रविवार, 16 जून 2019

मुंबईनामा.....





जब हम छोटे थे. हाँ भई! हम भी छोटे मतलब बच्चे थे कभी. आज बड़े हो गये अपने बच्चों से कहो तो पेट पकड़ कर हँस ले यह कहते हुए कि इमेजिन ही नहीं होता कि आप लोग भी बच्चे थे.
मजाक में कही बात मगर गंभीर ही है. हम नहीं सोच पाते अपने बड़े बुजुर्गों के लिए कि उनका भी कभी बचपन , लड़कपन या युवावस्था भी रही होगी. माँ अचानक छोड़ गईं साथ तब सहानुभूति रखने वाले उम्र बताने पर कह देते चलो उम्र तो थी, नाती पोते , पड़पोते भी थे. मन कचोटता है स्वयं को मगर हमें तो कभी लगा ही नहीं.

हाँ तो जब हम छोटे थे तब मुंबई को मुख्यतः अमीरजादों और फिल्मी कलाकारों के कारण ही जानते थे.  छोटे से कस्बे में पत्र पत्रिकाओं द्वारा ही बाहर की दुनिया से जुड़े होते थे.
उन पत्र पत्रिकाओं विशेषकर फिल्मी पत्रिकाओं में इन सितारों   के भी फर्श से अर्श तक जाने के किस्से इस अंदाज में बयान होते कि सामान्य वर्ग से आये युवा भी सितारा बनने के लिए झोला उठाये चल देते थे. कुछ ही सफल होते और अधिकांश धोखे की कहानियों के पात्र बन जाते. मुंबई की बारिश और छोकरी, दोनों का भरोसा नहीं करना चाहिए. कब रास्ता बदल लें. यहाँ पेट भरना आसान है मगर घर मिलना नहीं. यही सुनते आये थे हमेशा।
शहरी क्षेत्र का विस्तार होते होते कहावतें किस्से और मान्यताएं भी बदलती ही जाते हैं. हमने जितना पत्र पत्रिकाओं से जाना था  उससे इस शहर और उसके बाशिंदों  की छवि ह्रदय हीन, मतलबपरस्त ही रही जहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नहीं. आस पड़ोस में कौन रहता, क्या करता कोई जानना नहीं चाहता. दरअसल यहाँ लोगों की स्वयं के जीवन में इतनी भागदौड़ और उलझनें रहती हैं कि वह दूसरों के बारे में सोचे कब...मगर तीन वर्ष पहले जब मुंबई जाना हुआ तो यह भ्रम भी टूटा.
 राखी के दिन भरी दोपहर में अन्य विकल्प न होने के कारण  लोकल ट्रेन में जाने की जरूरत हुई . यूँ तो दोपहर में लोकल में इतनी अधिक भीड़ नहीं होती मगर राखी का दिन होने के कारण जबरदस्त भीड़ थी. एक ट्रेन मिस भी की मगर दूसरी भी वैसी ही लदी फंदी. भीड़ के धक्के से डब्बे में चढ़ तो गये मगर अंदर आगे बढ़ें कैसे.  अपने शहर में तो बस में भी चढ़ने का अभ्यास नहीं और यहाँ ऐसे फँसे कि लगा अंतड़ियां न पिचक जाये. जैसे तैसे धक्के खाकर पाँच छह कदम आगे बढ़ी. इतनी ही देर में दूसरा स्टॉप आ गया. भीड़ में कचूमर बना जा रहा था तभी एक स्त्री की तेज चीखती आवाज आई जो भीड़ को बुरी तरह हाथ और लात दोनों से धक्का दे कर आगे धकेल रही थी.
ट्रेन चलने पर जैसे-तैसे मुड़ कर देखा तो उसने अपनी बाहों से एक दूसरी स्त्री को घेर कर पकड़ा हुआ था जिसकी गोद में छोटी बच्ची भी थी. अधेड़ उम्र की उस स्त्री ने सीट पर बैठी सवारियों को उस बच्चे को गोद में लेने को कहा. कई हाथ आगे बढ़े. किसी ने बुरी तरह रोते बच्चे को गोद में लिया, किसी ने बच्चे की माँ केे पर्स को. अंदर सवारियां उस बच्ची को पुचकार कर चुप करा रही थीं , कोई अपनी बोतल से पानी पकड़ा रहा था, तो कोई टॉफी. थोड़ी -थोड़ी जगह बनाकर उस स्त्री को उसके बच्चे के पास पहुंचाया और एक लड़की ने उसके लिए अपनी सीट छोड़ दी. एक तरह से राहत की साँस लेती वह अधेड़ स्त्री अभी भी गेट के पास ही खड़ी थी कि अगला स्टॉप उसका ही था. जिस महिला पर चीखी थी जोर से, उसी से मुस्कुराते हुए कह रही थी  इतने छोटे बच्चे को लेकर चढ़ गई .बिल्कुल किनारे खड़ी थी कि ट्रेन चल पड़ी. मैं धक्का नहीं लगाती तो क्या करती.  मन धक सा हो गया. रोज कुछ न कुछ लोग गिरते हैं चढ़ते उतरते...
उस भीड़ में फँसे हुए भी मन एक प्रसन्नता से भर गया. भीड़ में तन्हा है कहीं तो कहीं सुरक्षित भी.
कान से सुने और आँखों से देखे में भी  कुछ तो फर्क होता है. वैसे देखने में भी आँखों को बस सीध में जो दिखता है, वही तो दिखता है. एक घटना से ही यह अनुमान भी लगा लेना कि धोखा होता ही नहीं, धोखे की पृष्ठभूमि तैयार करने जैसा ही है.
 इंस्टाग्राम पर हँसती मुस्कुराती तस्वीरों के पीछे का प्रत्यक्ष सन्नाटा हो कि लँगड़ी मारकर आगे बढ़ जाने वाले किस्से हों. इस शहर के धोखे की भी लंबी दास्तान दर्ज है दिल- दिमाग को झिंझोड़ती सी.
मगर फिर भी कुछ आकर्षण है इस शहर का. हवाओं में समुद्र के पानी की महक है तो जुबान पर उसके नमक का स्वाद भी. इसलिए लोग खींचे चले आते हैं आज भी सौ शिकायतें करते भी....
तभी तो  कहलाती है यह मायानगरी .


16 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! दिल को छू लेने वाला संस्मरण

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-06-2019) को "बरसे न बदरा" (चर्चा अंक- 3370) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. जिन्दगी यही है ....
    रोचक वर्णन किया है आपने , बधाई
    जीवन में कभी खुशी ,कभी गम का घालमेल होता ही है।

    जवाब देंहटाएं
  4. हमें तो ऑफिस जाते लोकल में चढ़ने उतने की अच्छी आदत थी लेकिन जब बिटिया हुई तो वो कभी बैठी ही नहीं | एक बार बहुत दूर जाना था और देर हो गई थी तो तय हुआ ट्रेन से चलते हैं | मै और बिटिया महिला कोच में और पतिदेव अपने कोच में | रविवार दोपहर होने के बाद भी एक स्थानीय त्योहर होने से खूब भीड़ थी | हम अपने स्टेशन उतर ही नहीं पाए जबकि पति उतर गए फिर हम दोनों अगले स्टेशन उतर कर ऑटो कर वहां पहुंचे |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सच में. ऑफिस टाइम वाले समय में रोज लोकल में जाना जंग लड़ने जैसा ही है.इस बार एक आसान हल निकाला कि उस ट्रेन को पकड़ें जो उसी स्टेशन से जाने वाली हो. आखिरी या पहला स्टेशन विरार होने के कारण इतनी परेशानी नहीं आई मगर रोज वालों को बहुत स्टेमिना चाहिए

      हटाएं
  5. मुंबई तो राजा रानी की कहानियों जैसा लगता था, कभी सोचे नहीं थे कि यहाँ रहेंगे ।बहुत लोग शादी ब्याह के बाद समंदर देखने यहीं घूमने आते थे । पहली बार मुझे लगा, कहाँ आ गए । बेटी लोकल ट्रेन की दर्दनाक कहानी रोज सुनाती है, लेकिन इस महानगरी की यही ज़िन्दगी है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सचमुच रोज ऑफिस के समय से आने जाने वालों को बहुत परेशानी है.

      हटाएं
  6. ऐसे अनेक संस्मरण होते होंगे लोकल में बैठे बैठे ... अपने आप में कई कई जिंदगियां जीती हैं ये लोकल भी ...
    ये जरूरी है की इनको देखने सुनने और समझने वाले संवेदनशील दिल भी होने चाहियें, जैसे की आप ... अच्छा संस्मरण है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. देखना, समझना और फिर लिख भी पाना मुश्किल होता है. हम जाने कितने अनुभवों से गुजरते हैं रोज .
      शुक्रिया!

      हटाएं
  7. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीरांगना रानी झाँसी को नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    जवाब देंहटाएं
  8. हमें ये सौभाग्य न मिला सफर का ....फिर भी सफर के अनगिनत किस्से है,जो हर शहर की याद बसा गए है मन में ,मुम्बई जाने का मौका तो मिला पर घूमने का नहीं ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. घूमना हो तो गलियों गलियों...
      वरना तस्वीरें तो खूब दिख जाती हैं.
      नहीं क्या !

      हटाएं
  9. वाणी दी,आखिर मुम्बई में भी तो रहते इंसान ही हैं न! और इंसान का मूल स्वभाव हैं एकदूसरे की सहायता करना। यहीं उस दिन लोकल ट्रेन में हुआ। बहुत सुंदर संस्मरण।

    जवाब देंहटाएं