार राहें होती हैं, शांत चयन आसान नहीं होता,प्रगतिशीलता के आगे-पीछे बहुत कुछ होता है -
    न व्रत से हम अन्धविश्वासी होते हैं,न नास्तिकता के बोल बोलकर हम आधुनिक होते हैं . अपनी सोच के साथ कई आयाम होते हैं और उसके बाद कहें या पहले - उपरवाले की योजना अपनी होती है !बात धर्म की हो,समाज की हो,या परिवार,जाति या प्रेम - तयशुदा शादी की हो . अंतहीन सोच है,मध्य सिरे से कई सवाल सर उठाते हैं और अपने को परखना ही ज़रूरी होता है।
    स्त्री हो या पुरुष, सबके दायरे हैं - शिक्षित भी अशिक्षित होते हैं,अशिक्षित शिक्षित - शिक्षा समय की होती है या समयानुसार !!!

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  17. सचमुच एकरसता जीवन को नीरस बना देती है, जिनमे ऐसे त्यौहार रंग भर देते हैं, बदलाव हर जगह हुए हैं इनपर भी असर डालेंगे ... शुभकामनायें

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  18. जहाँ तक करवा चौथ की बात है, ये भारत के अधिकतर हिस्सों में नहीं मनाया जाता है, हाँ ये आधुनिक भारत के समृद्ध इलाको में मनाया जाता है इसलिए इसकी चर्चा ज्यादा होती है. इस त्यौहार का व्यवसायीकरण भी बहुत हो रहा है जिसके वजह से भी इसका प्रचार प्रसार भी हाल के दिनों में बढ़ा है. ऐसे भी जो त्यौहार या पर्व भारत के गरीब लोग गरीब इलाकों में मनाते हैं उसके बारे में लोगों को कम जानकारी है. यह त्यौहार जिन जगहों में शुरु हुआ अगर उनका का हाल का इतिहास उठा कर देखे तो पता लगेगा की ये इलाके के तरफ से ही आक्रमणकारी बाहर से भारत में घुसे और यहाँ के लोगों को बहुत ही मार काट झेलना पड़ा.. इन इलाके के पुरुष दुश्मनों से लोहा लेते हुए मारे जाते थे और आक्रमणकारी उनकी स्त्रियों को उठा के ले जाते थे .. इन परिस्थितयों में पुरुषों की लम्बी आयु की कामना करना एक तरह से बहुत ही स्वाभाविक बात लगती है क्योंकि पुरुष ही बाहर जाकर जोखिम भरा काम करते थे / हैं..प्रकृति ( evolutionary process NOT the social conditioning ) ने पुरुष को जोखिम लेने वाला बनाया है चाहे हम hunter-gatherer युग की बात करे या आज के आधुनिक युग की ये पुरुष ही जो जान-जोखिम भरे कार्य करने को उपयुक्त माने जाते हैं या करते हैं - देश की सीमा की रक्षा करना हो , खदानों में काम करना हो, सीवर साफ़ करना हो , रेलवे ट्रैक की मरम्मत करना हो, समुन्द्र में मछली पकड़ना या फिर कोई और सारे दुनिया में किसी भी काल में इन तरह के खतरनाक काम के लिए पुरुष ही लगाये गए है. ये बहुत आश्चर्य की बात नहीं है की male mortality rate has been much higher than female mortality rate ...Women have historically lived much longer than men ... ये बात तो कतई नहीं है की इसे पुरुषों ने स्त्रियों पे लादा है .. हाँ ये हो सकता है की एक परंपरा के रूप में सैनिकों के स्त्रियों ने अपने सैनिक पति की दुआ सलामती के लिए ये व्रत रखना शुरू किया होगा जो बाद में चलकर एक त्यौहार का रूप ले लिया है...और आज जिनके पति बिलकुल ही निकम्मे है और जो एक चूहे से भी dar जाते हैं उनके लिए भी उनकी पत्नियाँ करवा चौथ का व्रत रखती है .....जहाँ तक विवाह की बात है ये कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है (जैसा की बहुत लोग समझते हैं) बल्कि ये मनुष्य की जैविक प्रवृति है evolutionary science के टर्म में pair - bonding कहते हैं. अगर ये सामाजिक संस्था होता तो शायद ये किसी समाज में पाया जाता और किसी में नहीं ...मनुष्य ने पहले परिवार बनाया फिर जाकर समाज बना, एक इंसान ही वो जीव है जो अपने दोनों जन्मदाता (माता और पिता ) के द्वारा पाला जाता है वो भी लम्बे समय तक ..और जब मनुष्य नामक जीव परिवार बनाकर अपने बच्चो को पालना शुरू किया तब जाकर ही उसका मष्तिष्क अपने निकटतम पूर्वज (बन्दर) से तीन गुना बड़ा हुआ और वो ही आज का बुद्धिमान जीव Homo sapiens (Latin: "wise man") कहलाया.. मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी को आज भी अपने माता पिता की उतनी ही जरूरत है जितने इसके शुरुआत में थी (शायद ज्यादा ही हो) विवाह (या pair-bonding) को सामाजिक संस्था मानना मेरे समझ से एक बुनियादी भूल है और करवा चौथ तो एक त्यौहार है जो इस बुनियादी बात तो रेखांकित करता है की पुरुष की जान और जिंदगी ज्यादा जोखिम से भरी रही है. .. जब स्त्रियों भी जान जोखिम भरे कामो में पुरुषो से आगे निकला जाएगी तो शायद पुरुष भी कर्वी चौथी जैसा व्रत अपने स्त्रियों के लिए करने लगे..हाँ एक सवाल मेरे मन में आ रहा है की पाषाण कालीन पुरुषो ने स्त्रियों से जोखिम भरे काम क्यों नहीं करवाए ???

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  19. मेरे तो न ससुराल में करवा चौथ का चलन है ना ही नैहर में, लेकिन मैं करती हूँ, अपनी मर्ज़ी से । इस बार करवा चौथ में राँची में थी । वैसे भी मैं ये त्यौहार बहुत सादगी से करती हूँ । जब मैं स्कूल में थी तो वहां सिस्टर्स 'विनती-उपवास' करतीं थीं.। बहुत शान्ति से वो एक हाल में बैठतीं थीं, ईश्वर को याद करतीं थी और एक वक्त खाना खाती थीं । मुझे वो तरीका बहुत पसंद है.। व्रत-उपवास हर धर्म में है, चाहे वो हिन्दू हो, मुसलमान हों या ईसाई।
    मेरी समझ में एक बात नहीं आती, व्रत-उपवास को इतना हौवा क्यूँ बना दिया जाता है ? क्या सिर्फ इसलिए कि व्रत हमेशा औरतें ही करतीं हैं ? ऐसा भी नहीं है, कई व्रत हैं जो पुरुष भी करते हैं, जैसे मंगल का व्रत, सावन के व्रत।हाँ करवा चौथ का व्रत पति के लिए किया जाता है इसलिए इसपर अक्सर प्रश्नचिन्ह लगता है । लेकिन मैं जहाँ तक समझती हूँ, यह व्रत पत्नी का अपने पति के प्रति प्रेम दर्शाने का तरीका है.। अगर पत्नी को पति से प्रेम नहीं है, या फिर यह उसे दकियानूसी लगे, या फिर उसे लगे कि मैं अकेली क्यों ये क्यों नहीं, तो बेशक उसे व्रत नहीं करना चाहिए। इसे करना न करना पत्नी की मर्ज़ी पर ही होना चाहिए वर्ना हमलोगों में एक कहावत है 'बिना मन के बियाह और कनपट्टी में सेंदूर ', क्योंकि पूजा, व्रत-उपवास इन सबका सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ भावनाओं से है.। पूजा, व्रत-उपवास इत्यादि का प्रगतिशीलता से कोई लेना-देना नहीं है.। एक से एक प्रगतिशील महिला ये सब कर सकती है, हम औरतें चाहे कितनी भी पढ़-लिख जाएँ स्त्रियोचित गुणों से कैसे मुक्ति पा सकतीं हैं.। अगर मेरा बच्चा बीमार है तो क्या मैं प्रगतिशील हूँ इसलिए रात में ना जागूँ ? अभी जीउतिया का त्यौहार आया, जो बच्चों के लिए किया जाता है, मैंने किया। क्या प्रगतिशील होने के कारण मैं ना करूँ ? कहना नहीं चाहिए फिर भी कह रही हूँ, मेरी माँ बीमार है, घर में उसकी देख-भाल के लिए लोग हैं फिर भी मैं उसके साथ सारी रात जागती हूँ, तो क्या मेरी प्रगतिशीलता शिथिल पड़ जायेगी ? मुझे अपने पति और अपने बच्चों से बहुत प्रेम है, मैं उनके लिए दुआ करती हूँ और व्रत करती हूँ, फिर भी ढंके की चोट पर कहती हूँ मैं एक आधुनिक और प्रगतिशील महिला हूँ.। सोचने वाली बात ये है, आखिर ये प्रगतिशीलता है क्या ? मेरे विचार से समय, सन्दर्भ और परिवेश के अनुसार अपने विचारों को और परिष्कृत और वृहत करते जाना प्रगतिशीलता है । प्रगति = progress … ।

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  20. एक दुकानदार ने बोर्ड लगा रखा था, "जब हम आप के पड़ौस में स्थित हैं तो आप लुटने के लिये बाज़ार क्यों जायें?।" वैसा ही हाल इन उपदेशकों का है।

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  21. दरअसल कुछ ऐसे प्रगतिशील समूहों की रोज़ी रोती इस बात पर ही चलती है की वो कितना एक्सट्रीम पक्ष ले सकते हैं किसी भी पहलू का ... बिना सोचे समझे बस विरोध ही उनकी मानसिकता है ... अगर कहीं अपने या अपने परिवार पे उन्हें ये सब लागू करना पड़े तो सचाई समझ आ जाएगी ... जरूरी है अपनी सोच को विस्तृत करने की ... खुले मन से सोचने ओर फिर करने की ...

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  22. बहुत ही गुरू गंभीर विषय है जिसे आपने बडी सहजता से उठाया है. सिर्फ़ विरोध के लिये विरोध करना ठीक नही लगता आखिर सबके अपने अपने मूल्य और मर्यादाएं होती हैं जिनका पालन खुशी से किया जाये तो क्या गलत होगा? यदि जबरदस्ती करना पडे तो ना करना ही बेहतर होगा. सशक्त आलेख.

    रामराम.

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  23. ये आपका ब्लॉग है . मुझे अबतक पता नही था . मैं तो आपकी कविता की प्रतीक्षा में ही रहती थी . अच्छा लगा आपको पढ़कर ..

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