रविवार, 2 फ़रवरी 2014

बच्चों को खूब पढ़ाया लिखाया , मगर अपनी सोच का क्या किया ……

घर क्या होता है 
तुम क्या जानो 
तुम जानते हो जमीन के छोटे बड़े टुकड़े 
कमरा इतने फीट बाई इतने फीट 
कैसे बताऊँ - इसे घर नहीं कहते !
घर एक एहसास है 
जहाँ किसी एक का ज़ख्म 
दूसरे की तकलीफ बन जाता है 
घर वह नहीं
जहाँ रोटी की कीमत आंकी जाती है
घर -
ज़रूरी नहीं कि आलीशान हो !
छोटा हो
पर प्यार से भरा हो
जहाँ बचपन, सपने, खिलौने
सब एक साथ रजाई में दुबककर सोते हों
सुबह होते शोर हो
'आज कौन चाय बनाएगा'?
और फिर एक ख़ामोशी पसर जाए
थोड़ी देर बाद माँ की आवाज आए
'मैं ही बना लेती हूँ'
और फिर धम धम कोई रसोई तक जाये बड़बड़ाते हुए
'इमोशनली ब्लैक मेल करती हो !'
और पूरा घर खिलखिलाने लगे ....
घर ऐसा होता है !
(रश्मि जी की वॉल से चुराया हुआ)
-
 Rashmi Prabha

कुछ दिनों पहले  रश्मिप्रभा जी ने फेसबुक पर घर को घर बनाने वाली स्नेह पगी मीठी सी कविता पोस्ट की। उनके स्नेह और वात्सल्य से अभिभूत हम धड़ल्ले से चोरी /डाका डालने में अपराध नहीं समझते सो बाकायदा अपने फेसबुक वॉल पर भी चिपका दिया । गुदगुदाया मन फिर भी आशंकित हुआ कि घर के भीतर इमोशनली ब्लैकमेल माताएं अथवा पुत्रियां ही अधिक होती है। इसी सोच के आलोक में कुछ परिवार आँखों के सामने आये , जिनसे कुछ समय पहले या अक्सर मिलना -जुलना होता रहता है। 

पतिदेव का अपना ही शहर है ,  एक ही विद्यालय/मोहल्ले /ऑफिस  में साथ रहे /पढ़े लोगों का विस्तृत दायरा है मगर व्यस्त शहरी दिनचर्या में रिश्तदारों , परिचितों , मित्रो आदि से मिलना जुलना किसी ख़ास पारिवारिक कार्यक्रम अथवा कोई कार्य होने पर ही हो पाता है।  एक ही शहर में होने के बावजूद कई वर्ष गुजर जाते हैं हालाँकि फोन/मोबाइल /इंटरनेट  की सुविधा के कारण बातचीत होती रहती है। कुछ सप्ताह पहले वीकेंड पर परिचितों से मेल-  मिलाप का कार्यक्रम बना। 

मित्र केंद्रीय सेवा में हैं तो उनकी पत्नी बैंक में अधिकारी है। एक ही पुत्र है जो अपनी उच्च शिक्षा /करियर के लिए दूसरे शहर में रहता है , बस छुट्टियों में ही  आना  हो पाता है।  अच्छी लोकेशन में पार्क के सामने  मकान है उनका , बालकनी में खड़े उनकी पत्नी से कहा मैंने कि अच्छी जगह है , सामने पार्क है।  
पार्क है तो क्या , कभी सामने देखने का समय ही नहीं मिलता।  सुबह उठते ही रसोई नजर आती है , चाय -नाश्ता -खाना बनाया और भागे बैंक।  वीकेंड में देर से उठना , साप्ताहिक कार्य निपटाने में ही समय गुजर जाता है।  
नारी -शक्ति जाग उठती ही भीतर कभी  , तो  हम भी उसी भाव में ज्ञान देते हुए बोल पड़े ,  क्यों , इतने वर्षों में भाई साहब को नाश्ता बनाना नहीं सिखाया क्या। पत्नी सिर्फ मुस्कुराकर रह गयी। 
भाई साहब  तीखी नजरों से घूरते पतिदेव से मुखातिब हुए , ये क्या सिखा रही है मेरी बीबी को, हमारा झगड़ा करवाएंगी क्या। और दोनों मित्र खुल कर  हंस लिए। 
मैंने कहा उनकी पत्नी से , जागो नारी शक्ति और हम भी हँस  ही लिए !
 भाई साहब बड़े गर्व से बता रहे थे अभी ये नई गाडी खरीदी तो पुरानी पत्नी को दे दी। मैं समझती हूँ कि उनकी पत्नी की तन्खवाह उनसे कही अधिक ही रही होगी। 
पूरे समय मैं देखती रही , पानी लाने से लेकर जरुरी कागज़ , चश्मा , चाय पकड़ाते उनकी पत्नी ही चकरघिन्नी बनी रही। वर्षों से जानती हूँ इस परिवार को।  दोनों के बीच अच्छा सामंजस्य रहा है , कही कोई मनमुटाव या तानाकशी नजर नहीं आई।  यूँ तो भारतीय परिवारों में आम रहा है यह सब , मगर आजकल थोडा अखरता है।
   
एक और रिश्तेदार के घर जाना हुआ। संयुक्त परिवार था , सास -ससुर , बेटा बहू , पोता।  दो बेटे ही हैं उनके , इस परिवार में भी चाय पानी नाश्ता लिए श्रीमती जी ही चकरघन्नी बनी रही। अक्सर रश्क करते हुए कहती हैं , आपका अच्छा है , चाय -नाश्ता बेटियां सम्भाल लेती हैं. हैरानी अधिक इसलिए होती है कि  ये वह  महिला है जिन्होंने अपने घर में पिता और भाइयों को हमेशा माँ का हाथ बंटाते देखा है। 

एक और परिवार है , दो बेटे हैं उनके भी।  वे स्वयं  एकलौती पुत्री रही है , मगर मानसिकता वही , बेटियां सब कर लेती हैं , हमें तो स्वयं ही  करना पड़ता है।
 
एक और रिश्तेदार हैं।  दो पुत्रियों और एक पुत्र की माँ  अपने परिवार की एकलौती पुत्री रही हैं और उनकी संपत्ति की   इकलौती वारिस भी मगर जब अपना पुश्तैनी कार्य सम्भालने की बारी आई तो बड़ी बेटी के कार्य सँभालने की सम्भावना को सिरे  से  नकार दिया , यह कहते हुए कि व्यावहारिकता  का तकाजा यही है कि बेटा ही सम्भाले। 

एक और परिचित दो पुत्रियों और एक पुत्र की माता हैं।  उनका भरा -पूरा परिवार रहा छह बहनों और एक भाई का।  घर के काम में पति के हाथ न बंटाने  की शिकायत करती ये माताजी भी यही मानती है कि बेटियों को ही घर का काम सीखना है , बेटों का क्या है !!
 
ये सारे उदाहरण अच्छे- खासे पढ़े- लिखे परिवारों के हैं। माताएं भी पढ़ी- लिखी है , कोई सरकारी सेवा में हैं तो किसी का अपना व्यवसाय है। ये स्त्रियां पुत्र एवं पुत्रियों को रोजगार के लिए समान शिक्षा की वकालत तो करती हैं मगर घर के भीतर उनका अपना  दृष्टिकोण भिन्न है। 
  
कभी -कभी मुझे  लगने  लगता है कि पढ़ने- लिखने से आखिर होता क्या है !! अपने बच्चों को वकील , डॉक्टर , इंजीनियर , वैज्ञानिक , सीए आदि बना ले तो क्या , अपनी सोच का क्या करे। 
 
स्वयं पर भी संशय होने लगता है कि कही मैं भी पुत्रियों की माता होने के कारण ही तो निष्पक्षता की मंशा/भावना  नहीं रखती हूँ ! मानसिक स्थिति का उचित प्रकटन तो उन परिवारों में ही सम्भव है जो पुत्र और  पुत्री दोनों के माता -पिता है और उनके व्यवहार में अपनी संतान के लिए कोई भेद न हो , ना घर में , ना बाहर। 

क्या सच में पुत्र और पुत्री के जीवन को दिशा /शिक्षा देने के सम्बन्ध  में एक ही दृष्टिकोण सम्भव नहीं है !!! 

26 टिप्‍पणियां:

  1. मानसिक स्थिति का उचित प्रकटन तो उन परिवारों में ही सम्भव है जो पुत्र और पुत्री दोनों के माता -पिता है और उनके व्यवहार में अपनी संतान के लिए कोई भेद न हो , ना घर में , ना बाहर।
    तब तो मैं भी अधिकारी नहीं कुछ बोलने के लिए
    हार्दिक शुभकामनायें

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    1. बिलकुल ही अधिकार नहीं , ऐसा नहीं है मगर परीक्षा तो उनकी ही कड़ी हुई ना :)

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  2. यही मानसिकता तो बदलनी है .... अभी भी भले ही लोग बेटियों को शिक्षा बराबरी से दिलाएं पर घर के काम काज में बेटों और बेटियों में फर्क कर ही देते हैं . विचारणीय विषय .

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  3. सबसे पहले तो इस हक़ पर मैं कुर्बान जाऊँ - मेरी सेहत के लिए असरदार दवा . हक़ की दवा दावे के साथ लेकर-देकर मेरी तबियत खुश कर दी ....
    मैं भी हर तरफ यही नज़ारे देखती हूँ . मैंने अपनी बेटियों को नम्रता से सबकुछ करना सिखाया है तो बेटे को भी यही उचित शिक्षा दी है। यह ज़रूरी भी है, आपसी समझ बढ़ती है, एक बीमार हो तो घर अव्यवस्थित नहीं होता और बीमारी से उठने पर घर को ठीक करने में फिर से बीमार होने की गुंजाइश नहीं होती।
    लड़के पहले खायेंगे, यह परम्परा आज भी है, 'हम तो कुछ भी खा लेंगे' जैसी भावना लिए स्त्रियाँ अगल-बगल की सहज-सरल व्यवस्था को भी उलझा देती हैं !
    मैं जहाँ रहती हूँ, वहाँ किसी के घर मेरा आना-जाना नहीं, सामने पड़ते मुस्कुरा देती हूँ, हाल पूछ लेती हूँ- नहीं किसी से दुश्मनी, न बैर ! पर कल एक महिला, जो अक्सर आती हैं मिलने - उनके यहाँ बदले में जा भी नहीं सकती, क्योंकि उनके पति इस बात के लिए उन पर हाथ उठाते हैं !!!
    एक बार मैंने सुनकर कहा - तुम्हारी अपनी भी ज़िन्दगी है, बेटी यही देखेगी तो बुरा प्रभाव पड़ेगा . लड़ो मत, पर हाथ रोक तो सकती हो .... कल उन्होंने बताया कि उनकी पड़ोसन ने कहा कि आप जिस दिन ऐसा करेंगी, और हमें मदद के लिए बुलाएंगी तो हम कह देंगे- हम इनको नहीं पहचानते !
    ऐसी व्यवस्थ कौन बदलेगा, हाँ ऐसा कहनेवाली स्त्रियाँ अपने घर में दबंग होती हैं :) .... चेहरा आइना होता है

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    1. ऐसी दबंग स्त्रियों की खूब कही आपने , इनकी सारी शिक्षाएं दूसरों के लिए ही हैं !
      लोग मुंह पर कुछ न कहे , मन में समझते हैं :)
      आभार !

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  4. अब तो इस सोच में बहुत बदलाव आ गया है ....इसकी एक वजह ये भी है बेटियां खुद को जिम्मेदार हर तरह से सक्षम साबित कर रही हैं ...

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    1. महानगरों के कुछ हिस्सों में २५%बदलाव देखकर, लड़कियों को नौकरी करते देखकर,उनको गाडी से आते-जाते देख हम जो अनुमान लगाते हैं, उसके दूसरे पहलु अधिकांश कुछ और होते हैं

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  5. ये सारे उदाहरण अब ही के तो दिए हैं … :)

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  6. हैरत तो यही है कि पूर्णतः आत्मनिर्भर स्त्रियों का दृष्टिकोण भी संकुचित लगता है कभी कभी !

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  7. sirf padhai likhai se hi mansikta nahi badalti ..iska pratyaksh udahran aaj ke halat hai ..sateek aalekh ..

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  8. आपकी शर्तोंपर तो मैं भी खरी नहीं हूँ ,पर अब कुछ स्थितियाँ बदलती दिखती हैं .. हमारे घर में भी दोनों बेटे मेरा पूरा साथ देतें हैं ... विशेषकर अतिथियों के आने पर तो पूरा ध्यान रहता है कि काम मेरे ऊपर ही न आ पड़े ....

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  9. बदलाव दिख रहा है वाणी जी ..लेकिन फिर भी अभी दिल्ली दूर ही है ..समाज की संकीर्णता से ज्यादा घरों में व्याप्त संकीर्णता बदलेगी तभी कुछ संभव है ...बस दुआ ही की जा सकती है की हर घर में ..हर मन में बदलाव की किरण फूटे

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  10. बदलाव दिख रहा है वाणी जी ..लेकिन फिर भी अभी दिल्ली दूर ही है ..समाज की संकीर्णता से ज्यादा घरों में व्याप्त संकीर्णता बदलेगी तभी कुछ संभव है ...बस दुआ ही की जा सकती है की हर घर में ..हर मन में बदलाव की किरण फूटे

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  11. अभी बहुत समय है,सबकुछ सिरे से बदलने में ....थोड़े से उदाहरण छोड़ दिए जाएँ तो पूरे समाज में ऐसी ही सोच व्याप्त है ..
    ज्यादातार पुरुष भी यही कहते हैं ,मेरा तो कोई काम इनके बिना नहीं चलता और पत्नियां बलिहारी जाती है,इस वक्तव्य पर .

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  12. यह अपनी रूचि की बात है...जिन महिलाओं को किसी और का उनके काम में दखल पसंद नहीं आता वह सब काम खुद ही करती हैं..टीम वर्क के लिए भी तो साहस चाहिए न

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  13. आपकी बात तो सच है । लेकिन इसके कारण शायद (मेरे निजी विचार में) सिर्फ यह ननहीं जो आपने कहे । यह सिर्फ स्त्री की सोच पिछड़ी होने के कारण नहीं है । सारा माहौल होता है । व्यंग्य करने वाले बहुत लोग होते हैं । कि देखो नौकरी करती है तो पति को जोरू का गुलाम बना रखती है । देखो बहु ऐसी आई कि बेटे को सब काम करना पड़ता है । मेरी भाभी नौकरी करती है तो खुद को औरत ही नहीं समझती । अरे मुझे अपने बेटे की शादी नौकरी वाली से नहीं करानी । अरे मुझे "फलानी आंटी" जैसी नौकरी व्आली सर चढ़ने वाली से शादी नहीं करनी ।

    ये और भी कई बातें सुनने में आम हैं ।

    तो कई बार स्त्री को लगता है कि इतने मानसिक संताप से तो बेहतर है कि थोडा शारीरिक श्रम ज्यादा कर लिया जाय ।

    सोचियेगा आप सभी इस पर भी ।

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    1. सवाल स्त्री की पिछड़ी सोच का नहीं है , पिछड़ी सोच को समर्थन देने अथवा विरोध का प्रयास तक नहीं करने का है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री सिर्फ अपनी सोच के बल पर कुछ कर पाये , मुश्किल सा ही लगता है , पूरे परिवार का सहयोग अपेक्षित है !
      मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि जब आप गहने , कपडे , सुख सुविधाओं , आर्थिक निर्भरता के लिए विरोध कर सकते हो , तो इन मुद्दों पर भी करने की इच्छा रखनी चाहिए।
      लेख में मैंने स्वयं पर भी शक जताया है कि शायद ऐसी परिस्थितियों में मेरे लिए भी मुश्किल होता !!

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  14. अब तो यकीनन काफ़ी सोच बदल चुकी है. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  15. इस तरह की मानसिकता परिवर्तन मे बहुत समय लगता है !!पुरुष घर में हाथ ज़रूर बटाएं , पर घर की ज़िम्मेदारी तो स्त्रियॉं की ही होनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है ||क्योंकि मुझे लगता है स्त्रियाँ अपने घर के प्रति ज्यादा जिम्मेदार होतीं हैं |और उनमें अपनी गृहस्थी को सम्हालने का एक स्वाभाविक गुण होता है !हाँ पुरुष उनकी मदद करें ,यह अच्छा लगता है | मैंने देखा है शादी के बाद लड़कियां अपनी घर गृहस्थी के प्रति बहुत जिम्मेदार हो जातीं हैं और आजकल के लड़के उनकी मदद भी करते हैं ...!!देखकर बहुत अच्छा लगता है |किन्तु हमारे पूरे समाज मेँ ऐसी स्थिति आने मेँबहुत वक़्त लगेगा |

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  16. समाज में अभी भी यह सोच व्याप्त है जिसमें कहीं न कहीं हम सभी शामिल हैं इसे बदलने की जरुरत है..

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  17. मैं भी सोचने लगी हूँ कि अच्छा साथ मिलने पर परिस्थितियां भिन्न होती हैं एवं प्रत्येक स्त्री के क्रियाकलाप पर एक समान लागू नहीं हो सकती।

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  18. मुझे लगता है सोच में जरूर बदलाव आ रहा है ... मेरी तो दो पुत्रियां हैं ... शायद मैं कुछ ज्यादा ही झुका महसूस करता हूँ नारी पक्ष की तरफ ... पर फिर भी मेरी मान्यता है पुत्रियों के साथ बराबरी का व्यवहार होना चाहिए ...

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  19. बिलकुल ठीक कह रही हैं. मानसिकता कहाँ ले जाएँ अपनी. आज भी कितनी ही ऐसी नारीवादियों से पाला पड़ता है जो हक के लिए तो लड़ लड़ के दोहरी हुई जातीं हैं पर फ़र्ज़ का नंबर आये तो कहती पाई जाती हैं कि ये तो बेटे का फ़र्ज़ होता है.

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  20. बिलकुल सहमत हूँ आज भी घर के काम केवल महिलाओ के हिस्से ही आते है चाहे वो नौकरी करे या न करे बीमार रहे या बच्चे सम्भाले , कई बार तो देखा है की उन्हें कही जाना है अकेले तो पति परिवार के लिए खाना बना के ही जाना होता है सभी घर के काम ख़त्म करने के बाद ही । कई बार छोटे मोटे काम में हाथ बंटा के ही पुरुष अपने आप को पत्नी का सेवक या सहायक कहने लगते है , आधुनिक से आधुनिक पति भी नौकरी कर रही पत्नी के साथ घर के कामो में बराबरी कि जिम्मेदारी नहीं समझता है हलके फुलके काम करके ही वो अच्छे पति बन जाते है , पत्नी सेवा करे पति कि तो उसका फर्ज और पति कर दे तो जोरू का गुलाम । स्त्री कि सोच पिछड़ी है क्योकि उसकी परवरिश ही ऐसे की गई है , जब आज संस्कार और सोच में बदलाव आयेगा तो आगे आने वाली बहुत सी स्त्री इस सोच के साथ नहीं जिएंगी ।

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  21. समय बदल रहा है, कम से कम मुझे तो बदलता हुआ दिखता है।

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