गुरुवार, 22 मई 2014

संत हृदय नवनीत समाना ....

सद्जनों की संगति आचार /विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाती ही है , ऐसे लोग संख्या में कम होते हैं जिन पर इसका विशेष प्रभाव नहीं होता ! माँ के पूज्य फूफाजी विद्वान शिक्षक थे।   जब कभी  छुट्टियों में घर आते , फुर्सत मिलते ही किताबें मंगवा कर प्रश्न पूछते , और न आने पर विस्तार से समझा भी देते हालाँकि ये स्मृतियाँ  उन दिनों की है जब ऐसा होता नहीं था कि हमसे कोई प्रश्न पूछा जाए और हम उसका उत्तर दे न सकें . उन दिनों शिक्षा से जीविकोपार्जन तो अवश्य होता था मगर वह व्यवसाय नहीं थी. हालाँकि एक दुक्का किस्से सुनने को मिल जाते थे सरकारी विद्यालयों के कि फलां शिक्षक ने छात्रों से फल , सब्जी , अनाज आदि मंगवाए।  शिक्षक के लिए शिक्षा देना विद्या का दान करने जैसा ही अधिक होता था . कोर्स की किताबों के सिवा नैतिक शिक्षा का ज्ञान भी अभिभावकों से अधिक गुरु से ही प्राप्त होता था . इसलिए पढ़ते हुए वे ज्ञान/ धर्म की चर्चा भी कर लिया करते थे . और हम तो ठहरे हम , जिज्ञासा और प्रश्न करते रहना तो अब तक इस अधेड़ावस्था में भी नहीं छूटा  तो तब तो बचपन ही था .

एक बार "कल्याण " पत्रिका से संस्मरण सुनाते हुए वे उपदेशकों पर चर्चा करने लगे . पंडितों /ज्ञानियों या सन्यासियों का सुख सुविधाओं का उपयोग करना मुझे आश्चर्यचकित करता ही था . वे किसी गुरु की अगवाई के किस्से सुना रहे थे . साधू महात्मा जी का बड़ी गाडी में आना , लाल कालीन बिछाकर उनका स्वागत करना  मुझे हैरान कर रहा था . उनके बड़प्पन का  लिहाज करते हुए भी मैंने पूछ ही लिया कि सन्यासियों को इस ठाठ बात की क्या आवश्यकता है . वे जनता को भोग लिप्सा से दूर रहने को कहते हैं , स्वयं क्यों डूबे रहते हैं !
मेरी शंका को समझ लिया उन्होंने . प्रत्यक्ष कुछ कहा नहीं , मगर एक दूसरा किस्सा सुना दिया अपने गुरु जी का . हुआ यूँ कि उनके गुरु जी को किसी अमीर शिष्य ने महँगी घड़ी भेंट की .  गुरु जी हर समय उस घड़ी को धारण किया करते।  उनके  एक शिष्य को बहुत अखरता।  कई दिनों तक वह देखता रहा , मन मे सोंचता रहा कि गुरूजी हमे तो माया मोह त्यागने का उपदेश देते हैं , मगर स्वंयं इतनी महँगी घड़ी पहने रखते हैं।  गुरूजी से उसकी मानसिक स्थिति छिपी नहीं रही।   उन्होंने शिष्य को पास बुलाया और कहा , मैं बहुत समय से देख रहा हूँ कि तुम कुछ पूछना चाहते हो , तुम्हारे मन मे जो भी शंका है , खुलकर कहो।  
शिष्य  ने झिझकते हुए पूछ  लिया - आप हमें भौतिक वस्तुओं के प्रति लालसा न रखने का उपदेश  देते हैं , मगर  स्वयं इतनी महँगी घडी पहनते हैं !
गुरूजी स्नेह पूर्वक मुस्कुराये, तुम्हे यह  घडी बहुत पसंद है !
किसे पसंद नहीं होगी , आपको भी है इसलिए आपने पहन रखी है।

गुरूजी  ने तत्काल घडी हाथ से उतारकर शिष्य को दे दी।  इसे हर समय पहने रखना !

अब शिष्य बड़ा  प्रसन्न हुआ।  मूल्यवान होने  के कारण  वह हर समय घडी पहने रखता मगर उसकी हिफाजत के लिए प्रयत्नशील भी बना रहता। घडी की देखभाल और चिंता में उसके दैनिक प्रभावित होने लगे। स्नान - ध्यान में विघ्न पड़ने लगा।  एक दिन स्नान के लिए जाते समय उसने घडी उतार कर रखी।  जरा सी आँख चूकते घडी अपने स्थान से गायब।  हर तरफ  हेर लेने पर भी  घडी का कही पता न चला ।  उसे बहुत दुःख हुआ और जार जार रोने लगा।  उसे भय भी था की गुरूजी  ने उसकी ख़ुशी को देखते हुए घडी प्रदान की थी और उसकी हिफाजत के लिए निर्देश भी दिए थे, मगर वह उसे संभाल न सका।  
एक  दो दिन के बाद गुरूजी की नजर उसपर पड़ी , वह फिर से वैसे ही उदास , चिंतित !
 गुरूजी  ने पास बुलाकर  उसकी उदासी का कारण पूछा।  सर झुकाया अश्रुपूरित नेत्रों के साथ उसने  घडी के खो जाने की बात बताई और साथ ही उनसे क्षमायाचना करने लगा।  
गुरु  जी ने उसे आश्वस्त किया  कि आश्रम से घडी कहाँ खो जायेगी , यही कहीं मिल जायेगी। साथ ही सभी शिष्यों  को बुलाकर घडी को तलाशने के निर्देश दिए।  खोजबीन करते आखिर एक शिष्य को वह घडी मिल ही गयी, किसी पेड़ की डाल पर लटकी।  शायद किसी पक्षी की करामात रही हो , या किसी शिष्य की ही !  
गुरु जी ने सभी शिष्यों को बुलाया , और  उनकी उपस्थिति में घडी ढूंढ  लाने वाले शिष्य से कहा.…   यह घडी तुमने  परिश्रम से ढूंढ ली है , इसलिए अब इसे तुम ही रख लो !
इस पर  पहले  वाले शिष्य का प्रतिवादी स्वर गूंजा - मगर यह घडी तो मेरी है , आपने इसे मुझे दिया था !

मगर यह घड़ी मैंने तुम्हे दी थी , जो मुझे भी किसी ने भेंट की  थी।   इस शिष्य ने तो इसे परिश्रम से प्राप्त किया है , इसलिए इसका अधिकार होना चाहिए ! गुरूजी के चेहरे पर स्मित मुस्कान थी।
मगर  दूसरे शिष्य ने भी घडी लेने  से इंकार कर दिया  यह कहते हुए कि  मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।

अब पहले शिष्य को अपनी गलती का एहसास हुआ।  उसे समझ आया कि गुरूजी के लिए मूलयवान घडी का कोई मोल नहीं था. श्रद्धापूर्वक भेंट की गयी वस्तु को वे धारण तो किये हुए थे , मगर उनका उस घडी या वास्तु से कोई मोह नहीं था।

विद्वान शिक्षक भी मुझे समझा रहे थे। ऐसे ही सही मायनों में संत वे हुए जो किसी प्रलोभन अथवा मोह माया में अटकते नहीं।  उनका स्वागत किया श्रद्धा से , उन्होंने प्रेम से स्वीकार किया !  वे सुविधा के लिए लालायित नहीं हैं , ना प्रयत्नपूर्वक सुविधा प्राप्त करना चाहते हैं मगर इन अमीर  भक्तों को इस प्रकार आत्मसंतुष्टि मिलती है तो यही सही ! यदि वे सिर्फ झोपडी / मुफलिसी / असुविधा में रहने वालों को ही उपदेश देते रहेंगे तो सुविधाभोगी उन तक पहुंचेंगे ही नहीं।  जबकि इस वर्ग में सद्विचार का प्रसारण अधिक आवश्यक है ताकि वे गरीबों/वंचितों  के कष्ट  का कारण समझें , कष्ट को समझे और उसके निराकरण में अपना सहयोग कर सकें। उनमे सद्विचारों का रोपण उनकी सुविधाजनक स्थितियों में ही करना होगा , वरना वे विमुख ही होंगे ! संत पानी में रहकर भी सूखे रह सकते हैं , सुविधाएँ उनके मार्ग का व्यवधान नहीं होती।  वे प्रत्येक स्थिति को ईश्वर प्रदत्त मानकर निरपेक्ष भाव से  रहते हैं।


नोट -  अनेकानेक तथाकथित धार्मिक/सामाजिक  संस्थाओं के सन्दर्भ में न पढ़े जो धर्म और समाज सेवा की आड़ में व्यभिचार और नाकारापन को बढ़ावा देती हैं !! 

18 टिप्‍पणियां:

  1. ये तो बहुत बड़ी बात है, पर अधिकतर इसके विपरीत होता है

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  2. जीवन में नैतिक मूल्यों की महत्ता.... बहुत अच्छा आलेख है।

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  3. हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है ये नैतिक ज्ञान .... पहले गुरु ऐसे ही थे, स्वार्थ का खेल ये अब बना है .....

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  4. संतो को ऐसा ही होना चाहिए; मोह,माया,लोभ से कोसों दूर। लेकिन इस युग में ऐसे संत यदा-कदा ही हैं।

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  5. आपके आलेख ने एक नयी दृष्टि दी और हर बात को अलग नज़र से देख कर उसका विश्लेषण करने की राह दिखाई ! सारगर्भित प्रस्तुति !

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  6. संत हो जाना ही तो बड़ी बात है ... समाज में रह कर निर्लिप्त रहना आसान नहीं होता ...
    अच्छी बोधकथा के माध्यम से बात को रखा है आपने ...

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  7. ऐसे ही उपदेश देते रहें दी :)
    अच्छा लगता है आपको पढ्ना :)

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  8. संत पानी में रहकर भी सूखे रह सकते हैं...सत्य है...और दुर्लभ भी

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  9. कल्याण पत्रिका ने मुझे भी बहुत कुछ सिखाया है ..सुन्दर पोस्ट मेरे भी ब्लॉग पर आएं

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  10. माया, महठगिनी हम जानी ...

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  11. वाह ! बहुत ही अच्छा लगा इसे पढना :)

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  12. सच्चे संत ऐसे ही होते हैं ।प्रेरक कथा

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  13. इस निरपेक्ष भाव को ही गुरबाणी में ’भाणा’ कहा गया है ’तेरा भाणा मीठा लागे’ और इसे साध लेना आसान नहीं।
    कुछ लोगों के ऐसे तर्क सुनते हैं कि बाबा लोग खुद तो पूरे ठाठ से रहते हैं और शिष्यों को सादगी की शिक्षा देते हैं तब उनका माईंडसेट देखकर मजा तो आता है :)

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  14. प्रेरक भाव लिये यह प्रस्‍तुति ..... अच्‍छा लगा पढ़कर
    साझा करने का शुक्रिया

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