शनिवार, 1 मार्च 2014

किसी ने कहा था - अपना हाथ जगन्नाथ !!


रे ईर्ष्या! तू न गयी मन से रे . मन का क्या कहें , जितना समझाए कोई की मद , मोह , ईर्ष्या , लालच के फेर में मत पड़ रे बन्दे , मगर मन पर किसका अंकुश है . उस पर स्वयं ईश्वर की भी नहीं चलती . उस ईश्वर के भय के मारे व्यक्ति कोई ऐसा कार्य नहीं करे जो उसके मोक्ष में बाधक हो , मगर व्यक्ति अपने मन में क्या करे , ईश्वर भी ना ताड़ सके . वैसे भी बाबा तुलसीदास कहते भये कि कलियुग में मानसिक पाप का दोष नहीं लगता . सो कभी कभार हो जाने वाली मानसिक ईर्ष्या का सुख ले लेवें हम भी !
सखिन लोग बड़ा माथ जोड़ जोड़ कर बतियाती है हमारी कामवाली बाई ऐसी , उसकी कामवाली बाई ऐसी . इ बात और है की उसी समय कही किसी गली में कामवाली बायीं भी माथा जोड़े करती होंगी , हमारी मालकिन ऐसी ,हमारी मालकिन वैसी ! जो हो सो हो , ऐसी निंदा के लिए एक कामवाली बाई का होना भी तो जरूरी है , और वो तो हमरे पास है नहीं !

मायके में हमेशा कामवाली बाइयों को काम करते देखा या फिर घर के काम में सहयोग करने वाले छोटे बच्चों को ,मगर ससुरारी आये तो पता चला की हियाँ सब लोग को अपने हाथ से ही काम करने की आदत है . यह सिर्फ गिने चुने घरों की बात नहीं थी , मध्यमवर्गीय तो क्या , बहुत से उच्चवर्गीय परिवारों में भी लोगो को स्वयम ही गृह कार्य करते पाया . सबसे ज्यादा दिक्कत तो हुई बर्तन साफ़ करने में , जिठानी जी बोले इनको और मलो तो राख से सने हाथों की दुर्गति देख कई बार तो मन किया उठा कर बर्तन फेंक ही दें किसी के सर पर. उस पर सासू माँ की ताकीद कि अपने जूठे बर्तन अपने से किसी बड़े को छूने न दे ,  वैसे नई बहू के खांचे में फिट बैठने के लिए काम तो सारे मुस्कुराते हुए ही करते रहे :) . मगर अब तो ऐसी आदत हो गयी है कि बिना उचित कारण के यदि कामवाली बाई के भरोसे ही रहना पड़े तो जीना दूभर हो जाए . लोग विदेशियों की शानशौकत भरी जिंदगी का वास्ता बड़े मजे से देते हैं , मगर भूल जाते हैं कि वहां लोग अक्सर अपने कार्य स्वयं ही करते हैं . फर्क ये है कि वहां घर का प्रत्येक सदस्य अपना योगदान देता है , भारतीयों की तरह पूरी जिम्मदारी सिर्फ गृहिणी पर नहीं छोड़ी जाती .

पिछले वर्ष अपने शहर जाने का मौका मिला तो एक सहेली के घर जाने पर सीढियों में जूठे बर्तनो का टब स्वागत करते मिला . पता चला की बाई दस और ग्यारह के बीच में आएगी , तब तक रात के जूठे बर्तन कौन मांजे . अन्दर से नए बर्तन निकाले जाते रहे ,, जिन्हें साथ के साथ धो पोंछ कर रखा गया . हमने पुछा भाई ये माजरा क्या है , तो बोले कि एक्स्ट्रा बर्तन होने पर बाई बड़ी किटकिट करती है . अब मेहमान के सामने ये बात आ जाए तो अगला पहले ही सोच समझ कर जाए या फिर यह कोशिश करे की उनके कारण ज्यादा बर्तन जूठे न हों . हमको भी याद आया एक दिन मायके में बाई की किटकिट पर ही लड़ पड़े हम कि क्या शादी के बाद मायके आना ही छोड़ दे तुम्हारे कारण !
हालाँकि कुछ समय के लिए गृह सेवक /सेविका की सुविधा का उपयोग करना भी पड़ा . उस  बच्चे को माँ बाप ने भेज दिया शहर में अच्छी जिंदगी के लोभ में . अपनी पढाई के साथ उसे पढ़ाने बैठाती मगर उसकी रूचि पाककला में ही अधिक रही कि किसी अच्छे ढाबे या होटल या किसी बड़े घर में काम मिल जाये . उस समय खीझ होती थी , मगर अब लगता है कि व्यावहारिकता का तकाजा उसका यही रहा होगा . भूखे को दो रोटी से अधिक क्या सूझता है /सूझेगा ! 
 तो बात हो रही है काम वाली बाइयों की . अरे नहीं, बात है शायद हम हिन्दुस्तानियों के आरामपसंदगी की . यदि भारत में  पुरुषों से गृह कार्य में सहयोग करने को कहा जाए तो झट कह दे , काम वाली बाई क्यों नहीं बुला लेती . हालाँकि मैं क्षेत्रीयता पर बात करने से परहेज करती हूँ मगर  बिहार और उत्तरप्रदेश के मुकाबले राजस्थान में पुरुष वर्ग गृहकार्य में हाथ बंटाने में संकोच नहीं करता. जयपुर के शहरी इलाके में बहुत कम घरों को काम वाली बाइओं के दर्शन नसीब हो पाते थे , चारदीवारी से बाहर फैले क्षेत्र में जहाँ बड़ी संख्या में दूसरे प्रदेशों से आये लोग निवास करते हैं , विशेष कर बिहार , बंगाल और उत्तरप्रदेश से , उनके घरों में अक्सर कामवाली बाईं ही संभालती है घर और इनमे बड़ी संख्या शरणार्थी बांग्लादेशियों की लगती है . यह सिर्फ मेरा अनुमान हो सकता है , संभव है की ये औरतें पश्चिम बंगाल से काम की तलाश में यहाँ आई हो . 
सोचती हूँ कि राजस्थान जैसे अपेक्षाकृत सूखे स्थानों पर मध्यमवर्गीय परिवारों में घर घर काम करने वाले बाशिंदों की कमी का कारण क्या रहा होगा !! यहाँ लोग अधिक स्वाभिमानी है , या श्रम का उचित पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं या फिर उत्तर भारत जैसा आय वर्ग विभाजन नहीं है !!
इसके उलट उत्तर प्रदेश , बिहार और बंगाल जैसे उपजाऊ इलाकों में खेती एक बड़ा उद्योग है , जहाँ श्रमिक वर्ग की आवश्यकता अधिक है , वहां से ये लोग घर बदर हुए यहाँ श्रमिक बन जीवन यापन करने को क्यों मजबूर है ! 
शायद उन प्रदेशों में श्रमिकों को उचित मानदेय अथवा सम्मान नहीं मिल पाता. कृपया जाति विशेष की दयनीय स्थिति का तकाजा मत दीजियेगा क्योंकि यहाँ बसने वाले श्रमिकों ,  कामगारों की बड़ी संख्या तथाकथित उच्च जातियों की है !
किसी  भी बहाने से कुछ लोगो की रोजी रोटी चलती है तो सही भी है . श्रम सहित जीवन यापन उस जीवन से हर प्रकार श्रेष्ठ है जहाँ गुलामी में सौ पकवान है !

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

रोशनी है कि धुआँ … (5 )

सामान्य मध्यमवर्ग परिवार की तेजस्वी ने अवरोधों के बावजूद पत्रकारिता में रूचि बरकरार  रखते हुए मिडिया हाउस में अपना कार्य जारी रखा। शुरूआती गलतफहमी और संशय से  कार्य में व्यवधान भी कम नहीं रहे   ,  इन सबसे उबर कर तेजस्वी अब आगे बढ़ रही है  …… 

तेजस्वी के जादुई पिटारे नुमा बैग से कई चीजें निकलती जा रही थी , साडी , कुरता- पायजामा , कड़े , पर्स , सैंडिल , पत्रिकाएं।  साइड की पॉकेट से निकले प्लास्टिक के पाउच में मूंगफली के साथ  नमक , मिर्च, अमचूर , काला नमक का मिला जुला चूर्ण , एक और थैली में कुछ पेड़े भी थे , दूध को अच्छी तरह औंटा  कर बनाये , कुछ भूरे लाल से पेड़े भी।  

तुम्हे याद है  माँ ! उस गाँव के छोटे बस स्टैंड पर तुम जरुर ख़रीदा करती थी। 
हाँ , कैसे भूलूंगी।  रानी को भी बहुत पसंद थे , हॉस्टल जाते या लौटते अक्सर खरीद लेते थे।  आस पास की अन्य दुकानों से अलग बड़ी साफ़ सुथरी सी छोटी दूकान पर मूंगफली बेचता वह छोटा सा लड़का  जिसने कहा था , बहुत अच्छा पेड़ा है , तनी चख कर तो देखीं दीदी लोग , कही और से किनबे नहीं करेंगे। एक बार उसके कहने से लिए  हुए पेड़े हर बार की जरुरत हो गये थे और मूंगफली का साथ तो बस के सफ़र भर चलता रहता।

माँ की यह आदत शिक्षा पूरी होने से  , विवाह और उसके बाद बच्चों के बड़े होने तक भी बनी रही थी. उस बस स्टैंड से गुजरते तेजस्वी को याद आया था ।  वह जानती है माँ के भीतर बसी बैठी उस  लड़की को जिसे प्रसन्न करने के लिए बड़े महंगे तोहफों की जरुरत नहीं होती , और उसने शहर से खरीदी साडी , बैग , पुस्तकों के साथ इस गाँव  से पेड़े और मूंगफली भी खरीदी , खास नमक मिर्च के चूर्ण के साथ !

लगभग एक वर्ष बाद लौटी थी तेजस्वी अपने शहर। वायब्रेंट मीडिया  हॉउस अपना काम आगे बढ़ाते हुए विस्तारण प्रक्रिया में कुछ अन्य शहरों  में ऑफिस खोलना चाह्ती थी।  आलिया को जोनल हेड बना कर  भेजा जाना था।  आलिया को तेजस्वी की मनःस्थिति का आभास था इसलिए उसने उसे साथ काम करने का प्रस्ताव दिया।  माँ को  समझाना इतना आसान नहीं होता यदि वह स्वय उनका जन्मस्थान  नहीं  होता।  शहर से सटे हुए गाँव में ही उनका अपना घर था , माँ का घर , भाई -बहनों का घर , खेत खलिहान। शिक्षा के लिए गाँव से शहर पढ़ने आये भाई अब वहीँ सैटल हो गए थे। माँ को तसल्ली थी , मामा , मौसी , नानी का साथ रहेगा।
बीते एक वर्ष में वे भी उसके पास जाकर रह आयी थी , दो कमरों के उसके फ़्लैट में सब सामान जुटा कर।  भाई भाभी ने ऐतराज भी जताया कि क्या हमारे साथ नहीं रह सकती , इसका वजन हो जाएगा।  मगर व्यवहारकुशल माँ रिश्तों की बारीकियों से अनजान नहीं थी।  आखिर हार कर भाई ने अपने घर के पास ही एक फ़्लैट का एक हिस्से में उसके रहने का इतंजाम कर दिया।  माँ निश्चित थी , परिवार पास भी था और उनपर बोझ भी नहीं !
आलिया  के साथ तेजस्वी नए माहौल में कार्य करते हुए पुराने बुरे अनुभवों को भूल चुकी थी। शहर की विभिन्न समस्याओं और सामाजिक सरोकारों से जुड़े उसके कार्य और लेख उसकी पहचान बन गए थे। सरकारी हॉस्टलों में कामकाजी महिलाओं की परेशानियों ,  चाइल्ड शेल्टर में शोषण के शिकार नासमझ बच्चों  , सरकारी विद्यालयों में  शिक्षकों की अनुपस्थिति ,  मिड डे मील में घोटाले के साथ ही अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा किसी और को देकर अपने स्थान पर पढ़ाने   भेजने जैसी कई सनसनीखेज रिपोर्ट पेश कर उसने अपने नाम और पेशे दोनों का ही एक रुतबा हासिल कर लिया था।   घटनाओं और समस्याओं की तह तक जाकर उनका विश्लेषण और निष्पक्ष निर्भीक विचारों की गूँज उसके अपने शहर तक भी कम नहीं थी। नाम और सम्मान  ओज की वृद्धि करते ही हैं , आत्मविश्वास भी बढ़ जाता है , अब तेजस्वी पूर्णतः आत्मनिर्भर आत्मविश्वासी हो चली थी। उसके अपने शहर में उसकी  जरुरत को महसूस करते हुए प्रमोशन के साथ उसकी नियुक्ति हेड ऑफिस में कर दी गयी और अपने पुराने ऑफिस में कार्य सँभालने हेतु ही पुनः लौटी थी अपने ही शहर में। 

फ्लैट की सीढियाँ चढ़ते उतरते  एक बार फिर मिसेज  वालिया से टकराई।  बहुत प्यार से गले ही लगा लिया उन्होंने , कैसी हो , बहुत नाम कमा लिया है तुमने तो और सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।  थोड़ी हैरानी हुई तेजस्वी को क्योंकि अब उनकी आवाज़ में तंज़ नहीं था , चेहरे पर पहली सी चमक भी नहीं थी।  घर आना कहते हुए जल्दी ही विदा भी हो ली।

तेजस्वी ने उनके इस असामान्य व्यवहार की चर्चा माँ से की तो माँ भी कुछ उदास हो गयी ," परेशान  है पिछले कुछ समय से।  सीमा पीछले 6  महीने से मायके में ही है , शायद उसके ससुराल में कोई समस्या है।  खुल कर बताया नहीं उन्होंने और ज्यादा पूछना जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा लगता है , यही सोचकर ज्यादा जोर देकर पूछा भी नहीं। तुम चली जाना सीमा से मिलने , किसी से ज्यादा मिलती -जुलती नहीं।  हंसती खिलखिलाती लड़की बिलकुल मुरझा गयी है।  शायद तुम्हे कुछ बताये , तुमसे मिलकर अच्छा लगेगा उसे !

ओह ! हाँ , जरुर मिलूंगी सीमा से !
और जल्दी ही तेजस्वी को मौका भी मिल ही गया सीमा से मिलने का।  बिल्डिंग में गाडी पार्क करते सीमा नजर आ ही गई। बहुत थकी हुई लग  रही थी।
कैसी हो सीमा , तेजस्वी ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो चौंकते हुए उसका चेहरा पीला पड़ गया। 
अच्छी हूँ , तुम कैसी हो।  माँ ने बताया कि तुम वापस यही आ गयी हो , अच्छा लगा ! 
दोनों साथ सीढियाँ चढ़ते हुए बाते करती जाती थी।  
उसके फ्लैट की बालकनी में मिसेज वालिया ने भी देखा दोनों को।  तेजी से दरवाजे के पास आते तेजस्वी को भी भीतर बुलाने लगी ,"  आओ  बेटा ,  चाय पीकर जाना। थकी मांदी लौटी हो दोनों साथ। 
सीमा की समस्या भी जान लेने की मंशा से उसने कहा , ठीक है आंटी , आप बनाये चाय।  मैं माँ को बताकर आती हूँ !
वापस लौटने तक चाय तैयार थी। सीमा उसे अपने कमरे में  ले आई।  एक अजीब सी उदासी ,सन्नाटा पसरा था दोनों के बीच।  सीमा के तन पर कोई सुहाग चिन्ह भी नहीं था , बस चुप सी बैठी रही दोनों। 
ख़ामोशी तोड़ते हुए तेजस्वी ने ही बात प्रारम्भ की ,   क्या कर रही हो आजकल , कुछ कमजोर भी हो गयी हो। 
कुछ ख़ास नहीं , प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी  में लगी हूँ। अभी कोचिंग से ही आ रही थी। 
और कैसे है सब ससुराल में , हमारे जीजाजी , तुम्हारी  सास ? थोडा झिझकते हुए उसने पूछा। 

अच्छे ही होंगे ! एक गहरी स्वांस लेती हुई सीमा की आवाज जैसे गहरे कुएं से आई !
मैं पिछले छह महीने से यही हूँ !

क्यों ? सब ठीक तो है ,  ससुराल में पढ़ाई नहीं  हो पाती होगी।
कह तो दिया उसने , मगर साथ ही उसे स्मरण हुआ कि विवाह से पहले गदगद होते मिसेज वालिया ने बताया था कि   उसकी सास ने  कहा है कि बेटी जैसे मायके में पढ़ती है ,वैसी ही यहाँ भी रहेगी।  बेटे का साथ इसका भी टिफिन बना दिया करुँगी!

सीमा ने कुछ कहा नहीं।  एक फीकी - सी मुस्कान उसके चेहरे पर आकर तेजी से विलुप्त हो गयी।
कई बार मन की उथलपुथल को व्यक्त करने में शब्दों की आवश्यकता  नहीं होती।  बस किसी के साथ  यूँ ही खामोश गुजारे दो लम्हे  भी दुख को आधा बाँट लेते हैं। बल्कि कई बार दुःख की तीव्रता से घबराये लोग भाग निकलना चाहते हैं अपनों से , अपनों की आँखों में उठने वाले सवालों से और अपनों से बचते-बचाते अपने गमो का पिटारा किसी अजनबी के सामने खोल आते हैं।

तेजस्वी समझ सकती थी सीमा की मनःस्थिति को  , विश्वास की धरती के पैरों के नीचे  से खिसकने की पीड़ा को।  चोट खाया विस्मित मन छटपटाता है मन ही मन , हमसे गलती हुई कैसे किसी को समझने में।  उसने  सीमा का हाथ अपने हाथ में ले लिया  था। सीमा के सख्त  होते चेहरे पर कुछ बूँदें लुढक गयी आंसुओं की , जैसे चट्टान की ओट में  रुका हुआ कोई सोता फूट पड़ने को तैयार हो।


क्रमशः ... 

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

बच्चों को खूब पढ़ाया लिखाया , मगर अपनी सोच का क्या किया ……

घर क्या होता है 
तुम क्या जानो 
तुम जानते हो जमीन के छोटे बड़े टुकड़े 
कमरा इतने फीट बाई इतने फीट 
कैसे बताऊँ - इसे घर नहीं कहते !
घर एक एहसास है 
जहाँ किसी एक का ज़ख्म 
दूसरे की तकलीफ बन जाता है 
घर वह नहीं
जहाँ रोटी की कीमत आंकी जाती है
घर -
ज़रूरी नहीं कि आलीशान हो !
छोटा हो
पर प्यार से भरा हो
जहाँ बचपन, सपने, खिलौने
सब एक साथ रजाई में दुबककर सोते हों
सुबह होते शोर हो
'आज कौन चाय बनाएगा'?
और फिर एक ख़ामोशी पसर जाए
थोड़ी देर बाद माँ की आवाज आए
'मैं ही बना लेती हूँ'
और फिर धम धम कोई रसोई तक जाये बड़बड़ाते हुए
'इमोशनली ब्लैक मेल करती हो !'
और पूरा घर खिलखिलाने लगे ....
घर ऐसा होता है !
(रश्मि जी की वॉल से चुराया हुआ)
-
 Rashmi Prabha

कुछ दिनों पहले  रश्मिप्रभा जी ने फेसबुक पर घर को घर बनाने वाली स्नेह पगी मीठी सी कविता पोस्ट की। उनके स्नेह और वात्सल्य से अभिभूत हम धड़ल्ले से चोरी /डाका डालने में अपराध नहीं समझते सो बाकायदा अपने फेसबुक वॉल पर भी चिपका दिया । गुदगुदाया मन फिर भी आशंकित हुआ कि घर के भीतर इमोशनली ब्लैकमेल माताएं अथवा पुत्रियां ही अधिक होती है। इसी सोच के आलोक में कुछ परिवार आँखों के सामने आये , जिनसे कुछ समय पहले या अक्सर मिलना -जुलना होता रहता है। 

पतिदेव का अपना ही शहर है ,  एक ही विद्यालय/मोहल्ले /ऑफिस  में साथ रहे /पढ़े लोगों का विस्तृत दायरा है मगर व्यस्त शहरी दिनचर्या में रिश्तदारों , परिचितों , मित्रो आदि से मिलना जुलना किसी ख़ास पारिवारिक कार्यक्रम अथवा कोई कार्य होने पर ही हो पाता है।  एक ही शहर में होने के बावजूद कई वर्ष गुजर जाते हैं हालाँकि फोन/मोबाइल /इंटरनेट  की सुविधा के कारण बातचीत होती रहती है। कुछ सप्ताह पहले वीकेंड पर परिचितों से मेल-  मिलाप का कार्यक्रम बना। 

मित्र केंद्रीय सेवा में हैं तो उनकी पत्नी बैंक में अधिकारी है। एक ही पुत्र है जो अपनी उच्च शिक्षा /करियर के लिए दूसरे शहर में रहता है , बस छुट्टियों में ही  आना  हो पाता है।  अच्छी लोकेशन में पार्क के सामने  मकान है उनका , बालकनी में खड़े उनकी पत्नी से कहा मैंने कि अच्छी जगह है , सामने पार्क है।  
पार्क है तो क्या , कभी सामने देखने का समय ही नहीं मिलता।  सुबह उठते ही रसोई नजर आती है , चाय -नाश्ता -खाना बनाया और भागे बैंक।  वीकेंड में देर से उठना , साप्ताहिक कार्य निपटाने में ही समय गुजर जाता है।  
नारी -शक्ति जाग उठती ही भीतर कभी  , तो  हम भी उसी भाव में ज्ञान देते हुए बोल पड़े ,  क्यों , इतने वर्षों में भाई साहब को नाश्ता बनाना नहीं सिखाया क्या। पत्नी सिर्फ मुस्कुराकर रह गयी। 
भाई साहब  तीखी नजरों से घूरते पतिदेव से मुखातिब हुए , ये क्या सिखा रही है मेरी बीबी को, हमारा झगड़ा करवाएंगी क्या। और दोनों मित्र खुल कर  हंस लिए। 
मैंने कहा उनकी पत्नी से , जागो नारी शक्ति और हम भी हँस  ही लिए !
 भाई साहब बड़े गर्व से बता रहे थे अभी ये नई गाडी खरीदी तो पुरानी पत्नी को दे दी। मैं समझती हूँ कि उनकी पत्नी की तन्खवाह उनसे कही अधिक ही रही होगी। 
पूरे समय मैं देखती रही , पानी लाने से लेकर जरुरी कागज़ , चश्मा , चाय पकड़ाते उनकी पत्नी ही चकरघिन्नी बनी रही। वर्षों से जानती हूँ इस परिवार को।  दोनों के बीच अच्छा सामंजस्य रहा है , कही कोई मनमुटाव या तानाकशी नजर नहीं आई।  यूँ तो भारतीय परिवारों में आम रहा है यह सब , मगर आजकल थोडा अखरता है।
   
एक और रिश्तेदार के घर जाना हुआ। संयुक्त परिवार था , सास -ससुर , बेटा बहू , पोता।  दो बेटे ही हैं उनके , इस परिवार में भी चाय पानी नाश्ता लिए श्रीमती जी ही चकरघन्नी बनी रही। अक्सर रश्क करते हुए कहती हैं , आपका अच्छा है , चाय -नाश्ता बेटियां सम्भाल लेती हैं. हैरानी अधिक इसलिए होती है कि  ये वह  महिला है जिन्होंने अपने घर में पिता और भाइयों को हमेशा माँ का हाथ बंटाते देखा है। 

एक और परिवार है , दो बेटे हैं उनके भी।  वे स्वयं  एकलौती पुत्री रही है , मगर मानसिकता वही , बेटियां सब कर लेती हैं , हमें तो स्वयं ही  करना पड़ता है।
 
एक और रिश्तेदार हैं।  दो पुत्रियों और एक पुत्र की माँ  अपने परिवार की एकलौती पुत्री रही हैं और उनकी संपत्ति की   इकलौती वारिस भी मगर जब अपना पुश्तैनी कार्य सम्भालने की बारी आई तो बड़ी बेटी के कार्य सँभालने की सम्भावना को सिरे  से  नकार दिया , यह कहते हुए कि व्यावहारिकता  का तकाजा यही है कि बेटा ही सम्भाले। 

एक और परिचित दो पुत्रियों और एक पुत्र की माता हैं।  उनका भरा -पूरा परिवार रहा छह बहनों और एक भाई का।  घर के काम में पति के हाथ न बंटाने  की शिकायत करती ये माताजी भी यही मानती है कि बेटियों को ही घर का काम सीखना है , बेटों का क्या है !!
 
ये सारे उदाहरण अच्छे- खासे पढ़े- लिखे परिवारों के हैं। माताएं भी पढ़ी- लिखी है , कोई सरकारी सेवा में हैं तो किसी का अपना व्यवसाय है। ये स्त्रियां पुत्र एवं पुत्रियों को रोजगार के लिए समान शिक्षा की वकालत तो करती हैं मगर घर के भीतर उनका अपना  दृष्टिकोण भिन्न है। 
  
कभी -कभी मुझे  लगने  लगता है कि पढ़ने- लिखने से आखिर होता क्या है !! अपने बच्चों को वकील , डॉक्टर , इंजीनियर , वैज्ञानिक , सीए आदि बना ले तो क्या , अपनी सोच का क्या करे। 
 
स्वयं पर भी संशय होने लगता है कि कही मैं भी पुत्रियों की माता होने के कारण ही तो निष्पक्षता की मंशा/भावना  नहीं रखती हूँ ! मानसिक स्थिति का उचित प्रकटन तो उन परिवारों में ही सम्भव है जो पुत्र और  पुत्री दोनों के माता -पिता है और उनके व्यवहार में अपनी संतान के लिए कोई भेद न हो , ना घर में , ना बाहर। 

क्या सच में पुत्र और पुत्री के जीवन को दिशा /शिक्षा देने के सम्बन्ध  में एक ही दृष्टिकोण सम्भव नहीं है !!!